नेलोंग: पिछले 60 साल से उनके घरों पर कब्ज़ा करने के लिए मुकदमा करने के वास्ते वह लोग सरकार के खिलाफ हाई कोर्ट में जाने के बहुत करीब थे, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के साथ उनका हृदय परिवर्तन हो गया, जिन्होंने उन्हें उनके मूल निवास स्थान के साथ-साथ — और भी बहुत कुछ वापस देने का वादा किया.
उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में भारत-चीन LAC से बमुश्किल 45 किमी दूर नेलोंग और जादुंग गांव एक ही समय में उत्साह और चिंता से भरे हुए हैं. 1962 के युद्ध में खोई गई अपनी ज़मीन को पाना और नए टूरिस्ट सर्किट के वादे ने उन्हें उम्मीद दी है, लेकिन इस भूतहा ज़मीन पर फिर से बसने की असलियत परेशान करने वाली है.
जादुंग गांव के निवासी 67-वर्षीय भगवान सिंह राणा, जो अब उत्तरकाशी की डुंडा पंचायत के वीरपुर गांव में रहते हैं, उन्होंने कहा, “हमने कुछ और वक्त तक इंतज़ार करने का फैसला किया है क्योंकि हम पहले से ही पिछले पांच दशकों से इंतज़ार ही कर रहे हैं. जैसा कि पीएम ने खुद आश्वासन दिया है, यह कुछ नई उम्मीद जगाता है क्योंकि इसके पहले किसी भी अन्य पीएम ने इस मुद्दे पर ध्यान केंद्रित नहीं किया.”
राणा के लिए वीरपुर उनका शीतकालीन घर है, जो उनके पैतृक गांव जादुंग से 100 किलोमीटर से भी अधिक दूर है. राणा जब मात्र सात साल के थे, तब उन्हें अपना गांव छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. 1962 तक, जब युद्ध छिड़ा, जादुंग का इस्तेमाल राणा के पूर्वजों द्वारा ग्रीष्मकालीन घर की तरह किया जाता था. इस संघर्ष ने दोनों गांवों की किस्मत बदल दी और उन्हें भूतिया गांव में बदल दिया, जिस पर पूरी तरह से सेना, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) और वन विभाग का नियंत्रण था.
अब, मोदी सरकार 1962 के युद्ध, निवासियों द्वारा झेले गए नुकसान और आघात की यादों पर मरहम लगा रही है. यह खोई हुई मातृभूमि की उस लंबी दर्दनाक याद को मिटाने की कोशिश कर रही है और सरकार यह काम जल्दबाजी में भी नहीं कर रही है. उनके पास पीएम मोदी के वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम के तहत योजना तैयार है. नेलोंग घाटी, जिसे समान भूगोल के कारण उत्तराखंड का लद्दाख भी कहा जाता है, धीरे-धीरे पर्यटकों के लिए खोली जा रही है. प्रशासन भैरोंघाटी से होकर गुज़रने वाली घाटी में प्रवेश के लिए इनर लाइन परमिट की ज़रूरत को खत्म करने की योजना बना रहा है — भागीरथी और जाध गंगा का सुरम्य संगम, लेकिन 60 से अधिक साल से अपने घरों से दूर रह रहे दो गांवों के निवासी आशंकाओं से भरे हुए हैं. टूरिस्ट के लगातार आवागमन से यहां बसने की नई वास्तविकता उन्हें पूरी तरह से आश्वस्त नहीं कर रही है.

ग्रामीणों के पूर्वज 1962 में जबरन निकाले जाने से पहले 1720 के आसपास नेलोंग और जादुंग में बस गए थे और उन्होंने अपनी नई पहचान को कभी स्वीकार नहीं किया.
राणा ने वीरपुर गांव में अपने घर पर बैठे हुए कहा, “सबसे दर्दनाक बात यह है कि हमें अपने ही गांव में घुसने के लिए परमिट लेना पड़ता है. ऐसा लगता है कि हम अपने ही घर में बाहरी हैं. 1962 के बाद की पीढ़ी इसी भावना के साथ बड़ी हुई है.” उनके चारों ओर 2018 में हर्षिल की यात्रा के दौरान की पीएम मोदी की तस्वीरें हैं. एक तस्वीर में राणा मोदी के साथ खड़े हैं. उस समय प्रधानमंत्री ने सेना के साथ दिवाली मनाई थी और ग्रामीणों के पुनर्वास का वादा किया था.
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पुनर्वास योजना
राणा ने नेलोंग और जादुंग के परिदृश्य को देखा है — जो कि ऊंचे-ऊंचे बर्फ से ढके पहाड़ों से घिरा हुआ है — 1962 के बाद सेना द्वारा गांवों पर अपना नियंत्रण मजबूत करने के बाद से. वे अपने मवेशियों को चराने के लिए ले जाते थे और वर्षों से उन्होंने देखा कि घर गायब हो गए और उनकी जगह सेना के बंकर हन गए.
नेलोंग घाटी, 11000 फीट की ऊंचाई पर स्थित एक ठंडा रेगिस्तानी पर्वतीय क्षेत्र है, जिसमें हैरान कर देने वाले नज़ारे, प्राचीन व्यापार मार्ग और कई तरह के वन्यजीव हैं, जिनमें मायावी हिम तेंदुआ भी शामिल है. इस क्षेत्र की विशेषता कठोर सर्दियां हैं, जिसमें तापमान -20 डिग्री तक गिर जाता है और बारिश कम होती है. घाटी की ऊंचाई और तिब्बती पठार से इसकी निकटता एक अद्वितीय सूक्ष्म जलवायु बनाती है, जहां घाटी में ठंडी हवाएं चलती हैं.
अब, इन क्षेत्रों में लोगों लौट आएंगे क्योंकि प्रशासन इन गांवों को होमस्टे से भरने की योजना बना रहा है, जिनमें से छह जादुंग में बनेंगे. 1962 से पहले इस गांव में 23 परिवार रहते थे.
उत्तरकाशी के मुख्य विकास अधिकारी सुंदर लाल सेमवाल ने कहा, “17 और होमस्टे की फाइलें स्वीकृति के लिए लंबित हैं, लेकिन इन दो गांवों के पुनर्विकास का काम तेज़ी से चल रहा है. हालांकि, इसके पूरा होने की कोई समयसीमा अभी तय नहीं है.” सेमवाल जिले में वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम की देखरेख कर रहे हैं.

उत्तरकाशी जिले में 10 सीमावर्ती गांवों को वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम के तहत लाया गया है, जिसे फरवरी 2023 में लॉन्च किया गया था, ताकि उन बस्तियों को कनेक्टिविटी, इंफ्रास्ट्रक्चर और बुनियादी सुविधाएं प्रदान की जा सकें, जिन्हें कभी देश का आखिरी गांव माना जाता था. हालांकि, मोदी ने उन्हें भारत का पहला गांव बताया और पर्यटन के बारे में 360 डिग्री का नज़रिया अपनाने को कहा.
सेमवाल ने कहा, “हम इस क्षेत्र को पर्यटकों के अनुकूल बना रहे हैं. इसके लिए कई ट्रेक बनाए जाएंगे, बाइकर्स के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी और वहां एक म्यूजियम बनाने की भी योजना है.” म्यूजियम में इन गांवों के निवासियों भोटिया जनजातियों के इतिहास और तिब्बत के साथ उनके व्यापारिक आदान-प्रदान को दिखाया जाएगा. होमस्टे प्रोजेक्ट को लागू करने का काम राज्य पर्यटन विभाग और गढ़वाल मंडल विकास निगम (जीएमवीएन) द्वारा किया जा रहा है. इसके लिए 3.5 करोड़ रुपये मंजूर किए गए हैं.
पिछले साल राजस्व विभाग के अधिकारियों ने जादुंग गांव का सर्वेक्षण किया और वन विभाग से भूमि के उपयोग की अनुमति भी मांगी क्योंकि यह गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में आता है. पहले चरण में फुटपाथ बनाए जाएंगे और तीन व्यू पॉइंट बनाए जाएंगे.
प्रशासन जनक ताल और जादुंग के बीच 10 किलोमीटर लंबा ट्रेकिंग ट्रैक भी बनाने जा रहा है, जो 5400 मीटर की ऊंचाई पर दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा ट्रेक होगा. इस ट्रेक को खोलने के लिए अधिकारियों ने पहले ही निरीक्षण कर लिया है.
प्रधानमंत्री मोदी ने 27 फरवरी को हर्षिल घाटी के मुखबा की अपनी यात्रा के दौरान जनक ताल ट्रेक की आधारशिला रखी और उत्तराखंड में बारामासी पर्यटन (साल भर पर्यटन) का आह्वान भी किया. दो नए ट्रैक — जनक ताल और नीलापानी-मुलिंग पास ट्रैक — जल्द ही पर्यटकों के लिए खुल जाएंगे और नेलोंग और जादुंग घाटियों में साहसिक पर्यटन को एक नया आयाम देंगे.

उत्तरकाशी के डीएम मेहरबान सिंह बिष्ट के अनुसार, भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर लद्दाख की तर्ज पर इस क्षेत्र को विकसित करने की योजना शुरू की गई है.
मोदी ने कहा, “लोग भूल गए हैं, लेकिन हम भूल नहीं सकते. हमने उन दो गांवों के पुनर्वास के लिए अभियान शुरू किया है और इसे एक प्रमुख पर्यटन स्थल बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.”
उन्होंने कहा कि हमारा प्रयास है कि उत्तराखंड के सीमावर्ती क्षेत्रों को भी पर्यटन का विशेष लाभ मिले.
युद्ध से पहले, नेलोंग घाटी के ग्रामीण तिब्बत के साथ व्यापार और आलू की खेती करते थे. अब, उन्होंने कहा, एक गांव में सभी को एक ही आजीविका से जोड़ना मुश्किल होगा.
राणा ने कहा, “पूरा गांव सिर्फ होमस्टे पर निर्भर नहीं रह सकता. अगर इतने सारे पर्यटक वहां नहीं आएंगे, तो सभी कैसे ज़िंदा रहेंगे? पर्यटन फायदेमंद होगा, लेकिन हम सभी को एक आजीविका से नहीं जोड़ सकते.”
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बेघर
नेगी और अन्य लोगों की ज़िंदगी नेलोंग और जादुंग से दूर है, उनका एकमात्र सक्रिय संबंध कुलदेवी की वार्षिक पूजा और पशु चराने से है. वह छह दशकों से अपने घर को एक काल्पनिक बाड़ से देखते आ रहे हैं.
हर साल जून के महीने में, डुंडा और बगोरी गांवों से 150-200 लोगों का एक समूह नेलोंग और जादुंग जाता है. यह एक दिवसीय यात्रा होती है, जिसके लिए प्रशासन से हफ्तों पहले अनुमति लेनी पड़ती है. दिन की तैयारियां सुबह 5 बजे से शुरू हो जाती हैं. हर कोई अपने घरों से पका हुआ भोजन और पूजा का सामान लाता है.
बागोरी गांव की मुखिया सरिता रावत, जिनके पूर्वज नेलोंग गांवसे थे, बताती हैं, “रिंगाली देवी और लाल देवता की पूजा के बाद नृत्य होता है, जिसके बाद सभी शाम तक लौट आते हैं. रात में किसी को वहां रुकने की अनुमति नहीं है.” उन्होंने कहा, “वहां जाना और अपने गांव को न देख पाना बहुत दर्दनाक है.”
सेना ने इस वार्षिक अनुष्ठान को एक ऐसा नाम दिया है जिसे कई लोग याद रख सकते हैं — वह इसे जाध उत्सव कहते हैं.
अक्टूबर 1962 में जब युद्ध छिड़ा, तो नेलोंग और जादुंग के निवासी अपने शीतकालीन घर — बागोरी और धुंधा गांव में थे. नेगी के मन में उस समय की धुंधली यादें हैं. नेलोंग गांव से होकर बहती जाध गंगा नदी की आवाज़ और भारत-तिब्बत के बीच व्यापार की यादें आज भी उनके मन में बसी हैं.

बागोरी गांव में सेब के बागों से घिरे लकड़ी के घर में बैठे नेगी ने बताया, “जब हमने अपने गांव वापस जाने की कोशिश की तो प्रशासन ने हमें रास्ते में ही रोक दिया और कहा कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है, इसलिए हमें अपने ग्रीष्मकालीन स्थानों पर ही रहना होगा.”
1962 में दोनों गांवों में 40 परिवार थे, जो अब बढ़कर 100 हो गए हैं. दोनों गांवों के बीच शादियां भी होती हैं.
नेगी ने बताया कि उनका घर रातों-रात उनसे छीन लिया गया और किसी को समझ में नहीं आया कि क्या हुआ.
चोरा के पत्तों से बनी चाय की चुस्की लेते हुए नेगी ने बताया, “सारी चीज़ें हमारे घरों में रखी थीं. हमें उन्हें वापस लाने का मौका भी नहीं दिया गया. सारी यादें बंद दरवाजों के भीतर कैद रहीं और साल-दर-साल खत्म होती रहीं.”
शुरुआत में गांव वालों को सेना से किराया मिलता था, लेकिन कुछ सालों बाद यह बंद हो गया. बाद में घरों को तोड़ दिया गया और उनकी जगह बंकर बना दिए गए.

अब नेलोंग गांव में राजपूताना राइफल्स का एक बड़ा बोर्ड लगाया गया है, जिस पर आदर्श वाक्य वीर भोग्या वसुंधरा लिखा हुआ है, लेकिन नेलोंग में नागरिकों का प्रवेश एसडीएम उत्तरकाशी की अनुमति के बाद ही हो सकता है.
गांव के इलाके को छावनी क्षेत्र में बदल दिया गया है.
2024 में उत्तराखंड के सीमावर्ती इलाकों के दौरे के दौरान चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने स्थानीय सेना संरचनाओं को नेलोंग और जाधंग गांवों के पुनर्वास में मदद करने का निर्देश भी दिया था.
1962 तक नेलोंग और जाधंग के निवासी सदियों से गरतांग गली इलाके के खतरनाक इलाकों से होकर आते-जाते थे, जो अपने 150 साल पुराने लकड़ी के पुल के लिए मशहूर है. उन्होंने तिब्बत के साथ फलते-फूलते व्यापार में शामिल होने के लिए कठोर हिमालयी जलवायु का सामना किया, जिसमें ऊन, नमक, कीमती पत्थर का व्यापार शामिल था.
हर्षिल घाटी में बागोरी गांव के प्रवेश द्वार के पास लगे बोर्ड पर लिखा है, “1962 से पहले नेलोंग में भारत तिब्बत मार्केट की स्थापना की गई थी. नेलोंग, जादुंग और बागोरी के ग्रामीणों ने इसकी स्थापना में योगदान दिया.”

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छिपा हुआ खजाना
6 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी ने नेलोंग घाटी में प्रवेश करने वाली पहली बाइक और ट्रेकर्स की रैली को हरी झंडी दिखाई. बर्फ से ढके पहाड़ बीएमडब्ल्यू और रॉयल एनफील्ड की गर्जना से गूंज उठे. पर्यटकों को एक और नया इलाका मिल गया था. उनका उत्साह इस क्षेत्र की अप्रयुक्त पर्यटन क्षमता का प्रमाण था.
प्रधानमंत्री के आगमन से एक दिन पहले भैरोंघाटी से नेलोंग घाटी की सभी सड़कें भारी बर्फबारी के कारण अवरुद्ध हो गईं. सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) को रात भर हर्षिल से नेलोंग घाटी तक बर्फ को साफ करना पड़ा.
लेकिन भारी बर्फबारी ने देहरादून स्थित वॉल्व्स मोटो क्लब के उत्साह को कम नहीं किया. बाइकर्स मिनी लद्दाख पहुंचने के लिए उत्साहित थे. आईटीबीपी और सेना के जवान अपनी ट्रेक कारों के साथ बाइकर्स में शामिल हुए.
रैली में शामिल मनेंद्र सिंह रावत ने कहा, “नेलोंग हमारे लिए बिल्कुल नया इलाका था. हमने नागालैंड से लेकर लद्दाख तक पूरे देश में बाइक चलाई है, लेकिन नेलोंग की यात्रा रोमांचक थी, क्योंकि पहली बार बाइकर्स को इस इलाके में जाने की अनुमति दी गई थी.”
भागीरथी और जाध गंगा नदियों के किनारे उनकी यात्रा 40 किलोमीटर लंबी थी.

जबकि उनकी यात्रा जादुंग में समाप्त होनी थी, भारी बर्फबारी के कारण उन्हें नेलोंग गांव से वापस लौटना पड़ा.
रावत ने कहा, “यह जगह एक छिपा हुआ खजाना है. यह बाइकर्स के लिए एक आदर्श जगह है, जो लगभग स्पीति और लद्दाख की तरह है. आने वाले समय में बाइकर्स के बीच इसका क्रेज़ काफी बढ़ जाएगा. हमने जो शुरू किया है, वह रुकने वाला नहीं है.”
अब नेलोंग की छाप सोशल मीडिया पर भी बढ़ रही है, नेलोंग की पहली यात्रा पर निकले बाइकर्स ने इंटरनेट पर तस्वीरें और वीडियो शेयर किए हैं.
मानव सिंह उर्फ अनब्रोकनस्टैलियन ने अपने इंस्टाग्राम पोस्ट में बाइक रैली क्लिप शेयर करते हुए लिखा, “यह एक अद्भुत क्षण था जब हमारे प्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमारे राज्य में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए नेलोंग घाटी में हमारे शीतकालीन अभियान को हरी झंडी दिखाई.”
भैरोंघाटी से नेलोंग तक की 23 किलोमीटर की यात्रा नदी के किनारे सर्पिल पथ से होकर गुजरती है और रोमांच से भरपूर है. इस मार्ग पर कई नए पुल निर्माणाधीन हैं और कई 2014 के बाद बनकर तैयार हुए हैं.

नए गांव में ज़िंदगी
योग्य राम नेगी बागोरी गांव में अपने घर के पिछले आंगन में फैले सेब के बागों में पर्यटकों की मेजबानी में व्यस्त थे. नेलोंग से 45 किमी दूर स्थित इस गांव को स्वच्छ महोत्सव 2019 में समग्र विकास के लिए सर्वश्रेष्ठ गंगा गांव घोषित किया गया था. हालांकि, उनके सभी पर्यटन अनुभव सुखद नहीं रहे हैं.
एक दिन, जब नेगी हर्षिल बाज़ार में घूम रहे थे, तो उन्हें पर्यटक मिले, जिन्होंने उनसे पूछा, “तिब्बती लोग कहां रहते हैं?”
नेगी ने कहा, “हम तिब्बती नहीं बल्कि भारतीय हैं. 1962 से पहले हमारा तिब्बत के साथ ही व्यापार था.”
2020 के बाद बागोरी गांव में कई होमस्टे खुल गए हैं.
बागोरी के लगभग सभी घरों में ताले लगे हुए थे और उनमें से अधिकांश पर होमस्टे का बोर्ड लगा हुआ था. सर्दियों में, बागोरी में बहुत ठंड होने के कारण निवासी वीरपुर गांव चले जाते हैं. “अब यह यहां के लोगों के लिए एक नया व्यवसाय बन गया है. सेब की खेती इस क्षेत्र में आय का एक और स्रोत बन गई है.”

होमस्टे बोर्ड पर लिखा है, “सेब के बगीचे के बीच में रहना”.
नेलोंग और जादुंग के लोग भी बागोरी से करीब 90 किलोमीटर दूर डुंडा पंचायत के वीरपुर में आकर बस जाते हैं. बागोरी में घर छोटे और लकड़ी के बने हैं, जबकि वीरपुर गांव में दो मंजिला घर हैं. जसपाल सिंह रावत ऊन से घिरे अपने वीरपुर वाले घर में बैठे हैं. ऊन का काम गांव में पीढ़ियों से चला आ रहा है और यह आजीविका का मुख्य स्रोत है.
उन्होंने कहा, “चूंकि हम अभी भी भेड़ पालन करते हैं, इसलिए हम बाज़ार में उनकी ऊन से बनी चीज़ें बेचकर पैसे कमाते हैं. यह काम दर्जनों घरों में होता है.”
लेकिन नई पीढ़ी को सदियों पुराने इस पारिवारिक काम में कोई दिलचस्पी नहीं है. वह शहरों में चले गए हैं और वापस नहीं आना चाहते.
रावत ने कहा, “अगर वह बागोरी और डुंडा नहीं आएंगे, तो नेलोंग में कैसे बसेंगे?” उन्होंने कहा कि गांव में उनकी उम्र के बीस से तीस लोग ही रहते हैं, “हर साल कोई न कोई मर रहा है.”
नई पीढ़ी आराम से रहने की आदी है और नेलोंग और जादुंग में कुछ भी नहीं है — न बिजली, न टेलीफोन और न ही अन्य सुविधाएं. नेगी ने कहा, “मेरे हिसाब से, वहां बसने का फैसला व्यावहारिक नहीं है.”

नेगी ने कहा कि ग्रामीणों को मुआवजा दिया जाना चाहिए और उत्तरकाशी के निचले हिस्से में ज़मीन आवंटित की जानी चाहिए क्योंकि सरकार ने 1962 से ज़मीन पर कब्ज़ा कर रखा है. “अब सरकार बहाने बना रही है कि हम आपको फिर से बसा देंगे. केवल पर्यटकों के भरोसे गांव नहीं बसाया जा सकता क्योंकि भारी बर्फबारी के कारण यह इलाका कई महीनों तक बंद रहता है.”
लेकिन नेगी सरकार की ताकत से वाकिफ हैं.
उन्होंने कहा, “अगर सरकार जबरन कहती है कि आपको बसना होगा, तो हमें बसना होगा. हम सरकार से नहीं लड़ सकते.”
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