कश्मीर: मोहम्मद अपनी साइकिल पर कॉलेज से घर जा रहे थे, तभी अचानक कोई चिल्लाया, “मिर्ज़ई आव” — मिर्ज़ई आ गया. कुछ ही देर बाद, कांटेदार तार में लिपटी दो लाठियां उनकी पीठ पर लगीं. उन्होंने अपनी साइकिल छोड़ दी और वहां से भाग गए.
उनकी गलती क्या थी: अहमदिया या अहमदी होना.
27 साल के मोहम्मद ने कहा, “अपने घर पहुंचने के लिए मुझे एक ऐसे मोहल्ले से गुज़रना पड़ा जहां गैर-अहमदी लोग रहते थे. हमले के बाद, मैं दो हफ्ते तक कॉलेज नहीं गया, जब तक कि हमें घर जाने के लिए कोई नया रास्ता नहीं मिल गया.” 2016 में हुई इस घटना के बारे में बात करते समय उनकी आवाज़ अभी भी कांप उठती है. आज, मोहम्मद अपने गांव से 40 किलोमीटर दूर एक कॉलेज में प्रोफेसर हैं. वे सबको यह सोचने देते हैं कि वे सुन्नी हैं. आखिर यह सुरक्षा का सवाल है.
कई सुन्नियों द्वारा विधर्मी करार दिए जाने के बाद, अहमदिया मुसलमान मुस्लिमों पर होने वाले उत्पीड़न का संक्षिप्त रूप बन गए हैं. पाकिस्तान में उन्हें खुद को मुसलमान कहने के लिए जेल भेजा जाता है या संप्रदाय के संस्थापक मिर्ज़ा गुलाम अहमद को पैगंबर मानने के उनके ‘ईशनिंदा’ वाले विश्वास के लिए उन पर हमला किया जाता है. बांग्लादेश में उनकी मस्जिदों को जला दिया गया, किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया गया, सभाओं पर भीड़ ने हमले किए हैं. भारत में यह और भी सूक्ष्म है. आधिकारिक तौर पर, अहमदिया को मुसलमान के रूप में मान्यता दी गई है, लेकिन कश्मीर में, उनका बहिष्कार किया जाता है और उनसे दूरी बनाई जाती है.
दुकानें और स्कूल उन्हें भगा देते हैं. उन्हें “मिर्ज़ई” या “कादियानी” कहकर मज़ाक उड़ाया जाता है — संप्रदाय के संस्थापक मिर्ज़ा गुलाम अहमद और उनके जन्मस्थान, पंजाब के गुरदासपुर में कादियां के नाम से निकला अपशब्द. गांव की मस्जिदों में, मौलवी खुलेआम मांग करते हैं कि उन्हें ‘वापस चले जाना चाहिए’. समुदाय के सदस्यों का कहना है कि शुक्रवार की नमाज़ के दौरान ये आवाज़ें और तेज़ हो जाती हैं, खासकर मिश्रित इलाकों में. दो साल पहले श्रीनगर में एक धर्मोपदेश में लाउडस्पीकरों पर जोर से कहा गया था: “कादियानी कश्मीर छोड़ो. अपने पंजाब जाओ. अपने गैर-इस्लामी विचारों से हमारे मुसलमानों को संक्रमित मत करो. तुम काफिर हो.”
अन्य मुसलमान हमारे साथ अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं — ठीक वैसे ही जैसे हिंदू समाज में दलितों के साथ किया जाता है. जब हम सड़क पर चलते हैं और अगर वह हमें देख लेते हैं, तो वह ज़मीन पर थूक देते हैं
— अहमदिया मस्जिद के 60 साल के मौलवी
अहमदिया मौलवियों का अनुमान है कि घाटी में उनकी आबादी 15,000 है. ज़्यादातर छोटे, अलग-थलग इलाकों में रहते हैं. मिश्रित इलाकों में कई लोग अपने धर्म को छिपाते हैं. कई साल से उन्होंने अपनी समानांतर व्यवस्थाएं बनाई हैं — स्कूल, मस्जिद और दुकानें. उनका नारा, सभी के लिए प्यार, किसी से नफरत नहीं, इन इमारतों के अंदर लिखा हुआ है, लेकिन बाहर कभी नहीं कहा जाता. विश्वविद्यालयों और दफ्तरों में वह अक्सर अपनी पहचान सुन्नी बताते हैं. अपनी कम संख्या के साथ, वह जम्मू और कश्मीर की राजनीतिक पार्टियों के लिए वोट बैंक भी नहीं हैं. वह बेआवाज़, अदृश्य और दरकिनार हैं.
दशकों से दुश्मनी का स्तर उतार-चढ़ाव भरा रहा है, 1990 के दशक में उग्रवाद फैलने के साथ यह और गहरा हो गया.
80-वर्षीय अहमदिया मौलवी ने कहा, “1990 के दशक से पहले, अहमदिया और गैर-अहमदिया लोगों में शादी हुआ करती थी. रिश्ते भी सौहार्दपूर्ण थे, लेकिन जब जमात ने कश्मीर में प्रभाव हासिल किया तो सब कुछ बदल गया. उन्होंने सत्ता के गलियारों को नियंत्रित करना शुरू कर दिया. राजनीतिक दलों ने उन्हें खुश करना शुरू कर दिया.”
जबकि केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने से जमात-ए-इस्लामी का प्रभाव कम हो गया और 2019 में संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया गया, कई कश्मीरी मुसलमान अभी भी अहमदिया को संदेह और तिरस्कार की नज़र से देखते हैं.
मौलवी ने कहा, “यह कम हिंसक है, लेकिन बहिष्कार, भेदभाव और नफरत अभी भी बनी हुई है.”
कश्मीर में अहमदिया भारत के प्रति अपनी वफादारी पर ज़ोर देने में जल्दी करते हैं. वह मानते हैं कि उन्होंने कभी भी आज़ादी आंदोलन का समर्थन नहीं किया और समुदाय का कोई भी व्यक्ति उग्रवाद में शामिल नहीं हुआ, यहां तक कि उग्रवाद के चरम पर भी नहीं.
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खुलेआम छिपना
नूर 12 साल की हैं और उनका धर्म उन पर हावी है. उनकी सबसे अच्छी दोस्त एक सुन्नी मुस्लिम है और वे उस दोस्ती को खोना नहीं चाहतीं. भले ही वह दोस्ती ऐसी हो जिसमें वह यह न बता सके कि वह असल में कौन हैं.
उन्होंने घबराहट में अपनी उंगलियां रगड़ते हुए कहा, “हम आठ साल से दोस्त हैं. वह सोचती है कि मैं सुन्नी हूं और मैं इस भ्रम को दूर नहीं करना चाहती.”
यह ईद-उल-अज़हा का दूसरा दिन है और नूर ने अपनी सबसे अच्छी दोस्त के साथ आधे घंटे की कॉल खत्म की है. उन्होंने वीडियो कॉल पर अपने नए कपड़े दिखाए और खिलखिला उठीं. कल, वे उसके लिए नात फोल (मांस का टुकड़ा) ले जाएंगी. वह सबसे अच्छा पीस ले जाना चाहती हैं.
लेकिन एक डर उन्हें सता रहा है: “क्या होगा अगर उन्हें पता चल जाए कि मैं असल में कौन हूं और मुझसे बात करना बंद कर दें?”
अलग होने का एहसास उन्हें अंदर से चुभता है. हर दिन, नूर श्रीनगर में अपने स्कूल पहुंचने के लिए डेढ़ घंटे का सफर करती हैं. वह आस-पास के स्कूलों में नहीं जा सकती क्योंकि वहां हर कोई जानता है कि वह अहमदिया हैं.
शहर में, अपनी स्कूल शर्ट और स्कर्ट पहनकर, वह घुलमिल जाती हैं. वह कभी उन्हें नहीं बताती. वह कभी उनके नहीं पूछते.

उन्होंने अपने बड़े भाई की गलती से सबक सीखा है. 2019 में, जब वह दक्षिण कश्मीर में कॉलेज में पढ़ रहा था, तो उसने तीन दोस्तों के साथ किराए के मकान में रहना शुरू किया. एक शाम, दिल खोलकर बातचीत के दौरान उसने उन्हें बताया कि वह अहमदिया है. रात होने तक, उन्होंने अपना बैग पैक किया और चले गए. नूर ने कहा कि छह साल बाद भी उनका भाई उस अपमान से उबर नहीं पाया है. उनके माता-पिता, दोनों सरकारी कर्मचारी हैं, वह भी काम पर अपने धर्म का ज़िक्र कभी नहीं करते.
श्रीनगर में ही एक अन्य जगह पर, इस्फहाक को अपने दो बेटों—11 और 15 साल की उम्र — को पिछले साल स्कूल से निकालना पड़ा, क्योंकि कुछ दोस्तों ने उन्हें मध्य श्रीनगर में पुलिस कैंप के बगल में स्थित अहमदिया मस्जिद में प्रवेश करते देखा था.
“उन्होंने मेरे बच्चों से पूछना शुरू कर दिया कि वह काफिर मस्जिद में क्या कर रहे थे. मेरे बच्चे घर वापस आ गए और मैंने उन्हें अगले दिन अपनी पहचान बताने की सलाह दी और उन्होंने ऐसा किया.”
यह खबर पूरे स्कूल में जंगल की आग की तरह फैल गई. स्टूडेंट्स और टीचर्स उनसे दूर रहने लगे. उनके दोस्त अब उनसे बात नहीं करते थे.
1990 के दशक के बाद, कुछ इस्लामी मुफ्तियों ने (अहमदियों) के खिलाफ खुलकर बोलना शुरू कर दिया, जिससे उन्हें बहिष्कार की कहानी में और भी गहराई से शामिल कर दिया गया. वह बड़े इस्लामीकरण प्रवचन का शिकार बन गए
— एजाज़ अहमद राथर, जेएनयू के एक कश्मीरी पीएचडी स्कॉलर
अब, लड़के एक गैर-मुस्लिम द्वारा चलाए जाने वाले स्कूल में पढ़ते हैं.
इस्फहाक ने कहा, “वह वहां ठीक से पढ़ रहे हैं. प्रिंसिपल को पता है कि वह अहमदिया हैं, लेकिन वह भेदभाव नहीं करते हैं.”
नूर के दो मंजिला घर में, जहां छोटा बगीचा गुलाबों से खिल रहा है, उनके दादा सभी पांच पोते-पोतियों को इकट्ठा होने के लिए कहते हैं. ग्रे पठान कुर्ता पहने, सीधे खड़े होकर, वह अपना दाहिना हाथ अपनी छाती पर रखते हैं.
उन्होंने अपनी कर्कश आवाज़ में कहा, “हम अहमदिया हैं. हम अपराधी नहीं हैं. हमें डरना नहीं चाहिए. अपनी पहचान छिपाएं, लेकिन अगर उन्हें पता चल जाए, तो सब्र करें. वह जो भी बुरा कहें, उसे सुनें. सब्र ही हमारा बचाव है. सब्र ही वह है जो अल्लाह हमें सिखाता है.”
8 से 22 साल की आयु के उनके श्रोता चुपचाप सिर हिलाते हैं.
समुदाय के लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं है. उनके अतीत ने उन्हें एक कड़वी सीख दी है: सब कुछ खोना आसान है, यहां तक कि उन जगहों पर भी जहां कभी सुरक्षा और अपनेपन का वादा किया गया था.
उनके इतिहास का एक हिस्सा आज भी उन्हें परेशान करता है: पाकिस्तान के गठन के लिए आंदोलन में उनकी अहम भूमिका, जिसे कभी वादा किए गए देश के रूप में कल्पना की गई थी. उसी देश ने खुद उनके समुदाय पर ज़बरदस्त हमले किए हैं.
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कभी पाकिस्तान समर्थक, अब भारत के वफादार
कश्मीर में अहमदिया भारत के प्रति अपनी वफादारी पर ज़ोर देने में जल्दी करते हैं. वह मानते हैं कि उन्होंने कभी भी आज़ादी आंदोलन का समर्थन नहीं किया और समुदाय का कोई भी व्यक्ति उग्रवाद में शामिल नहीं हुआ, यहां तक कि उग्रवाद के चरम पर भी नहीं.
उनके इतिहास का एक हिस्सा आज भी उन्हें परेशान करता है: पाकिस्तान के गठन के लिए आंदोलन में उनकी अहम भूमिका, जिसे कभी वादा किए गए देश के रूप में कल्पना की गई थी. उसी देश ने खुद उनके समुदाय पर ज़बरदस्त हमले किए हैं. इसने उन्हें 1974 में गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया, उन्हें सार्वजनिक रूप से नमाज़ अदा करने से प्रतिबंधित कर दिया और उनकी पहचान को ही अपराधी बना दिया.
कश्मीर में अहमदिया अक्सर पाकिस्तान के प्रति अपनी पिछली वफादारी से खुद को दूर करने की कोशिश करते हैं. कुछ लोग इसे 1947 में विभाजन से पहले तीव्र सांप्रदायिक तनाव से पैदा हुई मजबूरी बताते हैं.
विडंबना यह है कि आज कश्मीर में उन्हें जिस दुश्मनी का सामना करना पड़ रहा है, उसका भी पाकिस्तान से संबंध है: सीमा पार उग्रवाद और कट्टरपंथी इस्लाम का प्रसार.

1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में, जब कश्मीर में उग्रवाद ने अपनी जड़ें जमा लीं, तो क्षेत्र का धार्मिक परिदृश्य बदलने लगा.
कश्मीर यूनिवर्सिटी के एक सीनियर स्कॉलर ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “इस्लाम अधिक रूढ़िवादी और कट्टरपंथी बन गया.”
इस समय के आसपास, कश्मीर की सूफी परंपराएं कठोर इस्लाम के लिए रास्ता बनाने लगी थीं. पुलित्जर सेंटर के पेपर कश्मीर: फ्रॉम सूफी टू सलाफी में अनुभवी पत्रकार तारिक मीर ने लिखा कि रूढ़िवादी मौलवी अधिक प्रभावशाली हो गए और युवा पुरुषों ने “अरबी सरनेम अपनाना शुरू कर दिया”.

मीर ने कहा कि 2000 के दशक की शुरुआत तक, भारतीय राज्य ने उग्रवाद को कम करने के लिए बल और कूटनीतिक दबाव का इस्तेमाल किया था, “लेकिन उग्रवादी इस्लाम ने सांस्कृतिक परिदृश्य में जड़ें जमा लीं”.
मुसलमानों में अहमदिया समुदाय सबसे पहले हताहत हुआ क्योंकि कट्टरपंथी इस्लाम अधिक मजबूत हो गया. पाकिस्तान की तरह, उन्हें काफिर करार दिया गया और मुख्यधारा के धार्मिक जीवन से मिटा दिया गया.
जेएनयू के कश्मीरी पीएचडी स्कॉलर एजाज़ अहमद राथर ने कहा, “1990 के दशक के बाद, कुछ इस्लामी मुफ्तियों ने उनके खिलाफ खुलकर बोलना शुरू कर दिया, जिससे उन्हें बहिष्कार के नैरेटिव में और भी गहराई से शामिल कर दिया गया. वह बड़े इस्लामीकरण प्रवचन का शिकार बन गए”. अहमद ने अपने शोध प्रबंध, अहमदिया: द मेकिंग ऑफ आइडेंटिटी इन कोलोनियल पंजाब के लिए समुदाय पर शोध किया है.
उनकी प्रतिक्रिया काफी हद तक अंदर की ओर लौटने की रही है.
उन्होंने कहा, “कश्मीर में अहमदिया समुदाय मुख्यधारा से अलग-थलग महसूस करता है और प्रणालीगत भेदभाव का सामना करता है. नतीजतन, वह एक-दूसरे के साथ करीबी से जुड़े हुए हैं. उनका समुदाय एकजुट और संगठित है. अब तक, उन्होंने चुपचाप दमन का सामना किया है और इन मुद्दों पर बात नहीं की है.”
अक्सर उन्हें मिलने वाले अपशब्दों के विपरीत अहमदिया शुक्रवार की नमाज़ में अंतर-धार्मिक सम्मान को बढ़ावा देते हैं. 80-वर्षीय मौलवी ने कहा, “यह घृणा, हिंसा का समर्थन नहीं करता है, या इसमें राजनीतिक तत्व नहीं हैं.”
अदृश्य दीवारें
यह ईद का त्यौहार है, फिर भी नूर के घर के बाहर, तंग, सुनसान दुकानों की कतार में ग्राहकों की एक छोटी सी भीड़ दिखाई देती है. यहां किराने की दुकान, सैलून और केमिस्ट की दुकान केवल दो दर्जन अहमदिया परिवारों के लिए है जो पड़ोस में रहते हैं.
दुकानों के ठीक बगल में, एक संकरी गली अहमदिया मस्जिद, उनके स्कूल और लगभग 30 घरों की ओर जाती है. यह श्रीनगर के बाहरी इलाके में एक मिश्रित इलाका है, जहां अहमदिया शांत बहिष्कार की छाया में जीते हैं. इस साझा स्थान के भीतर, वह अलग-थलग और बहिष्कृत रहते हैं.
यह अलगाव आठ साल पहले और अधिक स्पष्ट हो गया, जब समुदाय का एक छोटा लड़का गैर-अहमदिया दुकान से चिप्स का एक पैकेट खरीदने गया. उसे बाहर निकाल दिया गया और अपशब्द कहे गए. अगले दिन, गैर-अहमदिया लोगों ने सरकारी अधिकारियों से संपर्क किया और अहमदिया लोगों के लिए अलग राशन कार्ड की मांग की. इसके तुरंत बाद, समुदाय ने अपनी दुकानें खोल लीं.
अहमदिया मस्जिद के 60-वर्षीय प्रमुख ने कहा, “अन्य मुसलमान हमारे साथ अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं — ठीक वैसे ही जैसे हिंदू समाज में दलितों के साथ किया जाता है. जब हम सड़क पर चलते हैं और अगर वह हमें देख ले तो वह ज़मीन पर थूक देते हैं.”
यह “अछूतपन” सिर्फ बयानबाज़ी नहीं है. सवर्ण हिंदुओं और दलितों की तरह, यह पवित्रता के विचारों से जुड़ा हुआ है.
दो साल पहले, मोहम्मद का भाई दक्षिण कश्मीर में एक गैर-अहमदिया मस्जिद में घुस गया. किसी ने उसे पहचान लिया, तो उसे सिर्फ बाहर नहीं निकाला गया — मस्जिद को डिटर्जेंट से धोया गया.
पानी का एक घूंट, फिर आग
यह 2012 में एक गैर-अहमदिया शादी थी और 26-वर्षीय इकबाल को आमंत्रित किया गया था. हालांकि, वे थोड़ा नर्वस थे, लेकिन वे वहां गए. वे वहां अकेले अहमदिया थे. समारोह के लगभग एक घंटे बाद, मिर्च खाने के बाद, वह पानी के लिए दौड़े और एक काले सिंटेक्स टैंक से जुड़े नल से पानी पिया.
अगली सुबह, वह टैंक वायरल हो गया. गांव के मौलवियों और निवासियों के एक समूह ने टैंक तक मार्च किया, उसमें सूखी घास भरी और आग लगा दी. वहां खड़े लोगों ने पूरे प्रकरण को रिकॉर्ड किया और इसे YouTube पर शेयर किया.
इकबाल के चचेरे भाई ने कहा, “ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि एक अहमदिया ने गैर-अहमदिया के सिंटेक्स टैंक से पानी पी लिया था. यह समुदाय को सबक सिखाने के लिए था.”
वीडियो एक कैप्शन के साथ शुरू होता है: “मिर्ज़ई पसंद (कादियानी) लोगों द्वारा दुरुपयोग किए गए सिंटेक्स को एक गांव में मस्जिद के परिसर में शुक्रवार की नमाज़ के बाद मुसलमानों द्वारा जला दिया गया.”

इसे शकील अहमद नामक व्यक्ति ने अपलोड किया था, जो नियमित रूप से मौलवी मुफ्ती मंज़ूर अहमद कासमी के वीडियो शेयर करता है. इनमें से कई वीडियो महिलाओं को पर्दा अपनाने की सख्त सलाह देते हैं और मुसलमानों से अपने दीन (धर्म) की रक्षा करना सिखाते हैं. श्रीनगर के बाहर एक मस्जिद में अहमदिया मौलवी ने कहा कि ऐसे नए युग के प्रचारक कश्मीर की सूफी जड़ों से कटे हुए हैं और उन्होंने “युवा दिमागों में नफरत भर दी है”.
मीर ने अपने पेपर में कहा कि यह कट्टरपंथी मोड़ सऊदी फंडिंग और “इस्लामी प्रवचन में सैकड़ों युवाओं को प्रशिक्षित करने” से जुड़ा है.
(पाकिस्तान में अहमदिया लोगों को) बकरे काटने की अनुमति नहीं है. उनकी मस्जिदें जला दी जाती हैं और उन्हें दिनदहाड़े बिना किसी दंड के मार दिया जाता है, जबकि अन्य मुसलमान हमारे खून-खराबे का समर्थन करते हैं. अल्लाह का शुक्र है कि हम हिंदुस्तान में हैं
— कश्मीर के अहमदिया निवासी काजी
2014 में स्थानीय सुन्नी मौलवियों ने अहमदिया और गैर-अहमदिया के बीच सभी अंतर्जातीय विवाहों को अमान्य घोषित कर दिया. अहमदिया के अनुसार, जब भी कोई कट्टरपंथी मौलवी उपदेश देने के लिए किसी गांव में जाता है, तो भेदभाव और बढ़ जाता है.
पिछले साल अपलोड किए गए एक वीडियो में मुफ्ती मुश्ताक द्वारा शुक्रवार की नमाज़ के उपदेश में मिर्ज़ा गुलाम अहमद — और विस्तार से अहमदियों को — “दज्जाल” (झूठा मसीहा) कहा गया था.
उन्होंने घोषणा की, “यह कहा गया था कि मेरे (पैगंबर मुहम्मद) के बाद कोई नबी नहीं होगा, लेकिन एक दज्जाल होगा जो नबी होने का दावा करेगा और जो ऐसा दावा करता है वह दज्जाल है, झूठा है. इसलिए यह स्थापित है कि — मिर्ज़ाई, कादियानी अहमदी — धर्म के खिलाफ हैं.”
वीडियो के नीचे, “बेघ भाई” के रूप में पोस्ट करने वाले एक टिप्पणीकार ने लिखा: “वह झूठ बोल रहा है”. किसी ने जवाब दिया: “कादियानी बेनकाब. दज्जाल.”
लेकिन अक्सर उन पर निर्देशित अपशब्दों के विपरीत, अहमदिया शुक्रवार के उपदेशों की कड़ी जांच की जाती है और अंतर-धार्मिक सम्मान को बढ़ावा देते हैं.
भाषण ब्रिटेन में तैयार किया जाता है, कादियान में मुख्यालय को भेजा जाता है और वहां से जम्मू और कश्मीर में मौलवियों को भेजा जाता है. उन्हें एक प्रिंटआउट मिलता है और वह इसे शब्दशः पढ़ते हैं.
80-वर्षीय मौलवी ने कहा, “भाषण तैयार करने से पहले कुछ बिंदुओं को ध्यान में रखा जाता है. यह किसी भी समुदाय के खिलाफ नफरत, हिंसा या राजनीतिक तत्वों का समर्थन नहीं करता है. हमें राजनीति से दूर रहने का आदेश है.”
पोस्ट और इबादत
सोशल मीडिया ही एक ऐसी जगह है जहां कश्मीर में अहमदिया लोग खुलकर अपनी बात रख सकते हैं. हालांकि, वहां भी वह छद्म नामों का इस्तेमाल करते हैं.
23-वर्षीय काज़ी हर दिन उन पोस्ट का जवाब देते हैं, जिनमें उनके समुदाय को “कमतर मुसलमान”, “काफिर” या यहां तक कि “हिंदू” कहा जाता है.
काज़ी के एक जवाब में कहा गया, “कृपया हमें काफिर कहने से पहले धार्मिक साहित्य पढ़ें.” एक अन्य जवाब में लिखा था, “आप बस गुमराह मुसलमान हैं. मुझे आप पर दया आती है.”
इंस्टाग्राम के ज़रिए, वह जम्मू-कश्मीर में अहमदिया लोगों से जुड़े रहते हैं. समुदाय के बुज़ुर्गों ने दिप्रिंट को यह भी बताया कि उन्होंने अपनी बेटियों की शादी पाकिस्तान में अहमदिया लोगों से की है.
एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा, जिनकी बेटी की शादी लाहौर के एक अहमदिया परिवार में हुई थी, “हमारा समुदाय बहुत छोटा है. हम बाहर शादी नहीं करते, नहीं तो हम इसे जारी नहीं रख पाएंगे. हमने अपनी बेटियों की शादी पाकिस्तान के शिक्षित अहमदिया लोगों से करवाई है, लेकिन वह वहां नहीं रहते — वे ब्रिटेन और कनाडा में बसे हुए हैं.”

जम्मू-कश्मीर में अहमदिया लोग पाकिस्तान में अपने समुदाय के लोगों की परेशानियों पर कड़ी नज़र रखते हैं.
काज़ी ने कहा, “उन्हें बकरे काटने की अनुमति नहीं है. उनकी मस्जिदें जला दी जाती हैं और उन्हें दिनदहाड़े बिना किसी दंड के मार दिया जाता है, जबकि दूसरे मुसलमान हमारे खून-खराबे का समर्थन करते हैं. अल्लाह का शुक्र है कि हम हिंदुस्तान में हैं.”
पुलिस मुख्यालय से सटी श्रीनगर की एकमात्र अहमदिया मस्जिद में लोगों ने सीमा पार अपने समुदाय के लिए ईद की विशेष नमाज़ अदा की.
इस महीने की शुरुआत में कथित तौर पर स्थानीय अधिकारियों के समर्थन से धार्मिक चरमपंथियों ने कई पाकिस्तानी शहरों में अहमदियों को ईद की नमाज़ अदा करने और जानवरों की बलि देने से रोका. कुछ जगहों पर जबरन धर्म परिवर्तन की भी खबरें आईं.
काज़ी ने भी उनके लिए दुआ की: “मैंने अल्लाह से उन्हें अत्याचारियों और उन पर किए गए ज़ुल्म से बचाने के लिए कहा.”
अहमदिया समुदाय ने शासन की अपनी अनौपचारिक प्रणाली विकसित की है. हर गांव में एक परिषद प्रमुख और विभाग होते हैं जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी के पहलुओं की देखरेख करते हैं — युवा मामलों से लेकर कानून और व्यवस्था तक.
‘उदारवादी, वैज्ञानिक, तर्कसंगत’
एक पुरुष टीचर रेड पेन से नोटबुक चेक कर रहे हैं, तभी 10 साल का स्टूडेंड स्टाफ रूम में रुकता है. वे पूछता है, “अहमदिया कौन हैं?” बिना कुछ सोचे टीचर कहते हैं, “उदारवादी, वैज्ञानिक और तर्कसंगत मुसलमान.” फिर वह छात्र से कहते हैं कि वह घर पर इन तीन शब्दों का अर्थ सीखे.
श्रीनगर के बाहरी इलाके में स्थित इस अहमदिया स्कूल की लाल ईंटों की दीवारों पर बीआर आंबेडकर, भगत सिंह, कल्पना चावला, शेक्सपियर, प्रसिद्ध कश्मीरी कवि महज़ूर और पाकिस्तानी सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी अब्दुस सलाम के पोस्टर लगे हुए हैं — एक अहमदिया जो 1979 में विज्ञान का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले मुस्लिम बने.
प्रवेश द्वार पर एक हरे रंग के लोहे के बोर्ड पर लिखा है: “एक बच्चा, एक शिक्षक, एक कलम और एक किताब दुनिया बदल सकती है.” स्कूल के नाम वाले बोर्ड पर लिखा है “सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त स्कूल”.

यहां केवल 80 स्टूडेंट्स पढ़ते हैं, लेकिन स्कूल में स्किल डेवलपमेंट क्लास से लेकर कश्मीरी, अंग्रेज़ी, उर्दू और यहां तक कि हिंदी तक कई सब्जेक्ट्स पढ़ाए जाते हैं, जो घाटी के लिए असामान्य है.
एक दशक से ज़्यादा वक्त तक यहां पढ़ाने वाले सीनियर टीचर ने कहा, “हमारे छात्र दूसरे राज्यों में जाकर हिंदी पढ़ सकते हैं, जबकि कई गैर-अहमदिया मुस्लिम छात्र ऐसा नहीं कर पाते. हमारे लिए हिंदी सिर्फ एक भाषा है जो हमारे युवाओं को समाज में आत्मसात करने में मदद कर सकती है.”
प्रिंसिपल ने कहा कि हिंदी पढ़ाने के लिए समुदाय जम्मू क्षेत्र से हिंदू टीचर्स को नियुक्त करता है. छात्रों को अन्य मुस्लिम संप्रदायों के बारे में जानने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है.

यह सिर्फ स्कूलों की बात नहीं है. अहमदिया समुदाय ने शासन की अपनी अनौपचारिक प्रणाली विकसित की है. हर गांव में एक परिषद प्रमुख और विभाग होते हैं जो युवा मामलों से लेकर कानून और व्यवस्था तक रोज़मर्रा के जीवन के विभिन्न पहलुओं की देखरेख करते हैं.
युवा विभाग के प्रमुख ने कहा, “ये विभाग परिषद प्रमुख से बात करने के बाद पहले खुद ही मुद्दों को सुलझाने की कोशिश करते हैं. अगर मामला गंभीर होता है, तो हम सीधे पुलिस के पास जाते हैं.”
समुदाय के नेताओं का मानना है कि आगे बढ़ने के लिए शिक्षा ही एकमात्र साधन है, लेकिन कश्मीर में ऐसा नहीं है.
बंद दरवाज़े और कांच की छतें
मोहम्मद ज़्यादातर मानकों के हिसाब से एक सफल कहानी हैं. उनके पास दो मास्टर डिग्री, एक पीएचडी है, उन्होंने राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा पास की है और अब एक कॉलेज में पढ़ा रहे हैं, लेकिन जब करियर में प्रमोशन की बात आती है, तो वह कहते हैं, योग्यता मायने नहीं रखती.
उन्होंने कहा, “मेरा संप्रदाय बीच में आता है.”
पिछले साल, उन्होंने J&K यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर के पद के लिए आवेदन किया, लेकिन उनका दावा है कि प्रशासन में किसी ने बैकग्राउंड चैक के दौरान उनकी अहमदिया पहचान को चिन्हित किया, जिसके बाद उनका आवेदन अस्वीकार कर दिया गया.
ईद के दूसरे दिन, उनका घर किसी भी कश्मीरी मुस्लिम घर जैसा दिखता है. बगीचे में एक अस्थायी खुले तंबू के नीचे वध किए गए बकरों का मांस काटा जा रहा है. पठान कुर्ते में पुरुष, नई चूड़ियां और पाकिस्तानी सूट में महिलाएं और बच्चे अपनी ईदियां लेकर इधर-उधर भाग रहे हैं.
लेकिन घर के सबसे दूर वाले कमरे में मोहम्मद अकेले बैठे हैं और दुनिया भर में अहमदिया मुस्लिम समुदाय के आध्यात्मिक प्रमुख मिर्ज़ा मसरूर अहमद की किताब वर्ल्ड क्राइसिस एंड द पाथवे टू पीस पढ़ रहे हैं. 263 पन्नों की इस किताब को पढ़ना उनका निजी ईद का रिवाज़ है. उनका कहना है कि इससे उन्हें “इस्लाम की शिक्षाओं को फिर से सीखने” में मदद मिलती है.

वह एक अंश को जोर से पढ़ते हैं. यह इस बारे में है कि कैसे ग्रेट ब्रिटेन में रहने वाले अहमदिया बेहद वफादार नागरिक हैं “हमारे पैगंबर की शिक्षाओं के कारण जिन्होंने हमें निर्देश दिया कि अपने देश से प्यार करना किसी के विश्वास का अभिन्न अंग है”.
मोहम्मद ने बताया कि यह सबक हर जगह सच है: “हिंदुस्तान में रहने वाला एक अहमदिया अपनी ज़मीन की रक्षा करेगा और उन पर किए गए अत्याचारों के बावजूद, पाकिस्तान में अहमदिया अपने देश की रक्षा करेंगे. हमें हमारे पैगंबर ने बताया है कि अगर आप युद्ध में हैं तो आप अपने देश के लिए लड़ें, पहचान के लिए नहीं.”
लेकिन हमेशा वह भावना वापस नहीं आती.
2014 में, जब बाढ़ ने कश्मीर के कई हिस्सों को तबाह कर दिया था, तब अहमदिया मौलवियों को गुरदासपुर मुख्यालय से राहत कार्य के लिए दान मिला था. मोहम्मद और अन्य युवा स्वयंसेवकों को सहायता वितरित करने का काम सौंपा गया था, लेकिन जब उन्होंने दरवाज़े खटखटाए, तो उनका हमेशा स्वागत नहीं किया गया.
मोहम्मद ने कहा, “मुश्किल से आधा दर्जन परिवारों ने राहत राशि ली. अन्य लोगों ने, अनिश्चित स्थिति में होने के बावजूद, हमारे सामने दरवाज़े बंद कर दिए.”
पिछले कुछ साल में कई कश्मीरी मुस्लिम विद्वानों और इतिहासकारों ने अहमदिया लोगों के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ लिखा है, लेकिन इससे कश्मीरी समाज में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है.
छिपकर नमाज़ अदा करना
श्रीनगर जिले के खानयार की संकरी गलियों में भूरे संगमरमर की दीवारों और लकड़ी के दरवाज़ों और खिड़कियों वाली एक छोटी सी दरगाह है. यह रोज़बल दरगाह है, एक कम चर्चित, लेकिन विवादास्पद स्थल जिसने अहमदियों और गैर-अहमदियों के बीच की खाई को और गहरा कर दिया है.
यह युज़ असफ नामक एक संत को समर्पित है, लेकिन अहमदियों के लिए, यह ईसा मसीह का अंतिम विश्राम स्थल है. 1899 के लेखों में, संप्रदाय के संस्थापक मिर्ज़ा गुलाम अहमद ने दावा किया कि ईसा मसीह सूली पर चढ़ने के बाद बच गए, पूर्व की ओर चले गए और कश्मीर में उनकी मृत्यु हो गई. जर्मन लेखक होल्गर केर्स्टन की 2001 की किताब जीसस लिव्ड इन इंडिया से इस सिद्धांत को व्यापक समर्थन मिला.

हालांकि, कई अन्य मुसलमानों के लिए यह विश्वास कि ईसा मसीह को धरती पर दफनाया गया है, ईशनिंदा है.
70 वर्षीय सुन्नी मुस्लिम ने कहा, “इन अहमदियों ने इस दरगाह को एक बड़ा मुद्दा बना दिया है. यह सिर्फ पैसे कमाने का एक ज़रिया है.”
अहमदिया लोगों के लिए यह जगह बहुत धार्मिक महत्व रखती है. उनके धार्मिक नेता उनसे कहते हैं कि वह साल में कम से कम एक बार यहां नमाज़ अदा करें, लेकिन 80-वर्षीय अहमदिया मौलवी के अनुसार, अगर वह अपनी पहचान बताते हैं तो उन्हें प्रवेश नहीं दिया जाता. इसलिए वह सुन्नी बनकर आते हैं और चुपचाप अल्लाह से अपने धोखे के लिए माफी मांगते हैं.
उन्होंने इस बात को इतना बढ़ावा दिया है कि एक मुसलमान के तौर पर भी उनकी मस्जिदों में मैं खुद को पराया महसूस करता हूं और मैं ठीक से नमाज़ नहीं पढ़ पाता हूं
— मोहम्मद, अहमदिया समुदाय के सदस्य
धार्मिक अभ्यास अन्य तरीकों से भी भरा हुआ है, जिसमें संस्थागत सहायता तक पहुंच शामिल है.
समुदाय के सदस्यों का आरोप है कि लगभग पांच साल पहले तक कश्मीर के कई अहमदिया लोगों को सरकारी हज कोटा नहीं दिया जाता था. उनके अनुसार, कश्मीर में हज को संभालने वाली समितियां उस समय जमात-ए-इस्लामी मौलवियों से काफी प्रभावित थीं. संगठन पर 2019 के प्रतिबंध से कुछ राहत मिली क्योंकि इससे कट्टरपंथियों की पकड़ कमज़ोर हुई.
पीएचडी स्कॉलर राथर ने कहा, “ऐसे कई उदाहरण हैं जहां अहमदिया लोगों को उनकी पहचान के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा, जैसे कि सरकारी हज कोटा के लिए उनके दस्तावेज़ों को अस्वीकार करना. यह कुछ संस्थानों, विशेष रूप से कश्मीर में, के भीतर प्रतिक्रियावादी तत्वों से उपजा है, जो उन्हें परेशान करते हैं. भारत में अहमदियों को मुसलमान माना जाता है. भारतीय हज समिति भारतीय कानूनों और नियमों के तहत काम करती है.”

पिछले कई सालों से कई कश्मीरी मुस्लिम विद्वानों और इतिहासकारों ने अहमदिया समुदाय के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ लिखा है, लेकिन इससे कश्मीरी समाज में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है.
जिस कॉलेज में मोहम्मद पढ़ाते हैं, उसके आस-पास कोई अहमदिया मस्जिद नहीं है. इसलिए वह दूसरे संप्रदायों की मस्जिदों में नमाज़ पढ़ते हैं. वहां कोई नहीं जानता कि वह कौन हैं, लेकिन उन्हें अपनी ‘बाहरी’ स्थिति का पूरा अहसास है.
मोहम्मद ने कहा, “उन्होंने यह कहानी इतनी गहराई से फैला दी है कि हम इतने अलग हैं कि उनकी मस्जिदों में एक मुसलमान होने के बावजूद भी मैं खुद को पराया महसूस करता हूं और मैं ठीक से नमाज़ नहीं पढ़ पाता हूं.”
दो साल पहले, उनके भाई ने दक्षिण कश्मीर में एक गैर-अहमदिया मस्जिद में प्रवेश किया. किसी ने उन्हें पहचान लिया, तो उन्हें न सिर्फ बाहर निकाल दिया गया — बल्कि मस्जिद को डिटर्जेंट से धोया गया.
मोहम्मद ने रूखेपन से कहा, “अल्लाह का शुक्र है कि वह हमें मार नहीं सकते क्योंकि हम हिंदुस्तान में हैं.”
श्रीनगर की अहमदिया मस्जिद में, बुजुर्ग मौलवी नमाज़ अदा करने के लिए बेंच से उठते हैं. जाने से पहले, वह खिड़की से बाहर देखते हैं और प्रसिद्ध कश्मीरी कवि महजूर की एक पंक्ति पढ़ते हैं, जिसे समुदाय के सदस्य अहमदिया होने का दावा करते हैं:
“वान्या महजूर दास्तान-ए-दिल जरूर, वन्नुक ती चुम्म ना वर मदनो” — महजूर ने अपने दुखते दिल की कहानी फुसफुसा कर कही होगी, लेकिन, किस्मत कभी दया नहीं करती, हे प्यारे.
(अहमदिया समुदाय के सदस्यों की पहचान की रक्षा के लिए स्टोरी में नाम बदल दिए गए हैं)
(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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