scorecardresearch
बुधवार, 28 मई, 2025
होमफीचरऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट में दर्ज केस कानूनी पेच और पेंडिंग मामलों में फंसे हैं

ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट में दर्ज केस कानूनी पेच और पेंडिंग मामलों में फंसे हैं

भारत-पाकिस्तान संघर्ष के बाद सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर ज्योति मल्होत्रा ​​उन लोगों में शामिल थीं जिन पर आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया था. NCRB के आंकड़ों से पता चलता है कि OSA मामलों की सुनवाई में लगातार देरी हो रही है और लंबित मामलों की संख्या भी बहुत अधिक है.

Text Size:

नई दिल्ली: भारतीय वायु सेना के पूर्व एयरक्राफ्टमैन रंजीत के.के. अब केरल के मलप्पुरम जिले में अपने घर लौट आए हैं, जहां वे छोटे-मोटे काम करते हैं और अपने मुकदमे के नतीजे का इंतजार कर रहे हैं. उन पर एक गंभीर आरोप का साया अभी भी है—कि उन्होंने भारत से गद्दारी की और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई को संवेदनशील जानकारी लीक की.

करीब 2012 में, जब रंजीत 28 साल के थे, तो उन्हें फेसबुक पर ‘मैक नॉट दामिनी’ नाम की प्रोफाइल से हनीट्रैप किया गया. यह एक फर्जी नाम था और उसे इस्तेमाल कर उन्हें यूके की एक रक्षा पत्रिका के लिए विश्लेषक के रूप में काम करने का झांसा दिया गया, साथ ही अतिरिक्त कमाई का लालच भी.

उन पर आरोप है कि उन्होंने भारतीय वायु सेना स्टेशनों, ‘ऑपरेशन इंद्रधनुष’ (IAF और रॉयल एयर फोर्स का संयुक्त अभ्यास), और अन्य महत्वपूर्ण रक्षा ठिकानों की गोपनीय जानकारी ‘मैक नॉट दामिनी’ को ईमेल और सोशल मीडिया के माध्यम से साझा की.

दिसंबर 2015 में, उनके खिलाफ एक एफआईआर दर्ज की गई, जिसमें उनके द्वारा कथित रूप से प्राप्त भुगतान और अन्य सबूत शामिल थे. इसके बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया. जांच में पता चला कि ‘मैक नॉट दामिनी’ असल में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी का एक पुरुष ऑपरेटिव था.

रंजीत ने सात साल जेल में बिताए—जो कि ‘ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट’ की धारा 3 के तहत अधिकतम सजा की आधी अवधि है. दिसंबर 2023 में उन्हें ज़मानत मिली. उस समय अदालत ने कानूनी प्रक्रिया में देरी की ओर इशारा किया. कोर्ट ने बताया कि 2016 में चार्जशीट दायर होने के बावजूद मुकदमा दिसंबर 2017 में शुरू हुआ और आरोप तय करने में तीन साल और लग गए.

कोर्ट ने इस देरी को “स्पष्ट” बताया. एक दशक बाद भी यह मामला अब भी अभियोजन पक्ष की गवाही के स्तर पर है.

यह कोई अकेला मामला नहीं है—सरकारी रिकॉर्ड में यह एक प्रवृत्ति के रूप में देखा गया है.

कुछ मामलों में आरोपियों को बरी कर दिया जाता है और कुछ में सजा कम हो जाती है, जो अक्सर मामलों की लंबी अवधि और मीडिया की शोरगुल से एकदम अलग होता है. ‘ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट’ (OSA) के तहत दर्ज मामलों को अक्सर मीडिया में काफी तवज्जो मिलती है, खासकर जब भारत-पाकिस्तान टकराव के समय ऐसे मामले सामने आते हैं.

सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर ज्योति मल्होत्रा, और दिहाड़ी मजदूर पालक शेर मसीह और सूरज मसीह जैसे लोगों के खिलाफ भी जासूसी के आरोप में OSA के तहत मामले दर्ज किए गए हैं.

पुलिस ने ‘भारतीय न्याय संहिता’ (BNS) की उन धाराओं के तहत भी कई मामले दर्ज किए हैं, जो भारत की संप्रभुता और एकता को खतरे में डालने और पाकिस्तान उच्चायोग के उन अधिकारियों से संपर्क रखने से जुड़े हैं, जिन्हें भारत ने ‘पर्सोना नॉन ग्राटा’ घोषित किया था.

दिप्रिंट से बात करते हुए एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, “OSA के मामलों में, जहां ठोस भौतिक सबूत नहीं होते, अभियोजन पक्ष का केस आमतौर पर परिस्थितिजन्य या सहायक साक्ष्यों पर आधारित होता है.”

अधिकारी ने कहा, “अगर आरोपी के पास से कोई दस्तावेज़ मिलता है, जिस पर ‘गोपनीय’ लिखा हो या जिसे संबंधित विशेषज्ञों द्वारा ‘गोपनीय’ माना गया हो, तो यह उस स्थिति से बेहतर होता है जहां आरोपी के पास से कोई प्रत्यक्ष सबूत न मिले.”

उन्होंने आगे बताया कि अभियोजन पक्ष को अदालत में यह साबित करना होता है कि आरोपी के पास जो दस्तावेज़ या सबूत मिले हैं, वे वास्तव में गोपनीय हैं और शत्रु देश को लाभ पहुंचा सकते थे.

अधिकारी ने आगे कहा, “ये मामले सालों तक चलते हैं, आरोपी को ज़मानत मिल जाती है और जांच अधिकारी बदलते रहते हैं.”

1990 के दशक से अब तक, जो OSA के सबसे चर्चित मामले रहे हैं, उनमें नंबी नारायणन केस (जिसे ‘फर्जी ISRO जासूसी केस’ भी कहा जाता है) और 2006 का ‘नेवल वॉर रूम लीक केस’ शामिल हैं.

पिछले साल सीबीआई ने दो पूर्व पुलिस महानिदेशकों और तीन अन्य रिटायर्ड पुलिस अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की थी, जिन पर नारायणन को झूठे आरोप में फंसाने का आरोप है. जांच में उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें मुआवजा देते हुए दोषमुक्त किया.

2006 का ‘नेवल वॉर रूम केस’ नौसेना के वॉर रूम से संवेदनशील जानकारी लीक करने से जुड़ा था. रिटायर्ड कैप्टन सलाम सिंह राठौर को OSA के तहत सात साल की सजा हुई, जबकि दूसरे आरोपी कमांडर (रिटायर्ड) जर्नेल सिंह कालरा को बरी कर दिया गया. कथित मास्टरमाइंड, रिटायर्ड लेफ्टिनेंट रवि शंकरण, फिलहाल यूके में रहने की आशंका है. अन्य बर्खास्त नौसेना अधिकारी अब भी मुकदमे का सामना कर रहे हैं.

ओएसए के तहत दर्ज पुराने मामलों और आंकड़ों को देखकर दिप्रिंट ने यह समझने की कोशिश की है कि ऐसे मामलों में अभियोजन पक्ष को क्या चुनौतियां आती हैं और कौन-से कानूनी खालीपन इन्हें समय की कसौटी पर कमजोर बनाते हैं.

मीडिया के शोर से परे

जब मीडिया का हंगामा शांत हो जाता है, तो जो बचता है वो है एक लंबी और थकाऊ कानूनी प्रक्रिया—जिसमें अभियोजन पक्ष को सबूत पेश करने होते हैं और अदालत में घटनाओं की कड़ी को साबित करना होता है.

ऐसे कई मामलों में मुकदमे सालों तक चलते हैं, आरोपी को अंत में जमानत मिल जाती है, जांच अधिकारी का तबादला हो जाता है या वह बदल दिया जाता है, और जनता की रुचि धीरे-धीरे खत्म हो जाती है.

उदाहरण के लिए, 1999 का एक मामला लें जिसमें दो रिटायर्ड डिफेंस कर्मी शामिल थे. 2010 में, दिल्ली की एक अदालत ने उनमें से एक को बरी कर दिया क्योंकि अभियोजन पक्ष जासूसी और साजिश के आरोपों को उचित संदेह से परे साबित नहीं कर पाया. लेकिन दूसरे आरोपी को गुप्त जानकारी प्राप्त करने और उसे दुश्मन देश को लाभ पहुंचाने या भारत की संप्रभुता, अखंडता या सुरक्षा को प्रभावित करने से जुड़े प्रावधानों और तत्कालीन आईपीसी की कुछ धाराओं के तहत दोषी पाया गया. अदालत ने यह फैसला एक टेलीफोन डायरेक्टरी की बरामदगी के आधार पर सुनाया. उस आरोपी ने तीन साल की सजा पूरी की.

एक और मामला 2002 का है, जिसमें प्रदीप कुमार नाम के एक बेरोजगार लॉ ग्रेजुएट पर जासूसी का आरोप लगा था. उस पर ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट, देशद्रोह और आपराधिक साजिश जैसे गंभीर आरोप लगाए गए थे, जिनमें 14 साल तक की सजा हो सकती थी. दो आपराधिक मुकदमों के बाद, कानपुर की एक अदालत ने 2014 में उसे ‘सम्मानपूर्वक बरी’ कर दिया और कहा कि अभियोजन पक्ष के आरोपों में कोई दम नहीं था.

एक अन्य मामला 2016 में दर्ज हुआ, जिसमें दिल्ली में चार लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जिनमें एक तत्कालीन समाजवादी पार्टी के सांसद का पर्सनल असिस्टेंट भी शामिल था. दो साल बाद उस पर्सनल असिस्टेंट को बरी कर दिया गया, जबकि बाकी तीन आरोपी जमानत पर हैं और उनका मुकदमा अभी भी अभियोजन पक्ष के सबूतों के चरण में अटका हुआ है.

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट के मुकदमों में देरी और लंबित मामलों की दर काफी अधिक है.

एनसीआरबी की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट के तहत दर्ज मामलों की कोर्ट में लंबित दर 98.5 प्रतिशत थी. उस साल 55 ओएसए मामले दर्ज हुए, जिनमें न तो कोई सजा हुई, न कोई दोष सिद्ध हुआ, एक आरोपी को आरोपमुक्त किया गया और दो को बरी कर दिया गया — यानी सजा की दर शून्य प्रतिशत रही.

2021 में, 55 ओएसए मामले दर्ज हुए, जिनमें एक में सजा हुई और दो में बरी किया गया. उस साल सजा की दर 33.3 प्रतिशत रही और लंबित दर 97.4 प्रतिशत थी.

2020 में, 39 ओएसए मामले दर्ज हुए, जिनमें एक में सजा और एक में बरी किया गया. उस साल सजा की दर 50 प्रतिशत थी, लेकिन लगभग 98.3 प्रतिशत मामले अभी भी लंबित थे.

2019 में भी यही ट्रेंड दिखा—39 मामले दर्ज हुए, एक आरोपी बरी हुआ, लेकिन किसी को सजा नहीं हुई. उस साल लंबित दर 98.9 प्रतिशत रही. 2018 में 40 ओएसए मामले दर्ज हुए, तीन में सजा और एक में बरी—यानी उस साल सजा की दर सबसे ज्यादा 75 प्रतिशत रही.

फिर भी करीब 94.7 प्रतिशत मामले अब भी अदालतों में लंबित थे.

प्रक्रियागत जटिलताएं, पुराना कानूनी ढांचा

आंकड़ों में एक साफ पैटर्न दिखता है—मामलों में लंबी लंबितता और सजा की बेहद कम दर. इससे गंभीर सवाल उठते हैं और इन मामलों से जुड़ी चुनौतियों पर ध्यान जाता है, ऐसा कानूनी विशेषज्ञों और जांच एजेंसियों के अधिकारियों का कहना है. वे मानते हैं कि कई कारण हैं जो अभियोजन पक्ष के लिए बड़ी अड़चन बनते हैं और मुकदमों में देरी का कारण बनते हैं.

अधिवक्ता विजय अग्रवाल ने कहा कि अगर आरोपी के खिलाफ ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट के तहत मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर साबित करना हो, तो अभियोजन पक्ष के लिए सबसे जरूरी होता है कि वह गिरफ्तारी तक की घटनाओं के पूरे सिलसिले को साबित करे.

अधिवक्ता राजीव मोहन, जो 2012 के दिल्ली गैंगरेप केस में सरकारी वकील थे, ने औपनिवेशिक काल के इस पुराने कानून (OSA) को आज के समय के लिए अनुपयुक्त बताया. उन्होंने कहा कि यह कानून तकनीक और ओपन सोर्स सूचना पर आधारित आधुनिक जासूसी से निपटने में सक्षम नहीं है. मोहन, जो 2002 से स्पेशल सेल द्वारा दर्ज OSA मामलों में वकील रहे हैं, ने 2014 तक नेवी वॉर रूम लीक केस में भी पक्ष रखा था.

मोहन ने कहा कि कानून में सुधार की जरूरत है ताकि व्यावसायिक जासूसी को शामिल किया जा सके और OSA की अलग-अलग धाराओं जैसे धारा 3 और धारा 5 को सरल बनाया जा सके. धारा 5 में ‘गलत संचार’ और अपराध के लिए सजा को परिभाषित किया गया है. उन्होंने कहा कि अधिकतर मामलों में कई धाराएं एक साथ लगाई जाती हैं क्योंकि कानून में खामियां हैं, जिससे मुकदमा जटिल हो जाता है और बचाव पक्ष को कमजोरियों पर सवाल उठाने का मौका मिल जाता है.

उन्होंने कहा, “ये धाराएं आपस में जुड़ी होती हैं लेकिन तकनीकी रूप से अलग हैं, जिससे कानूनी प्रक्रिया जटिल और लंबी हो जाती है. अगर इन्हें सरल बनाया जाए तो जांचकर्ताओं को मदद मिलेगी और मुकदमे तेजी से चलेंगे.”

मोहन के अनुसार, कानून में आधुनिक जासूसी और जासूसी के व्यापारिक उद्देश्य की स्पष्ट परिभाषा नहीं है, जिससे अब अभियोजन पक्ष को अदालत में यह साबित करने में मुश्किल हो रही है कि किसी कार्य से देश की सुरक्षा को खतरा है.

“सबसे बड़ी चुनौती यही है कि अदालत में यह साबित किया जाए कि जिस कार्य की बात हो रही है, वह भारत की सुरक्षा या राष्ट्रीय हित को खतरे में डालता है,” मोहन ने कहा. उन्होंने बताया कि यह कानून 1923 में बना था और 1967 में आखिरी बार संशोधित हुआ था, जो आज के हालात को नहीं दर्शाता.

अब अधिकतर जानकारी ऑनलाइन उपलब्ध है, सिवाय विदेश मंत्रालय या रक्षा मंत्रालय की गोपनीय जानकारी के. आरोपी अक्सर यह दलील देते हैं कि संबंधित जानकारी पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में थी.

उन्होंने कहा, “फिर अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होता है कि ऐसी सार्वजनिक जानकारी अब भी संवेदनशील है और उसका खुलासा देश को नुकसान पहुंचाने की मंशा से किया गया है.”

मोहन ने समझाया कि ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट अब भी जासूसी की उस पुरानी परिभाषा से जुड़ा है जो आज के जमाने में पुरानी पड़ चुकी है.

“आज जासूसी वैसी नहीं रही जैसी पहले थी—अब यह तकनीक से लैस और समर्थित है. यह मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार बदल चुकी है,” उन्होंने कहा और इस कानून को संशोधित करने की जरूरत पर जोर दिया.

मोहन ने जासूसी के दायरे में एक और गंभीर पहलू की ओर इशारा किया—व्यावसायिक जासूसी. “उदाहरण के लिए, विदेशी एजेंसियां अक्सर भारत के रक्षा सौदों की शुरुआती जानकारी पाने की कोशिश करती हैं ताकि पहले ही वैसी ही विशिष्टताओं वाली निविदाएं निकाल सकें. वर्तमान कानून इन व्यापारिक उद्देश्यों को पर्याप्त रूप से शामिल नहीं करता,” उन्होंने कहा.

अधिवक्ता मोहन ने यह भी बताया कि मौजूदा कानून के तहत अभियोजन पक्ष को चार्जशीट दाखिल करने से पहले ही सबूत पेश करने होते हैं, जो एक समय लेने वाली प्रक्रिया है या कहें दोहरा काम है.

मोहन ने कहा, “OSA की धारा 13 के तहत, भारत सरकार द्वारा अधिकृत व्यक्ति को शिकायत दर्ज करानी होती है.”  उन्होंने जोड़ा कि धारा 13 में तत्काल संशोधन की जरूरत है ताकि “सरकार की पूर्व अनुमति के साथ चार्जशीट पर संज्ञान लिया जा सके.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ें: DMK के सहयोग से कमल हासन जाएंगे राज्यसभा, पार्टी ने तीन और नामों का किया ऐलान


 

share & View comments