बेंगलुरु: कर्नाटक के उच्च शिक्षा मंत्री सी.एन. अश्वथ नारायण ने पिछले हफ्ते एक खासा विवादास्पद बयान दिया, जिसमें उन्होंने जनता से कहा कि कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को 18वीं शताब्दी के मैसूर शासक टीपू सुल्तान की तरह ‘खत्म’ कर देना चाहिए.
नारायण ने मंगलवार को एक जनसभा में कहा, ‘टीपू सुल्तान की जगह सिद्धारमैया आ जाएंगे. आप वीर सावरकर चाहते हैं या टीपू सुल्तान? इस पर निर्णय आपको ही लेना है. आप जानते हैं कि उरी गौड़ा और नानजे गौड़ा (जाहिरा तौर पर टीपू से लड़ने वाले सैनिकों) ने टीपू सुल्तान के साथ क्या किया था. इसी तरह, उन्हें (सिद्धारमैया को) समाप्त कर देना चाहिए.’ उनकी इस टिप्पणी पर कांग्रेस में आक्रोश और विरोध शुरू होने के बाद मंत्री को अपना बयान वापस लेना पड़ा.
लेकिन नारायण की टिप्पणी ‘टीपू सुल्तान बनाम सावरकर’ की पिच को आगे बढ़ाने वाली एक और कड़ी है, जिसे इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की तरफ से हवा दी जा रही है.
आखिर टीपू सुल्तान क्यों? दिप्रिंट ने जिन विशेषज्ञों से बात की, उनका मानना है कि इसकी वजह है कर्नाटक में कोडवाओं और केरल में नायरों की नृशंस हत्या के साथ उनका जुड़ा होना और कैसे यह ‘हिंदू खतरों में है’ यानी कट्टरपंथी इस्लाम से हिंदू धर्म के लिए कथित खतरे को लेकर भाजपा के नैरेटिव को आगे बढ़ाता है.
विशेषज्ञों का कहना है कि जबरन धर्मांतरण के आरोपों से लेकर हिंदू मंदिरों के ‘विध्वंस’ तक, टीपू सुल्तान कर्नाटक में भाजपा के पसंदीदा दुश्मन हैं, ठीक वैसे ही जैसे मुगल शेष भारत में हैं. दोनों बातों का मकसद एक ही है—हिंदू वोटों को लामबंद करना और हथियाना.
एक इतिहासकार और ‘आरंभ’ (यानी एसोसिएशन फॉर रिवाइविंग अवेयरनेस अबाउट द मॉन्यूमेंट्स ऑफ बैंगलोर हेरिटेज) के संस्थापक सुरेशा मूना ने दिप्रिंट को बताया, ‘हैदर अली, टीपू सुल्तान और पहले के मुगलों के बारे में इतिहास में बहुत सी बातें हैं. लेकिन चूंकि ये लोग (कांग्रेस) उन्हें (टीपू को) स्वतंत्रता सेनानी बताते हैं, वे (भाजपा) उन पर हमला करना चाहते हैं. यही कारण और प्रभाव का सिद्धांत है.’
इस बीच, राजनीतिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि टीपू सुल्तान पर विवादों को जन्म देने की एक वजह बड़े मुद्दों से ध्यान हटाने की कोशिश भी है—जैसे बोम्मई सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप और इसके कुछ खास उपलब्धियां हासिल न करने को लेकर बनी अवधारणा.
कर्नाटक में इस साल मई में विधानसभा चुनाव होने की संभावना है.
टीपू सुल्तान क्यों
टीपू सुल्तान का जन्म 1750 में देवनहल्ली में हुआ था, जो अब बेंगलुरु हवाई अड्डे से कुछ ही दूरी पर है. उनके पिता हैदर अली पहले कृष्णराज वोडेयार द्वितीय की सेना में एक सैनिक हुआ करते थे लेकिन उच्च पद हासिल करते-करते पहले एक कमांडर और फिर अंततः एक शासक बन गए और उनकी उपलब्धि यही थी कि उन्होंने राजा की सत्ता को उखाड़ फेंका और उन्हें कैद कर लिया.
टीपू राज्य में एक विवादास्पद शख्सियत रहे हैं. यद्यपि कुछ इतिहासकार अक्सर उन्हें एक सक्षम प्रशासक और एक राष्ट्रीय नायक के रूप में चित्रित करते हैं, जिन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी, कई ऐसे भी हैं जो इसे इतिहास का एक चुनिंदा अध्ययन कहते हैं और उनके शासनकाल में क्रूरता के उदाहरणों की ओर इशारा करते हैं, खासकर हिंदुओं, ईसाइयों और कोडवाओं के खिलाफ.
उन्हें किस नजरिये से देखा जाए, इस पर मतभेद राजनीति में भी फैल गए हैं, भाजपा राज्य में अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पर टीपू सुल्तान का महिमामंडन करने का आरोप लगा रही है. पार्टी इस उद्देश्य के साथ कांग्रेस को घेर रही है, लेकिन इसका असली निशाना राज्य में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता सिद्धारमैया हैं.
दरअसल, राज्य में यह सारा विवाद तबसे ही शुरू हो गया था जब 2015 में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 18वीं शताब्दी के शासक के सम्मान में राज्य भर में टीपू जयंती समारोह आयोजित करने का आदेश दिया था.
इस घोषणा के कारण कोडगु के दक्षिणी जिले में झड़पें हुईं, जहां शासक पर सामूहिक हत्याओं और जबरन धर्मांतरण का आरोप लगाया गया. इन झड़पों में मारे गए दो लोगों में विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) का एक कार्यकर्ता भी शामिल था.
तबसे, टीपू जयंती राज्य में एक विवादास्पद विषय रहा है, 2019 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के समय से ही यह आयोजन रद्द किया जा रहा है.
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‘भावनाओं की राजनीति’
ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ते हुए 1799 में अपनी जान गंवाने वाले टीपू सुल्तान काफी तेजी से कर्नाटक की राजनीति का मुख्य आधार बनते जा रहे हैं.
विशेषज्ञों का मानना है कि हिजाब, धर्मांतरण विरोधी कानून और हलाल मीट को लेकर राज्य में हालिया सांप्रदायिक विवादों के बाद अब टीपू सुल्तान का मुद्दा उछाला जाना शासन के मुद्दों से ध्यान भटकाने की एक कोशिश है.
चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक विश्लेषक संदीप शास्त्री ने दिप्रिंट से कहा, ‘या तो उन्हें ऐसा लगता है कि उनके पास सामने लाने के लिए मुद्दे (उपलब्धियां) नहीं है या फिर उन्हें लगता है कि ये चुनावी वोट हासिल करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. तो स्पष्ट है कि यह देखने की कोशिश की जा रही है कि क्या धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण संभव है.’
इस साल जनवरी से टीपू सुल्तान कई केंद्रीय और राज्य नेताओं के भाषणों का अहम हिस्सा रहे हैं.
अपना नाम न छापने की शर्त पर एक भाजपा नेता ने इस पर अपनी राय कुछ इस तरह जाहिर की, ‘आप (राजनीतिक दल) एक नैरेटिव सेट कर रहे हैं. चुनाव विकास के मुद्दों पर नहीं लड़े जाते हैं भले ही लोग उनके बारे में बात करते हैं. चुनाव भावनात्मक मुद्दों पर लड़े जाते हैं.
रणनीति यह है कि 18वीं सदी के मैसूर के एक शासक के खिलाफ समान रूप से विवादास्पद एक दूसरे नेता और हिंदुत्ववादी विचारक विनायक दामोदर सावरकर को खड़ा किया जाना है.
अश्वथ नारायण के विवादित बयान देने से एक दिन पहले, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नलिन कुमार कतील ने कहा था कि इस बार का चुनाव ‘टीपू’ और ‘सावरकर’ के बीच का मुद्दा है.
शास्त्री ने कहा, ‘मुझे लगता है कि केंद्रीय नेतृत्व जिस पर वे (राज्य भाजपा) समर्थन के लिए पूरी तरह निर्भर होने जा रहे हैं, फिलहाल देखो और इंतजार करो के मोड में है. केंद्रीय नेतृत्व इस पर मंथन कर रहा है कि उसे अपने अभियान में क्या रणनीति अपनाने की आवश्यकता पड़ेगी.’
इसके अलावा, भाजपा हिंदू वोट बैंक को अपने पाले में लाने के लिए आजमाए हुए तरीकों पर भी निर्भर है. पार्टी ने पहले ही 1 मार्च से राज्य में ‘रथ यात्रा’ की घोषणा कर रखी है, जिसके बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि यह भाजपा के दिग्गज नेता एल.के. आडवाणी की तरफ से 1990 के दशक की शुरुआत में अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए हिंदू समर्थन जुटाने के लिए निकाली गई रथयात्रा की याद दिलाती है.
भाजपा के एक नेता मानते हैं कि यात्रा हिंदू वोटों को लामबंद करने की कोशिश है. उक्त नेता ने दिप्रिंट को बताया, ‘जब सिद्धारमैया खुले तौर पर अल्पसंख्यकों और इस तरह की चीजों पर बात करना शुरू करते हैं, तो हम हिंदुत्व वोट बैंक के बीच कैसे पकड़ बनाएंगे.’
‘भ्रष्टाचार के आरोपों में कोई धार नहीं’
कर्नाटक के भाजपा अभियान में अब केंद्रीय नेताओं ने मोर्चा संभाल लिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह लगातार राज्य का दौरा कर रहे हैं. राजनीतिक पर्यवेक्षकों की राय है कि अधिक से अधिक केंद्रीय नेताओं का यहां आना और बसवराज बोम्मई को दरकिनार किया जाना दरअसल बोम्मई सरकार के खराब प्रदर्शन को छिपाने की भाजपा की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है.
यही नहीं, भाजपा सरकार को न केवल बाहर से बल्कि अपने ही विधायकों, जैसे बसनगौड़ा पाटिल (यतनाल), ए.एच. विश्वनाथ और गोलीहट्टी शेखर की तरफ से भी भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है.
इस बीच, कांग्रेस ने सरकारी निविदाओं के लिए कमीशन लेने का आरोप लगाते हुए बोम्मई सरकार के खिलाफ अपना अभियान तेज कर दिया है.
बेंगलुरू के राजनीतिक विश्लेषक और अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ पॉलिसी एंड गवर्नेंस के फैकल्टी सदस्य ए. नारायण जैसे राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इन आरोपों से भाजपा के लिए मतदाताओं को पार्टी को एक और मौका देने के लिए राजी करना काफी कठिन हो गया है.
80 के दशक की शुरुआत से ही किसी भी पार्टी को कर्नाटक में सफलतापूर्वक दूसरा कार्यकाल नहीं मिला है.
नारायण ने दिप्रिंट से कहा, ‘जनता की जो भी राय रही, उसे मोदी की मौजूदगी के साथ बदलने की कोशिश की जा रही है और इससे भी अहम बात यह है कि सांप्रदायिकता का मुद्दा उभारा जाए और सब कुछ दरकिनार कर जनता की राय को उसके आगे दबा दिया जाए.’ साथ ही जोड़ा कि लेकिन मौजूदा स्थिति में सबसे बड़ी बात यही है कि भ्रष्टाचार के आरोप भाजपा के भीतर से ही लगा रहे हैं.
लेकिन ऊपर उद्धृत भाजपा नेता का कहना है कि कांग्रेस के भ्रष्टाचार के आरोपों की चमक फीकी पड़ गई है.
उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस के लिए कुछ भी अच्छा नहीं चल रहा, भले ही हमने (भाजपा) बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है लेकिन उनके पास भी कोई बड़ा मुद्दा नहीं है…लोग 40 प्रतिशत कमीशन की बातें सुनकर थक गए हैं. यह मुद्दा लंबा नहीं खिंचने वाला है और इससे उन्हें चुनाव के दौरान कोई फायदा नहीं मिलने वाला है.’
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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