रांची: साल 2012 में दीप्ति कुमारी भारत को आर्चरी में रिप्रेसेंट करने के लिए अमेरिका गई थीं. आज वह रांची के अरगोड़ा चौक पर चाय बेच रही हैं. आर्चरी हमेशा उनके दिमाग और दिल में रहती है. लेकिन फिलहाल उनके ऊपर 7 लाख रुपये का कर्ज है. दीप्ति की मां ने ये कर्ज उनके धनुष खरीदने के लिए लिया गया था. लेकिन जब दीप्ति का धनुष टूटा तो उनका खेलने का सपना भी टूट गया.
अपने व्यस्त दिन से कुछ पलों को चुराकर दीप्ति पास में मौजूद आर्चरी ग्राउंड में प्रैक्टिस कर रहे अपने दोस्तों और बच्चों को देखने के लिए जाती हैं. अब नई जेनरेशन के बच्चे आर्चरी सिख रहे हैं. वो दीप्ति को नहीं पहचानते हैं. दीप्ती जो कई नेशनल मेडल जीत चुकी हैं वो अब आर्चरी की दुनिया से भुला दी गई हैं. बच्चों को धनुष चलाता देख उनकी आंखों में एक अलग-सी चमक देखने को मिलती है.
25 साल की दीप्ती कहती हैं, “जब मैं बहुत उदास होती हूं तो यहां इन लोगों को प्रैक्टिस करते हुए देखने आ जाती हूं. इन्हें देखकर अच्छा लगता है. मैं भी इनकी तरह खेल सकती थी. लेकिन हालातों के आगे हार गई हूं ”
दीप्ति की तरह भारत में कई प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की कहानियां ऐसे ही खत्म हो जाती हैं. ये खिलाड़ी अपने शरीर और दिमाग को चुनौती देते हैं और ट्रेनिंग करते हैं, लेकिन वे अपनी गरीबी को दूर करने में असमर्थ हैं. ये एक बड़ा कारण हैं जिसके कारण वो खेल की दुनिया में कामयाब नहीं हो पाते हैं. यह सरकार की खेल प्रतिभाओं को पहचानने, सुधारने और संभालने में असमर्थता और एक सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र की कमी की कहानी है. एथलीट गीता कुमार, जिन्हें झारखंड के रामगढ़ जिले में अपने गृहनगर में सब्जियां बेचनी पड़ीं और राष्ट्रीय कराटे चैंपियन बिमला मुंडा, जो रांची में राइस बीयर बेच रही थीं, भी उन अन्य खिलाड़ियों में शामिल हैं, जिन्हें इसी तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा.
दीप्ति ने 2006 में तीरंदाजी टूर्नामेंट में भाग लेना शुरू किया था. उनकी मां ने 2012 में एक सेल्फ हेल्प ग्रुप से 7 लाख रुपये का कर्ज लिया और उसमें से 4.5 लाख रुपये का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय स्तर का धनुष खरीदने के लिए किया. उस साल अमेरिका में अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में भाग लेने के दौरान दीप्ति का धनुष टूट गया. दीप्ति को टूर्नामेंट से बाहर बैठना पड़ा जिसके बाद वह रांची लौट आईं जहां कर्ज उनके इंतजार में था. दीप्ति ने बैम्बू के धनुष से साल 2018 तक खेल में भाग लिया लेकिन जब कर्ज चुकाने का दबाव बढ़ गया तो उन्हें चाय बेचने का विकल्प चुनना पड़ा.
दीप्ती कहती हैं, “मैंने बैम्बू के धुनुष के साथ खेला लेकिन फिर घर की हालात खराब होती गई तो मुझे चाय बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा.” दीप्ती ने 100 से ज्यादा मेडल जीते हैं और हर हफ्ते 1000 रुपये की किश्तों में अपना कर्ज चुका रही हैं.
दीप्ती एक कस्टमर को चाय देती हुई कहती हैं, “जब आर्चरी खेलती थी तो हमेशा जीतकर लाती थी लेकिन अब चाय बेचते हुए मैं हर रोज हारती हूं.”
बढ़ता कर्ज
चाय की दुकान चलाने के लिए, दीप्ति ने अपने दोस्तों से 60,000 रुपये का एक और कर्ज लिया.
नए कर्ज के साथ, उन्होंने इस उम्मीद में स्टॉल पर टिन की छत लगा दी कि यह अधिक ग्राहकों को आकर्षित करेगा.
दीप्ति की कहानी वायरल होने के बाद, एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता ने उन्हें 25,000 रुपये दिए, जिससे उन्होंने अपने दोस्तों से लिया कर्ज चुका दिया. दीप्ति ने जिंदगी से मिले तमाम कठोर सबकों के बाद भी दोबारा खेलने की उम्मीद नहीं छोड़ी है.
वह कहती हैं, “अगर मुझे मौका मिलता है, तो मैं अभी भी देश को गौरवान्वित कर सकती हूं. मुझे प्रैक्टिस में 15 दिन लगेंगे और मैं खेलने के लिए एकदम तैयार हो जाउंगी, लेकिन घर पर जिम्मेदारियां हैं.” दीप्ति की मां सीता देवी दिल की मरीज हैं, जिनकी हाल ही में “किडनी की सर्जरी” हुई थी. उनकी बहन की हालत भी इन दिनों खराब है. उन्हें कुछ दिनों पहले ही अस्पताल से छुट्टी मिली है. इसके लिए भी परिवार ने कई कर्ज लिए हैं.
अपनी चाय की दुकान से लगभग 15 मिनट की दूरी पर, दीप्ति एक कमरा किराए पर लेकर रहती हैं और 2,000 रुपये प्रति माह के किराए पर दस अन्य किरायेदारों के साथ एक बाथरूम साझा करती है. एक खाली दीवार पर लगभग 30 पदक लटके हुए हैं – जो उनके पिछले जीवन की याद दिलाते हैं. दीप्ती कहती हैं, “कभी-कभी मेरे भाई या भाभी मेरे साथ रहने आते हैं. लेकिन मैं ज्यादातर अकेला ही रहती हूँ.”
दीप्ति लोहरदगा जाने के लिए दो घंटे का खर्च नहीं उठा सकती, जहां उनके माता-पिता, दो भाई और दो बहनें रहती हैं. परिवार उनके बड़े भाई की आय पर निर्भर हैं जो एक ऑटोरिक्शा चलाता है. कुछ समय पहले तक, उनकी बहन एक स्थानीय स्टोर में सेल्स पर्सन के रूप में काम करती थी, लेकिन बीमार होने के बाद उसकी नौकरी छूट गई. वह भी जिला स्तर के टूर्नामेंट में भाग लेती थी, लेकिन दीप्ति के संघर्ष को देखकर हार मान ली.
लोहरदगा में दीप्ति की माँ सीता ‘पुराने दिनों’ की याद दिलाकर खुश हैं. तीन कमरे के इस घर में भी दीवारों और अलमारियों में सर्टिफिकेट, ट्राफियां और मेडल सजाए गए हैं. सीता केवल 45 वर्ष की हैं, लेकिन गरीबी और निराशा के सालों ने उनके स्वास्थ्य पर असर डाला है.
सीता देवी कहती हैं, “मैं दीप्ति की मदद करने के लिए एक मजदूर के रूप में काम करती थी. जब मेरे शरीर ने मेरा साथ नहीं दिया, तो मैंने लोगों से पैसे मांगे और दीप्ती को दिए.” जब भी दीप्ति दूसरे शहरों में टूर्नामेंट में भाग लेतीं, सीता उन्हें 100 रुपये देतीं.
“वह बहुत अच्छा खेली, और हर बार मेडल के साथ घर आती थी. हम सोचते थे कि जब वह अपना नाम बनाएगी, तो हमारी हालत सुधर जाएगी.”
दीप्ति का सबसे छोटा भाई, एक टीनेजर अभी भी राष्ट्रीय स्तर का तीरंदाज बनने का सपना देखता है, और वर्तमान में राज्य स्तर पर खेल रहा है. जनवरी की शुरुआत में वह राजस्थान में एक टूर्नामेंट से लौटा था. वह दीप्ति के पुराने ट्रैकसूट पहनता है.
वह दीप्ति से कहता है.”तुम वे ट्रैकसूट ले लिए जो मुझे पसंद हैं. मुझे भी वो पहनना था.”
दीप्ति शांति से जवाब देती है, “जब मैं दोबारा आऊंगी तो उन्हें वापस ले लूंगी.”
टूटती उम्मीदें
दीप्ति ने एक स्कूल टीचर से आर्चरी के बारे में जाना और दोगुनी आर्चरी एकेडमी में अपना एडमिशन करा लिया.
“मैंने अपनी बहन दीपिका कुमारी को तीरंदाजी से परिचित कराया था,” दीप्ती दावा करती हैं. दीपिका, जो रांची से हैं और वर्तमान में विश्व रैंकिंग (रिकर्व महिलाओं की) में 24वें स्थान पर हैं. 2012 में, जिस साल दीप्ति अमेरिका खेल नहीं पाई थी, दीपिका तीरंदाजी की दुनिया में नंबर 1 रैंकिंग पर पहुंच गईं थी और 2021 में शीर्ष स्थान हासिल किया.
दीप्ती कहती हैं, “मैं रात-रातभर उसको प्रैक्टिस कराती थी मुझे खुशी है कि उसे उसकी मेहनत का फल मिला ”
23 जनवरी को पहली बार झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सरकारी नौकरियों के लिए राज्य के खेल कोटे के तहत 27 खिलाड़ियों – 17 महिलाओं और 10 पुरुषों – को नियुक्ति पत्र प्रदान किए. उनमें से चार आर्चरी खिलाड़ी थे. सभी सफल अभ्यर्थी अब झारखंड पुलिस में सिपाही के रूप में काम करेंगे. दीप्ति ने भी आवेदन किया था, लेकिन उनका चयन नहीं हुआ.
सीएम सोरेन ने रांची में समारोह में कहा था, ‘जिन खिलाड़ियों को नियुक्ति पत्र नहीं मिला है, उन्हें निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि सरकार उन सभी के लिए एक कार्य योजना पर काम कर रही है.’
पिछले साल सितंबर में, राज्य सरकार ने एक नई झारखंड खेल नीति 2022 शुरू की, जिसका उद्देश्य “खिलाड़ियों के मार्ग से बाधाओं को कम करना” था. लेकिन दीप्ति को इसका कोई फायदा नहीं हुआ.
“सरकार कहती है कि वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पदक विजेताओं को नौकरी देगी, लेकिन नीति में यह स्पष्ट किया गया है कि नौकरी केवल उन लोगों को दी जा सकती है जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय पदक जीते हैं और भारतीय ओलंपिक संघ द्वारा मान्यता प्राप्त हैं. ” खेल मंत्रालय के एक सूत्र ने दिप्रिंट को बताया.
दीप्ति मापदंड पर खरी नहीं उतरती हैं क्योंकि उन्होंने कोई अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट नहीं जीता है.
पॉलिसी लॉन्च करते हुए सीएम सोरेन ने माना कि झारखंड में कई खिलाड़ी सीमित संसाधनों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में जीत हासिल करते हैं.
दीप्ति ने रांची से भाजपा सांसद संजय सेठ के हस्ताक्षर वाला पत्र निकाला. दिनांक नवंबर 2022, सेठ ने वादा किया कि सरकार उसे धनुष से सुसज्जित करेगी.
लेकिन अभी तक, कोई मदद नहीं मिली है.
झारखंड के खेल मंत्री हाइफिजुल हसन कहते हैं, “अभी तक हमें इसके बारे में कुछ भी पता नहीं है., अगर यह हमारे संज्ञान में आता है, तो हम निश्चित रूप से कुछ करेंगे.”
दीप्ति अब केवल प्रतीक्षा कर सकती हैं.
वह कहती हैं, “मुझे उम्मीद है कि सरकार मेरी मदद करेगी. मैं किसी चीज की भीख नहीं मांग रही हूं. मेरे पास प्रतिभा है और मैं अपने देश के लिए कुछ कर सकती हूं. मुझे केवल एक छोटे से समर्थन की आवश्यकता है.”
चूल्हे पर चाय के उबलते हुए बर्तन से भाप की फुहारें उठती हैं. जैसे ही वह इसकी ओर झुकती हैं, दीप्ति बाहर सड़क पर देखती हैं. कई नेताओं और वरिष्ठ अधिकारियों की गाड़ियाँ हर दिन उनके स्टॉल से गुज़रती हैं, लेकिन किसी ने कभी उनकी ओर ध्यान नहीं दिया.
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