जयपुर: नवंबर की एक सर्द सुबह 6:30 बजे, गजानन जांगिड राजस्थान में अपने घर के पास रेलवे ट्रैक पर खड़े थे. उन्हें पुलिस ने फोन कर एक शव की पहचान करने के लिए बुलाया था. ट्रैक पर सफेद चेक शर्ट और नीली पैंट पहने जो शरीर पड़ा था, वह उनके बड़े भाई मुकेश जांगिड का था—जो लगभग दस साल से बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) का काम कर रहे थे. गजानन अभी सदमे में ही थे कि एक कॉन्सटेबल ने कहा, “जेब चेक करो.” खून लगे कपड़ों से एक चाबी, 500 रुपये का नोट और पांच लाइनों का एक छोटा सा खत मिला. इन पांच लाइनों में हफ्तों की थकाने वाली SIR ड्यूटी—डिजिटल डेडलाइन, बार-बार की गई आपत्तियां और निलंबन की धमकियों का पूरा दर्द भरा था.
खत में मुकेश, 47, ने लिखा था: “मैं BLO मुकेश जांगिड हूं. मैं SIR काम से बहुत परेशान हूं. मैं रात भर सो नहीं पाया. मेरा सुपरवाइज़र निलंबन की धमकियां दे रहा है. इसलिए मैं आत्महत्या कर रहा हूं.”
यह खत उन्होंने ट्रेन के आगे कूदने से तीन दिन पहले लिखा था. यह घटना बिंडायका रेलवे स्टेशन पर हुई, जो जयपुर से 15 किलोमीटर दूर है.
मुकेश जयपुर के झोटवाड़ा विधानसभा के बूथ 175 के BLO थे और नारी का बास सरकारी स्कूल में शिक्षक थे. परिवार के मुताबिक, उन्होंने पिछले तीन दिनों में ठीक से नींद भी नहीं ली थी. 16 नवंबर की सुबह वह 4 बजे घर से निकले, अपनी मोटरसाइकिल स्टेशन के पास पार्क की और फिर लौटकर नहीं आए.
मतदाता सूची का संशोधन आमतौर पर एक सामान्य सरकारी प्रक्रिया माना जाता है—कागज़ी और औपचारिक, लेकिन स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न (SIR) का दूसरा चरण एक मुश्किल काम बन गया है. इसमें हज़ारों शिक्षक, बीएलओ और ग्राउंड स्टाफ बेहद मुश्किल डेडलाइन, खराब चलने वाली ऐप्स और 2002 की पुरानी वोटर लिस्ट को दोबारा खंगालने की मजबूरी में फंसे हैं, वह भी बहुत कम ट्रेनिंग के साथ.
कम से कम पांच राज्यों में इसने आत्महत्या, अस्पताल में भर्ती होने, इस्तीफे, शिकायतें और मानसिक टूटन जैसी घटनाएं पैदा की हैं.
कई लोगों को अब यह काम एक जिम्मेदारी कम और एक विस्फोटक जैसा लगने लगा है, जो कुछ मामलों में, जैसे मुकेश के साथ, फट चुका है.
और मुकेश अकेले नहीं थे. राजस्थान में एक और बीएलओ की हाल ही में ड्यूटी पर हार्ट अटैक से मौत हो गई. परिवार का कहना है कि उन पर भी वही दबाव था. उत्तर प्रदेश में 47-वर्षीय बीएलओ सर्वेश कुमार गंगवार की भी ड्यूटी पर मौत हुई और परिवार ने “दबाव” को कारण बताया. केरल और बंगाल के दो बीएलओ ने भी पिछले हफ्ते आत्महत्या की; उनके परिवार भी भारी काम के बोझ को वजह मान रहे हैं.
इन राज्यों में हुई ये घटनाएं दिखाती हैं कि यह व्यवस्था निचले कर्मचारियों को उनकी सहनशक्ति से बहुत आगे धकेल रही है.

काम जो रुका नहीं
जांगिड का घर एक बड़े, रेतीले आंगन के बीच में बना है. अधूरा दो-मंज़िला सीमेंट का ढांचा आसमान के सामने साफ दिखाई देता है. मुकेश की मौत के ग्यारहवें दिन, आंगन में बीस से ज़्यादा लोग प्लास्टिक कुर्सियों पर बैठे थे; एक अस्थायी तंबू के नीचे गद्दे बिछे थे ताकि जो भी सांत्वना देने आए, बैठ सके.
बाहर बैठे पुरुष उसी काम की चर्चा कर रहे थे. वही काम जिसने मुकेश को हद तक धकेल दिया था, जो उनकी मौत के बाद भी बिना रुके जारी है.
अंदर, लाल, पीली और नारंगी साड़ियों में महिलाएं एक कमरे में बैठी थीं, धीमी आवाज़ में मुकेश की दो बेटियों के भविष्य की बात करती हुईं. उनकी पत्नी पीछे ज़मीन पर कंबल ओढ़कर पड़ी थीं, थकी और टूट चुकीं.

मरने से पहले 15 दिनों तक, मुकेश अपनी रोज़ की 7 बजे की दिनचर्या छोड़कर 4 बजे उठने लगे थे. सुबह का समय वह दिन की योजना बनाने, मतदाताओं को फोन करने और बीएलओ ऐप पर ऑफलाइन एंट्रीज़ दोबारा अपलोड करने में बिताते थे —बार-बार क्योंकि ऐप बार-बार गड़बड़ करता था और उन्हें डिजिटल काम की बहुत समझ नहीं थी.
उनका 11 साल का बेटा याद करता है कि वह अपने पिता को काम करते देखते-देखते सो जाता था और उठने पर भी उन्हें वही फॉर्म्स पर झुके हुए देखता था. उनका रोज़ का लक्ष्य 200 फॉर्म था.
रेवांशु ने कहा, “उन्होंने सब किया, फिर भी सुपरवाइज़र कहते थे कि वह ऑनलाइन बार-बार गलती कर रहे हैं. उन्हें एक काम दो बार, तीन बार करना पड़ता था.”
रेवांशु ने शोक की रस्म के तहत सिर मुंडवाया था और सिर पर रूमाल ढका था. वह अपने पिता के ऑनलाइन काम में मदद भी करते थे, पर यह काफी नहीं था.
एक सहायक भी मुकेश के काम में लगाया गया था, लेकिन उससे मुसीबत और बढ़ गई. बच्चे ने धीमी आवाज़ में कहा, “मेरे पापा को उसका काम भी रात में सुधारना पड़ता था.”
मुकेश के पिता, नानकराम, ने अपने बेटे से आखिरी बात दो दिन पहले की थी. फोन पर मुकेश ने सुपरवाइज़र और काम के भारी दबाव की बात कही थी.
70-वर्षीय नानकराम ने आंसू पोंछते हुए कहा, “मैंने कहा था चिंता मत कर, जितना हो सके उतना कर ले. मुझे नहीं पता था कि वह इतनी बड़ी परेशानी में है.”
मुकेश की बेटियां, जो उनकी गैरमौजूदगी में सारे घर के काम संभाल रही थीं, उनके फैसले को समझ नहीं पा रही हैं. वे इस बात से नाराज़ हैं कि उनके पिता ने अपना बोझ उनसे शेयर नहीं किया.
23 साल की कुंजल ने कहा, “लेकिन मर्द अपनी नाकामी कभी परिवार को नहीं बताते. उन्हें मज़बूत दिखना पड़ता है. उसी दिखावे ने हमें पिता के बिना छोड़ दिया.”
परिवार का कहना है कि मौत के बाद कोई अधिकारी घर पर सांत्वना देने नहीं आया, लेकिन फॉर्म जमा करने थे और किसी को उनकी जगह काम संभालना था. मुकेश की जगह जिस व्यक्ति को लगाया गया, वह भी यह काम लेने से हिचक रहा था. सहकर्मियों के अनुसार, “जैसे किसी के हाथ में बम थमा दिया हो.”

सवालों के बोझ पर टिका काम
SIR के केंद्र में एक लगभग असंभव काम है: बीएलओ को यह पता लगाना होता है कि हर मतदाता ने 2002 में कहां वोट किया था. प्रवासी परिवारों, दिहाड़ी मज़दूरों या उन महिलाओं के लिए, जिन्होंने शादी के बाद गांव बदला है, यह जानकारी देना लगभग नामुमकिन है.
अक्सर बीएलओ 2002 वाला कॉलम खाली छोड़ देते हैं, जो भी दूसरी जानकारी मिल पाती है उसे भर देते हैं, या फिर अन्य गांवों में काम कर रहे अपने सहकर्मी बीएलओ को फोन कर मदद मांगते हैं, लेकिन कई बार सुराग वहीं खत्म हो जाता है और फॉर्म अधूरे रह जाते हैं. मुकेश जैसे बीएलओ एक ऐसी उलझन में फंस जाते हैं जिसका कोई हल नहीं होता.
रेवांशु ने कहा, “उन्हें शादीशुदा महिलाओं के गांव में काम करने वाले बीएलओ को फोन करना पड़ता था, ताकि उनकी पुरानी जानकारी और फोटो मिल सके.पर हर बार उन्हें सफलता नहीं मिलती थी.”
18 नवंबर की नई डेडलाइन, जो मुकेश के सुपरवाइज़र ने एक हिस्से के फॉर्म के लिए तय की थी, उन पर भारी पड़ गई. जबकि आधिकारिक डेडलाइन 4 दिसंबर की है.
बच्चे ने कहा, “जो काम उन्होंने पहले कर लिया था, सुपरवाइज़र ने उसे खारिज कर दिया. उन्होंने अपने दोस्त से समझकर उसे दोबारा किया, लेकिन सुपरवाइज़र ने उसे भी मंज़ूर नहीं किया.”

एक और बीएलओ, वही मुश्किलें
सांगानेर, जो मुकेश के घर से 32 किमी दूर है, वहां एक और बीएलओ लोगों, फॉर्मों और 2002 की यादों के पीछे भाग रहा है. यह इलाका तेज़ी से बढ़ रहा है—माइग्रेंट परिवार, नए घर और तंग लेकिन साफ-सुथरी गलियां, चमकीले नीले और लाल आयरन गेट, हल्के रंग के मकान और बीच-बीच में निकलती मोटरसाइकिलें.
नीली शर्ट, काली हाफ जैकेट और सर्दियों की शुरुआत में मोटे चश्मे पहने, अवस्थी, जो सिर्फ अपना सरनेम बताना चाहते थे, एक घर से दूसरे घर जाते रहते हैं. एक बैग में फॉर्म, दूसरे में खाना और साथ में एक सहायक शिक्षक. इलाके के ज़्यादातर लोग मज़दूर या फैक्ट्री वर्कर हैं जो सुबह 8 बजे तक घर से निकल जाते हैं. अगर अवस्थी उन्हें पहले न पकड़ पाएं, तो बाद में फिर कोशिश करनी होती है.
उनका क्षेत्र पीछे चल रहा है; उन्हें नोटिस मिल चुका है.
उनका लक्ष्य: रोज़ 200 फॉर्म, ठीक मुकेश की तरह और रात में ऐप के ठीक से चलने पर उन्हें अपलोड करना. वह रोज़ सुबह 5 बजे उठते हैं, 7 बजे तक फॉर्म अपलोड करते हैं और 7:30 तक फील्ड में निकल जाते हैं. वे पैदल चलते हैं, बाइक चलाते हैं और कई बार घरों में घंटों इंतज़ार भी करते हैं.
शाम के 6 बजे अवस्थी ने फॉर्म सेट करते हुए कहा, “मैं पूरे महीने लगातार काम कर रहा हूं, लेकिन फिर भी पीछे हूं. लोग दूसरे राज्यों से आए हैं. उनके पास 2002 की जानकारी नहीं है.” हालांकि, उनका लक्ष्य अभी भी पूरा नहीं हुआ था. शाम में लोग सहयोग नहीं करते; सब कुछ अंधेरा होने से पहले करना पड़ता है.
उन्होंने कहा, “ग्राउंड पर बहुत सारी दिक्कतें हैं जिन्हें सीनियर समझते ही नहीं.”
उन्हें रोज़ 100 से ज़्यादा फोन आते हैं—मतदाताओं के, सुपरवाइज़रों के और उन लोगों के जो फॉर्म को लेकर उलझन में हैं.
अवस्थी ने कहा, “उन्हें याद ही नहीं कि 2002 में उनके पिता ने किस विधानसभा में वोट किया था और हम उनका वोट काट भी नहीं सकते, क्योंकि वे भारतीय नागरिक हैं.”
फिर आते हैं “बल्क वोटर”—बंजारे और घूमंतू, जिनका कोई स्थायी पता नहीं. अवस्थी का कहना है कि ऐसे “सैकड़ों” मामले हैं.
उन्होंने सिर पकड़ते हुए कहा, “मैं उनकी आईडी भी कैंसिल नहीं कर सकता. नोटिस उनके घर पर चिपकाना पड़ता है, लेकिन एड्रेस कॉलम में ‘ज़ीरो’ लिखा है.”
शाम 5 बजे तक अवस्थी 50 घर कवर कर चुके थे. एक घर पर 23 साल के मोहित सिंह दरवाज़ा खोलते हैं, परेशान. यह उनका पांचवा चक्कर था और मोहित अब भी अपने पिता के 2002 के वोटिंग की जानकारी नहीं ढूंढ पाए थे.
मोहित ने कहा, “इसके लिए दिल्ली वाले पुराने मकान मालिक के पास जाना पड़ेगा और मेरे पास वक्त नहीं है. इस वीकेंड जाऊंगा.” अवस्थी का चेहरा लाल पड़ गया. मोहित बिना रुके बोलते रहे.
“डेडलाइन 4 दिसंबर है, समय है. आप मेरा नाम वोटर लिस्ट से काट नहीं सकते, यह मेरा अधिकार है”, यह कहकर मोहित ने दरवाज़ा बंद कर दिया.
अवस्थी मुस्कुराए और अगले घर की ओर बढ़ गए.
उन्होंने कहा, “कभी-कभी दीवार पर सिर मारने का मन करता है,”
उनके पास अभी भी कई घंटे की अपलोडिंग बाकी थी.
‘हमें पढ़ाने के लिए रखा गया था’
उत्तर प्रदेश के हाथरस में, प्राथमिक विद्यालय की अध्यापिका रामी कुमार गांव की गलियों में फॉर्म बांटती हुई चलती हैं, लेकिन मन में अपनी खाली पड़ी क्लास को लेकर चिंतित रहती हैं. वह स्थानीय सरकारी स्कूल में चौथी क्लास के बच्चों को पढ़ाती हैं.
उन्होंने कहा, “परीक्षा पास है और आधा सिलेबस अभी भी बाकी है. मुझे पढ़ाने के लिए रखा गया था. लेकिन अब मैं फील्ड वर्क में लगी हूं.”
राजस्थान में 20 नवंबर से परीक्षाएं शुरू हुई हैं और दूसरी तरफ SIR की अंतिम तारीख भी करीब हैं. शिक्षक कहते हैं कि वे काम में डूब गए हैं.
राज्य में लगभग 61,000 बीएलओ हैं और उनमें से 50,000 से ज़्यादा शिक्षक हैं.
जयपुर टीचर्स एसोसिएशन के विपिन पांडेय ने कहा, “सिलेक्शन बहुत रैंडम होता है. एक स्कूल से पांच शिक्षक चुन लिए जाते हैं. तीन शिक्षक DM ऑफिस जाते हैं अपना नाम हटवाने, लेकिन वहां उनसे कहा जाता है कि किसी और का नाम दे दो, तो एक और शिक्षक इस काम में जुड़ जाता है.”
पैसे भी बहुत कम हैं: रेगुलर बीएलओ काम के लिए 500 रुपये महीना, SIR के दौरान सालाना करीब 6,000 रुपये और आम चुनावी ड्यूटी के लिए 6,000 रुपये.
पांडेय खुद भी अपनी 2002 की पुरानी वोटर आईडी नहीं ढूंढ पा रहे क्योंकि वह शहर बदल चुके हैं.
उन्होंने कहा, “ज़रा सोचिए, अनपढ़ लोगों के लिए कितना मुश्किल होगा; वे कोई कोशिश नहीं करेंगे.2002 में किसी को नहीं पता था कि 2025 में पुरानी वोटर आईडी मांगी जाएगी. इस काम में लगे हर शिक्षक के अंदर भारी निराशा है.”
राज्यों में यह दबाव अब आधिकारिक शिकायतों तक पहुंच चुका है. यूपी के गौतम बुद्ध नगर में, प्राथमिक शिक्षक संघ ने इस हफ्ते DM को ज्ञापन दिया है, जिसमें बीएलओ के रूप में तैनात शिक्षकों के साथ “मानसिक उत्पीड़न” का आरोप लगाया गया है. ज्ञापन में यह भी कहा गया है कि शिक्षकों की बात सुनने के बजाय उन पर एफआईआर और प्रतिकूल टिप्पणियां दर्ज की जा रही हैं.
उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षक संघ के जिलाध्यक्ष प्रवीण शर्मा ने कहा, “हमने प्रशासन से एफआईआर वापस लेने, प्रतिकूल टिप्पणियां हटाने, शिक्षकों का मानसिक उत्पीड़न रोकने और वरिष्ठ अधिकारियों से बीएलओ के साथ सहयोग कर सम्मानजनक तरीके से काम खत्म कराने की मांग की है.”
यहां तक कि RSS से जुड़ा अखिल भारतीय शिक्षिक महासंघ भी चुनाव आयोग को पत्र लिखकर SIR के पैमाने और रफ्तार की आलोचना कर चुका है. संगठन ने इस कार्यभार को “अनैतिक” कहा और दावा किया कि बीएलओ के रूप में लगे शिक्षक “दबाव और डराने-धमकाने” का सामना कर रहे हैं. उन्होंने डेडलाइन बढ़ाने और SIR के दौरान मरे बीएलओ के परिवारों के लिए 1 करोड़ रुपये मुआवज़े की मांग की है.

बचपन का सपना टूट गया
मुकेश के घर में, उनकी बेटी ज्योति, 25, ने उनके स्कूल की किताबें अलमारी में बंद कर दी हैं. वह अपने पिता की तरह शिक्षक बनने की तैयारी कर रही थी, लेकिन अब नहीं.
ज्योति ने अपना चेहरा आंसुओं से भीगे दुपट्टे से ढकते हुए कहा, “मैंने सिर्फ अपने पिता को नहीं खोया. मैंने अपना बचपन का सपना भी खो दिया—शिक्षक बनने का. मैं पढ़ाना चाहती थी, न कि फील्डवर्क करना जिसमें इतनी टेंशन और डेडलाइन हो.”
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