scorecardresearch
Saturday, 21 December, 2024
होमफीचर'जन्म से मृत्यु तक, हम सबसे अलग हैं': Modi के UCC का विरोध क्यों कर रहे हैं झारखंड के आदिवासी

‘जन्म से मृत्यु तक, हम सबसे अलग हैं’: Modi के UCC का विरोध क्यों कर रहे हैं झारखंड के आदिवासी

भारत को एकजुट करने, महिलाओं के लिए समानता लाने और पुरानी धार्मिक प्रथाओं को पीछे छोड़ने का प्रयास अब चल रही एकरूपता की राजनीति की विषमताओं को उजागर कर रहा है.

Text Size:

खूंटी (झारखंड): रविवार को आदिवासी लोग अपनी सांस्कृतिक परंपराओं और रीति-रिवाजों को पुनर्जीवित करने के तरीके पर चर्चा करने के लिए झारखंड के खूंटी में अपने पारंपरिक कपड़ों और आभूषणों में अक्सर जमा होते हैं. ऐसा पिछले 12 सालों से लगातार हो रहा है लेकिन पिछले दो हफ्तों में इन बैठकों में पूरे भारत में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कदम पर जोरदार बहस हुई और इसे लेकर लोगों के चेहरे पर चिंताएं साफ तौर पर नज़र आईं.

ये बैठकें अब यूसीसी के खिलाफ लोगों को संगठित करने, विरोध को और तेज करने को लेकर प्रशिक्षण सत्र में बदल रही हैं. देश में सिर्फ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ही नहीं बल्कि आदिवासी भारत में भी हलचल शुरू हो चुकी है. अब तक 100 से ज्यादा छोटे-बड़े विरोध प्रदर्शन हो चुके हैं. जुलाई की शुरुआत में रांची में आदिवासी समन्वय समिति के तले 30 से अधिक आदिवासी संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया, आक्रोश जुलूस निकाला और राज्य भाजपा मुख्यालय के बाहर धरना भी दिया.

Tribal UCC protest in Khunti, Jharkhand | Photo: By Special Arrangement
रांची में यूसीसी के खिलाफ प्रदर्शन करते आदिवासी | फोटो: विशेष प्रबंध

सफेद, हरी और लाल रंग की साड़ी पहने महिलाएं अपने परिवारों के साथ टेम्पो और स्थानीय बसों द्वारा अपने गांवों से मुंडा आदिवासियों की आस्था के केंद्र खूंटी के करम अखड़ा में रविवार को आते हैं. उनके डर की सूची में सबसे ऊपर अपने कड़ी मेहनत से लड़कर हासिल किए गए भूमि अधिकारों को खोना है. इसके बाद विवाह, विरासत और बच्चे को गोद लेने की उनकी पारंपरिक सांस्कृतिक प्रथाएं हैं.

अन्य लोगों के साथ हरी और नीली धारीदार दरी पर बैठी मुदेसना टोपनो पूछती हैं कि यूसीसी एक आदिवासी महिला के रूप में उनके अधिकारों को कैसे प्रभावित करेगा. उनके सवाल से गुस्सा साफ तौर पर जाहिर होता है.

Tribal women gather at a UCC protest meeting in Khunti | Photo: By special arrangement
खूंटी में यूसीसी के खिलाफ हुए प्रदर्शन में शामिल महिलाएं | फोटो: विशेष प्रबंध

टोपनो पूछती है, “हम अपने रीति-रिवाज से चलते हैं और सदियों से अपनी जमीन को बचाकर रखा है. क्या यूसीसी हमारे अस्तित्व के लिए खतरा है?”

करम अखड़ा में बैठे अन्य आदिवासियों में भी चिंताएं हैं कि क्या यूसीसी सच में उनके जीवनशैली को बदलकर रख देगा.

एक अन्य आदिवासी महिला मनोनिता कहती हैं, “हम बिरसा मुंडा के वंशज हैं. हम जानते हैं कि अपनी ज़मीन के लिए कैसे लड़ना है.” जनजातीय प्रतीक गया मुंडा, बिरसा मुंडा और सिद्धू और कान्हू मुर्मू (सिद्धू-कान्हू के नाम से लोकप्रिय) के बड़े चित्र दीवारों पर लटके नजर आते हैं और एक बड़ा पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्र, मांदर, छत से लटका हुआ दिखता है. वह कहती हैं, “हम अपने आदिवासी समाज में बदलाव नहीं चाहते, जिसकी अपनी व्यवस्था है. हम अपनी ज़मीन बचाना चाहते हैं.” वहां बैठे अन्य लोग भी उनसे सहमति जताते हैं.

मोदी ने हाल ही में भोपाल की एक रैली में कहा था कि भारत में एक घर में दो अलग कानून नहीं हो सकते और विपक्ष को मुसलमानों को भड़काना बंद करना चाहिए. विधि आयोग ने 14 जून को नोटिफिकेशन जारी कर यूसीसी पर लोगों से सार्वजनिक परामर्श मांगे. लेकिन झारखंड, छत्तीसगढ़, नागालैंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कई आदिवासी समूहों ने अपना विरोध जताया है. भाजपा सांसद और कानून एवं न्याय पर संसदीय समिति के अध्यक्ष सुशील कुमार मोदी ने भी कहा है कि आदिवासी आबादी को यूसीसी से बाहर रखा जाना चाहिए.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध संस्था वनवासी कल्याण आश्रम, जो झारखंड और भारत के दूसरे आदिवासी क्षेत्रों में काम करता है, एक विषम स्थिति में फंस गया है.

वनवासी कल्याण आश्रम के उपाध्यक्ष सत्येन्द्र सिंह कहते हैं, “यूसीसी एक अच्छा कदम है लेकिन हमने विधि आयोग से अनुरोध किया है कि वह आदिवासी क्षेत्रों का दौरा करें और पारंपरिक प्रणाली को समझने की कोशिश करें. आयोग को जल्दबाजी में अपनी रिपोर्ट नहीं देनी चाहिए.”

दुर्गावती ओड़ेया, केंद्रीय सरना संगोम समिति की संस्थापक है और उनका लक्ष्य आदिवासियों को उनकी परंपराओं और रीति-रिवाजों के बारे में शिक्षित करना है. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, वह यूसीसी के विरोध में आदिवासियों को प्रशिक्षित कर रही हैं.

रविवार को उन्होंने कहा, “जन्म से लेकर मृत्यु तक, आदिवासियों में सब कुछ अलग है. सदियों से हमारी विशिष्ट परंपरा रही है.”

लकड़ी की कुर्सी पर बैठी ओड़ेया के हाथों में प्रकृति के देवता सिंगबोंगा की किताब है. उनका समूह ग्राम सभा की बैठकों के माध्यम से और पारंपरिक मांदर बजाकर ग्रामीणों को इकट्ठा करके यूसीसी के बारे में जागरूकता पैदा करता है.

ओड़ेया कहती हैं, “हमने अतीत में अपनी ज़मीन खोई है और अब यूसीसी एक नया खतरा लेकर आया है. हम प्रकृति की पूजा करने वाले लोग हैं. हमें एक ही संस्कृति से जोड़ना पूरी तरह गलत है. हम शादी, गोद लेने, तलाक, विरासत के अपने पारंपरिक तरीके में कोई बदलाव नहीं चाहते हैं.”

Men & women at a UCC gram sabha meeting | Photo: Krishan Murari, ThePrint
करम अखड़ा में मौजूद आदिवासी महिलाएं और पुरुष | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

और बैठक के अंत में सभी खड़े होकर सिंगबोंगा की प्रार्थना करते हैं और अपने देवता से यूसीसी के खतरे से बचाने का आह्वान करते हैं. और इसी बीच कुछ महिलाओं का शरीर जोर-जोर से हिलने लगता है वहीं कुछ तालियां बजाने लगती हैं. स्थानीय तौर पर माना जाता है कि इन महिलाओं पर कुछ देर के लिए भगवान आ जाते हैं. हालांकि आदिवासी समाज के जानकार लोग इसे अंधविश्वास मानते हैं.

भारत को एकजुट करने, महिलाओं के लिए समानता लाने और पुरानी धार्मिक प्रथाओं को पीछे छोड़ने का प्रयास अब चल रही एकरूपता की राजनीति की विषमताओं को उजागर कर रहा है. भारत की विविधता के नाजुक ताने-बाने को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता लेकिन 21वीं सदी में समान नागरिक कानून की मांग को भी नकारा नहीं जा सकता. यूसीसी को लेकर चल रही बहस के केंद्र में यह संघर्ष कुछ समुदायों को इससे अलग रखने की मांग करता है.


यह भी पढ़ें: 2024 की लड़ाई सेमीफाइनल छोड़, सीधे फाइनल में पहुंची और BJP के सामने 3 चुनौतियां


जल-जंगल-ज़मीन

सफेद और लाल रंग के झंडे आदिवासी इलाकों में हर जगह नज़र आ जाते हैं. अनुष्ठान स्थलों पर सखुआ या साल के पेड़ दिखते हैं और बुरुबोंगा, इकिरबोंगा और सिंगबोंगा जैसे प्राकृतिक देवता उनके आराध्य हैं.

जमीन का मुद्दा झारखंड में आदिवासियों की पहचान के केंद्र में रहा है. आदिवासी समाज में जमीन को निजी के बजाए सामुदायिक संपत्ति माना जाता है. इसके लिए, उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ 1700 के दशक से लेकर 20वीं सदी के पूर्वार्ध तक कई लड़ाइयां लड़ीं, जो कि बेकार नहीं गयी. 1908 का छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटीए), 1876 का संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटीए) और 1837 में विल्किंसन नियम सभी ने झारखंड की 32 जनजातियों को विशेष प्रावधान दिए. इन्हें आज भी संविधान के तहत मान्यता प्राप्त है.

राज्य में यूसीसी का विरोध करने वाले प्रमुख चेहरों में से एक लक्ष्मी नारायण मुंडा कहते हैं, “आदिवासी समाज में भूमि निजी इकाई नहीं है, बल्कि यह समुदाय या कबीले की होती है और किसी को भी इसे बेचने का अधिकार नहीं है.”

पूर्वोत्तर के कुछ समुदायों के विपरीत, झारखंड का आदिवासी समाज पूरी तरह से पितृसत्तात्मक है. भूमि केवल पुरुषों के बीच बांटी होती है, इसलिए यह एक ही समुदाय के भीतर रहती है. आदिवासियों में पूजा-पाठ की जिम्मेदारी पाहन (पुजारी) के पास होती है जो उनके सभी महत्वपूर्ण रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों में शामिल होते हैं. साथ ही उन्हें अलग भूमि देने की भी परंपरा है. इस भूमि पर, समुदाय अपने सभी महत्वपूर्ण अनुष्ठान और त्योहार मनाता है, जैसे सरहुल (साल वृक्ष/प्रकृति की पूजा) और करमा पूजा.

आदिवासियों के लिए भूमि सिर्फ संपत्ति नहीं बल्कि जीवन जीने का एक तरीका है. कहा जा सकता है कि जमीन ने पूरे समुदाय को एक कर रखा है. पिछले सभी विद्रोहों की जड़ें ज़मीन ही रही हैं- बिरसा मुंडा के विद्रोह से लेकर कोल विद्रोह तक. और तब से अब तक लड़ाई जारी है.

Tribal icon Birsa Munda's birthplace Ulihatu in Khunti | Photo: Krishan Murari | ThePrint
आदिवासियों के भगवान बिरसा मुंडा का खूंटी स्थित उलीहातु गांव | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

2016 में, पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने सीएनटीए और एसपीटीए में बदलाव की मांग करते हुए एक अध्यादेश पेश किया. ब्रिटिश काल के कानून आदिवासी भूमि की रक्षा करते आए हैं. संशोधनों ने काश्तकारी अधिनियमों को कमजोर कर दिया, आदिवासी भूमि की बिक्री की अनुमति दी और सड़कों, बांधों और पाइपलाइनों जैसी “सार्वजनिक हित परियोजनाओं” के लिए इसके अधिग्रहण की सुविधा प्रदान की. आदिवासियों का विरोध तेज़ और व्यापक था. भारत के राष्ट्रपति को एक अपील में, हस्ताक्षरकर्ताओं ने चेतावनी दी कि संशोधन अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को भूमि और आजीविका खोने की असुरक्षित स्थिति में डाल देंगे.

तत्कालीन राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू, जो अब भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति हैं, ने विवादास्पद संशोधनों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और राज्य सरकार को उन्हें वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा.

लेकिन इस दौरान खूब विरोध प्रदर्शन हुए, पुलिस ने कार्रवाईयां की और व्यक्तिगत क्षति भी हुई. अक्टूबर 2016 में, खूंटी जिले के सैकड़ों ग्रामीण पुलिस के साथ भिड़ गए क्योंकि पुलिस ने उन्हें भाजपा के अध्यादेशों के विरोध में रांची में एकत्रित होने से रोकने की कोशिश की. पुलिस ने गोली चलाई और आदिवासी नेता अब्राहम मुंडा की मौत हो गई. लेकिन आदिवासियों ने इस मौत को भी अमर बना दिया. खूंटी में एक चौक पर अब्राहम मुंडा की मूर्ति लगाई गई जो आदिवासियों को लगातार उनकी जमीन की रक्षा करने की याद दिलाता है.

अतीत की घटनाओं के कारण आदिवासी समाज सरकार की मंशा को लेकर आशंकित हैं.

Abrahim Munda protested against the amendments in CNTA and SPTA in 2016 but was killed by a state police bullet. Tribals built a statue in his honour in Khunti | Photo: Krishan Murari | ThePrint
2016 में सीएनटीए और एसपीटीए कानून में संशोधन के खिलाफ हुए आंदोलन में खूंटी में अब्राहम मुंडा की पुलिस गोलीबारी में मौत हो गई थी | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

लक्ष्मी नारायण मुंडा कहते हैं, “भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, जहां राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से इतनी असमानता है, वहां समान नागरिक संहिता के बारे में बात करना बिल्कुल बेमानी है.”

रांची एक बार फिर विरोध प्रदर्शन का केंद्र बिंदु बन गया है. झारखंड के आदिवासी नेता पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ के अपने समकक्षों के साथ भी यूसीसी के खिलाफ समन्वय कर रहे हैं.

आदिवासी समन्वय समिति के समन्वयक देव कुमार धान कहते हैं, “आदिवासी समाज प्रथागत कानूनों में किसी भी बदलाव को बर्दाश्त नहीं करेगा. यूसीसी हमारे सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करेगा, जिससे समाज में अराजकता पैदा होगी.”


यह भी पढ़ें: भारतीय शहरों में हो रही नई क्रांति, रिवरफ्रंट बनाने की देश में क्यों मची है होड़


आदिवासी समाज में विरासत के क्या मायने हैं

ये सारी बहसें तब हो रही हैं जब मोदी सरकार द्वारा अभी तक कोई यूसीसी मसौदा जारी नहीं किया गया है. चर्चा को जटिल बनाने वाली बात यह है कि भारत में अधिकांश जनजातीय रीति-रिवाज 700 से अधिक समुदायों की अद्भुत विविधता को दर्शाते हैं. कई तो लोगों की दिनचर्या का हिस्सा है लेकिन अभी तक ये संहिताबद्ध नहीं किया जा सका है, जो भ्रम की स्थिति पैदा करता है. यह एक जटिल भूलभुलैया है, थोड़ा सा भी बदलाव चिंताओं को बढ़ा सकता है. विश्लेषकों का कहना है कि व्यापक राजनीतिक और सामाजिक सहमति बनाने की कवायद के बिना, यह संभवतः एक ऐसा मुद्दा बन जाएगा जिसे आदिवासी राज्य बर्दाश्त नहीं कर सकते.

जयपाल सिंह मुंडा ने 16 दिसंबर 1946 को संविधान सभा की बहस में कहा था, “आदिवासी गैर-आदिवासियों के प्रति बहुत सशंकित रहते हैं. बिल्कुल सही, क्योंकि अतीत में गैर-आदिवासियों की भूमिका डिकुओं (बाहरी लोगों) की रही है. गैर-आदिबासी ने अतीत में बहुत नुकसान पहुंचाया है.” मुंडा को खुद को जंगली कहने पर गर्व था.

“एक जंगली, एक आदिवासी के रूप में, मुझसे इस प्रस्ताव की कानूनी पेचीदगियों को समझने की उम्मीद नहीं की जाती है. आप जनजातीय लोगों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते; आपको उनसे लोकतांत्रिक तरीके सीखने होंगे. वे पृथ्वी पर सबसे अधिक लोकतांत्रिक लोग हैं.”

विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के वरिष्ठ रेजिडेंट फेलो आलोक प्रसन्न कुमार ने बताया कि आदिवासी न तो हिंदू कानून द्वारा शासित हैं और न ही उनकी प्रथाएं संहिताबद्ध हैं.

उन्होंने कहा, “जब एकरूपता की बात होती है तो सवाल यही उठता है: वह एकरूपता क्या होगी?”

जनजातीय समूहों के बीच उत्तराधिकार प्रथाओं में कोई एकरूपता नहीं है. पूर्वोत्तर में कुछ लोग मातृसत्तात्मक रीति-रिवाजों का पालन करते हैं लेकिन झारखंड में संपत्ति पुरुष उत्तराधिकारियों को दे दी जाती है. यदि यूसीसी को महिलाओं के विरासत अधिकारों के सवाल के इर्द-गिर्द तैयार किया जाता है, तो यह मुंडा जनजातियों की सदियों पुरानी प्रथा के खिलाफ जा सकता है. यहां बेटियों को शादी के बाद पिता की संपत्ति में अधिकार नहीं मिलता है. यहां महिलाओं को शादी से पहले समान अधिकार प्राप्त हैं. यदि कोई महिला शादी के बाद अपने परिवार के घर लौटती है, तो उसका अपने पिता की संपत्ति के एक हिस्से पर अधिकार होता है, लेकिन वह इसे बेच नहीं सकती है.

आदिवासी कानून विशेषज्ञ रामचंद्र उरांव बताते हैं कि पैतृक भूमि को एक किली या कबीले के भीतर रखने के लिए ऐसा किया जाता है.

आदिवासियों के लिए एक ही किली में शादी करना दुर्लभ है. अब डर यह है कि यदि यूसीसी महिलाओं के लिए भूमि विरासत अधिकारों को लागू करता है, तो पीढ़ियों द्वारा संरक्षित पैतृक भूमि पर उस कबीले द्वारा दावा किया जा सकता है जिसमें वह शादी करती है.

नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ (एनयूएसआरएल), रांची में सहायक प्रोफेसर उरांव कहते हैं, “उनका मानना है कि एक ही कुल में महिलाएं और पुरुष भाई-बहन हैं.” आदिवासियों में परंपरा है कि सबसे बड़े बेटे को पैतृक संपत्ति में अधिक हिस्सा मिलता है, जिसे वह अपनी बहन को दे सकता है यदि वह अपने पति को छोड़कर मां-बाप के घर लौट आती है.

और यूसीसी इस सामूहिक जीवन शैली के लिए खतरा है.

रांची में अपनी दुकान पर चाय की चुस्की लेते हुए सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला कहती हैं, “आदिवासी समाज सामूहिक अधिकारों की बात करता है, जबकि अन्य समाज व्यक्तिगत अधिकारों की बात करते हैं. यूसीसी के आने से सामूहिकता पर सबसे बड़ा प्रभाव पड़ेगा. वह यूसीसी को आदिवासी जीवन शैली को कमजोर करने का एक और प्रयास के रूप में देखती है- एक “बाहरी एजेंडा” जिसे हर सरकार या शासक सदियों से लागू करने की कोशिश कर रहा है.

बारला कहती हैं, “और ये नया कदम एक देश, एक कानून की तरफ ले जाने का है.”

2018 में 21वें विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कोडिफिकेशन (संहिताकरण) का सुझाव दिया था लेकिन इस दिशा में कुछ काम नहीं हुआ. जनजातीय कानून विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने पूरे भारत में आदिवासी समुदायों के बीच प्रथागत कानून और जनजातीय अनुसंधान संस्थानों द्वारा दस्तावेजीकरण करने की आवश्यकता पर जोर दिया. आयोग ने ‘परिवार कानून में सुधार ‘ शीर्षक से 185 पन्नों की एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की, जिसमें देश में यूसीसी को गैर-जरूरी बताते हुए इस मांग को खारिज कर दिया गया.

21वें विधि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है, “सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता नहीं किया जा सकता कि एकरूपता के लिए हमारा आग्रह ही देश की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरे का कारण बन जाए.”

वर्तमान में, केवल गोवा का अपना सामान्य नागरिक संहिता है. लेकिन चार साल बाद 22वें विधि आयोग ने नई सिफारिशें मांगी हैं. अब तक 50 लाख से ज्यादा प्रतिक्रियाएं मिल चुकी हैं.

उरांव कहते हैं, “यूसीसी को चरणबद्ध तरीके से लाया जाना चाहिए. अन्यथा, पूर्ण समानता के कारण समाज में उथल-पुथल पैदा हो जाएगी.”


यह भी पढ़ें: मुकदमा, धमकियां, सदमा- POCSO में दोषी बाबा आसाराम बापू के खिलाफ जारी है एक पिता की 10 साल से लड़ाई


समानता की परिभाषा

ग्राम सभाओं और बैठकों में इन दिनों हर कोई समानता और उसके प्रभावों के बारे में बात कर रहा है.

कृषि जनगणना 2010-2011 पर अखिल भारतीय रिपोर्ट बताती है कि सर्वेक्षण में शामिल लोगों में से, आदिवासी पुरुषों के पास 88.7% भूमि है. 2015-2016 की कृषि रिपोर्ट के अनुसार, एसटी महिलाओं का प्रतिशत भूमि के मालिकाना हक के मामले में मामूली रूप से बढ़कर 16.87% हो गया.

खूंटी की रहने वाली आदिवासी महिला कर्मीटुट्टी रविवार की बैठक में ज़ोर से कहती हैं, “हमें अपने पिता की संपत्ति नहीं चाहिए.” अन्य महिलाएं इस बात से चिंतित होकर सहमति व्यक्त करती हैं कि इस तरह के दावों का पारिवारिक संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा. यह बेटी को पिता के विरुद्ध, बहन को भाई के विरुद्ध, पत्नी को पति के विरुद्ध खड़ा कर देगा.

भारत भर में जनजातीय समूह अक्सर कहते हैं कि उनके रीति-रिवाजों में अन्य धर्मों की तरह प्रणालीगत पितृसत्ता नहीं है. लेकिन इसे अतीत में भी चुनौती दी गई है.

1980 के दशक में बिहार में हो जनजाति के साथ ऐसा ही हुआ था जब उन्होंने पितृसत्तात्मक उत्तराधिकार पर सवाल उठाने और अपनी जमीन के टुकड़े पर दावा करने का प्रयास किया था. महिलाओं की पत्रिका मानुषी के सह-संस्थापक संपादकों में से एक मधु किश्वर ने कई हो महिलाओं की ओर से सीएनटीए के कुछ प्रावधानों को इस आधार पर चुनौती दी कि उत्तराधिकार की वर्तमान प्रणाली महिलाओं के खिलाफ और भेदभावपूर्ण है और संविधान में समानता के अधिकारों का उल्लंघन करती है.

सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने बिहार सरकार को कानून में बदलाव की व्यवहार्यता पर विचार करने के लिए एक समिति गठित करने का निर्देश दिया लेकिन समिति ने कहा कि लोगों को कानून में किसी भी बदलाव में कोई दिलचस्पी नहीं है.

कई मामलों में, न्यायपालिका ने जनजातीय कानूनों की भेदभावपूर्ण प्रथाओं को स्वीकार किया है लेकिन इससे निपटने में विफल रही है. यह तर्क उत्तराखंड की बुक्सा जनजाति के सदस्य मंगोला सिंह ने विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के लिए लिखे एक लेख में दिया है. वह एक अन्य मामले (हराधन मुर्मू बनाम झारखंड राज्य) का हवाला देती हैं, जहां झारखंड उच्च न्यायालय ने माना था कि संथाल जनजाति के व्यक्तिगत/प्रथागत कानूनों के संबंध में कोई भी महत्वपूर्ण बदलाव स्थानीय संदर्भ को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए, जहां इस तरह के संशोधन के परिणाम होंगे.

फुलवंती ओड़ेया ने खूंटी के बिरसा कॉलेज से भूगोल में स्नातकोत्तर किया है और एक निजी स्कूल में पढ़ाती हैं. वह उत्तराधिकार को लेकर किसी भी बदलाव के खिलाफ है.

वह कहती हैं, “जब तक हम पिता के घर में रहते हैं, हमें सारे अधिकार मिलते हैं. और शादी के बाद हमारा अधिकार हमारे पति के घर पर होता है. शादी के बाद हमारा बहुत सम्मान से स्वागत किया जाता है. अगर हम अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा लेंगे तो ये रिश्ते प्रभावित होंगे.”

उरांव जनजाति की सामाजिक कार्यकर्ता दीपा मिंज इस प्रतिक्रिया को समझाने की कोशिश करती हैं. वह कहती हैं, “समानता को बाहर से देखा जा रहा है. आदिवासी समाज में महिलाओं को कभी भी कमतर नहीं समझा जाता.”

वह आगे कहती हैं, “आधुनिक समाज में लिव-इन-रिलेशनशिप की अवधारणा भी पूरी तरह से आदिवासी अवधारणा है.”

और वह एक और चेतावनी देती है. ‘समानता’ को थोपना महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है.

मिंज कहती हैं, “अगर पिता की संपत्ति में अधिकार देने की बात होगी तो कन्या भ्रूण हत्या और दहेज के मामले बढ़ेंगे, जो अभी नहीं है. आदिवासी महिलाओं के जन्म पर जश्न मनाते हैं और यहां लिंगानुपात भी बहुत अच्छा है. यूसीसी से नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.”


यह भी पढ़ें: ग्रेनो भारतीय मिडिल क्लास के सपनों का कब्रिस्तान है, घर खरीद तो सकते हैं, लेकिन अपना नहीं बना सकते


सामुदायिक न्याय को खतरा?

एक और प्रथा जिसे आदिवासी लोग मानते हैं वह है छोटे-मोटे विवादों के लिए अनौपचारिक सामुदायिक न्याय प्रणाली. झारखंड के आदिवासियों के लिए मानकी-मुंडा, पड़हा, माझी-परगनैत और डोकोलो-सोहोर जैसी पारंपरिक स्वशासन प्रणालियां बेहद महत्वपूर्ण हैं.

धर्मनिरपेक्षता, यूसीसी और धार्मिक स्वतंत्रता के उलझे हुए धागे 38 साल पहले ऐतिहासिक शाह बानो मामले के दौरान उभरे थे, जहां एक मुस्लिम महिला ने अपने पति से मासिक गुजारा भत्ता मांगा था. सुप्रीम कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि संविधान का अनुच्छेद 44, जो समान नागरिक संहिता की परिकल्पना करता है, एक “डेड लेटर” बनकर रह गया है. जनजातीय समाज के भीतर, प्रथागत कानूनों द्वारा शासित एक विशिष्ट न्यायिक प्रणाली मौजूद है. अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार (पेसा) अधिनियम 1996 उन्हें विशेष संवैधानिक अधिकार प्रदान करता है. इसके अतिरिक्त, झारखंड सरकार ने 26 जुलाई को सार्वजनिक परामर्श के लिए मसौदा नियम जारी करके पेसा के कार्यान्वयन को मजबूत करने के प्रयास तेज कर दिए हैं.

आदिवासियों का मानना है कि अदालतों तक पहुंच उनके लिए बहुत मुश्किल और शोषणकारी हैं.

मानवविज्ञानी सत्य नारायण मुंडा के अनुसार, समुदाय के सदस्यों का न्यायिक प्रणाली, कानूनी लालफीताशाही, सुनवाई और न्याय में देरी से मोहभंग हो गया है. रांची में श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति सत्य नारायण मुंडा कहते हैं, पारंपरिक प्रणाली समाज के भीतर उठने वाले छोटे-छोटे मुद्दों पर न्याय देती है.

2021 में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार ने कोल्हान क्षेत्र में आदिवासियों के बीच प्रचलित मानकी-मुंडा न्याय पंच को मान्यता दी. इस व्यवस्था के तहत राजस्व, कानून-व्यवस्था और भूमि विवाद से जुड़े मामलों का निपटारा किया जा सकेगा. उसी वर्ष, मानकी-मुंडा न्याय पंच ने जमीन हड़पने का एक मामला सुलझाया जो चाईबासा सिविल अदालत में 20 वर्षों से लंबित था. इसे 10 महीने में तीन सुनवाई कर हल किया गया.

जनजातीय न्यायालय न्यायिक व्यवस्था से पूरी तरह कटा हुआ नहीं है. यह चाईबासा सिविल कोर्ट के परिसर में एक छोटे से कमरे से चलता है लेकिन ‘न्यायाधीश’ गांव के ही लोग होते हैं. इसके दायरे में केवल छोटी-मोटी चोरी, भूमि विवाद, विवाह और तलाक से संबंधित मामले आते हैं लेकिन मामलों को उप-विभागीय अधिकारी या उपायुक्त की अदालत में दायर किया जाना चाहिए, जिसके बाद इसे आदिवासी अदालत को सौंप दिया जाता है. मानकी-मुंडा न्याय पंच में कोई वकील नहीं होता है लेकिन मामले की सुनवाई मानकी (15-20 गांवों के मुखिया) और मुंडा (ग्राम प्रधान) ही करते हैं. यदि कोई पक्ष इस प्रस्ताव से नाखुश है, तो वे इसकी अपील डीसी कोर्ट में कर सकते हैं.

आदिवासियों का कहना है कि अगर यूसीसी लागू हो गया तो इन पारंपरिक अदालतों का महत्व खत्म हो जाएगा.

इसी तरह, सदियों पुरानी पड़हा प्रणाली- तीन, पांच, सात, नौ, 12 या 22 गांवों का संघ- अभी भी उरांव समुदाय में न्यायिक शासन का केंद्र है. यदि ग्राम सभा सामाजिक मुद्दों पर किसी निर्णय पर नहीं पहुंचती है तो विवाद उस क्षेत्र के पड़हा पंच तक पहुंच जाता है. गांवों में ग्राम सभाओं के पास सर्वोच्च शक्ति होती है और ग्राम प्रधान और पाहन पारंपरिक रूप से पारंपरिक न्याय प्रणालियों के माध्यम से नागरिक मामलों का फैसला करते हैं.

उरांव कहते हैं, “अभी ये पारंपरिक संस्थाएं विवाह और तलाक से लेकर विभिन्न सामाजिक मुद्दों से निपटती हैं. यूसीसी उनके महत्व को खत्म कर देगा और यह सीधे प्रथागत कानूनों को चुनौती देगा.”


यह भी पढ़ें: कोई लिखित आदेश नहीं लेकिन यूपी पुलिस ने संभल में कांवड़ यात्रा के चलते बंद कर दिए मुस्लिम रेस्टोरेंट


पूर्वोत्तर भी उबल रहा है

तनावपूर्ण होते पूर्वोत्तर में कई आदिवासी समुदायों ने समान चिंताएं व्यक्त की हैं कि यूसीसी उन विशेष विशेषाधिकारों को कमजोर कर देगा जो संविधान उन्हें अनुच्छेद 371 और छठी अनुसूची के तहत देता है.

फरवरी में विधि आयोग द्वारा सिफारिशें मांगे जाने से लगभग चार महीने पहले, मिजोरम विधानसभा ने सर्वसम्मति से यूसीसी को लागू करने के किसी भी कदम का विरोध करते हुए एक आधिकारिक प्रस्ताव पारित किया. फिर 24 जून को, मेघालय की खासी हिल्स स्वायत्त जिला परिषद ने खासी समुदाय के रीति-रिवाजों, परंपराओं, प्रथाओं, विरासत, विवाह और धार्मिक स्वतंत्रता को प्रभावित करने के लिए यूसीसी के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया.

और नागालैंड में, सामाजिक संगठन ट्रांसपेरेंसी, पब्लिक राइट्स एडवोकेसी एंड डायरेक्ट एक्शन ऑर्गेनाइजेशन (एनटीपीआरएडीएओ) ने चेतावनी दी कि यदि विधानसभा यूसीसी का समर्थन करने वाला विधेयक पारित करती है, तो वह विधायकों के घरों पर धावा बोलने और हमला करने के लिए मजबूर हो जाएगी.

एनटीपीआरएडीएओ के उप महासचिव नज़ानबेमो यानथन कहते हैं, “नागालैंड में 16 जनजातियां हैं और उनमें से प्रत्येक अपने प्रथागत कानूनों द्वारा शासित हैं. वर्तमान में जनता जानना चाहती है कि यूसीसी की रूपरेखा क्या होगी और यदि यह हमारी स्वदेशी पहचान को प्रभावित करेगी तो वाजिब तौर पर प्रतिक्रिया तो होगी ही.”

यहां तक कि नागालैंड में नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी, मेघालय में नेशनल पीपुल्स पार्टी और मिजोरम में मिज़ो नेशनल फ्रंट जैसे भाजपा के सहयोगियों ने भी यूसीसी का विरोध किया है. लेकिन जुलाई में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा इसके समर्थन में सामने आये. और जब यूसीसी को लेकर बहस तेज हो रही है, असम सरकार बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक विधेयक पेश करने की योजना बना रही है.

मिजोरम से लेकर झारखंड, नागालैंड से लेकर छत्तीसगढ़ तक, एक सवाल उन जनजातियों के बीच गूंज रहा है जिनमें अब तक बहुत कम समानता थी: आखिर सरकार की मंशा क्या है?

लक्ष्मी नारायण मुंडा कहते हैं, “सरकार की मंशा साफ नहीं है. हम अबुआ दिशुम, अबुआ राज (हमारा देश, हमारा शासन) में विश्वास करते हैं और हम इसके लिए कुछ भी कर सकते हैं. आप सिद्धू-कान्हू से लेकर बिरसा मुंडा तक के हमारे लंबे संघर्षपूर्ण इतिहास को देख सकते हैं.”

झारखंड में आदिवासी अपने अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं. उन्होंने अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए 2016 में एक साथ लड़ाई लड़ी लेकिन यह वह लड़ाई होगी जो काफी मायने रखती है. सत्य नारायण मुंडा जैसे मानवविज्ञानी कहते हैं कि इस तरह का जन आंदोलन दो तरीकों से चल सकता है- पत्र और लेखों के माध्यम से या “हल्ला-गुल्ला ” के जरिए.

उन्होंने कहा, “अब देखना होगा कि यूसीसी के खिलाफ आंदोलन कौन सी दिशा लेता है.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: BSP की वजह से यूपी के दलितों का आत्मविश्वास बढ़ा. इसलिए वे आज BJP को वोट दे रहे हैं


 

share & View comments