हमें प्रदूषण की समस्या का कारण, नुकसान और उपाय सब पता हैं. लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते हम ज़हरीली सांस लेने को मजबूर हैं.
नई दिल्ली: ठंड की शुरुआत के साथ राजधानी दिल्ली के आसमान में पिछले कुछ दिनों से धुंध छा गई है. सड़क पर चल रहे तमाम चेहरों पर अचानक मास्क नज़र आने लगे हैं. लोग एक-दूसरे से बात कर रहे हैं कि प्रदूषण बहुत बढ़ गया है. लेकिन यह कोई नई बात नहीं है. ऐसा पिछले साल भी हुआ था और उसके पिछले साल भी…
मीडिया और सरकारों के लिए प्रदूषण की समस्या एक सालाना त्योहार जैसी हो गई है जो हर अक्टूबर में मनाया जाता है. चैनल खबरें चलाने लगते हैं कि हवा जहरीली हो गई है. पर्यावरणविदों की टिप्पणियां आने लगती हैं, आंकड़े जारी होते हैं. कुछ पर्यावरण से जुड़े संगठन और मंत्री चिंता जाहिर कर देते हैं. ज्यादातर लोग यह कहते पाए जाते हैं कि पंजाब-हरियाणा के किसान धान की पराली जला रहे हैं इसलिए प्रदूषण हो रहा है. लेकिन क्या प्रदूषण का यही कारण है?
क्या पराली जलाने से होता है प्रदूषण?
इसका जवाब हां भी है और नहीं भी. कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि पराली जलाने से प्रदूषण होता है लेकिन यह महज आठ प्रतिशत है. बाकी 92 प्रतिशत प्रदूषण कहां से हो रहा है, इस पर बात करने से हर कोई बच रहा है.
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 26 अक्टूबर को आयोजित कृषि कुंभ के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैज्ञानिकों से पराली जलाने की समस्या का ठोस समाधान तलाशने की अपील की. उन्होंने किसानों को भी ऐसी विधि अपनाने को कहा, जिससे कृषि अवशेष का उपयोग करने से अधिक आय अर्जित की जाए.
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मोदी ने कहा कि सरकार ने कृषि उपकरणों पर 50-80 फीसदी अनुदान दिया है, लेकिन वैज्ञानिकों द्वारा ठोस समाधान तलाशने की जरूरत है. मोदी ने कहा कि सरकार ने डीजल और परंपरागत बिजली से चालित पंपों की जगह सौर ऊर्जा चालित पंप लाने की योजना बनाई है.
हालांकि, प्रधानमंत्री ने भविष्य की योजना बताई है, लेकिन पराली जलाने से हो रहे प्रदूषण को रोक लिया गया तो यह निश्चित ही 8 प्रतिशत कम हो जाएगा, लेकिन बाकी 92 प्रतिशत का क्या होगा? क्या उस पर भी उतनी ही गंभीरता की जरूरत नहीं है?
क्या मशीनें समाधान हैं?
पराली जलाने की जगह उसे मशीनों से निपटान की बात कही जा रही है. पंजाब सरकार का लक्ष्य 27,972 मशीनें सप्लाई करना है. इन मशीनों में हैप्पी सीडर, पैडी स्ट्रा चॉपर, कटर, मल्चर, श्रब कटर, जीरो टिल ड्रिल जैसी मशीनें शामिल हैं. इसके अलावा कंबाइन हार्वेस्टर मशीन के लिए यह जरूरी है कि उसमें स्ट्रा मैनेजमेंट उपकरण भी हो, जो बायोमास को काटकर खेत में फैला दे.
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, ‘कृषि के संकट के लिए ज्यादातर खेती की मंहगी मशीनों का अनावश्यक बोझ जिम्मेदार है पर दोनों प्रमुख कृषि प्रदेश पंजाब व हरियाणा किसानों को और मशीनें बेचने में लगे हैं. धान की कटाई का वक्त निकट आने के साथ दिल्ली में दम घोंटने वाले वायु प्रदूषण की आशंका से दोनों सरकारें पराली जलाने के समाधान के नाम पर मशीनें बेचने में लगी हैं.
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ग्रीनपीस इंडिया के सुनील दहिया कहते हैं, दिल्ली में प्रदूषण का स्तर पूरे वर्ष वैसा ही रहता है, बरसात को छोड़कर. बस अक्टूबर में खास बात यह होती है पराली भी जलाई जाती है. हवा स्थिर होती है. ठंड के कारण प्रदूषण के कण हवा में दिखने लगते हैं. ये चीजें प्रदूषण को और ज्यादा दिखने लगती हैं. लेकिन इसके पीछे सिर्फ किसानों का पराली जलाना नहीं है. सच ये है कि किसानों की आड़ में बड़े उद्योगों के प्रदूषण को छिपाया गया है.
वहीं शर्मा कहते हैं, ‘पराली की समस्या दो चार हफ्ते चलती है. बाकी साल का क्या? अध्ययन बताता है कि दिल्ली के प्रदूषण में 8 प्रतिशत पराली जलाने की वजह से है. बाकी 92 प्रतिशत पर तो कोई बात ही नहीं करता. मतलब किसान सबसे आसान निशाना है. जिसका जो मन करता है कह देता है. मीडिया को भी इसी में मजा आता है.’
पराली जलाना कैसे रुके
पराली जलाने से पंजाब-हरियाणा में भी प्रदूषण होता है. प्रदूषण का सबसे पहला नुकसान किसान को ही होता है. किसान यह भी समझ रहा है कि प्रदूषण उसके लिए नुकसानदायक है. लेकिन उसकी मजबूरी है कि पराली का करे क्या?
देविंदर शर्मा कहते हैं, ‘किसान की मजबूरी देश को समझनी चाहिए. वह देश के लिए अनाज पैदा करता है तो उसकी मुसीबत या मजबूरी में देश उसके साथ क्यों नहीं खड़ा होता? सरकार अगर किसानों को फसल के दाम में कुछ पैसे बढ़ाकर दे दे तो किसान पराली का मैनेजमेंट बेहतर कर लेंगे. ऐसा क्यों नहीं हो सकता?’
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वे कहते हैं कि ‘हाल ही में सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों का डीए एक प्रतिशत बढ़ाया. इसमें साढ़े तीन हजार करोड़ का खर्चा आया था. अगर किसानों को पराली के मैनेजमेंट के लिए पैसे देने हों तो तीन हजार करोड़ खर्चा आएगा. क्या सरकारी कर्मचारियों का एक प्रतिशत बढ़ना जरूरी था? क्या ये किसानों को नहीं दिया जा सकता था? आखिर कर्मचारियों को भी किसानों के साथ खड़ा होना चाहिए. हम सभी थोड़ा-थोड़ा योगदान क्यों नहीं देते?’
एक अनुमान के मुताबिक, प्रति एकड़ पराली को सड़ाने के लिए पांच से छह हजार रुपये खर्च आता है. किसान कह रहे हैं कि अगर सरकार हमें ये खर्च दे दे तो हम इससे निपट लेंगे. देविंदर शर्मा कहते हैं कि सरकार इन उपायों की जगह मशीनों पर मशीनें बेचने में लगी हुई है. गलत समाधान का सही नतीजा कभी नहीं आ सकता.
क्या हैं प्रदूषण के नुकसान
हम हर दिन प्रदूषित हवा में सांस लेते हैं, हमारे देश की अर्थव्यवस्था का नुकसान हो रहा है, हमारे देश का स्वास्थ्य खराब हो रहा है, नई पीढ़ी की मानसिक क्षमता और सोचने की शक्ति का ह्रास हो रहा है. इसलिए प्रदूषण रोकने के लिए गंभीर प्रयास जरूरी हैं. प्रदूषण की वजह से कैंसर से लेकर सांस संबंधी अनेक बीमारियां हो रही हैं.
प्रदूषण की वजह से सूक्ष्म वायु प्रदूषण कण युवाओं और स्वस्थ लोगों की नसों और नब्ज की अंदरूनी परत को नुकसान पहुंचाकर उनमें स्ट्रोक के जोखिम को बढ़ा सकते हैं. गुरुग्राम के फोर्टिस मेमोरियल अनुसंधान संस्थान के न्यूरोलॉजी निदेशक प्रवीण गुप्ता ने हाल ही में कहा कि पिछले कई वर्षों में युवा मरीजों की संख्या बढ़ी है.
गुप्ता ने कहा, हर महीने कम से कम से तीन युवा मरीज हमारे पास आ रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों की तुलना में स्ट्रोक के युवा मरीजों की संख्या करीब दोगुनी हो गई है. अध्ययन में बताया गया कि इसका सबसे बड़ा कारण वायु प्रदूषण है और धूम्रपान अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों ही मामलों में स्ट्रोक के मामलों को बढ़ा रहा है.’
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विशेषज्ञों के मुताबिक, दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु गुणवत्ता पहले से ही जहरीली है और इस तरह का उच्च प्रदूषण स्तर स्ट्रोक की दर को बढ़ा रहा है.
एम्स के न्यूरोलॉजी विभाग के प्रोफेसर विनय गोयल का कहना है कि ‘वायु में पीएम 2.5 का उच्च स्तर कार्डियोवैस्कुलर मृत्यु दर जोखिम को बढ़ाता है.
दिल्ली और आस-पास के इलाकों में इस वक्त हवा की गुणवत्ता बेहद बिगड़ी हुई है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रक बोर्ड (सीपीसीबी) के निगरानी केंद्र के मुताबिक, खराब हवा स्वस्थ लोगों को तो प्रभावित करेगी ही साथ साथ बीमारी से पीड़ित लोगों पर ज्यादा प्रभाव डालेगी. हवा की खराब गुणवत्ता लंबे समय तक संपर्क में रहने पर स्वस्थ लोगों को प्रभावित करती है.
93 फीसदी बच्चे को मिलती है प्रदूषित हवा
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की वायु प्रदूषण और बच्चों के स्वास्थ्य पर जारी एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में 18 साल से कम उम्र के 93 फीसदी बच्चे प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर हैं.
इस रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2016 में, वायु प्रदूषण से होने वाले श्वसन संबंधी बीमारियों की वजह से दुनियाभर में पांच साल से कम उम्र के 5.4 लाख बच्चों की मौत हुई थी. रिपोर्ट के मुताबिक, पांच साल से कम उम्र के 10 बच्चों की मौत में से एक बच्चे की मौत प्रदूषित हवा की वजह से हो रही है.
इस रिपोर्ट पर ग्रीनपीस इंडिया ने कहा कि डब्लूएचओ के डाटा ने एकबार फिर से साबित किया है कि गरीब और मध्यम आय वर्ग के लोग देश में बाहरी और घरेलू दोनों तरह के वायु प्रदूषण से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. यह चिंताजनक है कि भारत जैसे देश में लगभग पूरी जनसंख्या डब्लूएचओ और राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानकों से अधिक प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर हैं.
क्या प्रदूषण का समाधान नहीं है?
प्रदूषण से हम पर, हमारे बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है यह हम जानते हैं. हमें इसके समाधान भी पता हैं. तमाम विशेषज्ञों और आईआईटी जैसे संस्थानों ने समाधान भी सुझाए हैं. दुनिया में बीजिंग, लंदन, कैलिफोर्निया आदि के उदाहरण हैं जिनकी स्थिति हमसे भी खराब थी लेकिन वहां पर सुधार हुआ है.
ग्रीनपीस के सुनील दहिया कहते हैं कि प्रदूषण रोकने के लिए विशेषज्ञों की ओर से पांच मुख्य कारण और समाधान सुझाए जा रहे हैं. पॉवर प्लांट, परिवहन, औद्योगिक इकाइयां, कचरा और अंधाधुंध निर्माण से प्रदूषण होता है.
उन्होंने कहा कि हम कोयले से बिजली पैदा करते हैं और भारत में इससे सबसे ज्यादा प्रदूषण होता है. दूसरे देशों के मुकाबले भारत में पॉवर प्लांट से सबसे ज्यादा प्रदूषण होता है. हम उर्जा के प्राकृतिक और गैरप्रदूषणकारी उपायों की ओर बढ़ रहे हैं लेकिन स्थिति अब भी खराब है. अगर ये कम कर दिया जाए तो प्रदूषण नियंत्रित होगा.
भारत में परिवहन बहुत खराब तरीके से संचालित होता है. सरकार की रिपोर्ट जो कहती है उसी का पालन नहीं होता है. लोगों के परिवहन के लिए सार्वजनिक साधनों को बढ़ावा देना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है.
इसके अलावा शहरों में औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण होना चाहिए. उनसे होने वाले प्रदूषण को कम करने के उपाय किए जाने चाहिए. प्रदूषण रोकने के लिए निगरानी टीमें भी होनी चाहिए.
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हमें कचरा के निपटान का भी सही उपाय करना होगा. उनको इकट्टा किया जाता है और फिर जला दिया जाता है. यह कोई समाधान नहीं है. इससे हम और प्रदूषण फैलाते हैं. कचरे के सही निपटान की व्यवस्था करनी होगी.
शहरों में निर्माण के काम अंधाधुंध चल रहे हैं. इसमें नियमों का पालन नहीं होता. इस पर भी लगाम लगाने की जरूरत है.
पराली जलाने और पटाखा पर प्रतिबंध के साथ यह भी जरूरी है कि बड़े उद्योगों की जवाबदेही तय हो कि वे प्रदूषण न फैलाएं. वातावरण में प्रदूषण अपने आप नहीं आता. उसे हम उत्सर्जित करते हैं. इसलिए हमें अपने गतिविधियां बदलनी होंगी.
देविंदर शर्मा ने कहा, सरकार प्रदूषण का दोष किसानों पर मढ़कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना चाहती है. सुनील दहिया भी इसी बात को दोहराते हैं.
वे कहते हैं, ‘प्रदूषण को रोक पाने में नाकामी के पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है. सरकारें सही उपाय करने की इच्छुक नहीं हैं. न वह प्रदूषण दूर करने का कोई कार्यक्रम बना रही है, न ही कोई लक्ष्य तय कर रही है. हमारे सिस्टम के अंदर कोई जवाबदेही नहीं है. मीडिया जब मसला उठाता है तो नेता भी कमेंट दे देते हैं. यह एक महीना बात करने से नहीं चलेगा. ठोस उपाय करना होगा.’