नई दिल्ली: इतिहास बदल रहा है. और इशारों-इशारों में भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद को भी एक नया रूप मिला है. भगवा रंग इसे विशेष बना रहा है. और जब आप मेंबर सेक्रेट्री उमेश अशोक कदम के कार्यालय में प्रवेश करते हैं तो कुछ चीजों पर ध्यान न दे पाना कठिन है. दीवार को चमकीले भगवा रंग में रंगा गया है. वी.डी. सावरकर की मूर्ति दीवार के सामने रखी है, और उसके बगल में हैं एम.एस. गोलवलकर, आरएसएस के दूसरे और सबसे प्रभावशाली सरसंघचालक. पुस्तकालय के बाहर का कुछ भाग और अन्य कमरे भी केसरिया रंग से रंगे हैं. और मेंबर सेक्रेट्री उमेश अशोक कदम बकाइन ब्लेज़र पहने हैं, जो उनकी नारंगी दीवार से बिल्कुल मेल नहीं खाता है.
कदम बताते हैं, ‘ये मराठों, राजपूतों के रंग हैं.’ अपने इस नए प्रोजेक्ट के बारे में चमकती आंखों से गर्व से कहते हैं. यह प्रदर्शनी मध्यकालीन भारत और अज्ञात राजवंशों को लेकर आयोजित की गई थी.
ICHR ने तीन सप्ताह के रिकॉर्ड समय में इसका शोध, क्यूरेट और माउंट किया.
परिषद के नए मेंबर सेक्रेट्री कहते है, ‘हम भारत के गौरव का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम नहीं हैं. हमारे अभिलेखागार, और पुस्तकालय औपनिवेशिक दुनिया को दिखाते हैं.’
परिषद का हर कमरा गर्व से भरा हुआ है. निजी सचिव के कमरे में सावरकर की तस्वीर फिर से आपका अभिवादन करती है. एक कोने में रखे कैलेंडर में छपी तस्वीर में प्रधानमंत्री मोदी मुस्कुरा रहे हैं. जबकि निजी सचिव देवी सरस्वती की एक तस्वीर लगाने को लेकर में चर्चा में लगे हुए हैं.
चल रही प्रदर्शनी के अलावा, उनकी प्रमुख शोध परियोजनाओं में छूट गए शहीदों का एक शब्दकोश, एक सावरकर संगोष्ठी, एक भारतीय इतिहास संग्रह और एक किताब है कि कैसे भारत लोकतंत्र की जननी है और 1937 से 1947 के हैंडओवर दशक को लेकर भी एक किताब है.
हिंदू राजवंश को बढ़ावा
भारत में इतिहास और इतिहासलेखन एक गर्म मुद्दा रहा है. खासकर 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से. इतिहास की पुस्तकों को उपनिवेशवाद से मुक्त करने, मुगल शासन पर अत्यधिक जोर को कम करने और देश भर से हिंदू राज्यों की कहानियों का पता लगाने के लिए एक कदम उठाया गया है. मोदी सरकार की सबसे बड़ी खीज यह है कि जिस तरह से इतिहास लिखा गया उसमें कई अहम घटनाएं छूट गईं.
आईसीएचआर की नवीनतम प्रदर्शनी ‘मध्यकालीन भारत की महिमा: 8वीं-18वीं शताब्दी के अज्ञात भारतीय राजवंशों का प्रकटीकरण’ की परिकल्पना इन कथित अंतरालों में से कुछ को भरने के लिए की गई थी. 30 जनवरी से 6 फरवरी तक दिल्ली की साहित्य अकादमी में आयोजित इस प्रदर्शनी का उद्घाटन विदेश राज्य मंत्री राजकुमार रंजन सिंह ने किया था.
प्रदर्शनी में 49 राजवंशों को प्रदर्शित किया गया था. इसमें भारत के राजवंशों की विशालता को दिखाया गया था. साथ ही कलाकृतियों, शिलालेखों और विशेष रूप से तैयार किए गए नक्शे की तस्वीरें थी जो प्रत्येक राजवंश के शासन की लंबाई और चौड़ाई दर्शाती हैं. ICHR का लक्ष्य इसे देश भर के स्कूलों में ले जाना है.
प्रदर्शनी में मराठा, चोल, प्रतिहार, यादव, काकतीय और विजयनगर साम्राज्य को प्रदर्शित किया गया. किसी मुस्लिम शासक को शामिल नहीं किया गया था.
कदम ने पहले कहा था, ‘वे लोग [मुस्लिम] मध्य पूर्व से आए थे और उनका भारतीय संस्कृति से सीधा संबंध नहीं था. मध्ययुगीन काल में इस्लाम और ईसाई धर्म भारत में आए और भारतीय सभ्यता को उखाड़ फेंका और यहां की ज्ञान प्रणाली को नष्ट किया.’
प्रदर्शनी के उद्घाटन के दिन एक आगंतुक ने सहमति के साथ सिर हिलाते हुए कहा, ‘मुगलों पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है.’
इतिहासकार बढ़ा-चढ़ाकर कहते हैं.
दिल्ली विश्वविद्यालय में 30 साल से अधिक तक इतिहास पढ़ाने वाले अमर फारूकी इस धारणा को खारिज करते हैं कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में मुगलों का सम्मान किया जाता था. उन्होंने कहा, ‘मुगल और मध्यकालीन भारतीय इतिहासकार इरफान हबीब ने मुगलों की आलोचना करने वाले बहुत से काम किए.’
फारूकी कहते हैं, ‘उनका यह भी आरोप है कि वर्तमान विद्वानों ने मध्यकाल के राजवंशो की उपेक्षा की. आप बी.डी. का काम देखिए. चट्टोपाध्याय, एम.बी. साहू और यहां तक कि आर.एस. शर्मा, सभी ने क्षेत्रीय इतिहास पर भारी शोध किया और इसे कई तरह के चश्मे से देखा है.’
हालांकि फारूकी को वास्तव में जो बात खटकती है वह आईसीएचआर द्वारा शोध की कमी. वह अपने हाल के काम का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘कुछ दावे करके त्वरित शोध जैसी कोई चीज नहीं होती है. यह एक कठिन काम है.’
कदम कहते हैं कि ऐतिहासिक अनुसंधान पहले कुछ संस्थानों तक ही सीमित था, जैसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू), जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय. उनके अनुसार, यह 1965 में शुरू हुआ था और यह गलत तरीके से हुआ था जिसे अब एक से अधिक तरीकों से ठीक किया जा रहा है. वह खुद जेएनयू से पीएचडी हैं.
कदम कहते हैं, ‘प्रदर्शनी के पीछे का विचार विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ प्रतिरोध पर ध्यान केंद्रित करते हुए ‘सर्वोत्तम अर्थों में भारतीय मानस’ को प्रदर्शित करना था.’
वह बताते हैं कि पूरा देश मुगल विरोधी प्रतिरोध में शामिल था. वह वर्तमान में मराठों द्वारा औरंगजेब के खिलाफ छेड़ी गई 17 साल की लड़ाई पर शोध कर रहे हैं.
उन्होंने दावा किया, ‘इतिहास का लेखन ‘प्रवृत्ति-आधारित’ हुआ करता था, मुगलों के बारे में लिखना फैशनेबल था. मराठों और अन्य ‘अनदेखे’ राजवंशों को कमजोर कर दिया गया है, जिससे ‘अलगाववादी प्रवृत्तियों’ का निर्माण हुआ है.’
कदम कहते हैं, ‘अहोमों ने 600 वर्षों तक शासन किया और मुगलों ने 150 वर्षों तक.’ कदम अहोमों के बारे में कम लेखन की ओर इशारा करते हैं.
केंद्र सरकार की प्राथमिकता सूची में अहोम जनरल लाचित बोरफुकन सबसे ऊपर हैं. पिछले साल, उनकी 400वीं जयंती पर दिल्ली में दो दिवसीय उत्सव मनाया गया. बोरफुकन ने ‘औरंगजेब के अधीन मुगलों की लगातार बढ़ती महत्वाकांक्षाओं को सफलतापूर्वक रोका’ और ‘एक कुचलने वाली और अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा,’ संक्षेप में लिखा है.
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भारतः लोकतंत्र की जननी
पुनरुद्धार परियोजना पर एक पुस्तक इंडिया: द मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी है, जिसका संपादन आईसीएचआर के अध्यक्ष रघुवेंद्र तंवर और कदम ने मिलकर किया है. यह मानता है कि चौथी शताब्दी के बाद से भारत में लोकतंत्र अस्तित्व में है. कदम कहते हैं, ‘यूनानियों ने भारतीय प्रणालियों, शासन की कला को समझा,’ जिसका अर्थ है कि यूनानियों, जिन्हें लोकतंत्र के अग्रदूतों के रूप में जाना जाता है, ने इसे भारत से लिया था.
यह किताब छह खंडों में विभाजित है और इसमें 30 निबंध हैं, जो हड़प्पा सभ्यता से शुरू होते हैं. इसे केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने पिछले साल संविधान दिवस पर दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में लॉन्च किया था.
इस किताब की अवधारणा खाप और पंचायतों को लोकतांत्रिक शासन के उदाहरण के रूप में दिखाता है. इस तर्क के पीछे की वजह यह है कि भारत में शासन की कई आत्मनिर्भर प्रणालियाँ थीं जो ग्रामीण समुदायों को ‘बदलते राज्यों/साम्राज्यों से अप्रभावित रहने में सक्षम बनाती थीं, विशेष रूप से हिंदू संस्कृति के प्रति शत्रुतापूर्ण आक्रमणकारियों से.’
यह कथा प्राचीन भारतीय समाज की पुनर्कल्पना करती है. यह आगे कहता है, ‘जन्म की प्रतिष्ठा, धन के प्रभाव और राजनीतिक कार्यालय पर कोई एकाग्रता नहीं थी, जिसने सामाजिक संगठनों को निरंकुश और कुलीन बना दिया.’
पुस्तक को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मिली, उन्होंने अपने रेडियो शो, मन की बात में इसका उल्लेख किया.
जिन इतिहासकारों से दिप्रिंट ने बात की, वे पुस्तक की सत्यता को लेकर चिंतित नहीं थे, लेकिन उन्होंने आईसीएचआर के इस दावे पर सवाल उठाया कि उन्होंने क्षेत्रीय स्रोतों के माध्यम से इतिहास के अज्ञात पहलुओं का पता लगाया है.
सब का मानना यह था कि यह उतनी बड़ी खोज नहीं थी जितना इसका प्रचार प्रसार किया जा रहा है.
के.पी. जायसवाल, एक इतिहासकार, ने दावा किया कि उन्होंने भी ऐसा ही काम किया था. प्राचीन भारत में स्वशासी गणराज्यों पर जायसवाल का काम 1911 में प्रकाशित हुआ था.
प्रद्युम्न जयराम, एक इतिहास शोधकर्ता जो वर्तमान में लंदन के SOAS विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं, ने कहा, ‘इतिहास को पुनः प्राप्त करना एक विशिष्ट राष्ट्रवादी विचार है. इसके लिए इसे और अधिक आलोचनात्मक बनाने, अंतर्विरोधों से जुड़ने की आवश्यकता है. लेकिन इतिहास लिखने का तरीका नहीं बदल रहा है.’
सावरकर की पुनर्कल्पना
एक और ऐतिहासिक शख्सियत जिसे आईसीएचआर आक्रामक रूप से जनता की नज़रों में फिर से लाने की कोशिश कर रहा है, वह हैं सावरकर. हालांकि, यह आईसीएचआर के लिए नया नहीं है, जैसा कि पिछले कुछ वर्षों में उभरे आंकड़ों की जीवनी से देखा जा सकता है.
फिरोज शाह रोड पर आईसीएचआर भवन में प्रवेश करने पर कांच की बुकशेल्फ़ आपका स्वागत करती है. आपका ध्यान आकर्षित करने वाली पुस्तकों में से एक है स्वतंत्र वीर दामोदर सावरकर के जीवन और संघर्ष को चित्रित करने वाली तस्वीरों का संग्रह. इसे पिछले सदस्य सचिव कुमार रत्नम द्वारा प्रकाशित किया गया था.
दक्षिणपंथी आइकन के बारे में एक अन्य पुस्तक कदम द्वारा संपादित की जा रही है, डिस्मैंटलिंग कास्टिज्म: लेसन्स फ्रॉम सावरकर्स एसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व. कदम ने ट्वीट किया कि इसे इस महीने के अंत में दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में जारी किया जाएगा.
26 फरवरी से 28 फरवरी तक परिषद की आगामी संगोष्ठी भी इसी शख्सियत के बारे में है – ‘वीर दामोदरन सावरकर और सुभाष चंद्र बोस: स्वतंत्रता आंदोलन और भारतीय राष्ट्रवाद.’
यह इस तरह का पहला सेमिनार नहीं है. अक्टूबर 2021 में, ICHR ने रत्नागिरी में एक कार्यक्रम आयोजित किया, जहाँ सावरकर को जेल हुई थी. संगोष्ठी में तीन प्राथमिक चर्चा बिंदु थे – हिंदू धर्म का विचार, हिंदुत्व का प्रस्फुटन और हिंदू राष्ट्र की संस्कृति, और जाति, उपनिवेशवाद और रूढ़िवादिता.
शहीदों का शब्दकोश
इतिहासकारों के एक वर्ग का कहना है कि आईसीएचआर सक्रिय रूप से इतिहास का पुनर्लेखन कर रहा है.
आईसीएचआर के प्रमुख प्रकाशनों में से एक, डिक्शनरी ऑफ शहीद्स ऑफ इंडियाज फ्रीडम स्ट्रगल के इर्द-गिर्द हाल की एक घटना है. डिक्शनरी में 1857 से 1947 के बीच शहीद हुए सभी लोगों की सूची होने का दावा किया गया है. पुस्तक के पांच खंडों में 20,000 शहीदों की जीवनी रेखाचित्रों को जगह मिली है.
पुस्तक को 2019 में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लॉन्च किया गया था. लेकिन 2021 में, ICHR की तीन सदस्यीय समिति ने 5वें खंड से 387 नामों को हटाने के लिए एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के शहीदों के चार्ट शामिल हैं. नाम उन विद्रोहियों के थे जिन्होंने 1921 के मोपला विद्रोह में अपनी जान गंवाई थी.
अगस्त 1921 में, मोपला, मालाबार के मुस्लिम समुदाय, जो आधुनिक उत्तरी केरल का एक क्षेत्र है, ने अंग्रेजों और उच्च जाति के हिंदुओं के खिलाफ प्रतिरोध शुरू किया, जिन्हें सामंती व्यवस्था का प्रभारी बनाया गया था. विद्रोह हिंसक हो गया. मरने वालों की संख्या विवादित है लेकिन आम तौर पर 10,000 से अधिक होने का अनुमान है. ब्रिटिश संसद में लॉर्ड कर्जन के एक बयान में हिंदू मौतों की संख्या 1,000 बताई गई और अनुमान लगाया गया कि अंग्रेजों ने 2,500 मोपलाओं को मार डाला. 1971 में, केरल सरकार ने विद्रोह में भाग लेने वालों को स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में मान्यता दी.
आईसीएचआर के एक पूर्व सदस्य का दावा है, ‘हिंदुओं की मौत में उनकी संलिप्तता के कारण मोपला को हटा दिया गया है.’
सी.आई. आईसीएचआर के सदस्य और रिपोर्ट प्रस्तुत करने वाली समिति के सदस्य इस्साक ने पहले कहा था कि निष्कासन इसलिए किया गया क्योंकि ‘सभी मोपला आक्रोश सांप्रदायिक थे’ और ‘हिंदू समाज के खिलाफ’ थे. समिति ने यह भी दावा किया कि विद्रोह एक ‘खिलाफत’ स्थापित करने का प्रयास था.
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आज़ादी की ओर
1970 के दशक में, ब्रिटिश सरकार ने 12 पुस्तकों की एक श्रृंखला शुरू की, द ट्रांसफर ऑफ पावर जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अवहेलना की और सत्ता हस्तांतरण को को एक सहज प्रक्रिया के रूप में पेश किया.
इसके जवाब में, भारत में कई इतिहासकारों ने 1970 के दशक में ‘टूवार्ड्स फ्रीडम’ नामक 10-वॉल्यूम परियोजना की परिकल्पना की थी. इसमें 1947 तक के दशक का दस्तावेजीकरण होना था. आईसीएचआर को इसके प्रकाशन का जिम्मा सौंपा गया था. 1997 में इसका पहले दो खंड सामने आए. ज्ञानेंद्र पांडे, बिपिन चंद्र, बासुदेव चटर्जी, सुमित सरकार, मुशीरुल हसन, केएम पणिक्कर, सुचेता महाजन, अर्जुन देव और बिमल प्रसाद उन इतिहासकारों में शामिल थे जिन्हें विभिन्न संस्करणों के संपादन का काम सौंपा गया था.
लेकिन 2017 में, दसवें खंड को बनाने वाले अंतिम तीन भागों को खत्म कर दिया गया.
शहीदों के शब्दकोश पर काम करने वाले आईसीएचआर के पूर्व सदस्य को संदेह है कि ऐसा इसलिए किया गया था क्योंकि दिवंगत इतिहासकार अर्जुन देव द्वारा संपादित अंतिम खंड में ऐसे दस्तावेज शामिल थे जो हिंदू महासभा और आरएसएस को नकारात्मक रूप से चित्रित करते थे. देव का भी यही मत था.
ICHR की प्रकाशन सूची, जिसे 2016 से अपडेट नहीं किया गया है, पुस्तक के केवल नौ खंडों को सूचीबद्ध करती है. अंतिम खंड पहले से ही तैयार है और प्रकाशन के लिए तैयार है, लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि यह जल्द ही कभी प्रकाशित होगा.
इमारत के पीछे स्थित आईसीएचआर के स्टोर में नौ प्रकाशित खंड कहीं नहीं देखे जा सकते हैं.
कदम ने अंतिम खंड को चयनात्मक कहा. उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘सावरकर का कोई उल्लेख नहीं था, अरबिंदो का कोई उल्लेख नहीं था, भगत सिंह का कोई उल्लेख नहीं था. क्या आपको लगता है कि गांधी चंपारण जाने वाले पहले व्यक्ति थे? जाहिर तौर पर स्थानीय लोग पहले वहां गए थे.’
शिक्षा
आईसीएचआर द्वारा किए गए शोध को फिर से तैयार किया गया है और अब यहां तक कि स्कूलों और कॉलेजों के लिए इसकी अवधारणा भी बनाई गई है. पिछले नवंबर में बिहार में आईसीएचआर और आरएसएस की सहायक अखिल भारतीय इतिहास संकल्प योजना के सहयोग से आयोजित एक कार्यक्रम में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि केंद्र सरकार ‘भारत की सच्ची तस्वीर दुनिया के सामने लाने’ के लिए किताबों पर काम कर रही है. पिछले साल कदम ने ऐसी ही एक किताब की घोषणा की, भारत का व्यापक इतिहास, जो 12-14 खंडों का एक सेट है. यह किताब मार्च में प्रकाशित होने वाला है.
कदम ने कहा, ‘इसमें इस्लाम पर कुछ खंड होंगे जबकि वेदों, उपनिषदों और पुराणों के हिस्से बढ़ेंगे.’
लेकिन, इन विचारों को पूरे देश में आसानी से प्रसारित नहीं किया जा सकता है क्योंकि राज्य स्तर पर शिक्षा राज्य बोर्ड्स के अंदर आती है न कि एनसीईआरटी के तहत.
जयराम, जिनके पास भारत में इतिहास की पाठ्यपुस्तक लेखन की राजनीति और इतिहास में पीएचडी है, ने कहा, ‘तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, हरियाणा – हर कोई अपना ग्रंथ लिखता है. महाराष्ट्र मराठों के बारे में लिखता है. तमिलनाडु द्रविड़ आंदोलन को प्राथमिकता देता है.’
ICHR, अतीत और भविष्य
मोदी सरकार के पहले साल में वाई. सुदर्शन राव को आईसीएचआर का चेयरपर्सन नियुक्त किया गया था.
आईसीएचआर के पूर्व सदस्य ने कहा, ‘सुदर्शन राव भाजपा समर्थक थे, लेकिन वे अपेक्षाकृत कम हस्तक्षेप करते (नियुक्तियों, परियोजनाओं, आदि के संदर्भ में) थे. एएमयू जैसे विश्वविद्यालयों को अभी भी अनुदान दिया जाता था.’ जिन लोगों ने वर्षों से परिषद का अवलोकन किया है, उनका कहना है कि आज के ICHR और पिछले वर्षों के ICHR के बीच एक बड़ा अंतर आया है. संस्था का कार्यकाल बदल गया है.
संस्था में पूर्व अवतार लाइफ में इरफान हबीब, रोमिला थापर, सतीश चंद्र, मुजफ्फर आलम, सुमित सरकार शामिल थे, और यह इतिहासकारों के लिए एक केंद्र था, जिनमें से कई मार्क्सवादी थे. पूर्व सदस्य ने ICHR – डिक्शनरी ऑफ आर्कियोलॉजी, राज्य विधानमंडल की भूमिका पर 10 खंड, श्रमिक आंदोलन पर 10 प्रकाशनों की एक सूची को बंद कर दिया.
हबीब, थापर और चंद्रा भारतीय ऐतिहासिक समीक्षा की 21-सदस्यीय सलाहकार समिति का भी हिस्सा थे, जो एक सहकर्मी-समीक्षित पत्रिका है जिसे ICHR द्वारा प्रकाशित किया जाता है. समिति को 2015 में भंग कर दिया गया था और केवल ICHR सदस्यों वाली एक नई समिति का गठन किया गया था.
कदम इस बदलाव से खुश हैं कि भारत के सबसे बड़े ऐतिहासिक नामों को बाहर कर दिया गया. पुस्तकालय में प्रवेश करते ही वह मुस्कराते हैं और गर्व से कहते हैं, ‘जब मार्क्सवादी यहां थे, तो यह जगह बहुत गंदी थी. हर जगह चूहे थे. हम सफाई कर रहे हैं और वे इसे भगवाकरण कह रहे हैं.’
(संपादनः ऋषभ राज)
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