मुजफ्फरनगर: अतुल कुमार आखिरकार झारखंड के लिए ट्रेन में सवार हो गए हैं, जहां से वे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, धनबाद में पढ़ने का अपना अगला सफर शुरू करेंगे, लेकिन जिस प्रतिष्ठित आईआईटी सीट पर उनका दाखिला हुआ है वह उन्हें आसानी से नहीं मिली है.
सीट उनके हाथ से लगभग छूट गई थी.
24 जून से अतुल और उनके पिता राजेंद्र, जो दलित समुदाय से हैं, रेलवे स्टेशनों पर रातें, रांची और चेन्नई में वकीलों के चैंबर और कोर्ट रूम में दिन बिता रहे हैं. अपने घर के आसपास दुकान-दुकान घूमकर नए कपड़े, किताबें और वनप्लस फोन खरीदने के कई दिन बाद आखिरकार शुक्रवार की शाम 5:40 बजे, अतुल दिल्ली से ट्रेन में सवार हुए.
तीन महीने की लड़ाई का यह सुखद अंत सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से हुआ. 30 सितंबर को मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने आईआईटी धनबाद को अतुल को दाखिला देने का आदेश दिया क्योंकि वे 17,500 रुपये की स्वीकृति फीस भरने की समय सीमा से महज़ कुछ सेकंड चूक गए थे. मेरठ की एक फैक्ट्री में 450 रुपये प्रतिदिन कमाने वाले दिहाड़ी मजदूर राजेंद्र कुमार के लिए यह काफी बड़ी रकम थी, लेकिन यह उनके बेटे के लिए इंजीनियर बनने का आखिरी मौका भी था.
अतुल ने कहा, “मेरा सपना था. हमारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं था; हम बस किसी भी कीमत पर इस सीट को वापस पाना चाहते थे.”
कानूनी उलझनों से निपटने में मदद करने के लिए कई आईआईटी के प्रोफेसरों, स्टूडेंट्स और पूर्व छात्रों की एक फौज की ज़रूरत पड़ी. यह उनके पक्ष में काम आया कि उनके दो बड़े भाई आईआईटी खड़गपुर और एनआईटी हमीरपुर में पढ़ते हैं.
अतुल ने मुस्कुराते हुए कहा, “गूगल ने भी मदद की”
जेईई में सफलता प्राप्त करने की उनकी खुशी तब फीकी पड़ गई जब उन्हें पता चला कि उन्होंने अपनी सीट खो दी है, लेकिन गूगल पर एक क्विक खोज से 2021 में एक ऐसा ही मामला सामने आया — प्रिंस जयबीर.
अतुल ने कहा, “उनका मामला हमारे लिए उम्मीद की किरण बन गया.”
कानूनी लड़ाई और परिवार के हार न मानने वाले रवैये ने देश भर के पत्रकारों को टिटोली गांव में अतुल के घर तक खींच लाया है. फोन की घंटी बजना बंद नहीं हो रही है. यहां तक कि आईआईटी के प्रोफेसर भी संपर्क कर चुके हैं. परिवार के दो बेडरूम वाले घर में पड़ोसियों और रिश्तेदारों के लिए लड्डू का एक डिब्बा रखा हुआ है. धर्मार्थ संगठन, शुभचिंतक और यहां तक कि उत्तर प्रदेश सरकार भी अब उनकी शिक्षा के लिए फंड देने के लिए कतार में खड़ी है.
अतुल के भाई अमित ने कहा, “हमारा घर, जो (अदालत की) सुनवाई के दौरान लगभग तीन महीने तक शांत था, पिछले तीन दिनों से लोगों से भरा हुआ है. इस दौरान वह पत्रकारों सहित उनके घर आए लोगों को लड्डू खिला रहे हैं.
अतुल का एक तात्कालिक लक्ष्य है — आईआईटी धनबाद जाना और अपने सहपाठियों के बराबर पहुंचना. वे उत्साहित हैं और बीत गए वक्त की भरपाई करने के लिए तैयार हैं.
उनकी मां राजेश (40) ने कहा, “30 सितंबर तक हमारे घर में हंसना तो दूर की बात है, कोई भी मुस्कुराया तक नहीं. अक्सर खाना तक नहीं तैयार होता था.”
अब, परिवार जश्न मनाना बंद ही नहीं कर सकता.
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उम्मीद की किरण — लड़ाई का अंत
इस कानूनी यात्रा के दौरान, कई लोगों के समर्थन और इंटरनेट ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
अतुल ने कहा, “मैंने जानकारी निकाली — फीस अस्वीकार होने पर क्या करना है, कानूनी सहायता क्या है और शैक्षिक मामलों के लिए वकील से कैसे संपर्क करना है.” लेकिन प्रिंस जयबीर की कहानी ने परिवार के लिए हालात बदल दिए.
2021 में सुप्रीम कोर्ट ने दलित समुदाय से आने वाले प्रिंस को तकनीकी गड़बड़ी के कारण फीस जमा करने में देरी के बावजूद IIT बॉम्बे में दाखिला लेने की अनुमति दी. संयोग से प्रिंस के मामले की सुनवाई करने वाली बेंच का नेतृत्व जस्टिस चंद्रचूड़ कर रहे थे.
अतुल ने कहा, “मैंने प्रिंस से उनके प्रोसेस के बारे में पूछने के लिए संपर्क किया और अपना मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने का फैसला किया.”
30 सितंबर को मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की बेंच ने अतुल को आईआईटी-धनबाद में दाखिला देने के लिए संविधान के अनुच्छेद-142 का इस्तेमाल किया. सुप्रीम कोर्ट ने संस्थान को आदेश दिया कि वह उसे इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग बीटेक प्रोग्राम के उसी बैच में दाखिला दे, जिसमें वह शामिल होता अगर उसने समय पर अपनी फीस भर दी होती.
अतुल के मामले का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील अमोल चितले और प्रज्ञा बघेल, जिन्होंने प्रिंस जयबीर केस भी संभाला था, नतीजे को लेकर अनिश्चित थे क्योंकि कॉलेज काउंसलिंग पहले ही बंद हो चुकी थी. हालांकि, जब मामला जस्टिस चंद्रचूड़ के पास पहुंचा तो वे आशावादी हो गए.
सीजेआई ने स्पष्ट किया कि संस्थान अतुल को सीट से वंचित नहीं कर सकता क्योंकि वे फीस भरना चाहते थे.
अपने बड़े भाई की तरह आईआईटीयन बनना अतुल का सपना नौंवी क्लास से उनके साथ था. एक साल की कड़ी मेहनत और एक असफल प्रयास के बाद, उन्होंने जेईई (एडवांस्ड) में 94 प्रतिशत स्कोर हासिल किए और AIR 1,455 हासिल की. यह 9 जून को हुआ. इसके बाद 24 जून तक 17,500 रुपये की स्वीकृति फीस का प्रबंध करने का काम आया.
एक स्थानीय साहूकार राजेंद्र की मदद करने के लिए सहमत हो गया, लेकिन अंतिम दिन — समय सीमा से दो घंटे पहले — वो पीछे हट गया.
पड़ोसी और रिश्तेदार तुरंत पैसे इकट्ठा करने के लिए एक साथ आए — अकेले एक व्यक्ति ने 10,000 रुपये का योगदान दिया — जबकि राजेंद्र ने अपनी बचत 3,500 रुपये खर्च किए, लेकिन अतुल द्वारा डिटेल्स जमा करने से पहले, पोर्टल बंद हो गया — और इसके साथ ही आईआईटी में पढ़ने का उनका सपना भी खत्म हो गया.
कुछ दिन तो ऐसे ही गुजर गए, परिवार सदमे में था और फिर अतुल ने इंटरनेट पर रिसर्च की. अपने भाइयों और कोचिंग टीचर की मदद से, उन्होंने सबसे पहले आईआईटी धनबाद से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने उन्हें झारखंड लीगल सर्विसेज अथॉरिटी के पास भेज दिया. चूंकि उन्होंने झारखंड सेंटर से जेईई की परीक्षा दी थी, इसलिए अतुल ने गाइडेंस के लिए उनसे संपर्क किया. फिर लीगल सर्विसेज अथॉरिटी ने उन्हें अपना मामला मद्रास हाई कोर्ट में ले जाने की सलाह दी क्योंकि इस साल जेईई की परीक्षा आईआईटी मद्रास ने ही आयोजित की थी.
अतुल ने याद किया, “उस दौरान, हम लगातार इधर-उधर घूमते रहते थे. पैसे बचाने के लिए मैं और मेरे पिता अक्सर एक ही वक्त खाना खाते थे और कभी-कभी हमें रेलवे स्टेशनों पर भी सोना पड़ता था.”
अब, जब परिवार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, जश्न मना रहा है, अतुल ने यह सुनिश्चित करने की कसम खाई है कि ऐसा कुछ दोबारा न हो.
जब दिप्रिंट ने गुरुवार को उनसे मुलाकात की, तो वे कानूनी लड़ाई के कारण दो महीने की क्लास मिस करने के बाद अपनी पढ़ाई पूरी करने को लेकर चिंतित थे, लेकिन आईआईटी धनबाद में जाने का उत्साह इस पर हावी था.
अतुल ने झारखंड का टिकट पकड़ते हुए कहा, “मैं वो सब कुछ करूंगा, जिसका मैंने सपना देखा है.”
वे दिल्ली से ट्रेन पकड़ने के लिए उत्सुक थे. उन्होंने टिकट पर छपे समय को बार-बार देखा: शाम 5:40 बजे.
उन्होंने कहा, “सबसे पहले, मैं छूटे हुए कोर्स को पूरा करूंगा, फिर नए दोस्त बनाऊंगा और खूब मौज-मस्ती करूंगा.”
किसी भी लड़ाई के लिए तैयार
कुमार परिवार प्रचार और मीडिया की सुर्खियां बनने से हैरान और अभिभूत है. स्थानीय राजनेता और दलित समूह भी परिवार की मदद के लिए आगे आए हैं. समाजवादी बाबासाहेब आंबेडकर वाहिनी के एक समूह ने घर में प्रवेश किया और परिवार की जीत को अपनी जीत बताया.
आईआईटी दिल्ली के पूर्व छात्र संतोष कुमार ने कहा, “उनकी जगह कोई और होता तो हार मान लेता, लेकिन इस परिवार ने जीत हासिल करने तक केस लड़ा, जो बहुत हिम्मत की बात है.”
संतोष कानपुर से अतुल की ट्यूशन फीस का खर्च उठाने के लिए आए थे.
राजेंद्र ने कमरे का निरीक्षण करते हुए कहा, “जब यह खबर फैली कि अतुल ने आईआईटी में पढ़ने का अपना सपना लगभग खो दिया है, तो कई लोग आगे आए और उनकी पढ़ाई का खर्च उठाने का वादा किया.”
उन्होंने कहा, “अगर ज़रूरत पड़ती तो मैं इस सीट को रिज़र्व करने और अपने बेटे के सपने को पूरा करने के लिए अपनी ज़मीन और घर बेच देता.”
कमरे के कोने में एक छोटा सा बिस्तर है, एक छोटी सी खिड़की के नीचे एक पुरानी लोहे की सिलाई मशीन है और मेहमानों के लिए भूरे रंग की प्लास्टिक की कुर्सियां लगी हैं. राजेंद्र दृढ़ संकल्पित हैं कि उनके बच्चों को बेहतरीन शिक्षा का मौका मिले. उनका सबसे बड़ा बेटा मोहित आईआईटी खड़गपुर से केमिकल इंजीनियरिंग में एमटेक कर रहा है और उनका दूसरा बेटा रोहित एनआईटी हमीरपुर से केमिकल इंजीनियरिंग में बीटेक कर रहा है.
अतुल ने कहा, “मुझे अपने भाइयों से प्रेरणा मिली.”
उन्होंने कहा कि उनके तीसरे भाई अमित ने मुजफ्फरनगर के खतौली में श्री कुंद कुंद जैन डिग्री कॉलेज से हिंदी ऑनर्स में बीए करने का फैसला किया है.
अतुल ने आईआईटी धनबाद तक लंबी लड़ाई लड़ी और जीती, लेकिन उन्हें पता है कि वहां पहुंचने के बाद एक कठिन लड़ाई सामने है: जातिगत भेदभाव का असली मुद्दा. आईआईटी दिल्ली में हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि 75 प्रतिशत एससी/एसटी/ओबीसी छात्र जातिवादी टिप्पणियों से प्रभावित महसूस करते हैं, जबकि सामान्य वर्ग के कई छात्र या तो इसे नज़रअंदाज कर देते हैं या ऐसी टिप्पणियों से सहमत होते हैं. यह अतुल और हाशिए पर पड़े पृष्ठभूमि से आने वाले अन्य लोगों के सामने आने वाली बाधाओं को दर्शाता है.
फिर भी, अतुल अपने रास्ते में आने वाली हर चुनौती से निपटने के लिए तैयार हैं. उन्होंने कहा, “मैंने एक बड़ी लड़ाई लड़ी और जीती है, अब, जो भी मुश्किलें मेरे सामने आएंगी, मैं उनसे लड़ूंगा. इन तीन महीनों ने मुझे हर चीज़ के लिए तैयार कर दिया है.”
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