scorecardresearch
Thursday, 21 November, 2024
होमफीचर1947 के विभाजन और आधुनिकता की मार से बचा नौलखा साबुन आज भी रखता है भारतीय कपड़ों की चमक बरकरार

1947 के विभाजन और आधुनिकता की मार से बचा नौलखा साबुन आज भी रखता है भारतीय कपड़ों की चमक बरकरार

लधा मल जैन बमुश्किल 14 बरस के थे, जब उन्होंने विभाजन पूर्व लाहौर में नौलखा नाम से कपड़े धोने का साबुन बनाने का व्यवसाय शुरू किया था.

Text Size:

भारतीय स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर घरेलू बाज़ार में कुछ एफएमसीजी वस्तुओं का उत्पादन शुरू हुआ, उनमें से कुछ में एक सुसंगत और मानकीकृत गुणवत्ता थी, लेकिन नौलखा साबुन – एक कपड़े धोने वाला साबुन, जिसका उत्पादन 1895 में शुरू हुआ और इसने समर्पित फैन्स का आनंद लिया.

इसकी स्थापना की कहानी तब शुरू हुई जब लधा मल जैन बमुश्किल 14 बरस के थे- लेकिन अपना खुद का कारोबार शुरू करने के विचार से उत्साहित थे. दोस्तों के साथ बातचीत करते हुए और विचारों पर चर्चा करते हुए कि अपने हाथों को कहां आज़माया जाए, किसी ने उन्हें सुझाव दिया कि साबुन बनाना एक अच्छा आईडिया है क्योंकि यह एक नॉन-पेरिशेबल यानी खराब नहीं होने वाली वस्तु है, जिसका इस्तेमाल हर घर में रोज़ाना किया जाता है. इसने युवा लड़के की कल्पना को विराम दिया और उन्होंने आवश्यक सामग्री के साथ एक बड़ी कड़ाही खरीदी और प्रयोग की प्रक्रिया शुरू की. कई दौर के परीक्षण और गलतियों के बाद, वो आखिरकार साबुन का एक ठोस टुकड़ा बनाने में सक्षम हो गए जो न केवल कपड़े साफ करने में प्रभावी था बल्कि हाथों पर भी नरम था. हालांकि, यह उस समय ब्रांडेड उत्पाद नहीं था – ईंट के आकार का हल्का पीला साबुन जल्दी ही लाहौर और आसपास के क्षेत्रों में इतना लोकप्रिय हो गया और व्यापारियों और स्टॉकिस्टों ने इसे उत्तर भारत के अन्य शहरों में बेचना शुरू कर दिया.

इस सेंचुरियन ब्रांड की तीसरी पीढ़ी के मालिक रविंदर जैन ने कहा, “हमें हमेशा से सिर्फ एक काम आता है –साबुन बनाओ और भेज दो. इतने सालों में हमने कभी भी रेडियो, टीवी या समाचार पत्रों के विज्ञापन पर एक पैसा भी खर्च नहीं किया. हम ज़ुबान से सामान बेचते हैं क्योंकि आज भी हम ये साबुन अपने हाथ से कपड़े धोने वाली औरत के लिए बनाते हैं. हमारा साबुन उसके हाथों को नहीं काटेगा या उसे खरोच नहीं आएंगी क्योंकि हम अपनी जीभ पर एक छोटा सा क्रिस्टल रखकर हरेक बैच का टेस्ट करते हैं. जीभ सबसे अच्छी टेस्टर है. हम अपने ग्राहकों के लिए हमेशा चिंतित रहते हैं. हमारे सामान में मिलावट नहीं है. कई साबुन निर्माताओं ने कॉपी करने और डुप्लीकेट बनाने की कोशिश की है, लेकिन हम कभी भी पुलिस थानों या अदालतों में जाकर नकल का पीछा नहीं करते हैं. बेस्ट आईपीआर ही हमारे ग्राहकों की प्रतिक्रिया है.”

लधा मल ने इस काम में तत्काल सफलता देखी जब उनके साबुन ने एक वफादार ग्राहकों की फेहरिस्त हासिल की. उन्होंने जल्द ही एक छोटा ‘कारखाना’ खोल लिया क्योंकि उस समय लघु कुटीर उद्योग ही मशहूर थे. आश्चर्यजनक रूप से, समान गुणवत्ता या मूल्य सीमा में कोई अन्य प्रतियोगी नहीं थे इसलिए बिक्री की संख्या बढ़ती चली गई और कारखाना बड़ा…फिर और बड़ा होता गया. लधा मल का विवाह हुआ और उनके तीन पुत्र और तीन पुत्रियां हुईं. उन्होंने दोबारा शादी की और उनकी दूसरी पत्नी से तीन और बेटे और तीन बेटियां हुईं. पूरा खानदान लाहौर में एक साथ रहता था.

लधा मल जैन

1947 में विभाजन के बाद, लधा मल जैन के परिवार को अपना घर और निर्माण इकाईयां रातों-रात छोड़ कर भारत भागना पड़ा. अंबाला में एक छोटे अंतराल के बाद परिवार खाली हाथ और बिना पैसे के पुरानी दिल्ली में आ गया. जब परिवार कयामत की कगार पर था, तभी एक चमत्कार हुआ. दिल्ली का एक साबुन व्यापारी, जिसने लधा मल से एक बड़ी खेप खरीदी थी, बकाया राशि लेकर उनके पास पहुंचा. बहते हुए पानी में एक कमज़ोर पुआल पर चींटी के चढ़ने की तरह, परिवार दोबारा से शुरुआत करने में कामयाब रहा. लधा मल ने सदर थाना रोड पर दो मंज़िला मकान किराए पर ले लिया. परिवार ऊपर रहता था और भूतल को ‘बत्ती’ लगाने के लिए तैयार किया गया था – जैसा कि साबुन उद्योग की भाषा में पकी हुई देगों को कहा जाता है. यह पूरी तरह से पारिवारिक काम था, जिसमें पिता और छह बेटे एक साथ जुटे थे.


यह भी पढ़ेंः रेलवे का विस्तार, द्वितीय विश्व युद्ध की मांग- कैसे भारतीय बाज़ारों पर चला उषा सिलाई मशीन का जादू


एक नई शुरुआत

1947 में इस नई पारी में लधा मल ने साबुन की ईंट को हल्के गुलाबी बटर पेपर में लपेटने का फैसला किया और इसका नाम नौलखा साबुन रखा. परिवार में कोई भी निश्चित रूप से नहीं जानता है कि लधा मल को उस नाम को चुनने के लिए किसने और कैसे प्रेरित किया.

रवींद्र जैन ने कहा, “यह लाहौर किले में एक मंडप या पाकिस्तान के एक गांव पर आधारित हो सकता है – जो विभाजन से पहले हमारा पारिवारिक आधार था. असली कारण जो भी हो, साबुन का नाम इसकी सफलता का एक बड़ा कारण है.” वह बताते हैं कि कैसे नौलखा (हिंदी में नौ लाख का अर्थ है) को हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है क्योंकि यह सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा की संख्या है. “यह संख्या ज्ञान, बुद्धि और पूर्णता का प्रतीक है. शायद इसने उन महिला गृहणियों को अच्छा महसूस कराया जो हमेशा हमारी मुख्य ग्राहक रही हैं.”

नौलखा साबुन के निर्माताओं का दावा है कि वे आज तक अपरिवर्तित रहे हैं. सभी छह भाई और उनके बच्चे आज भी एक साथ काम करते हैं और किसी ने भी अलग से निर्माण इकाई लगाने के बारे में नहीं सोचा है. इसलिए कोई बाहरी सहयोग नहीं है और कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है (आधुनिक वाशिंग मशीन से भी नहीं). वे केवल उतना ही साबुन का उत्पादन करते हैं जितना कि उन्हें ज़रूरत महसूस होती है.

जैन ने एक कुटिल मुस्कान के साथ कहा, “न उधार में देते – ना कोई कर्ज़ लेते. बनाया, बेचा और बस नक्की. हमारे पास न्यूनतम संभव लागतें हैं क्योंकि हमारे पास कोई और खर्च नहीं है. हम छोटा मुनाफा कमाते हैं लेकिन यही हमारी ताकत भी है. इसलिए हमें कोई हरा नहीं सकता.”

यह लेख बिजनेस हिस्ट्रीस नामक श्रृंखला का एक हिस्सा है, जो भारत में प्रतिष्ठित व्यवसायों की खोज कर रहा है, जिन्होंने कठिन समय और बदलते बाज़ारों का सामना किया है. सभी लेख यहां पढ़ें.

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)


यह भी पढ़ेंः अंग्रेजों से भिड़े, पटियाला रियासत से निकाले गए फिर गुजरमल ने बनाया मोदी नगर


 

share & View comments