खैरथल (राजस्थान): खैरथल-तिजारा के जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय में फोन बज रहे हैं, कागज़ात इधर-उधर फैले हुए हैं और ग्रामीण अपनी फाइलों के साथ कतार में खड़े हैं, लेकिन अधिकारियों और एयर कंडीशनिंग की गड़गड़ाहट के बजाय, हवा में गेहूं की महक है. बुधवार की सुबह, जब डीएम ने सुबह 10 बजे के आसपास निकलने की कोशिश की, तो उनकी कार को अनाज की बोरियों से लदे एक नीले रंग के ट्रैक्टर ने कई मिनट तक रोके रखा.
यह तथाकथित जिला मुख्यालय राजस्थान की सबसे बड़ी अनाज मंडियों में से एक के ठीक बीच में स्थित है. मूल रूप से कृषि अधिकारियों के लिए बनाई गई इस इमारत को शासन का केंद्र माना जाता है, लेकिन यह एक सजे-धजे खलिहान की तरह लगता है और खैरथल-तिजारा इस तरह की समस्याओं का सामना करने वाला अकेला जिला नहीं है.
राजस्थान की पूर्व अशोक गहलोत सरकार ने 17 नए जिले बनाए थे, जिसमें लोगों के करीब बेहतर शासन का वादा किया गया था, लेकिन आज, ये जिले, जिनके निर्माण में हज़ारों करोड़ रुपये खर्च हुए, नक्शे पर महज़ नाम से ज़्यादा कुछ नहीं हैं. वो अभी भी अस्थायी कार्यालयों — अनाज मंडियों, हॉस्टल्स, पुराने पुलिस स्टेशनों, यहां तक कि स्कूलों से बाहर चल रहे हैं. कर्मचारियों की कमी, बुनियादी ढांचे की कमी और ‘मूल’ जिलों पर निर्भरता के कारण महत्वपूर्ण सेवाएं ठप हैं. कई मामलों में, सार्वजनिक भवनों के लिए ज़मीन तक आवंटित नहीं की गई है.
जिसे विकेंद्रीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम माना जाता था, वो रसद संबंधी गड़बड़ी और राजनीतिक विवाद में बदल गया है. इन ‘नए’ जिलों के ग्रामीण अभी भी ज़मीनों के रिकॉर्ड, ड्राइविंग लाइसेंस जैसी बुनियादी चीज़ों के लिए अपने मूल जिलों में वापस जाते हैं. राजनेता सवाल उठा रहे हैं, लेकिन ज़िंदगी वहीं अटकी रहती है — जैसे डीएम ट्रैक्टर के चलने का इंतज़ार कर रहे हैं.
जब पिछले साल के आखिर में भाजपा सत्ता में आई, तो उसने नए जिलों की समीक्षा के लिए जल्दी से पांच सदस्यीय कैबिनेट उप-समिति नियुक्त की. इस प्रक्रिया में मदद के लिए रिटायर्ड आईएएस अधिकारी ललित के पंवार की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समिति भी नियुक्त की गई.
पंवार समिति ने 30 अगस्त को अपनी रिपोर्ट पेश की, लेकिन हफ्तों बाद भी कोई कार्रवाई नहीं की गई. बजाय इसके यह मुद्दा भाजपा और कांग्रेस के बीच राजनीतिक रस्साकशी बन गया, जिसमें इस बात पर बहस चल रही है कि जिलों का निर्माण कितनी जल्दी किया गया और क्या वो ज़रूरी भी हैं.
अगर हमें अभी भी हर चीज़ के लिए अलवर जाना पड़ता है, तो उन्होंने यह जिला क्यों बनाया? यह हमारे लिए सिरदर्द बन गया है
— तिजारा निवासी अश्विनी कुमार
अलवर से अलग होकर बने खैरथल-तिजारा में स्थिति बहुत खराब है. डीएम और एसपी कार्यालयों में अधिकांश कर्मचारी अलवर से प्रतिनियुक्ति पर हैं.
खैरथल के पुलिस अधीक्षक (एसपी) मनीष कुमार ने कहा, “अक्षम और अप्रशिक्षित कर्मचारियों को हमारे पास भेजा गया. उनके साथ काम करना हमारी सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है. हम कांस्टेबल और हेड कांस्टेबल जैसे पदों के लिए ज़रूरी मैनपावर के 40-60 प्रतिशत पर काम कर रहे हैं.”
उन्होंने याद किया कि प्रशिक्षित कर्मचारियों और संसाधनों की कमी के कारण लोकसभा चुनाव बड़ी चुनौती की तरह थे.
कुमार ने दोनों की कमी की ओर इशारा करते हुए कहा, “गाड़ी और आदमी से ही पुलिस चलती है.”
इस नए जिले में, वे एक किराए के, ढहते निजी भवन में अस्थायी मुख्यालय बना रहे हैं, जिसकी दीवारों पर मकड़ी के जाले लगे हुए हैं.
हालांकि, पंवार समिति की सिफारिशें गोपनीय हैं, लेकिन आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, इसमें चार से पांच जिलों को उनकी मूल स्थिति में वापस लाने का सुझाव दिया गया है. हालांकि, भजन लाल शर्मा सरकार ने फैसले लेने में देरी की है. जनगणना लंबित होने तक प्रशासनिक सीमाएं सील कर दी गई हैं.
पंवार ने दिप्रिंट को बताया, “मैंने कैबिनेट को बताया है कि जनगणना आयुक्त की मंजूरी के बिना कोई भी फैसला नहीं लिया जा सकता है. यह एक कानूनी पहलू है.”
पंवार द्वारा अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद, कैबिनेट उप-समिति ने दो बैठकें कीं — पहली 2 सितंबर को और दूसरी 18 सितंबर को. हालांकि, नए जिलों के भविष्य के बारे में अभी तक कोई फैसला नहीं लिया गया है.
चार सितंबर को लिखे गए एक पत्र में जिसकी एक प्रति दिप्रिंट के पास मौजूद है, मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने गृह मंत्री अमित शाह से 31 दिसंबर तक इन प्रतिबंधों को हटाने का अनुरोध किया, ताकि राजस्थान को जिले की सीमाओं को समायोजित करने की अनुमति मिल सके.
नाम न छापने की शर्त पर कैबिनेट उप-समिति के एक सदस्य ने कहा, “नए जिले बुनियादी सुविधाओं के साथ काम कर रहे हैं, लेकिन उनके भविष्य या नए मुख्यालय और सार्वजनिक भवनों की स्थापना पर कोई फैसला नहीं लिया गया है.”
उन्होंने कहा, “एक बार यह तय हो जाए कि कितने जिले बचे रहेंगे, तो बुनियादी ढांचे के लिए बजट आवंटित किया जाएगा.”
सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी ललित पंवार के अनुसार, राजस्थान की भव्य जिला-निर्माण परियोजना की कुल लागत लगभग 20,000 करोड़ रुपये हो गई है.
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‘आधे-अधूरे जिले’
पिछले हफ्ते बरसात के दिन, दुकानदार अश्विनी कुमार तिजारा से खैरथल तक 27 किलोमीटर ट्रेवल करके क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय (RTO) में अपने कागज़ी काम निपटाने की उम्मीद में आए थे. वे पहली बार नए जिला मुख्यालय में आए थे, लेकिन किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया.
जब वे डीएम ऑफिस पहुंचे, तो एक अधिकारी ने उन्हें वापस अलवर में RTO जाने को कहा, क्योंकि काम अभी भी वहीं हो रहा था.
कुमार ने हाथ में काली छतरी लिए गुस्से में कहा, “अगर हमें अभी भी हर काम के लिए अलवर जाना पड़ता है, तो उन्होंने यह जिला क्यों बनाया? यह हमारे लिए सिरदर्द बन गया है.”
52 सरकारी विभागों में से, खैरथल में केवल 17 ही सक्रिय हैं और वह भी मुश्किल से काम कर रहे हैं. परिवहन, आबकारी, खनन, श्रम और जिला न्यायालय अभी भी अलवर से संचालित होते हैं. कुछ मौजूदा विभागों में कर्मचारियों, कंप्यूटर, फर्नीचर, यहां तक कि प्रिंटर की भी कमी है. यहां तक कि पिछले एक साल में जिला परिषद का गठन भी नहीं हुआ है.
अधिकारियों के लिए भी यह आसान नहीं है. तीन विभाग — जनसंपर्क, सांख्यिकी और शिक्षा — डीएम कार्यालय की दूसरी मंजिल के एक छोटे से कमरे में ठूंस दिए गए हैं. पिछले अगस्त में जनसंपर्क अधिकारी (पीआरओ) के रूप में शामिल हुए अतर सिंह जयपुर में अपने खुद के कार्यालय से एक छोटी सी जगह में सिमट कर रह गए हैं, जहां उन्हें सिर्फ एक कुर्सी और एक टेबल आवंटित की गई है.
जगह बनाने के लिए अपना बैग टेबल से हटाते हुए सिंह ने कहा, “हमें यहां सब कुछ नए सिरे से शुरू करना पड़ा है. इसे फॉलो करने का कोई उदाहरण नहीं है. हर कदम भविष्य के लिए एक नया उदाहरण बन रहा है.”
2023 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले घोषित 17 नए जिलों के निर्माण से राजस्थान में — अनूपगढ़, बालोतरा, ब्यावर, डीग, डीडवाना-कुचामन, दूदू, गंगापुर सिटी, केकड़ी, कोटपुतली-बहरोड़, खैरथल-तिजारा, नीम का थाना, फलौदी, सलूंबर, संचौर और शाहपुरा की संख्या 50 हो गई. जयपुर को भी उत्तर और दक्षिण जिलों में विभाजित किया गया, जबकि जोधपुर को पूर्व और पश्चिम में विभाजित किया गया. अंत में तीन नए संभाग भी बनाए गए — बांसवाड़ा, पाली और सीकर. इन परिवर्तनों ने लगभग 3 करोड़ लोगों को प्रभावित किया.
यह संभव है कि जिले बनाने के सभी दावे सही हों — लेकिन उन्हें एक साथ बनाना? क्या उन्हें चरणबद्ध तरीके से नहीं बनाया जा सकता था? हमने इन सवालों पर काम किया और रिपोर्ट में उनका उल्लेख किया
— ललित पंवार, सेवानिवृत्त IAS अधिकारी
इसका लक्ष्य शासन में सुधार, सेवाओं को बढ़ाना और लोगों की मांग को पूरा करना था, लेकिन वास्तविकता इससे बहुत अलग है.
एसपी मनीष कुमार ने कहा, “सभी नए जिले आधे-अधूरे हैं. उन्हें पूर्ण जिले नहीं कहा जा सकता.”
जिला प्रशासन के लिए ज़रूरी कलेक्टर और एसपी कार्यालय बहुत कम कर्मचारियों के साथ शुरू किए गए थे, लेकिन यह दावा करने के लिए पर्याप्त है कि वो कम से कम मौजूद हैं.
उन्होंने कहा, “अभी तक दीर्घकालिक ज़रूरतों पर कोई काम नहीं किया गया है, जो एक जिले के निर्माण के लिए ज़रूरी है. ऐसा नहीं है कि कोई घंटी बजा दे और रातों-रात चीज़ें बदल जाएं.”
खैरथल में जिला कोर्ट नहीं होने के कारण, पुलिस को केस के दस्तावेज दाखिल करने के लिए 50 किलोमीटर दूर अलवर जाना पड़ता है. राजस्व रिकॉर्ड भी अव्यवस्थित हैं. कई मामलों में दस्तावेज़ नए जिलों में पूरी तरह से स्थानांतरित नहीं किए गए हैं. खैरथल के एडीएम सुरेंद्र सिंह यादव ने दो महीने पहले एक ज़मीन के मामले की सुनवाई को याद किया, जहां उन्हें अलवर से फाइलें मांगनी पड़ी थीं.
यादव ने कहा, “ऐसी स्थितियों में सुनवाई में देरी होती है.” इस महीने की शुरुआत में राजस्थान भाजपा अध्यक्ष मदन राठौर ने छह या सात नए जिलों को खत्म करने की योजना की घोषणा करके हलचल मचा दी थी, उन्होंने आरोप लगाया था कि ये कांग्रेस विधायकों को “तुष्ट” करने के लिए बनाए गए थे.
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महंगी अव्यवस्था
नए जिलों की समीक्षा समिति की अध्यक्षता करने वाले सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी ललित पंवार ने कहा, नया जिला बनाना एक महंगा काम है. औसतन, एक जिला बनाने में 500-1,500 करोड़ रुपये का खर्च आता है. 17 जिलों और तीन संभागों में इसे गुणा करें तो राजस्थान की इस भव्य परियोजना की कुल लागत लगभग 20,000 करोड़ रुपये हो जाती है.
अब सवाल यह है कि क्या यह इसके लायक था?
पंवार ने कहा, “यह संभव है कि जिले बनाने के सभी दावे सही हों — लेकिन उन्हें एक साथ बनाना? क्या उन्हें चरणबद्ध तरीके से नहीं बनाया जा सकता था? हमने इन सवालों पर काम किया और रिपोर्ट में उनका उल्लेख किया.”
चार प्रमुख मापदंडों — अधिकार क्षेत्र, व्यवहार्यता, प्रशासनिक सुविधा और बुनियादी ढांचे की व्यवहार्यता — पर जिलों की समीक्षा करने का काम सौंपे जाने पर पंवार ने सांस्कृतिक पहचान और जनसंख्या सहित छह और मानदंड जोड़े.
उन्होंने 17 नए जिलों में से 14 का दौरा किया, बुनियादी ढांचे की कमी के कारण नीम का थाना, सलूंबर और डीग को छोड़ दिया. अनूपगढ़ में वे बीएसएफ अधिकारी के मेस में रुके; शाहपुरा में, एक हेरिटेज होटल में.
पंवार ने कहा, “लोगों की भावनाएं इस मुद्दे से बहुत जुड़ी हुई हैं. मेरा दृष्टिकोण जिलों के संबंध में राष्ट्रीय बेंचमार्क को समझना था.”
औसतन, भारत में एक जिला 4,242 वर्ग किलोमीटर में फैला होता है, जिसकी आबादी 27 लाख होती है, जिसमें लगभग सात तहसील, नौ ब्लॉक और 800 गांव शामिल होते हैं, लेकिन राजस्थान में औसत जिला आकार में दोगुना से अधिक है — लगभग 10,000 वर्ग किलोमीटर.
यहां लंबे समय से नए जिलों की मांग की जा रही है, जिसकी वास्तव में ज़रूरत है, लेकिन वोट बैंक की राजनीति के कारण बिना किसी तैयारी के इन जिलों को जल्दबाजी में बनाया गया
— सतीश अग्रवाल, उदयपुर स्थित राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर
पंवार ने कहा, जनसंख्या घनत्व भी बहुत अलग-अलग है. जैसलमेर और बाड़मेर जैसे रेगिस्तानी जिलों में जनसंख्या घनत्व 10 से 45 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, जबकि धौलपुर और भरतपुर में यह 273 तक है.
हालांकि, शासन की पहुंच में सुधार के लिए गहलोत सरकार के महत्वाकांक्षी कदम ने बड़े पैमाने पर प्रशासनिक अराजकता को जन्म दिया है.
उदाहरण के लिए जालोर से अलग किए गए सांचोर में डीएम ऑफिस एक पुराने पीडब्ल्यूडी भवन से चलता है, जबकि एसपी ऑफिस पुराने पुलिस स्टेशन से काम करता है. निवासियों को खनन, जिला परिषद और आबकारी मामलों के लिए जालोर जाना पड़ता है.
स्वास्थ्य सेवा भी उतनी ही खराब है. सांचौर के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी (सीएमएचओ) बीएल बिश्नोई स्थानीय धर्मशाला के एक कमरे में रहकर काम करते हैं. यहां स्वीकृत 39 चिकित्सा पदों में से पिछले एक साल में केवल तीन ही भरे गए हैं.
बिश्नोई ने कहा, “भौगोलिक दृष्टि से यह जिला बहुत बड़ा है और जालोर से इसकी दूरी 200 किलोमीटर तक है, लेकिन हम अभी भी अधिकांश चिकित्सा सुविधाओं के लिए जालोर पर निर्भर हैं.”
भजनलाल शर्मा के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के पिछले साल सत्ता में आने के बाद से नौकरशाही में लगातार फेरबदल ने अस्थिरता को और बढ़ा दिया है. भीलवाड़ा से अलग किए गए शाहपुरा में एक साल में ही तीन बार एसपी और कलेक्टर बदल चुके हैं.
शाहपुरा के एक पूर्व डीएम ने कहा, “नए जिले में स्थिरता लाने के लिए अधिकारियों को लंबे समय तक रखना बेहतर है. लगातार तबादलों के कारण नए जिले में विकास की गति धीमी हो जाती है.”
यह सिर्फ कर्मियों की समस्या नहीं है. प्रमुख वित्तीय संसाधन भी बंधे हुए हैं. शाहपुरा के पूर्व डीएम ने बताया कि नए जिलों के पास अभी भी जिला खनिज निधि (डीएमएफटी) पर नियंत्रण नहीं है, जो एक महत्वपूर्ण राजस्व स्रोत है. मूल जिले उन फंड्स को इकट्ठा कर रहे हैं, जिससे उनके उप-जिलों के पास नकदी की कमी हो जाती है.
सलूंबर जिले के निर्माण ने आसपुर, सांवला और कनोर जैसे पड़ोसी गांवों में उत्साह जगाया है, जो सरकारी सेवाओं तक बेहतर पहुंच के लिए इसमें शामिल होने की पैरवी कर रहे हैं.
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‘तुष्टिकरण’ बनाम प्रशासन
राजस्थान में जिला निर्माण केवल प्रशासनिक मामला नहीं है — यह राजनीतिक भी है.
इस महीने की शुरुआत में राजस्थान भाजपा के नवनियुक्त अध्यक्ष मदन राठौर ने छह या सात नए जिलों को खत्म करने की योजना की घोषणा करके हलचल मचा दी थी, उनका आरोप था कि ये कांग्रेस विधायकों को “तुष्ट” करने के लिए बनाए गए थे.
इस पर तुरंत प्रतिक्रिया हुई — कथित तौर पर उनकी पार्टी के भीतर भी — और राठौर ने जल्द ही अपना दावा वापस ले लिया, लेकिन भाजपा सरकार इन नए जिलों के भविष्य पर चुप है.
पिछले एक दशक में तीन उच्च-स्तरीय समितियों ने जिला निर्माण पर विचार किया है. 2014 में वसुंधरा राजे के कार्यकाल के दौरान, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी परमेश चंद्र की अध्यक्षता वाली एक समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने में चार साल लगा दिए, जिसे बाद में गहलोत सरकार ने खारिज कर दिया. 2022 में, गहलोत प्रशासन ने आईएएस अधिकारी राम लुभाया की अध्यक्षता में एक और समिति बनाई, जिसके कारण मार्च 2023 में 17 नए जिलों और तीन संभागों की घोषणा की गई और आखिरकार जून 2024 में पंवार समिति का गठन किया गया.
इस बीच, गहलोत ने एक्स पर एक पोस्ट में इस कदम का बचाव किया, जिसमें राजस्थान के आकार को भारत के सबसे बड़े राज्य के रूप में इंगित किया और इसकी तुलना मध्य प्रदेश जैसे छोटे राज्यों से की, जिसमें 55 जिले हैं. उन्होंने जोर देकर कहा कि नए जिले “प्रशासनिक क्षमता और सेवा वितरण में सुधार करेंगे”.
पहले उदयपुर में कलेक्ट्रेट जाने का मतलब पूरा दिन बर्बाद करना होता था, लेकिन अब लोगों की पहुंच काफी आसान है
— जसमीत सिंह संधू, सलूंबर के डीएम
लेकिन जिले बनाने की यह लहर राजनीतिक दबाव से भी जुड़ी थी.
कई मंत्रियों और विधायकों ने अपने क्षेत्रों में नए जिलों के लिए कड़ी पैरवी की. 2022 में तत्कालीन विधायक मदन प्रजापत ने नंगे पैर चलकर बालोतरा को बाड़मेर से अलग करने की मांग की. पूर्व मंत्री राजेंद्र यादव ने कोटपूतली को जिला घोषित न किए जाने पर इस्तीफा देने की धमकी दी. इसी तरह, सुरेश मोदी ने नीम का थाना, राजेंद्र गुढ़ा ने उदयपुरवाटी, आलोक बेनीवाल ने शाहपुरा और बाबूलाल नागर ने दूदू के लिए जोर दिया था.
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि गहलोत का फैसला काफी हद तक इन विधायकों और मंत्रियों को शांत करने की ज़रूरत से प्रेरित था.
उदयपुर के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर सतीश अग्रवाल ने कहा, “यहां लंबे समय से नए जिलों की मांग की जा रही है, जिसकी सच में ज़रूरत है, लेकिन वोट बैंक की राजनीति के कारण बिना किसी तैयारी के जल्दबाजी में ये जिले बनाए गए.”
अग्रवाल ने कहा कि नए जिले बनाना ज़रूरी नहीं है, लेकिन स्थानीय नेता अक्सर अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इन पर जोर देते हैं.
उन्होंने कहा, “कुछ जिले ऐसे हैं, जिन पर खासतौर पर सवालिया निशान है. दूदू उनमें से एक है.”
जयपुर से अलग होकर बने इस जिले पर अक्सर अपने छोटे आकार के कारण सवाल उठते रहे हैं.
पंवार ने कहा, “केवल तीन तहसीलों वाला जिला किसी भी पैरामीटर पर खरा नहीं उतरता. अगर इसे जिला बनना है तो इसे व्यवहार्य बनाना होगा.”
जयपुर के एडीएम सुरेश कुमार नवल ने कहा कि अभी तक दूदू में न तो कोई जिला कलेक्टर है और न ही कोई एसपी और जयपुर डीएम इसका अतिरिक्त प्रभार संभाल रहे हैं.
यह कैसी जीत?
चार दशकों तक, उदयपुर का आदिवासी बहुल क्षेत्र सलूंबर जिला का दर्जा पाने के लिए लड़ता रहा और जब मार्च 2023 में आखिरकार इसकी घोषणा की गई, तो निवासियों ने जुलूस और आतिशबाजी के साथ जश्न मनाया, लेकिन एक साल बाद, निराशा शुरू हो गई है.
सलूंबर के पार्षद धर्मेंद्र शर्मा ने कहा, “हमने सलूंबर के विकास के लिए एक जिले की मांग की थी, लेकिन एक साल में यहां बहुत कुछ नहीं बदला है. रोज़गार, शिक्षा, परिवहन और चिकित्सा सुविधाएं वैसी ही हैं और लोग उदयपुर पर ही निर्भर हैं.”
उदयपुर से केवल 75 किमी दूर होने के बावजूद, सलूंबर अलग-थलग है — घने जंगलों, पहाड़ों और झामरी और सोम जैसी नदियों से घिरा हुआ है. पुलिसिंग मुश्किल है और साइबर अपराध बड़े पैमाने पर है.
हालांकि, नई पुलिसिंग और प्रशासनिक सुविधाएं बहुत कुछ खाली छोड़ती हैं. डीएम और एसपी पुराने आदिवासी छात्र छात्रावास से काम करते हैं. पूरे जिले के वित्त का प्रबंधन करने के लिए कोषागार विभाग के पास सिर्फ दो अधिकारी हैं और वाटर कूलर, एसी और पार्किंग जैसी बुनियादी सुविधाएं अभी भी गायब हैं.
रिकॉर्ड्स को उदयपुर से सिर्फ दो या तीन लोगों की टीम द्वारा लाया गया.
कोषागार के एक अधिकारी ने अपने छात्रावास के कमरे में बैठे हुए कहा, “जिस काम में कई दिन लग सकते थे, उसे पूरा करने में हफ्तों लग गए.”
फिर भी, जिले के निर्माण ने आसपुर, सांवला और कनोर जैसे पड़ोसी गांवों में उत्साह भर दिया है, जो सरकारी सेवाओं तक बेहतर पहुंच के लिए सलूंबर में शामिल होने की पैरवी कर रहे हैं.
कनोर के निवासी गिरदारी सोनी ने कहा, “नए जिले के गठन से उम्मीदें जगी हैं.” सलूंबर के डीएम जसमीत सिंह संधू भी आशावादी हैं, उनका तर्क है कि बुनियादी ढांचे की कमी प्रशासन तक पहुंच से अलग मुद्दा है.
संधू ने कहा, “पहले उदयपुर में कलेक्टरेट जाने का मतलब पूरा दिन बर्बाद करना होता था, लेकिन अब लोगों के लिए वहां पहुंचना आसान है.” उनके कार्यालय के बाहर एक साइनबोर्ड पर लिखा है: मिलने का समय: कार्यालय समय में कभी भी. अभी तक डीएम के कार्यालय में बाड़ नहीं लगी है, लेकिन ऐसा नहीं लगता कि यह डिजाइन के हिसाब से बनाया गया है.
(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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