नई दिल्ली: नाश्ता छूट सकता है, नींद भी टल सकती है, लेकिन अनिल गांदास कभी अपना फोन अनदेखा नहीं करते क्योंकि फोन के उस पार लगभग हमेशा हड़कंप होता है—रसोई में कोबरा, खेतों में तेंदुआ, मवेशियों को जकड़े अजगर. कुछ ही मिनटों में 49 साल का यह एनिमल रेस्क्यूअर अपनी स्कॉर्पियो जीप में निकल पड़ता है, जो चलते-फिरते जंगल जैसी लगती है. लौटते वक्त गाड़ी की डिक्की ज़िंदा हो उठता है—पिंजरे खड़खड़ाते, रस्सियां और हुक बिखरे रहते, सांप फुफकारता, गोह या सिवेट बिल्ली पिंजरे से टकराती.
गांदास सिर्फ गुरुग्राम में रहते ही नहीं, वे शहर की निगरानी एक-व्यक्ति वाली वाइल्डलाइफ यूनिट की तरह करते हैं.
गांदास ने कहा, “गाड़ी 24/7 स्टैंडबाय पर रहती है, पूरी तरह से तैयार. कभी-कभी इतने रेस्क्यू कॉल आ जाते हैं कि पूरा दिन निकल जाता है. एक भी दिन ऐसा नहीं गया जब कम से कम एक कॉल न आया हो.”
गुरुग्राम की कांच की इमारतों, लग्ज़री कॉन्डोज़ और गेटेड कॉलोनियों के नीचे वही पुरानी ज़मीन है, जहां कभी तेंदुए, सांप और असंख्य देशी पक्षी रहते थे. बहुत पहले, जब तक अरावली में हाईवे नहीं बने थे, यहां जंगल का राज था, लेकिन हर बाढ़, हर कंस्ट्रक्शन साइट और हर सिकुड़ते जंगलों के साथ वाइल्डलाइफ पीछे धकेली जाती रही—कभी खेतों में घूमती, कभी रसोई तक घुसती, तो कभी बेसमेंट में मिल जाती.
और भारत के तेज़ी से बढ़ते शहरों के किनारे, जहां शहरी फैलाव जंगल से टकराता है, वहीं गुरुग्राम और गाज़ियाबाद में दो रेस्क्यू हीरो—अनिल गांदास और विनीत अरोड़ा—फंसे हुए जंगली जानवरों को बचाने की तात्कालिक पुकार का जवाब देते हैं. न सरकारी कर्मचारी, न औपचारिक ट्रेनिंग, ये दोनों वाइल्डलाइफ रेस्क्यू और संरक्षण में अहम खाई को भरते हैं. ये एनसीआर के वाइल्डलाइफ सुपरहीरो हैं, जो आधुनिक शहरीपन और ज़िद्दी देहाती परंपरा के बीच मौजूद हैं, जो 21वीं सदी के भारत में अब भी खत्म नहीं हुई.
गांदास, जिन्होंने खुद सीखकर यह काम शुरू किया और अरोड़ा, जो गाज़ियाबाद के रहने वाले हैं, जीव उपकार ट्रस्ट से जुड़े हैं और भविष्य में वेटरनरी डॉक्टर बनना चाहते हैं—संरक्षणवादियों की नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं. भारत के शहरों में सीमित संसाधनों के बावजूद ये लोग इंसान और जंगली जानवरों के टकराव को देखभाल के काम में बदल देते हैं. गांदास एनवायरनमेंट एंड वाइल्डलाइफ सोसाइटी नामक गुरुग्राम-आधारित गैर-सरकारी संगठन (NGO) चलाते हैं, जहां अरोड़ा भी काम करते हैं.

हरियाणा के जंगलों का हीरो
गुरुग्राम के पास मोहम्मदपुर गांव की एक दोपहर, गांदास को फोन आया. दूसरी तरफ से आवाज़ घबराई हुई थी. सुबह से उनके घर में एक सांप घुसा हुआ था और हिला तक नहीं था.
गांदास ने सिर्फ दो सवाल किए: “रंग क्या है? और लंबाई कितनी?” जवाब सुनते ही उन्हें पता चल गया कि वह ज़हरीला नहीं है. उन्होंने समझाया, “यह ज़हरीला नहीं है, आप खुद भी इसे बाहर निकाल सकते हैं.”, लेकिन परिवार को जोखिम नहीं लेना था—उन्हें गांदास ही चाहिए था.
लंच छोड़े बिना, गांदास ने दो बोतल पानी उठाया और निकल पड़े. चालीस मिनट बाद वे कपड़े का थैला और औज़ार लेकर पहुंचे. सांप पुराने ईंटों के ढेर में छिपा था. गांदास ने शांति से हाथ डालकर उसे पकड़ लिया.
उन्होंने दोहराया, “यह आपको नुकसान नहीं करेगा. यह खतरनाक नहीं है.” इस दौरान सांप धीरे से उनकी बांह के चारों ओर लिपट गया.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “कई लोग इन सांपों को सिर्फ इसलिए मार देते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि हर सांप ज़हरीला होता है. कई बार तो वे मेरे पहुंचने से पहले ही उन्हें मार देते हैं.”
आखिरकार चैन की सांस लेकर परिवार ने उन्हें चाय ऑफर की. जब कोई मेहमान आया, तो उन्होंने गांदास को वन विभाग का आदमी बता दिया. उन्होंने तुरंत सुधारा, “मैं वन विभाग से नहीं हूं.”
ऐसे ही पलों में उन्हें अहसास होता है, अधिकतर लोग कल्पना भी नहीं कर सकते कि कोई बिना सरकारी नौकरी के ऐसा काम कर सकता है. उन्हें लगता है ज़रूर कोई वेतन मिल रहा होगा. यही वजह है कि लोग शायद ही कभी उनसे पूछते हैं कि क्या वे पैसे लेते हैं. उन्हें लगता ही नहीं कि पूछना चाहिए.
यह उनके लिए एक पेचीदा चुनाव है. उन्होंने कहा, “अगर मैं पैसे मांगना शुरू कर दूं तो लोग कॉल करना बंद कर देंगे. अगर मैं 100 रुपये कहूं, तो आधे सांप मेरे पहुंचने से पहले ही मारे जाएंगे. इसलिए मैं पैसे नहीं लेता. वैसे भी चला जाता हूं. कोई खुद से कुछ दे दे, तो ले लेता हूं, नहीं तो आगे बढ़ जाता हूं.”
गांदास के लिए वाइल्डलाइफ रेस्क्यू कोई वीकेंड हॉबी नहीं है. यह उनकी ज़िंदगी जीने का तरीका है—जंगलों के बीच.
उन्होंने बताया, “अब तक मैंने 22-23 तेंदुए बचाए हैं. इसके लिए मैं वन विभाग की टीम के साथ काम करता हूं. उनके पास ट्रैंक्विलाइज़र गन, डॉक्टर और वाइल्डलाइफ सर्जन होता है और मेरे पास एक्सपीरियंस.”
वे हर मुश्किल स्थिति में रहे हैं—अजगर, नीलगाय, मोर और सांपों तक को संभाला है. वे फॉरेस्ट गार्ड्स को ट्रेनिंग देते हैं और यहां तक कि स्कूलों में वाइल्डलाइफ एजुकेशन शुरू करने की कोशिश भी कर रहे हैं.

सांप पकड़ने वाले और वन रक्षक
यह सफर बहुत पहले शुरू हुआ था, गुरुग्राम के पास छोटे से गांव गड़ोली खुर्द में, जहां गांदास का जन्म एक किसान परिवार में हुआ.
उनका पहला रेस्क्यू लगभग संयोग से हुआ. वे महज़ 15 साल के थे जब उनके खेत के कुएं में एक सांप गिर गया. हाथ में सिर्फ बाल्टियां, डंडे और उधार की सीढ़ियां थीं—इन्हीं की मदद से उन्होंने उसे ज़िंदा बाहर निकाल लिया.
वे याद करते हैं, “मुझे तब पता भी नहीं था कि वह सांप ज़हरीला है या नहीं, लेकिन मैंने निकालकर बाहर छोड़ दिया.” और मानते हैं कि यह लापरवाही थी, लेकिन उसी पल ने उनके अंदर आग जला दी.
इसके बाद उन्होंने लगातार रेस्क्यू करना जारी रखा, वाइल्डलाइफ रेस्क्यू ट्रेनिंग प्रोग्राम में सर्टिफिकेट हासिल किए, वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (WII) में अकादमिक प्रोग्राम किए और Wildlife SOS व Wildlife Trust of India (WTI) के ऑन-फील्ड वर्कशॉप्स में भाग लिया.
पंद्रह साल बाद, उन्होंने गुरुग्राम में एन्वायरनमेंट एंड वाइल्डलाइफ सोसाइटी नाम से एनजीओ रजिस्टर्ड करवाई. वह स्कूल के बच्चों को वाइल्डलाइफ अवेयरनेस ट्रिप्स पर ले जाने लगे, रेप्टाइल ट्रेनिंग सेशन कराने लगे और सांपों से लेकर तेंदुए तक हर चीज़ का रेस्क्यू करने लगे.
सिर्फ एनसीआर में ही उन्होंने 28 तरह की सांपों की प्रजातियां पकड़ीं, सैकड़ों हिरण और नीलगायें बचाईं, हज़ारों मोरों को छुड़ाया और हाल ही में 11 फुट लंबा अजगर भी संभाला. भारत में लगभग 360 प्रजातियों के सांप पाए जाते हैं और वह उनमें से ज़्यादातर देख चुके हैं.
तब के दिनों में वाइल्डलाइफ विभाग तक सांप पकड़ने के लिए सपेरों पर निर्भर रहता था.
गांदास बताते हैं, “जब मैंने यह काम शुरू किया, पूरे हरियाणा में कोई रेस्क्यूअर नहीं था. यहां तक कि वाइल्डलाइफ डिपार्टमेंट में भी सांप सपेरे पकड़ते थे. उन्हें इसके लिए पैसे मिलते थे. फिर मैंने यह काम शुरू किया.”
आखिरकार, वही रेस्क्यूअर आगे चलकर वन रक्षकों को ट्रेनिंग देने लगे.
लेकिन उनका जुनून सिर्फ रेस्क्यू तक सीमित नहीं है. वह जागरूकता और शिक्षा को लेकर मुखर हैं.
उन्होंने कहा, “लोगों को सांपों के बारे में जानकारी ही नहीं है और यह हमें किताबों में भी नहीं पढ़ाया गया. आज भी मैंने हरियाणा सरकार और मुख्यमंत्री को पत्र लिखा है कि बच्चों के लिए वाइल्डलाइफ पर एक विषय बनाया जाए.”
गांदास की नाराज़गी साफ झलकती है जब वह ढांचे की कमी की बात करते हैं: “गुरुग्राम में कोई रेस्क्यू सेंटर नहीं है. एनसीआर में कोई वाइल्डलाइफ सेंटर नहीं है.”
उनके लिए संरक्षण राजनीति से अलग नहीं हो सकता. सालों पहले, उन्होंने हरियाणा सरकार को 500 एकड़ का तेंदुआ सफारी प्रोजेक्ट सुझाया था, जिसे गुजरात और उत्तर प्रदेश की तर्ज़ पर बनाया जा सकता था. तीनों राज्यों में एक ही पार्टी की सरकार थी, लेकिन हरियाणा ने दिलचस्पी नहीं दिखाई.
आज, अरावली की उसी जगह पर 1,000 एकड़ का तेंदुआ सफारी बन रहा है.

‘सब भगवान की मर्ज़ी’
गुरुग्राम की सड़कों और रिहायशी इलाकों में तेंदुए दिखना अब आम हो गया है और भारी बारिश के बाद घरों में सांप निकल आते हैं. लोगों के लिए ये मुठभेड़ डर लाती हैं और अक्सर जानवरों पर हिंसा में खत्म होती हैं. कोई औपचारिक रेस्क्यू सेंटर नहीं, न प्रशिक्षित स्टाफ, न ही राज्य की ओर से इमरजेंसी रिस्पॉन्स सिस्टम—इस सबका बोझ गांदास के कंधों पर आ जाता है. बिना पैसे और बिना पहचान के, वह शहर के अनऑफिशियल वाइल्डलाइफ फर्स्ट रिस्पॉन्डर बन गए हैं.
साल 2025 में हरियाणा फॉरेस्ट डिपार्टमेंट ने माना कि एनिमल रेस्क्यू सिर्फ एड-हॉक कोशिशों पर टिके हैं. 24×7 वेटरनरी केयर नहीं है, कोई सुसज्जित सेंटर नहीं और न ही स्थायी प्रशिक्षित स्टाफ. एकमात्र व्यवस्थित व्यवस्था Wildlife SOS Transit Facility से आती है, जो फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के साथ मिलकर चलती है. इसमें गुरुग्राम के लिए एक रैपिड रिस्पॉन्स यूनिट है, लेकिन रेस्क्यू का ज़्यादातर काम अब भी एनजीओ-आधारित ही है.
राज्य ने हाल ही में नए वाइल्डलाइफ प्रॉटेक्शन नियम लागू किए हैं ताकि परमिट प्रक्रिया आसान हो और वेटरनरी सपोर्ट बेहतर हो सके, लेकिन कार्यकर्ता और रेस्क्यूअर कहते हैं कि जब तक ढांचा, प्रशिक्षित टीमें और इमरजेंसी प्रोटोकॉल नहीं होंगे, ये नियम सिर्फ कागज़ों तक सीमित रहेंगे. जानवर आते रहते हैं और आपात स्थितियां भी.
इसीलिए गांदास ने खुद कमान संभाली. उन्होंने Environment and Wildlife Society बनाई ताकि काम को स्ट्रक्चर दिया जा सके, लेकिन अनुभव आदर्श से बहुत दूर रहा. संस्था ने उन्हें विश्वसनीयता तो दी, लेकिन टीम की कमीटमेंट न होने से वह खिन्न हैं.
उन्होंने कहा, “बस दिखावा करना चाहते हैं. अगर सीरियस हो तो मैदान में रहना पड़ेगा. 24 घंटे काम करना पड़ेगा.”
और अक्सर, वह ऐसा करते भी हैं.
उन्होंने देखा है कि वॉलंटियर और स्टूडेंट्स जुनून के साथ आते हैं, लेकिन कुछ दिनों बाद छोड़ जाते हैं. यह काम, वह कहते हैं, बेहद मुश्किल और बिना चमक-दमक वाला है. एक रेस्क्यू के दौरान, उन्हें तब चोट लगी जब वह एक सिवेट कैट को कुत्तों से बचा रहे थे. सर्जरी में 30 हज़ार रुपये से ज़्यादा खर्च हुए और उनकी ऊंगली स्थायी रूप से खराब हो गई.
उन्होंने कंधे उचका दिए. काम का हिस्सा है. उनकी आजीविका रियल एस्टेट से चलती है. गुरुग्राम में फैक्टरी और छोटे प्रॉपर्टी स्पेस किराए पर देकर वह अपना रेस्क्यू काम चलाते हैं.
इस साल गुरुग्राम में आई बाढ़ के दौरान, उन्होंने एक दिन में 18 रेस्क्यू कॉल अटेंड किए. उन्होंने याद किया, “न नहाने का समय, न खाने का, न पीने का.”
सालों में उन्होंने अपनी स्किल्स भी निखारीं. वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया से ट्रेनिंग ली, Animal Welfare Board प्रोग्राम्स में शामिल हुए और अनुभव से सीखा. उन्होंने कहा, “मैं डिस्कवरी चैनल देखता था, किताबें पढ़ता था और अब मुझे पता है कि गुरुग्राम के किस हिस्से में करैत है, कहां कोबरा है या रैट स्नेक.”

गुरुग्राम, पटौदी, सोहना, दिल्ली, अलवर और यहां तक कि फरीदाबाद—हर जगह गांदास दौड़ते हैं. गर्मियों में रेस्क्यू काम उन्हें पूरी तरह घेर लेता है, अक्सर देर रात तक चलता है, जबकि सर्दियां ही उन्हें थोड़ी राहत देती हैं. अपने साथी रेस्क्यूअर्स के बीच उन्होंने देखा है कि बहुत से लोग इसे पार्ट-टाइम करते हैं, लेकिन बहुत कम हैं जो इसे दिन-रात जीते हैं. और उनकी नज़र में, यही असली संकट है, “कमी है.”
रेस्क्यू और सुधार
राज्य की सीमाओं के उस पार, गाज़ियाबाद में भी एक और रेस्क्यूअर उतनी ही निष्ठा से काम कर रहा है.
विनीत अरोड़ा, जो अब 42 साल के हैं, साल 2002 में सिर्फ 18 बरस के थे जब उन्होंने मेनका गांधी को पत्र लिखा. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि जानवरों की मदद कैसे करें, बस इतना पता था कि उन्हें और कुछ करना है. जवाब आया—एक खत के रूप में.
मेनका गांधी ने लिखा था, “आप एनिमल वेलफेयर ग्रुप्स को डोनेशन देना शुरू कर सकते हैं. ज़रूरतमंद जानवरों को उठाकर वेट के पास ले जाएं. सड़क से किसी कुत्ते या बिल्ली को अपनाएं और उसे घर दें. मांस, अंडा और डेयरी उत्पादों से परहेज़ करके आप सैकड़ों जानवरों की जान बचाते हैं, सर्कस, चिड़ियाघर या किसी भी तरह के ‘मनोरंजन’ का समर्थन न करें जो जानवरों का शोषण करते हैं. उन कंपनियों को लिखें जो जानवरों को नुकसान पहुंचाती हैं या उनका टेस्टिंग में इस्तेमाल करती हैं.”

मेनका गांधी को उस समय हाल ही में एनिमल वेलफेयर मंत्री पद से हटाया गया था, एक पद जो उन्हें 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने खास तौर से मंत्रालय बनाकर दिया था, जब वह सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल हुई थीं.
उस वक्त अरोड़ा ने वेटरनरी साइंस नहीं पढ़ी थी, लेकिन उन्होंने वहीं से शुरुआत की, जहां मुमकिन था—ग्राउंड पर. उन्होंने एनजीओ के साथ वॉलंटियर किया, ट्रेनिंग कैंप अटेंड किए, डॉक्टरों के साथ काम किया और खुद जानवरों को संभाला. अब वह औपचारिक वेटरनरी डिग्री करने की तैयारी कर रहे हैं.
उन्होंने कहा, “पहला सांप जो मैंने बचाया था, वह ब्लैक-हेडेड रॉयल था. अब तक का सबसे खूबसूरत सांप.”
अरोड़ा ने शुरुआत सांपों से की, जिन्हें वह गलत समझे जाने वाले जीव मानते हैं, लेकिन वह और काम करना चाहते थे. इसी ने उन्हें एक ऐसे एनजीओ से जोड़ दिया, जो पशु कल्याण पर काम करता है.
फोटोग्राफी अरोड़ा के लिए जानवरों से जुड़ने का एक और माध्यम बन गई. कोविड-19 के बाद उन्होंने पहला कैमरा खरीदा, और अब वह सुबह-सुबह सूरजपुर, सुल्तानपुर, गुरुग्राम और राजस्थान के खेतों और अभयारण्यों में समय बिताते हैं.
उनकी मां, आशा, याद करती हैं जब एक चिड़िया मर गई थी और अरोड़ा ने उसका बाकायदा अंतिम संस्कार किया—कागज़ से एक क्रॉस बनाकर ‘हेडस्टोन’ भी लगाया.

करीब 30 साल बाद, उन्होंने ट्रकों का एक काफ़िला देखा जिसमें भैंसें पीछे भरकर ठूंसी हुई थीं. अरोड़ा ने तुरंत पुलिस को बुलाया और उन जानवरों को बचा लिया.
जहां अरोड़ा ने खुद को एनजीओज़ में समर्पित किया, वहीं गांदास ने अपनी राह राजनीति से बनाई, लेकिन दोनों का मकसद एक ही है—यह सुनिश्चित करना कि इंसान-जानवर टकराव में जानवरों को नुकसान न उठाना पड़े.
गांदास साल 2000 में बीजेपी से जुड़े. आज वह हरियाणा में पर्यावरण विभाग के उपाध्यक्ष हैं. उनका कहना है कि राजनीति ने उनके संरक्षण प्रयासों को और मज़बूत आवाज़ दी है.
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