मुरादाबाद: 43 वर्षों में, नाज़िम हुसैन ने अपने पिता, अपने दो बड़े भाइयों और एक पारिवारिक घरेलू नौकर की तलाश में इलाहाबाद, बरेली, मुंबई और हैदराबाद में कई मुर्दाघरों और कम से कम सात जेलों का दौरा किया है. हुसैन ने कहा, “हम अंडमान और निकोबार की जेल भी गए थे.” हुसैन 13 अगस्त 1980 को उस वक्त केवल सात साल के थे जब पुलिस ने मुरादाबाद के गलशहीद मोहल्ले में चार लोगों को उनके घर से खींच लिया था.
अब, चार दशकों से अधिक समय से उनके दिमाग में बंद ईद दंगों की यादों की भरमार सी हो गई है, जो एक के बाद एक बाहर आ रही हैं.
पुलिस, धुआं, आंसू गैस, आंसू.
एक रात वाली मस्जिद के बाहर एक सुअर को लेकर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ स्थानीय पुलिस की हिंसक कार्रवाई के कुछ घंटों के भीतर, पुलिस ने सुबह 11 बजे से दोपहर के बीच हुसैन के दरवाजे पर दस्तक दी. उन्होंने उनके पिता हाजी अनवर हुसैन, उनके भाइयों सज्जाद और कैसर और घरेलू नौकर अब्दुल सलाम को घसीट कर पुलिस की गाड़ी में बैठा लिया जो धीरे धीरे धुएं में गायब हो गई. आखिरी बार उसने उनकी पीठ देखी थी.
मुस्लिम नमाज़ियों पर पुलिस द्वारा की गई अंधाधुंध गोलीबारी, जिसमें बच्चों सहित सैकड़ों लोग मारे गए, 1983 तक खबरों में बनी रही – और फिर पूरी तरह से सन्नाटा छा गया. पिछले कुछ वर्षों में उभरे समुदाय के स्थानीय राजनीतिक नेताओं ने इससे दूरी बना ली जो कि मई 2023 तक जारी रही. तभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घोषणा की कि उनकी सरकार न्यायमूर्ति एमपी सक्सेना रिपोर्ट को राज्य विधानसभा में पेश करेगी. रिपोर्ट में पुलिस को क्लीन चिट दे दी गई थी.
मुरादाबाद के मध्य में स्थित ईदगाह के एक पुराने निवासी का कहना है,“जस्टिस सक्सेना ने पुलिस की बर्बरता को क्लीन चिट दे दी थी. मेरे पिता, मेरे चाचाओं और हमारे कार्यकर्ता का क्या हुआ? मेरे अब्बू को गोली मार दी गई.” लोग पूरे दिन बिना उत्साह के इकट्ठे होकर दोबारा इस जगह पर आ रहे पत्रकारों, टेलीविजन पत्रकारों और ऐक्टिविस्ट्स से बात कर रहे हैं.
एक अन्य व्यक्ति का कहना है, ”भगदड़ के दौरान मेरी छोटी बहन का हाथ छूट गया.” वे यादें आज भी उनके ज़हन में हैं, उनके प्रियजनों का क्या हुआ, इसका पता लगाने की ज़िम्मेदारी के बोझ तले वे आज भी दबे हुए हैं. और अब जब देश की नज़र फिर से मुरादाबाद पर है, तो वे सभी अपनी अनुभव साझा करना चाहते हैं.
तीसरी आवाज उभरती है, “मेरे भाई को पुलिस ने पकड़ लिया और वह फिर कभी वापस नहीं लौटा.” वे उन किशोरों और बच्चों की आखिरी पीढ़ी हैं जो उस ईद की घटनाओं के गवाह बने. उनकी उम्र आज 50, 60 और 70 के दशक में हैं.
जब सीएम आदित्यनाथ ने रिपोर्ट पेश करने के फैसले की घोषणा की तो हाजी अनवर हुसैन का परिवार खुशी से झूम उठा. उन्हें लग रहा था कि यह मामला अपनी अंतिम परिणति को पहुंचेगा. लेकिन इसने उनके घावों को और कुरेद दिया.
नाजिम के भतीजे फहीम हुसैन ने कहा, “जस्टिस सक्सेना ने पुलिस की बर्बरता को क्लीन चिट दे दी थी. मेरे पिता, मेरे चाचाओं और हमारे वर्कर्स का क्या हुआ?” जब उसके पिता सज्जाद हुसैन को पुलिस पकड़कर ले गई थी तब नाज़िम एक बच्चे थे.
“आम मुसलमानों के खिलाफ [जस्टिस सक्सेना रिपोर्ट में] इस्तेमाल की गई भाषा बहुत अमानवीय है. क्या आप दंगे करने के लिए अपने बच्चों और बुजुर्गों को ले साथ ले जाते हैं?”
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भयानक रात, कभी न ख़त्म होने वाला इंतज़ार
ईदगाह के आसपास के क्षेत्र में अभी भी हिंसा के निशान हैं – जली हुई दीवारें, धुएं से काली पड़ी छतें, जल्दबाज़ी में गोलियों के निशानों को भरने की कोशिश. भीड़ द्वारा जलाए गए स्थानीय पुलिस स्टेशन को दोबारा बना दिया गया है, लेकिन उसके आसपास के घरों को नहीं.
हाजी वसीम (60) के घर के भूरे-हरे दरवाजे पर अभी भी गोलियों के छेद के निशान बने हुए हैं. यह अब उनकी किराने की दुकान का गोदाम है, जो बेसन के डिब्बे, सर्फ एक्सेल के पैकेट और खाना पकाने के तेल की बोतलों से भरा हुआ है. बिल्ली के बच्चे किराने के सामान के ढेर के आसपास इधर-उधर भाग रहे हैं, जबकि उनकी मां और एक बिल्ली फर्श पर आराम कर रही हैं.
हाजी वसीम की मां जमीला खातून को कथित तौर पर पीएसी ने गोली मार दी थी जब वह अपने चार बच्चों के साथ एक कमरे में छिपी हुई थीं. उसकी बांह में गोली मारने के बाद पीएसी ने आंगन में गोलियां चला दीं.
चारों बच्चे डरकर लकड़ी के दरवाजे से झांक रहे थे. आग की लपटों के कारण छत के किनारों पर बने कुछ काले धब्बे अभी भी मौजूद हैं.
वसीम याद करते हुए कहते हैं, “उनकी लाश तीन दिनों तक आंगन में पड़ी रही लेकिन हमें उसे दफनाने की इजाज़त नहीं दी गई. जब रामपुर के एक सांसद मिक्की मिया को इसके बारे में पता चला, तब उन्होंने कर्फ्यू पास की व्यवस्था की.”
उन्होंने कहा कि इससे पहले कि परिवार अंतिम संस्कार की तैयारी करता, पीएसी आई और शव को पोस्टमॉर्टम के लिए ले गई.
वसीम ने कहा, “हमें कभी शव नहीं मिला और हम अपनी मां को दफन नहीं कर सके.”
कुछ मीटर की दूरी पर नाज़िम हुसैन का फैमिली हाउस है. घर के मुखिया हाजी अनवर हुसैन ने दरवाजे पर ताला लगा दिया था और बैरिकेडिंग कर दी थी. बच्चे, चाची, चाचा और बुजुर्ग एक कमरे में चुपचाप बैठे थे – इंतज़ार कर रहे थे.
बाहर, पुलिस और प्रांतीय सशस्त्र बल (पीएसी) दंगाइयों की तलाश में थे.
हुसैन परिवार को बाहर सड़क से आती जूतों और गोलियों की आवाज़ याद आती है. अचानक एक दस्तक हुई.
“दरवाजा खोलो,” नाजिम को याद आया कि एक पीएसी जवान चिल्ला रहा था और दूसरी आवाज कह रही थी, “हमें तुम्हारे घर की तलाशी लेनी है.”
नाजिम की भाभी साजिदा बेगम वहीं से शुरू करती हैं जहां उन्होंने छोड़ा था. उन्हें याद है कि “गुस्साए जवानों की एक टुकड़ी” घर में घुस आई थी.
उन्होंने घर के चार सदस्यों को इंतज़ार कर रहे पुलिस वाहनों में घसीट कर बैठा लिया.
अब 70 साल की हो चुकीं साजिदा बेगम ने कहा, “वे बिना चप्पलों के थे. हम उनकी पीठ देख सकते थे. हम रोते रहे.”
कई दिनों तक, परिवार यह सोचकर स्थानीय मुर्दाघर जाता रहा कि शायद कुछ बहुत बुरा हो गया हो. तब से उन्होंने “मीठी ईद” [ईद-उल-फितर] नहीं मनाई है. हर 13 अगस्त को, रिश्तेदार लापता लोगों पर शोक व्यक्त करने के लिए मिलते हैं.
“हमारे पिता जी आज 80 वर्ष के होते. जब भी हम उस उम्र के किसी व्यक्ति को देखते हैं, तो हम आशान्वित हो जाते हैं.”
13 अगस्त 1980 को मुरादाबाद में मुसलमानों के साथ जो हुआ वह कई परिवारों के लिए आज भी एक रहस्य है.
ईद के जश्न और नमाज के लिए हजारों लोग एक रात वाली मस्जिद के बाहर एकत्र हुए थे. वहां 788 ब्रांड की बीड़ियों के स्टॉल, पोस्टर और मिठाइयां और खिलौने बेचने वाली दुकानों के लिए चमकीले बैनर लगे थे.
यह अफवाह जोर पकड़ने लगी कि इलाके में सुअर घुस आया है. इससे गुस्सा भड़क गया और कई लोगों ने कथित तौर पर पुलिस चौकियों पर पत्थर फेंकना शुरू कर दिया. अपर जिलाधिकारी डीपी सिंह की भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या कर दी. चार पुलिस कांस्टेबल- धीरेंद्र सिंह, हरिदत्त पंत, मगनानंद और परसादी लाल- की मृत्यु हो गई. तथ्यों का पता लगाने वाली सक्सेना रिपोर्ट ने पुलिस को अत्यधिक बल प्रयोग के लिए बरी कर दिया. इसमें कहा गया है कि शुरुआती हाथापाई में मरने वाले सभी 34 लोग भगदड़ में कुचले गए थे, गोली नहीं मारी गई थी.
लेकिन इससे फहीम के सवालों का जवाब नहीं मिलता: “मेरे पिता, मेरे अंकल और मेरे दादा का क्या हुआ?”
वह अब 50 वर्ष के हैं, लेकिन उम्मीद नहीं छोड़ी है. वह रास्ते में आने-जाने वाले हर बुजुर्ग अजनबी में अपने पिता को तलाश करते हैं.
“हमारे पिता आज 80 वर्ष के होते. हर बार जब हम उस उम्र के किसी व्यक्ति को देखते हैं, तो हम आशान्वित हो जाते हैं.
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स्वतंत्र भारत का ‘जलियांवाला बाग हत्याकांड’
हिंसा के बाद के दिनों में, राजनेता आए, वादे किए और चले गए. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दो दिन बाद अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में कार्यक्रमों को संबोधित किया.
फहीम के परिवार ने 15 मुख्यमंत्रियों और सपा, बसपा, कांग्रेस और भाजपा सहित सभी राजनीतिक दलों को सत्ता में आते देखा है, लेकिन अभी तक किसी ने भी उस वादे पर काम नहीं किया है जो इंदिरा गांधी ने 16 अक्टूबर 1980 को उनकी मां साजिदा से किया था.
साजिदा को गांधी के कंधों पर झुककर खूब रोना आज भी याद है.
“जब उन्होंने मुझे कुछ कागज दिए, तो मैंने उसे फेंक दिया और किसी भी तात्कालिक मदद को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. मैंने उनसे बस इतना ही कहा था कि वह मेरे पति और परिवार के सदस्यों को ढूंढे.” साजिदा ने कहा कि प्रधानमंत्री उनके पति को ढूंढने में मदद करने का वादा करके चली गईं.
परिवार ने कभी भी कांग्रेस को वोट न देने की कसम खाई और कई अन्य मुस्लिम परिवारों की तरह वे उस पर कायम रहे. 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 32 साल के यूट्यूबर इमरान प्रतापगढ़ी को मुरादाबाद से मैदान में उतारा था, जिनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई.
कौशर हयात खान, जो उस समय 27 वर्ष के थे, ने कहा, “कांग्रेस ने हमें राजनीतिक मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया है.” वह इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) के एक युवा सदस्य थे, और अब इसके राष्ट्रीय संयुक्त सचिव के रूप में कार्यरत हैं.
कौशर हयात खान ने कहा, “जब 1984 में सिखों का नरसंहार किया गया, तो सरकारों ने उनके घावों पर मरहम लगाने और मुआवजा देने के लिए एक के बाद एक आयोग बनाए. मौजूदा सरकार भी कश्मीरी पंडितों के जख्मों पर मरहम लगाने और उनके पलायन के मामलों को फिर से खोलने की कोशिश कर रही है. मुस्लिमों की जान सस्ती क्यों मानी जाती है?”
वकील इशरत हुसैन, जो आईयूएमएल से भी जुड़े हैं, ने कहा कि उन्होंने जलियांवाला बाग नरसंहार नहीं देखा है लेकिन यह कुछ वैसा ही रहा होगा जैसा उन्होंने 13 अगस्त 1980 को देखा था.
इशरत ने उस ईदगाह गेट पर जहां से फायरिंग शुरू हुई थी वहां खड़े होने की बात को याद करते हुए कहा, “मैं उस समय 15 साल का था और 43 साल पहले नमाज पढ़ने के लिए उसी जगह पर बैठा था.”
एक गोली बगल में बैठे व्यक्ति को लगी. उस दिन बारिश हो रही थी.
याद करते हुए वे कहते हैं, “एक तरफ पानी बरस रहा था और दूसरी तरफ गोलियां. उस शख्स के पेट से खून बह रहा था. मैंने उसे उठाने की कोशिश की लेकिन मुझे अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा क्योंकि गोलीबारी के कारण भगदड़ मच गई.”
भाजपा नेता और पूर्व विदेश मंत्री एमजे अकबर ने एक युवा पत्रकार के रूप में मुरादाबाद का दौरा किया और रॉयट आफ्टर रॉयट: रिपोर्ट्स ऑन कास्ट एंड कम्युनल वायलेंस इन इंडिया नामक पुस्तक लिखी.
किताब के मुताबिक, मुरादाबाद कोई हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं था, बल्कि एक कट्टर सांप्रदायिक पार्टी द्वारा मुसलमानों का नृशंस नरसंहार था. पुलिस बल ने इसे हिंदू-मुस्लिम दंगे के रूप में पेश करके अपने नरसंहार के कृत्य को छिपाने की कोशिश की.
इस तरह से दस्तावेज़ीकरण करने वाले अकबर अकेले नहीं हैं.
18 अगस्त 1980 को, सांसद सैयद शहाबुद्दीन ने राज्यसभा में कहा: “मुरादाबाद की त्रासदी कुछ और नहीं बल्कि जलियांवाला बाग की पुनरावृत्ति है.”
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‘अमानवीय’ रिपोर्ट
सक्सेना रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि वहां कोई भी सुअर मौजूद नहीं था.
न्यायमूर्ति मथुरा प्रसाद सक्सेना ने 1983 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, लेकिन बाद की सरकारों ने इसे न तो स्वीकार किया और न ही अस्वीकार किया. और हालांकि इंडिया टुडे जैसे प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं ने पिछले कुछ वर्षों में इसके कुछ विवरण प्रकाशित किए, लेकिन खबरें कभी भी मुरादाबाद के परिवारों तक नहीं पहुंच पाईं.
मुरादाबाद के विधायक और बीजेपी नेता रितेश कुमार गुप्ता 492 पन्नों की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने को सीएम आदित्यनाथ का “ऐतिहासिक” फैसला बताते हैं.
उन्होंने कहा, “यह पिछले 40 वर्षों से एक विभाग में पड़ा हुआ था और किसी ने इसे सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं की. क्यों? क्योंकि यह आपको सब कुछ बताता है कि इसकी योजना किसने बनाई.”
इसमें दो मुस्लिम नेताओं को मास्टरमाइंड बताया गया है.
रिपोर्ट में कहा गया है, ”सांप्रदायिक नरसंहार (13 अगस्त 1980) के पीछे मुस्लिम लीग और खासकरों का हाथ था, जिनका नेतृत्व शमीम और डॉ. हामिद हुसैन उर्फ अज्जी कर रहे थे.” रिपोर्ट में क्षेत्र में बढ़ते तनाव को रोकने में विफल रहने के लिए पुलिस की खिंचाई भी की गई है.
इसमें आगे कहा गया है कि शमीम अहमद खान, “जिनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा बहुत अधिक थी, ने यूपी में मुस्लिम लीग को पुनर्जीवित किया था” और कई राजनीतिक हारों के बाद समुदाय पर प्रभाव बनाने के लिए बेताब थे.
रिपोर्ट की तीसरी लाइन में लिखा है, ”60 से 70 हजार कट्टरपंथी मुसलमानों की भीड़ ईदगाह में नमाज पढ़ने के लिए इकट्ठा हुई.”
हालांकि, पीड़ित परिवारों ने रिपोर्ट के निष्कर्षों को खारिज कर दिया है, और चरमपंथी के खुद को बताए जाने से नाराज हैं.
हयात खान ने कहा, “आम मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल की जाने वाली भाषा बहुत अमानवीय है. क्या आप दंगे करने के लिए अपने बच्चों और बुजुर्गों को ले जाते हैं? हमने कभी नहीं कहा कि इसकी योजना बीजेपी या आरएसएस ने बनाई थी बल्कि पुलिस ने ही इस हत्याकांड को अंजाम दिया था. प्रशासन ने खुद को क्लीन चिट देने के लिए हिंदू-मुस्लिम विवाद की बात गढ़ी. इसके पीछे कांग्रेस सरकार थी.”
शमीम अहमद 1988 में मुस्लिम लीग से अलग हो गए. बाद में वह जनता दल में शामिल हो गए. 1989 में वे विधायक बने और उन्हें राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया.
खान ने कहा, ”उन्हें लाल बत्ती मिल गई और उन्होंने 1980 के दशक के पीड़ितों के लिए आवाज उठाने की कभी परवाह नहीं की.” उन्होंने कहा, ”यह पुलिस बनाम मुस्लिम का मामला था. यह कभी भी हिंदू-मुस्लिम संघर्ष नहीं था. पुलिस ने ऐसा अपने द्वारा किए गए अत्याचारों से खुद को बचाने के लिए किया.”
यह चुनाव का समय है
एक बार फिर से लोगों की नज़र मुरादाबाद पर है. सिर्फ पत्रकार ही नहीं बल्कि स्थानीय राजनेता भी इलाके में मुस्लिम परिवारों से मुलाकात कर रहे हैं.
लगभग सभी लोग हुसैन परिवार के घर पर रुकते हैं. साजिदा उत्सुकता से इंतजार कर रही है और सोच रही है कि जो अजनबी आते रहते हैं क्या उन्हें कुछ पता है कि उन लोगों के साथ क्या हुआ था. क्या कोई उसे बताएगा कि उनके पति मर चुके हैं? या शायद वह अभी भी जीवित हैं?
फहीम और अन्य लोगों को संदेह है. मीडिया और राजनेता आना बंद कर देंगे, जैसा कि उन्होंने 1980 में किया था. इस समय हर कोई चुनावी मोड में है.
बाहर, ईदगाह के ऊपर का आकाश पतंगों से भरा हुआ है – भारतीय ध्वज के रंगों वाली पतंगें खुशी से लहरा रही हैं और बच्चे हवा के सही झोंके का इंतजार करते हुए डोर और रीलों का उपयोग कर रहे हैं.
लेकिन हुसैन परिवार के छोटे बच्चे घर पर हैं, चुपचाप अपने बड़ों की बातें सुनकर दुःस्वप्न को फिर से जी रहे हैं. घर की दीवारों पर परिवार के मुखिया और अन्य लापता पुरुषों की कोई तस्वीर नहीं है.
फहीम ने कहा,“हमने उन्हें कभी नहीं बताया कि क्या हुआ था. और अब वे पूछते हैं, हमने उन्हें यह क्यों नहीं बताया कि उनके दादाओं के साथ क्या हुआ था.”
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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