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शुक्रवार, 4 जुलाई, 2025
होमफीचर'यही अगला बड़ा सेक्टर है' — कैसे बेंगलुरु भारत में मेंटल हेल्थ क्रांति की अगुवाई कर रहा है

‘यही अगला बड़ा सेक्टर है’ — कैसे बेंगलुरु भारत में मेंटल हेल्थ क्रांति की अगुवाई कर रहा है

फायरसाइड वेंचर्स ने लगभग छह मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण स्टार्ट-अप में निवेश किया है, और कई और भी निवेश करने की योजना बना रहा है. एक वीपी के अनुसार, अगली बड़ी चीज उच्च प्रदर्शन वाले जिम हैं.

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बेंगलुरु: अमित मलिक हमेशा प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिकों और मनोरोग विशेषज्ञों की तलाश में रहते हैं. उनका मेंटल हेल्थ स्टार्टअप ‘अमहा’, जो पूरे भारत में सेवाएं देता है, ने पिछले दो सालों में ही बेंगलुरु में अपने स्पेशलिस्ट्स की संख्या तीन गुना से ज़्यादा बढ़ा दी है. मुंबई में रहने वाले मलिक खुद एक मनोरोग विशेषज्ञ हैं और उन्होंने 2022 में दिल्ली स्थित ‘चिल्ड्रन फर्स्ट’ का अधिग्रहण किया था. अब वे थेरेपी को बड़े पैमाने पर पहुंचाने की कोशिश में हैं और बेंगलुरु इस विस्तार का केंद्र है.

भारत की आईटी और स्टार्टअप राजधानी युवा कामकाजी पेशेवरों के लिए आकर्षण का केंद्र है. लेकिन बिना किसी सपोर्ट सिस्टम के, थके हुए और तनाव से जूझते लोग अब सक्रिय रूप से मदद तलाश रहे हैं. बेंगलुरु अब सिर्फ NIMHANS तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह एक मेंटल हेल्थ हॉटस्पॉट बन गया है, जहां शहर की कई सड़कों पर क्लीनिक हैं और एआई कभी-कभी थेरेपिस्ट की भूमिका में नजर आता है.

Inside Amaha’s soon-to-be-opened clinic in Thippasandra. | By special arrangement
थिप्पासंद्रा में अमाहा के जल्द खुलने वाले क्लिनिक के अंदर। | विशेष व्यवस्था

“सही तरह का इलाज ढूंढ़ने वाले लोगों की संख्या अब बहुत ज़्यादा है. इसलिए हमें बेंगलुरु में तेज़ी से ग्रोथ देखने को मिल रही है,” मलिक ने कहा. वे शहर की पहचान का हिस्सा बन चुके उन युवा, गतिशील और उच्च-प्रदर्शन करने वाले प्रवासियों की ओर इशारा कर रहे थे. अमहा में बेंगलुरु के लिए पहले 15 क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट और साइकाइट्रिस्ट थे, अब यह संख्या बढ़कर 54 हो गई है.

मलिक ने जोड़ा, “मजबूत सपोर्ट नेटवर्क की गैरमौजूदगी में लोग अब पारंपरिक प्रदाताओं से बाहर मदद ढूंढ़ने को मजबूर हैं.” 

प्रवासियों की आमद ने बेंगलुरु को “फ्यूचर ऑफ वर्क” का ब्लूप्रिंट बनाने वाला शहर बना दिया है. पहले यह आईटी कंपनियों, वर्क के बाद ड्रिंक्स और ट्रेंडी व फंक्शनल ब्रुअरीज का शहर था, जहां युवा हावी थे. अब, यह मेंटल हेल्थ है जो इस महानगर के जीवन की दिशा तय कर रही है.

NIMHANS का प्रभाव और थेरेपी को प्राथमिकता देने वाली सांस्कृतिक लहर ने मिलकर बेंगलुरु को टियर-1 शहरों में भी एक मेंटल हेल्थ हॉटस्पॉट बना दिया है.

“बेंगलुरु की किसी भी सड़क पर आपको कम से कम एक मेंटल हेल्थ क्लीनिक मिल जाएगा. सीएमएच रोड पर हमारे पास अमहा और कहा माइंड्स दोनों हैं. कल्याण नगर में तो एक ही सड़क पर चार क्लीनिक देखे थे,” अमहा के इंदिरानगर सेंटर में काम करने वाली क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट चिन्मयी ने कहा.

हालांकि यह अभी भी पर्याप्त नहीं है, फिर भी कर्नाटक अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर स्थिति में है. राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में दिखा कि नागरिकों और मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के बीच भारी असंतुलन है. राज्यसभा में पेश आंकड़ों के मुताबिक, कर्नाटक में जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (DMHP) के तहत 261 प्रशिक्षित साइकाइट्रिस्ट और मेडिकल ऑफिसर काम कर रहे हैं. गुजरात में यह संख्या 108 है और महाराष्ट्र में केवल 26. जबकि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में केवल एक ही है.

बेंगलुरु में मानसिक स्वास्थ्य को वेलनेस-ओरिएंटेड, प्रदर्शन-आधारित और समुदाय-केंद्रित रूप में देखा जा रहा है. हर छोटी से छोटी चीज़ पर ध्यान देने की क्षमता और हाइपर अवेयरनेस से लैस मिलेनियल्स और जेन-जी अब मानसिक स्वास्थ्य को अपनी जीवनशैली बना रहे हैं.

“मेंटल हेल्थ और डी-स्ट्रेसिंग अगली बड़ी चीज़ है. हम इस स्पेस को लेकर काफी पॉजिटिव हैं,” फायरसाइड वेंचर्स के प्रिंसिपल अंकुर खेतान ने कहा, जिनकी फर्म ने अमहा और बेंगलुरु की अन्य वेलनेस स्टार्टअप्स में निवेश किया है.

नए तरह के अस्पताल

लक्ज़री समुद्री-हरे मखमली सोफ़ों और लकड़ी के फ़र्श, फ़र्श से छत तक कांच की खिड़कियों वाले जिम के साथ, बेंगलुरु स्थित ‘सुकून साइकेट्री सेंटर’ किसी होटल जैसा दिखता है. इसकी असली पहचान सिर्फ खिड़कियों पर लगी ग्रिल और दीवारों से घिरी बालकनियों से होती है.

“हम यह मिथक तोड़ना चाहते थे कि एक मेंटल हेल्थ सुविधा पागलखाना होती है,” सुकून के बिज़नेस डेवलपमेंट हेड सुमंत्र भौमिक ने कहा. “यह 3 से 4-स्टार होटल में ठहरने जितना अच्छा है. हम मार्केट में सबसे प्रीमियम सुविधा हैं.” दिल्ली आधारित कंपनी ने पिछले साल बेंगलुरु में अपना सेंटर खोला था और एक रात के लिए 20,000 रुपये चार्ज करती है.

Sukoon’s in-patient facility costs Rs 20,000 a night | By special arrangement
सुकून की इन-पेशेंट सुविधा की कीमत 20,000 रुपये प्रति रात है | विशेष व्यवस्था

वे इस शहर में ऐसी अकेली सुविधा नहीं हैं. अमहा भी बेंगलुरु में एक मेंटल हेल्थ अस्पताल खोलने जा रही है. इसका थिप्पसंद्रा में बना बहुमंज़िला भवन भी वैलनेस सेंटर जैसा अहसास कराता है. यहां बहुत सारे पौधे हैं, नाज़ुक बेज और सफेद रंग के सोफ़े हैं, और साधारण सी कलाकृतियां टंगी हैं. दोनों सेंटर पारंपरिक अस्पतालों की छवि से काफी अलग हैं. यहां न तो तेज़ सफेद क्लिनिकल लाइट है, न ही मेटालिक दवाओं जैसी गंध. दोनों सेंटर एक ऐसे भविष्य की कल्पना कर रहे हैं जहां मानसिक स्वास्थ्य प्राथमिकता है, और लोग इलाज के लिए अच्छी खासी रकम खर्च करने को तैयार हैं.

खराब उत्पाद के लिए कोई जगह नहीं

2019 में, उपभोक्ता स्वास्थ्य क्षेत्र की एक कंपनी में प्रोडक्ट मैनेजर लोपामुद्रा एक अच्छे थैरेपिस्ट की तलाश में थीं. लेकिन उनके पास बहुत कम विकल्प थे. जिन थैरेपिस्ट्स की सबसे ज्यादा मांग थी, उनके अपॉइंटमेंट पहले से ही महीनों तक बुक थे. आख़िरकार, ट्रायल और एरर की प्रक्रिया के ज़रिए—और बतौर फूड ब्लॉगर अपने पिछले अनुभव से बनाए गए नेटवर्क के सहारे—उन्हें ऐसा कोई मिल गया जो उनके लिए उपयुक्त था.

“इसमें वक्त लगा. थैरेपिस्ट ढूंढ़ना वैसा ही है जैसे सही कुर्सी या परफेक्ट जूते की जोड़ी ढूंढ़ना. जो किसी और को फिट आए, वो ज़रूरी नहीं कि आपको भी आए,” उन्होंने कहा. “मैंने महसूस किया कि मैं बेहतर हो रही हूं. मेरी थैरेपिस्ट ने मुझे खुद को फिर से महसूस करने में मदद की.”

पिछले छह सालों में उनके इस संघर्ष के बाद काफी बदलाव आया है. इसका कारण बेहतर होती ढांचागत सुविधाएं और कोविड-19 महामारी रही है, जिसने लोगों को आत्ममंथन के लिए मजबूर कर दिया. बेंगलुरु जैसे शहरों में, जहां बड़ी संख्या में प्रवासी रहते हैं—जो अब शहर की 42 प्रतिशत आबादी हैं—लोग मदद लेने को लेकर ज़्यादा खुले हैं.

“यहां करने को कुछ खास नहीं है, बस दफ़्तर जाना है. पिछले पांच सालों में जीवन यापन की लागत भी 10 गुना बढ़ गई है,” असम के औद्योगिक शहर तिनसुकिया से आई लोपामुद्रा ने कहा. “इसमें हैरानी की बात नहीं कि यहां इतने सारे मेंटल हेल्थ और वेलनेस सेंटर्स हैं.”

Sukoon’s balconies are walled in for safety | By special arrangement
सुकून की बालकनियों को सुरक्षा के लिए दीवारों से घेरा गया है | विशेष व्यवस्था

शहरी अकेलापन अब कोई अनसुना अनुभव नहीं रहा। शहर की जिंदगी, जो ऊंचे वादों और भारी अपेक्षाओं के साथ आती है, एक विशेष और तेज़ किस्म के अकेलेपन के साथ चलती है.

और बेंगलुरु, जो कभी दिल्ली और मुंबई जैसे अराजक शहरों के लिए एक सुकून देने वाला विकल्प था, अब अपने ही तरीक़े से असहज हो गया है. यहां का बदनाम ट्रैफिक, खराब बुनियादी ढांचा और आपस में जुड़े पब्लिक ट्रांज़िट सिस्टम की कमी इसे और मुश्किल बना देती है. शहरों में एंग्ज़ायटी डिसऑर्डर की दर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में ज़्यादा होती है—35.7 प्रतिशत बनाम 13.9 प्रतिशत.

युवा कामकाजी लोग भी इसलिए ज़्यादा थेरेपी की ओर रुख करते हैं क्योंकि वे ज़्यादा खुले दिमाग़ के होते हैं—उन्होंने अपने गृहनगरों से जुड़ी मानसिकता की बाधाओं को पीछे छोड़ दिया होता है.

“वे प्रयोग करने को तैयार रहते हैं. उनके पास पहले से बनी धारणाएं नहीं होतीं. बेंगलुरु में लोग नए विचारों के लिए खुले हैं. यहां काम करना अच्छा लगता है,” ‘औमहम’ स्टार्टअप के फाउंडर अविरल पांडे ने कहा, जो भारत भर में सुलभ साइकेट्रिक देखभाल देने की कोशिश कर रहे हैं.

हालांकि औमहम के ग्राहक बेंगलुरु से नहीं हैं, लेकिन वे भारत की स्टार्टअप राजधानी और आईटी हब के रूप में इसकी प्रतिष्ठा का लाभ उठा रहे हैं. शेनझेन और सैन फ्रांसिस्को—जिनसे बेंगलुरु की तुलना अक्सर की जाती है—में रहने के बाद, पांडे ने इन तथाकथित भविष्य के शहरों में कुछ समानताएं देखीं.

“एक खराब प्रोडक्ट इन शहरों में नहीं टिक सकता,” उन्होंने कहा. और मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं भी इससे अलग नहीं हैं. “यह व्यवहारिक है. सांस्कृतिक बारीकियां लोगों की समस्याओं का कारण बनती हैं.”

वर्कप्लेस पर मेंटल हेल्थ

पहले बेंगलुरु की एक टेक पॉलिसी फर्म में काम करने वाली एक 27 साल की रिसर्चर ने बताया कि उनका अपने सीनियर्स के साथ भरोसे और आपसी सम्मान पर आधारित रिश्ता था. उन्हें और उनके साथियों को हर महीने एक ‘मेंटल हेल्थ डे’ लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था.

“सेहत को लेकर बातचीत पारदर्शी थी, और हम इसके बारे में ईमानदारी से बात करते थे. मैं कह सकती थी कि मैं खुद को अच्छा महसूस नहीं कर रही हूं,” उन्होंने गुमनामी की शर्त पर कहा. दिल्ली की रहने वाली वह रिसर्चर अपने काम के कारण बेंगलुरु आई थीं. “मैंने ज़्यादा मेंटल हेल्थ डे नहीं लिए क्योंकि उस वक्त मुझे ज़रूरत महसूस नहीं हुई. लेकिन इस विषय में बहुत ईमानदारी थी.”

उन्होंने इसका एक कारण यह भी बताया कि वह एक छोटे संगठन में काम कर रही थीं जहां उनके बॉस महिलाएं थीं. उन्होंने कहा, “ऐसी बातचीत करना आसान हो जाता है.”

डेलॉइट के एक सर्वे में पाया गया कि 2021 में 80 प्रतिशत भारतीय कर्मचारियों ने वर्कप्लेस से जुड़ी चिंता का अनुभव किया. और कंपनियां अब इस पर ध्यान दे रही हैं. अमाहा भारत भर में करीब 130 संगठनों के साथ काम कर रहा है.  देसी दिग्गज इंफोसिस अपने कर्मचारियों को 24/7 काउंसलिंग देता है और उसने ‘इंफी-इकिगाई’ नाम की एक “माइक्रो-एनवायरनमेंट” भी बनाई है.

कर्मचारियों के लिए ज़ीरो कॉल वाले दिन होते हैं, और कुछ काम अब “ऑटोमेटेड” हैं ताकि बार-बार एक जैसे काम करने की मानसिक थकान से बचा जा सके.

एक अमेरिकी टेक कंपनी के व्हाइटफील्ड ऑफिस की कर्मचारी ने बताया कि उन्हें यह जानकर हैरानी हुई कि ऑफिस में मिलने वाली काउंसलर कितनी अच्छी हैं. उन्होंने पहले एक सेशन यूं ही लिया—क्योंकि वो फ्री था—लेकिन अब वो नियमित रूप से उनके पास जाती हैं.

“नियोक्ता अब समझने लगे हैं कि उन्हें विशेषज्ञ मदद की ज़रूरत है जो उनके वर्कफोर्स के लिए अहम है. पहले से ही मानसिक स्वास्थ्य की समस्या काफी आम है, और अब लीडरशिप को भी इसका अहसास है,” मलिक ने कहा. “अब सिर्फ वही संगठन सवाल पूछ रहे हैं जो बेहद भोले हैं.”

उनके अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं देना अब सिर्फ दिखावे या पश्चिम से ली गई नक़ल नहीं रह गया है, बल्कि यह किसी भी कार्यस्थल की बुनियादी ज़रूरत बन चुका है. बर्नआउट, एंग्ज़ायटी और डिप्रेशन की बढ़ती घटनाएं कंपनियों को अपने कर्मचारियों की मदद करने के लिए मजबूर कर रही हैं.

मलिक ने नौ साल पहले अलग-अलग संगठनों और एमएनसी के साथ काम करना शुरू किया था। पहले उन्हें यह समझाने के लिए “थीसिस बेचनी” पड़ती थी कि यह ज़रूरी क्यों है. अब ऐसा नहीं है.

उन्होंने कहा, “अब कोई नहीं पूछ रहा. यह बहुत बड़ा बदलाव है.”

लेकिन सब कुछ इतना अच्छा भी नहीं है, और समझ और स्वीकार्यता की कमी अब भी मौजूद है—यहां तक कि उन शहरों में भी जो खुद को प्रगतिशील मानते हैं और भारत में काम के भविष्य के नेतृत्व का दावा करते हैं. बेंगलुरु की एक कंपनी की एक अन्य कर्मचारी, जिन्होंने नाम न छापने की शर्त रखी, ने बताया कि उनकी एक सहयोगी को, जिन्होंने खुलकर बताया था कि उन्हें ADHD है, सिर्फ इसी कारण प्रमोशन नहीं दिया गया.

उन्होंने कहा, “अब भी एक बड़ा तबका है जो समझता ही नहीं है.”

समुदाय की खोज

बैंगलोर सोशल, एक सबरेडिट है जो शहर के लोगों के लिए एक ऑनलाइन मीटिंग प्लेस की तरह काम करता है, और इसके 7,000 से ज़्यादा सदस्य हैं. इसमें कोरमंगला में मेंटल हेल्थ मीट-अप्स की रिक्वेस्ट्स होती हैं, एक अलग मेंटल हेल्थ फोकस्ड ग्रुप बनाने की मांग की जाती है, और यह भी बताया जाता है कि शहर ने कैसे उनकी भलाई को नुकसान पहुंचाया है.

मलिक ने कहा, “शहरीकरण के बाद से मेंटल हेल्थ से जुड़ी परेशानियां लगातार बढ़ी हैं. पिछले पांच सालों में ये और ज़्यादा बढ़ी हैं.”

यहां एक आम बात है—समुदाय की मांग. बेंगलुरु अब रन क्लब्स के लिए जाना जाने लगा है, जो पहले सिर्फ एक जैसे विचार वाले धावकों का समूह हुआ करता था, लेकिन अब ये खुद में एक इकोसिस्टम बन चुके हैं; कभी ये नेटवर्किंग जगह बनते हैं और कभी डेटिंग ऐप्स के विकल्प.

इस बीच, प्रोफेशनल्स हमेशा कहते आए हैं कि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के बीच जो फर्क बताया जाता है, वो बस एक भ्रम है. असल में ये दोनों चीज़ें गहराई से जुड़ी हुई हैं, और ज़्यादा से ज़्यादा युवा इस सच्चाई को अपनी सामाजिक ज़िंदगी का केंद्र बिंदु बना रहे हैं.

मलिक ने कहा, “इतिहास से ही हमने देखा है कि दोनों में बहुत गहरा संबंध होता है. लंबे समय तक चलने वाली शारीरिक बीमारियां मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं. और गंभीर मानसिक बीमारियों वाले लोगों की उम्र भी कम होती है.”

तुषार (24) दिन में मशीन लर्निंग इंजीनियर हैं और सुबह बहुत जल्दी दौड़ने निकलते हैं. यह सब वजन घटाने के लिए अकेले में शुरू किया गया एक अभ्यास था, लेकिन करीब डेढ़ साल पहले ये कुछ बड़ा बन गया—बीईएल बुलेट्स रन क्लब. कुछ रनों में 500 से ज़्यादा लोग शामिल होते हैं. इनमें ज़्यादातर 18 से 25 साल के लोग होते हैं, कभी-कभी कोई 30 साल का भी.

तुषार के लिए मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के बीच संबंध को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. उन्होंने कहा, “बस जिम पहुंच जाना ही आपको कल से बेहतर इंसान बना देता है.”

ये बदलाव इंडस्ट्री के लोगों ने भी देखा है, और उन्होंने अपनी प्रैक्टिस में ज़्यादा होलीस्टिक तरीकों को शामिल किया है.

“इन सुविधाओं की ज़रूरत निश्चित रूप से बढ़ी है. आखिरकार हम ज़िंदगी के अनुभवों के साथ काम करते हैं. आर्ट सर्कल्स, रन क्लब्स, ग्रुप थेरेपी जैसी चीज़ों को हम सिखाने योग्य भी बनाने की कोशिश कर रहे हैं,” चिन्मयी ने कहा. “मैं एक क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट होते हुए भी केवल बीमारियों पर ध्यान नहीं देती.”

यह बिजनेस के लिए भी एक उर्वर ज़मीन बन गई है—एकदम सही माहौल जहाँ वेलनेस और मेंटल हेल्थ स्टार्टअप्स तेजी से बढ़ सकें. नतीजतन, वेंचर कैपिटल (VC) फर्म्स इस सेक्टर में निवेश करने की होड़ में हैं. यह बूम इतना फैल गया है कि एक वेंचर कैपिटल एग्जीक्यूटिव ने बताया कि एक शराब ब्रांड ने भी खुद को मानसिक स्वास्थ्य बेहतर करने वाला उत्पाद कहकर पेश किया.

फायरसाइड वेंचर्स के प्रिंसिपल अंकुर खेतान ने कहा, “मेंटल हेल्थ ही वेलनेस है। जब फिजिकल हेल्थ का युग भरने लगता है, तब अगली ज़रूरत मानसिक स्वास्थ्य होती है.”

फायरसाइड ने करीब छह मेंटल हेल्थ और वेलनेस स्टार्टअप्स में निवेश किया है, और और भी लाइन में हैं. VP अंकिता बलोटिया के अनुसार, अगली बड़ी चीज़ हाई-पर्फॉर्मेंस जिम्स और वेलनेस कंपनियां हैं—ऐसे सेंटर जो IV थेरेपीज़ और क्रायोथेरेपी जैसे स्पेशल ट्रीटमेंट्स देते हैं. उन्होंने मशरूम कॉफी, ओमेगा और मैग्नीशियम सप्लीमेंट्स जैसी पहले निचली धारा की चीज़ों को भी ज़िक्र किया जिनमें अब “काफ़ी हलचल” है.

“हमें बेंगलुरु में ऐसे सेंटर दिल्ली से ज़्यादा दिखाई दे रहे हैं,” उन्होंने कहा। “बेंगलुरु के लोग हाई पर्फॉर्मेंस वाले हैं.”

अब तक, उपभोक्ता वेलनेस ब्रांड्स मिलेनियल्स को ध्यान में रखकर बनाए गए थे. लेकिन एक पूरी जनसंख्या—पुराने मिलेनियल्स, जनरेशन X और बूमर्स—जो पीछे छूट गई है, जिनके लिए स्वास्थ्य और वेलनेस उतना ही ज़रूरी है, अगर ज़्यादा नहीं. यह एक खाई है जिसे भरा जाना बाकी है.

पहल करने वाला

चिन्मयी का हमेशा से सपना था कि वह NIMHANS—भारत की प्रमुख मानसिक स्वास्थ्य संस्था—में पढ़ाई करें. यह नीति निर्धारण की शीर्ष संस्था है, जो सिर्फ नीतियां ही नहीं बनाती बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने वाली संस्कृति भी तैयार करती है. उन्होंने 2022 में वहीं से क्लीनिकल साइकोलॉजी में एमफिल की डिग्री ली.

“ऐसी संस्थाएं जैसे कि NIMHANS जागरूकता बढ़ाने में भी योगदान देती हैं; वे जागरूकता के लिए बहुत सारे संसाधन साझा करती हैं,” उन्होंने कहा. “यह एक बेहतर तरीका है. क्लाइंट यह समझ सकते हैं कि उन्हें मनोचिकित्सक चाहिए या थैरेपिस्ट.”

File photo of National Institute of Mental Health & Neuro Sciences | Photo credit: nimhans.co.in
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान की फाइल फोटो | फोटो साभार: nimhans.co.in

जो बात उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से देखी, वह थी निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के मानसिक स्वास्थ्य देखभाल में अंतर. बीमारियां अलग तरह से सामने आती हैं. उदाहरण के लिए, उन्होंने NIMHANS में डिसोसिएटिव डिसऑर्डर जैसे डिपरसनलाइज़ेशन के मामले ज़्यादा देखे, बनिस्बत के अमाहा में.

संस्थान की प्रतिष्ठा और बड़े नामों के चलते नए थैरेप्यूटिक तरीकों और प्रैक्टिसेज़ को सबसे पहले बेंगलुरु में लागू किया जाता है. स्किल बढ़ाना भी कहीं आसान होता है.

“यहां ज़्यादा रफ्तार है और बहुत सारे भरोसेमंद कोर्स सबसे पहले यहीं आते हैं,” दिल्ली की होलिस्टिक ट्रॉमा थैरेपिस्ट और आई एम वेलबीइंग की संस्थापक अकांक्षा चंदेले ने कहा, जो स्किल बढ़ाने के लिए बेंगलुरु गई थीं. उदाहरण के लिए, सोमैटिक एक्सपीरिएंसिंग, एक बॉडी-बेस्ड ट्रॉमा थैरेपी, सबसे पहले बेंगलुरु में शुरू हुई थी.

“बेंगलुरु में प्रैक्टिशनर्स की गुणवत्ता कहीं ज़्यादा है, इतना कि जो लोग सिर्फ दिखावे के लिए थैरेपी कर रहे हैं उन्हें फ़िल्टर किया जा सकता है. दिल्ली अब भी ज़्यादा पारंपरिक है, पुरानी सोच वाली.”

चंदेले मुंबई भी गई थीं एक आर्ट-बेस्ड थैरेपी कोर्स के लिए. यह कोर्स चलाने वाला ग्रुप पूरे भारत में सेशन्स करता है. लेकिन दिल्ली में, उनके अनुसार, उन्हें बहुत कम लोग मिलते हैं.

NIMHANS के टेलीमेडिसिन सेंटर के प्रमुख और मनोचिकित्सा विभाग के प्रोफेसर डॉ सुरेश बदामठ ने कहा, “NIMHANS ने कानून, नीति और शिक्षा में योगदान देकर मानसिक स्वास्थ्य की बातचीत को एक नई दिशा दी है—जिससे यह समाज की प्राथमिकता बन गया और NIMHANS एक सुरक्षित स्थान.”

पिछले साल NIMHANS की स्थापना को 50 साल पूरे हुए, हालांकि मानसिक स्वास्थ्य की सुविधा वहां 1847 से मौजूद है.

शहर के बीचोबीच स्थित NIMHANS की मौजूदगी ने बेंगलुरु को मानसिक स्वास्थ्य को सामान्य करने में पहली बढ़त दिलाई, उस समय जब और कोई शहर तैयार नहीं था. दशकों से भारत भर के परिवार वहां इलाज के लिए आ रहे हैं—सारा सामान लेकर—क्योंकि ऐसी सुविधाएं और कहीं नहीं थीं.

बदामठ ने यह भी कहा कि यह संस्था एक “प्रेरक” की भूमिका निभाती है, जो एनजीओ को फंड दिलवाने और सीएसआर फंड्स को मानसिक स्वास्थ्य परियोजनाओं की ओर मोड़ने का काम करती है. 2024-25 के केंद्रीय बजट में NIMHANS को 860 रुपये करोड़ मिले—जो कि 2021 में मिली राशि से लगभग दुगनी है.

दिप्रिंट से बात करने वाले सभी प्रैक्टिशनर्स ने बताया कि जागरूकता की कमी और कलंक जैसी बाधाओं को पार किया गया है, और इस क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है. लेकिन अभी भी बहुत लंबा रास्ता तय करना बाकी है, भले ही थैरेपिस्ट के पास जाना अब कितना भी “फ़ैशनेबल” क्यों न लग रहा हो. बहुत से युवा अब चैटबॉट्स से परामर्श ले रहे हैं, और ऐसी तकनीकी हस्तक्षेपों को सावधानी से चलाना होगा. हालांकि चिन्मयी के केस में, उनके एक क्लाइंट को चैट-जीपीटी ने ही थैरेपी लेने की सलाह दी थी.

मानसिक स्वास्थ्य के मामले में, यह लहर लगातार बढ़ रही है, लेकिन अभी टूटी नहीं है.

फायरसाइड वेंचर्स के खैतान ने कहा, “हम आने वाले पांच सालों तक भी इन-पेशेंट डिपार्टमेंट की माँग को पूरा करने में पीछे हैं.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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