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शनिवार, 5 जुलाई, 2025
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गुरु दत्त ने बनाई बॉलीवुड की सबसे अनोखी ड्रीम टीम — बस कंडक्टर, अनजान लेखक और एक डांसर

गुरु दत्त ने अपनी टीम के कई सितारे इत्तफाक और अपनी रचनात्मक समझ के दम पर खोजे. कई तो खुद भी बाद में दिग्गज बन गए.

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नई दिल्ली: अबरार अल्वी को ज्यादा से ज्यादा बस प्यार भरे खत लिखने का शौक था. इसी दौरान वे फिल्म ‘बाज़’ के सेट पर पहुंचे, जहां उनके चचेरे भाई जसवंत का एक छोटा रोल था. सेट पर अबरार ने फिल्म के डायलॉग्स पर टिप्पणी कर दी. यह बात फिल्म के एक्टर और डायरेक्टर गुरु दत्त को पसंद आई. दत्त ने अबरार को कुछ सीन दोबारा लिखने को दिए और फिर उन्हें अपने प्रोडक्शन हाउस में लेखक की नौकरी दे दी.

गुरु दत्त अक्सर ऐसे ही अपनी टीम के लोगों को ढूंढते थे — संयोग से, जिज्ञासा से और अपनी रचनात्मक समझ से. यही लोग आगे चलकर ‘प्यासा’, ‘कागज़ के फूल’ और ‘साहिब बीबी और गुलाम’ जैसी उनकी बेहतरीन फिल्मों में अहम भूमिका निभाते रहे. हालांकि, ‘बाज़’ (1953) उनकी पहली हीरो वाली फिल्म फ्लॉप हो गई थी. बाद में गुरु दत्त ने अबरार से पूछा कि फिल्म कैसी लगी. अबरार ने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा, “आप बहुत फोटोजेनिक हैं।”

इस पर दत्त ने हंसते हुए कहा, “कुछ एक्टोजेनिक भी है या नहीं?” — इसे नसरीन मुन्नी कबीर की किताब ‘गुरु दत्त: ए लाइफ इन सिनेमा’ में लिखा गया है.

इसके बाद दत्त ने अबरार को ‘आर पार’ (1954) के लिए कहानी और डायलॉग्स लिखने को कहा. अबरार ने फिर गुरु दत्त की कई यादगार फिल्मों के लिए बेहतरीन पटकथा लिखी. नसरीन कबीर लिखती हैं, “अबरार की खासियत थी — सच्चाई से भरे और समझदारी वाले डायलॉग्स लिखना और हर किरदार को उसका अलग अंदाज़ देना.”

ऐसी ही कई दिलचस्प कहानियां उनकी टीम के बाकी लोगों की भी हैं. जैसे — एक बस कंडक्टर जो आगे चलकर ‘जॉनी वॉकर’ बन गया. वहीदा रहमान, जो पहली बार गुरु दत्त को एक तेलुगु फिल्म में डांस करते दिखीं. राज खोसला, एक गायक जो बाद में हिंदी फिल्मों के जाने-माने डायरेक्टर बन गए. कैमरामैन वी. के. मूर्ति, जिन्होंने ‘कागज़ के फूल’ में पहली बार सिनेमास्कोप कैमरा इस्तेमाल किया और एस. गुरुस्वामी, जो उनकी लगभग हर फिल्म के प्रोडक्शन मैनेजर रहे.

गुरु दत्त (बाएं) और अबरार अल्वी (दाएं) | एक्स/@FilmHistoryPic
गुरु दत्त (बाएं) और अबरार अल्वी (दाएं) | एक्स/@FilmHistoryPic

इन्हीं लोगों के साथ मिलकर गुरु दत्त ने हिंदी सिनेमा को ऐसी फिल्मों का तोहफा दिया, जो आज भी याद की जाती हैं — जिनमें भावनाएं भी थीं, गहराई भी और एक खास खूबसूरती भी. फिल्मों के पोस्टर पर चेहरा भले गुरु दत्त का होता था, लेकिन उनकी ये टीम ही थी, जिसने दोस्ती, भरोसे और नए प्रयोगों से उनकी रचनात्मकता को नई ऊंचाइयां दीं. हालांकि, कभी-कभी बहस भी होती थी, लेकिन टीम का साथ कभी नहीं छूटा.

कैमरामैन वी. के. मूर्ति ने 2010 में एक इंटरव्यू में याद किया, “गुरु दत्त जैसे रचनात्मक लोग अपने साथियों से बहुत उम्मीदें रखते थे. कई बार लाइटिंग सेट करने में समय ज्यादा लगता था, तो हमारी बहस हो जाती थी. ‘आर पार’ के समय भी खूब बहस हुई, लेकिन बाद में उन्होंने समझाया कि उन पर शूटिंग जल्दी खत्म करने का दबाव था, इसलिए हमें भी तेज़ी से काम करना चाहिए. वे बहुत समझदार थे. इसके बाद हम हमेशा अच्छे तालमेल से काम करते रहे.”

गुरु दत्त की फिल्मों में वी. के. मूर्ति की सिनेमैटोग्राफी ने खास पहचान बनाई — ‘कागज़ के फूल’ के टूटे शीशों और परछाइयों से लेकर ‘प्यासा’ में रौशनी और अंधेरे के अद्भुत खेल तक.

9 जुलाई 1925 को जन्मे गुरु दत्त की शताब्दी पर स्वाभाविक है कि ध्यान उन्हीं पर जाए. मगर हकीकत ये है कि उनके साथ काम करने वाले लोग भी उतने ही ज़रूरी थे. उन्होंने ही गुरु दत्त के सपनों को परदे पर उतना ही शानदार बनाया, भले ही यह सफर छोटा रहा क्योंकि गुरु दत्त का निधन महज़ 39 साल की उम्र में हो गया था.

गुरु दत्त की सबसे बड़ी विरासत यही है कि उनका सिनेमा सिर्फ एक आदमी की नहीं, बल्कि पूरी टीम की मेहनत थी. यह टीम न शोहरत के पीछे भागी, न पैसों के, बल्कि उन्होंने कुछ ऐसा रचा जो वक्त के साथ और भी निखरता गया. जैसा कि गुरु दत्त ने खुद 1963 में कहा था— “शोहरत…बस कुछ वक्त की बात है. ये भी बाकी चीज़ों की तरह गुज़र जाएगी.”


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‘साथ काम किया, साथ पार्टी भी की’

जब गुरु दत्त ने 1951 में फिल्म ‘बाज़ी’ (जिसे कभी-कभी ‘बाज़’ से भी लोग गलती से जोड़ देते हैं) से डायरेक्शन की शुरुआत की, तो उनके आसपास संदेह का माहौल था. फिल्म के हीरो और उनके दोस्त देव आनंद ने उन्हें डायरेक्टर चुना था, लेकिन देव आनंद के बड़े भाई चेतन आनंद को भरोसा नहीं था कि गुरु दत्त इस जिम्मेदारी के लायक हैं. मगर फिल्म न सिर्फ हिट हुई, बल्कि यही वो मोड़ था जहां से गुरु दत्त की टीम बनने लगी — एक ऐसी टीम जो आगे जाकर उनकी कई यादगार फिल्मों की रीढ़ बनी.

यासिर उस्मान ने अपनी किताब ‘गुरु दत्त: एन अनफिनिश्ड स्टोरी’ में लिखा है, “रियल लाइफ में जादू करने के लिए भी एक शानदार टीम की ज़रूरत होती है. ‘बाज़ी’ के साथ, गुरु दत्त को ऐसे लोगों के साथ काम करने का मौका मिला, जो आगे चलकर उनकी A-Team बने.”

यह टीम बेहद अलग-अलग पृष्ठभूमि से आई थी.

‘बाज़ी’ के सेट पर ही गुरु दत्त की मुलाकात एक बस कंडक्टर बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी से हुई. उन्हें बलराज साहनी लेकर आए थे, जिन्होंने उन्हें मुंबई की बेस्ट बसों में यात्रियों का मनोरंजन करते देखा था. काज़ी ने फिल्म में शराबी का रोल किया, जबकि असल में वे शराब नहीं पीते थे. गुरु दत्त को उनकी परफॉर्मेंस इतनी पसंद आई कि उन्होंने उनका नाम अपनी पसंदीदा व्हिस्की के नाम पर रख दिया—जॉनी वॉकर.

जॉनी वॉकर | फोटो: यूट्यूब
जॉनी वॉकर | फोटो: यूट्यूब

गुरु दत्त उन कलाकारों को पूरी आज़ादी देते थे, जिन पर उन्हें भरोसा होता था.

जॉनी वॉकर ने उस्मान की किताब में कहा, “गुरु दत्त हमें कहते थे — ‘जॉनी, ये तुम्हारा सीन है, ये डायलॉग है, ये शॉट है. अब इसमें तुम जो अच्छा कर सको, वो करो’.”

जॉनी वॉकर गुरु दत्त की लगभग हर फिल्म का हिस्सा रहे, बस ‘साहिब बीबी और गुलाम’ को छोड़कर.

गुरु दत्त की फिल्मों में उनकी एक खास बात यह थी कि उन्हें साफ समझ था कि उनकी फिल्में कैसी दिखनी चाहिए. वे लाइट और शैडो का इस्तेमाल बहुत खूबसूरती से करते थे.

यासिर उस्मान लिखते हैं, “बाज़ी के सेट पर ही गुरु दत्त की मुलाकात एक और शख्स से हुई, जो आगे जाकर उनकी फिल्मों में शानदार विजुअल्स और इमोशंस के पीछे का बड़ा नाम बना — वी.के. मूर्ति.”

प्यासा का एक सीन | गुरुदत्त/अल्ट्रा मीडिया एंड एंटरटेनमेंट
प्यासा का एक सीन | गुरुदत्त/अल्ट्रा मीडिया एंड एंटरटेनमेंट

यहीं से राज खोसला का भी सफर शुरू हुआ. वे गायक बनने मुंबई आए थे, लेकिन देव आनंद की सिफारिश पर गुरु दत्त के सहायक निर्देशक बन गए. उन्होंने माना था कि उन्होंने अपने हिंदी लेखन का हुनर थोड़ा बढ़ा-चढ़ा कर बताया था, लेकिन गुरु दत्त ने हंसते हुए ये बात नज़रअंदाज़ कर दी. इसी फिल्म के दौरान एस. गुरुस्वामी भी टीम में जुड़े, जो प्रोडक्शन के सभी काम संभालने लगे.

उस्मान लिखते हैं, “ये लोग सिर्फ साथ काम ही नहीं करते थे, साथ पार्टी भी करते थे. उनकी दोस्ती फिल्मों के पर्दे पर भी साफ झलकती थी.”

ये टीम सिर्फ गुरु दत्त के इर्द-गिर्द मंडराने वाली टोली नहीं थी, बल्कि ये सलाह, सीख और एक-दूसरे को आगे बढ़ाने का भी ज़रिया थी.

राज खोसला खुद भी एक बड़े डायरेक्टर बने और ‘वो कौन थी?’ (1964), ‘मेरा साया’ (1966) और ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ (1978) जैसी हिट फिल्में दीं. मगर उनके करियर का बड़ा मोड़ तब आया जब गुरु दत्त ने ‘सीआईडी’ (1956) की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी.

हालांकि, दत्त के भाई आत्माराम यह फिल्म डायरेक्ट करना चाहते थे, मगर गुरु दत्त ने खोसला को मौका दिया. इस फैसले से भाइयों के बीच थोड़ी नाराज़गी भी हुई, लेकिन फिल्म जबरदस्त हिट साबित हुई.

गुरु दत्त | एक्स/@TheIrfanSyed
गुरु दत्त | एक्स/@TheIrfanSyed

खोसला ने नसरीन मुन्नी कबीर से कहा था, “गुरु दत्त ने कभी मेरे काम में दखल नहीं दिया. मैंने उनसे सीखा कि चेहरे, आंखों और बॉडी लैंग्वेज से कहानी कैसे कही जाती है. उन्होंने सिखाया कि क्लोज़-अप का सही इस्तेमाल कैसे होता है.”

खोसला ने ये भी बताया कि गुरु दत्त आलोचकों की परवाह नहीं करते थे. खोसला ने कहा, “गुरु दत्त खुद अपने सबसे बड़े आलोचक थे. वे खुद जानते थे कि उनकी फिल्म कहां गड़बड़ है. वे खुद कहते थे — ‘राज, ये फिल्म सही नहीं बन रही, ये चलेगी नहीं’. उन्हें खुद महसूस हो जाता था.”

जब ‘सीआईडी’ हिट हुई और 30 लाख रुपए कमाए, तो गुरु दत्त ने राज खोसला को बुलाया और उन्हें एक डॉज कन्वर्टिबल कार की चाबी देते हुए कहा, “ये तुम्हारे लिए गिफ्ट है, सीआईडी के लिए.”

अंबोरीश रॉयचौधरी ने अपनी किताब ‘राज खोसला: द ऑथराइज्ड बायोग्राफी’ में लिखा है कि राज खोसला गुरु दत्त और उनकी फिल्मों के बहुत बड़े फैन थे. मगर उनका रिश्ता ऐसा नहीं था जिसमें कोई दबाव हो. राज खोसला ने दत्त की एक और फिल्म डायरेक्ट करने का ऑफर ठुकरा दिया. उन्होंने कहा था, “मैं एक छोटा पौधा हूं. मैं किसी बड़े पेड़ के नीचे नहीं पनप सकता.”

इस ड्रीम टीम में एक और अहम नाम वहीदा रहमान का भी था, जो खुद भी अपनी पहचान को लेकर बेहद स्पष्ट थीं.

एक अनजानी प्रेरणा

यह कहानी 1955 में शुरू हुई, जब हैदराबाद में गुरु दत्त की कार एक भैंस से टकरा गई. एक दिन तक अपने साथी एस. गुरुस्वामी के साथ वहीं फंसे रहने के दौरान, गुरु दत्त की नज़र सड़क के उस पार खड़ी एक युवती पर पड़ी. उन्होंने पूछा — “ये लड़की कौन है?” जवाब मिला — वहीदा रहमान. वे उस वक्त तेलुगु फिल्म ‘रोजुलु मरायी’ में डांस कर रही थीं.

गुरु दत्त ने मिलने का इंतजाम कराया. थोड़ी बातचीत हुई और फिर वे मुंबई लौट आए.

कुछ महीनों बाद, मन्नू भाई पटेल नाम का एक आदमी मद्रास (अब चेन्नई) में वहीदा रहमान के घर गया. उसने कहा — गुरु दत्त आपको बॉम्बे बुलाना चाहते हैं. बातचीत के बाद वहीदा मुंबई आईं और महालक्ष्मी स्थित फेमस स्टूडियो में गुरु दत्त के ऑफिस पहुंचीं. वहां दत्त के साथ राज खोसला, अबरार अल्वी, वी.के. मूर्ति और गुरुस्वामी एक कॉन्ट्रैक्ट लेकर उनका इंतज़ार कर रहे थे.

रहमान ने बाद में नसरीन मुन्नी कबीर से कहा, “जब मैं पहली बार उनसे मिली, तो मुझे लगा ही नहीं कि वो इतने बड़े डायरेक्टर हैं, क्योंकि वे बहुत कम बोलते थे. मुलाकात बस आधे घंटे चली थी.”

उन्होंने कॉन्ट्रैक्ट साइन तो कर लिया, लेकिन शुरू से अपनी शर्तें साफ रखीं, जिससे कई बार टीम के लोग — खासकर राज खोसला नाराज़ हो जाते थे. सबसे पहले, उन्होंने अपना नाम बदलने से इनकार कर दिया, जैसा कि उनसे कहा गया था. इसके अलावा, उन्होंने अपनी वेशभूषा पर भी राय रखने की बात रखी.

कागज़ के फूल में गुरुदत्त और वहीदा रहमान | यूट्यूब स्क्रीनग्रैब
कागज़ के फूल में गुरुदत्त और वहीदा रहमान | यूट्यूब स्क्रीनग्रैब

‘राज खोसला: द ऑथराइज्ड बायोग्राफी’ में लिखा है, “राज खोसला बहुत नाराज़ हुए — उनकी नज़र में नए लोगों को इस तरह ज़िद्द नहीं करनी चाहिए थी. मगर गुरु दत्त को वहीदा में वो चिंगारी दिखी, जो राज खोसला नहीं देख पाए. दत्त ने वहीदा की हर शर्त मान ली.”

वहीदा रहमान ने हिंदी फिल्मों में शुरुआत की ‘सीआईडी’ से और अपने फैसलों पर अडिग रहीं.

एक सीन में उनसे लेस ब्लाउज पहनने के लिए कहा गया था, लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया, जब तक उसे दुपट्टे से ढका न जाए. राज खोसला ने विरोध किया, मगर दत्त ने वहीदा का साथ दिया.

यासिर उस्मान लिखते हैं, “गुरु दत्त को कई बार देखा गया कि वे दूसरे कलाकारों और तकनीशियनों पर गुस्सा हो जाते थे. मगर वहीदा रहमान के साथ उनका व्यवहार पूरी तरह अलग था.”

उनकी ये जोड़ी बाद में दत्त की फिल्मों के कुछ सबसे यादगार लम्हों की वजह बनी — ‘प्यासा’ में वो लंबी खामोशी, जिसमें वहीदा ने गुलाबो (एक सेक्स वर्कर) का किरदार निभाया, ‘कागज़ के फूल’ में गाना ‘वक्त ने किया क्या हसीन सितम’, जिसमें उनका दर्द झलकता है.

धीरे-धीरे वहीदा रहमान, गुरु दत्त की फिल्मों का सबसे अहम चेहरा बन गईं. मगर उनके इस नज़दीकी रिश्ते की खबरें दत्त के पहले से ही तनावपूर्ण वैवाहिक जीवन (गायिका गीता दत्त के साथ) को और बिगाड़ने लगीं.

गुरु दत्त की निजी ज़िंदगी भी इस दौर में उथल-पुथल से भरी थी, जिसमें शराब का असर साफ दिखता था.

10 अक्टूबर 1964 को, जॉनी वॉकर और वहीदा रहमान, मद्रास के सफर पर थे. जैसे ही वॉकर होटल पहुंचे, टेलीफोन की घंटी बजी — “जॉनी, गुरु चला गया”.

वॉकर इस खबर से टूट गए, वहीदा रहमान भी स्तब्ध रह गईं. यासिर उस्मान लिखते हैं कि गुरु दत्त की मौत का कारण शराब और नींद की गोलियों का खतरनाक मेल था.

यह हादसा था या खुदकुशी — यह आज तक रहस्य है.

1967 में वहीदा रहमान ने लिखा था: “शायद उनकी मौत एक हादसा रही हो, मगर मैं जानती हूं कि वो हमेशा यही चाहते थे, इसी की ओर खिंचते थे…और उन्हें वो मिल गया, जो कुछ भी हुआ, शायद वही उनके लिए सही था…यही सोच कर खुद को दिलासा देती हूं.”

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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