वाराणसी: 20 साल से भी ज़्यादा समय से, गंगा नदी प्रोफेसर जितेंद्र पांडे के लिए एक लैब की तरह रही है. गोमुख से लेकर गंगा सागर तक, उन्होंने नदी के 2,500 किलोमीटर लंबे सफर को ध्यान से समझा और पढ़ा है.
अब, नदी में प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के बीच गंगा कैसे खुद को संभालती है, इस विषय पर उनके रिसर्च के लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिला है. पांडे को अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन (AGU) की तरफ से प्रतिष्ठित सर स्टीफन श्नाइडर लेक्चर देने के लिए बुलाया गया है.
बीएचयू (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) में बॉटनी विभाग के पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर पांडे ने कहा, “पहले एशियाई वैज्ञानिक के रूप में यह सम्मान मिलना बहुत गर्व की बात है. यह सम्मान बताता है कि विज्ञान और नीति को जोड़कर, हम धरती को बचाने में कैसे मदद कर सकते हैं.”
वह जैविक विज्ञान क्षेत्र से यह सम्मान पाने वाले पहले व्यक्ति हैं.
यह लेक्चर हर साल एक मशहूर वैज्ञानिक को दिया जाता है. इस साल दिसंबर में, पांडे अपना लेक्चर देंगे, जिसका विषय है: “जलवायु परिवर्तन के दौर में नदी के जैव-भू-रासायनिक चक्रों को समझना”.
यह सिर्फ पांडे की उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह भी साबित करता है कि भारत की नदियों पर किया गया शोध, दुनिया में कितना ज़रूरी माना जा रहा है.
पांडे ने अपने ऑफिस में बैठकर कहा, जो गंगा के नक्शों और शोध पत्रों से भरा था— “मुझे यह सम्मान गंगा पर किए गए मेरे रिसर्च के लिए मिला है — खासकर यह समझने के लिए कि प्रदूषण और गाद बढ़ने पर नदी कैसे प्रतिक्रिया देती है और खुद को कैसे संभालती है.”
उनका गंगा से संबंध बचपन में धार्मिक भाव से शुरू हुआ था, लेकिन अब वे इसे धरती के पर्यावरण का एक ज़रूरी हिस्सा मानते हैं.
वे गंगा नदी पारिस्थितिकी, जलवायु परिवर्तन, वायुमंडलीय प्रदूषण, पौधों की जीवविज्ञान और जैविक खेती में विशेषज्ञ हैं.
AGU की वेबसाइट के अनुसार, “प्रोफेसर पांडे ने गंगा जैसी बड़ी नदियों में भारी धातुओं, पोषक तत्वों के बढ़ने, पानी के गंदे होने और नदी के जीव-समुदाय में बदलाव पर बहुत काम किया है.”

इस सम्मान को पहले पीटर ग्लीक, एलन रोबॉक, माइकल मान और स्टीफन श्वार्ट्ज जैसे बड़े वैज्ञानिक पा चुके हैं.
पांडे का गंगा से रिश्ता
जितेंद्र पांडे लगभग 30 साल पहले वाराणसी में गंगा में किए गए स्नान को आज भी नहीं भूलते. इसी अनुभव ने उन्हें गंगा नदी और उसकी प्रणाली पर शोध करने की प्रेरणा दी. आज वे भारत में गंगा पर शोध करने वाले प्रमुख विद्वानों में से एक हैं.
पांडे ने कहा, “मेरी उंगलियों में कई अंगूठियां थीं. स्नान करते समय मुझे लगा कि अंगूठियां गिर गई हैं, लेकिन जैसे ही मैंने हाथ बाहर निकाला तो सब अंगूठियां वहीं थीं.” यह अनुभव पानी की टर्बिडिटी (यानी पानी का धुंधलापन) के कारण था.
टर्बिडिटी पानी में तैर रहे छोटे-छोटे कणों के कारण होती है, जो नदी के स्वास्थ्य को कई तरह से खराब करती है. पांडे ने कहा कि चाहे नदी हो, झील हो या तालाब — अगर पानी में टर्बिडिटी बढ़ जाती है तो यह पूरे जल प्रणाली को खराब कर देती है. यही घटना उनके लिए गंगा पर शोध शुरू करने की वजह बनी.
उन्होंने गंगा पर शोध करना तब शुरू किया जब वे रीडर बने. उन्होंने बीएचयू के बॉटनी विभाग में गंगा रिवर इकोलॉजी रिसर्च लैब स्थापित की. उनके मार्गदर्शन में लगभग 14 छात्र गंगा पर वायुमंडलीय जमाव और कार्बन प्रवाह जैसे विषयों पर अपनी पीएचडी कर चुके हैं.

बीएचयू में प्रोफेसर बनने से पहले, पांडे उदयपुर के एमएल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर थे, जहां वे 7 छात्रों के पीएचडी गाइड थे.
लेकिन पांडे का बीएचयू से संबंध पुराना है. 1986 में वे बीएससी करने के लिए बीएचयू आए और यहीं से उन्होंने एमएससी और पीएचडी भी की. उनके प्रोफेसर आज भी उन्हें याद करते हैं.
बॉटनी डिपार्टमेंट के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. आर.एस. उपाध्याय ने कहा, “मैंने उन्हें और उनकी पत्नी को एमएससी के टाइम पढ़ाया था. वे बहुत अच्छे स्टूडेंट थे, बाद में वही हमारे डिपार्टमेंट में मेरे कलीग बने.”
पांडे एक एलीट परिवार से हैं. उनके पिता आईआईटी-बीएचयू में फिजिक्स के प्रोफेसर थे.
उपाध्याय ने कहा कि पांडे की गंगा पर रिसर्च ग्राउंड पर किए गए काम पर बेस्ड है और यह बहुत वास्ट है.
लेक्चर की घोषणा होने के बाद, बीएचयू ने अपने एक्स हैंडल और वेबसाइट पर #MakingBHUproud टैग के साथ पोस्ट किया.
बॉटनी विभाग के प्रोफेसर रवि अस्थाना ने कहा, “पांडे और उनकी टीम हरिद्वार से गंगा सागर तक गंगा के स्वास्थ्य को स्टडी करती है — वे भारी धातुओं, कार्बन और गाद जमाव का असर देखते हैं. वे अपने काम के प्रति बहुत मेहनती और समर्पित हैं.”
पिछले 40 सालों से सरकार गंगा की सफाई में लगी है. 1986 में गंगा एक्शन प्लान (GAP) शुरू हुआ था, लेकिन पांडे ने कहा, “वह कार्यक्रम बहुत सफल नहीं रहा.”
2014 में मोदी सरकार आने के बाद, इस योजना को नमामि गंगे कार्यक्रम में बदल दिया गया और इसके लिए 20,000 करोड़ रुपये का बजट दिया गया.
पांडे ने कहा कि इतने खर्च और इंफ्रास्ट्रक्चर बनने के बावजूद गंगा की सेहत लगातार खराब हो रही है.
उन्होंने कहा, “सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट होने के बावजूद हम पूरा सीवेज साफ नहीं कर पाते. घरेलू और फैक्ट्री का गंदा पानी गंगा में सबसे बड़ा प्रदूषण फैला रहा है.”
उनकी टीम ने पाया कि कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान, जब फैक्ट्रियां बंद थीं, गंगा का पानी साफ हुआ, जबकि सीवेज तब भी नदी में जा रहा था. इससे साबित हुआ कि औद्योगिक कचरा गंगा को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है.
अपनी 20 साल की रिसर्च के आधार पर, पांडे नदी में पानी का प्रवाह (फ्लो) बढ़ाने की वकालत करते हैं.
उन्होंने कहा, “अगर नदी का प्रवाह बढ़ेगा, तो प्रदूषण अपने आप कम होगा और पानी में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ेगी.”
उनके अनुसार, यह एक स्थायी समाधान है, क्योंकि अधिक प्रवाह होने पर नदियां खुद को साफ कर लेती हैं.
गंगा पर स्टडी
पांडे का विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त रिसर्च यह दिखाता है कि नदी का स्वास्थ्य पूरे पृथ्वी के पर्यावरणीय संतुलन से जुड़ा हुआ है.
पांडे ने कहा, “मैंने यह स्टडी की है कि गंगा नदी जहरीले प्रदूषकों के आने पर कैसे प्रतिक्रिया देती है और कितनी जल्दी वह खुद को ठीक कर लेती है. यह स्टडी पहली बार बीएचयू की हमारी लैब में शुरू हुई थी.”
गंगा में पहले अपने आप को साफ करने की क्षमता थी, लेकिन समय के साथ यह क्षमता कम होती जा रही है. पांडे के लिए सबसे बड़ा सवाल यह था कि नदी कितने समय तक खुद को साफ रख सकती है.
इसके लिए पांडे की टीम ने नदी पारिस्थितिकी तंत्र लचीलापन सूचकांक बनाया.

सरल भाषा में इसका मतलब है — नदी कितना समय लेती है अपनी पुरानी स्वस्थ स्थिति में वापस आने में और वह कौन-सी सीमा है जिसे पार करने पर नदी खुद को ठीक नहीं कर पाएगी.
2021 में, पांडे ने अपनी पीएचडी छात्रा दीपा जायसवाल के साथ एक रिसर्च पेपर प्रकाशित किया — “नदी पारिस्थितिकी तंत्र लचीलापन जोखिम सूचकांक: मानव-प्रभावित बड़ी नदियों में लचीलेपन और बड़े बदलावों को चिह्नित करने का एक तरीका”.
नदी के पारिस्थितिक तंत्र में कई बार ऐसे मोड़ आते हैं जहां प्रणाली अचानक बदल जाती है. पांडे के अनुसार, भूमि और खेती के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए तो वैज्ञानिकों के पास लचीलापन मापने के तरीके हैं, लेकिन गंगा जैसी नदियों में यह मापने का तरीका नहीं था.
उन्होंने कहा, “हम सिर्फ पानी की गुणवत्ता देखकर नदी के स्वास्थ्य को नहीं समझ सकते. इसलिए हमने यह भी देखा कि नदी प्रदूषण पर कैसे प्रतिक्रिया देती है, ऑक्सीजन कितनी कम होती है, नाइट्रोजन का स्तर कैसे बदलता है और धातुओं का प्रदूषण कितना है.”
2021 में, राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (NASI) ने दीपा जायसवाल को युवा वैज्ञानिक प्लेटिनम जुबली पुरस्कार दिया, उनके द्वारा नदी लचीलापन सूचकांक और प्रतिक्रिया सूचकांक बनाने के लिए.
पांडे भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ के आजीवन सदस्य हैं, न्यूयॉर्क विज्ञान अकादमी के चुने हुए सदस्य हैं और भारतीय जलीय जीवविज्ञानी संघ के फेलो भी हैं. 2023 में, उन्हें NASI में फेलो चुना गया था.

भारत के कई शोधकर्ता गंगा के अलग-अलग पहलुओं पर शोध कर रहे हैं. गंगा का रहस्य उसके भू-रासायनिक गुणों में छिपा है.
जैव रसायनज्ञ और लेखक प्रणय लाल ने लिखा: “गंगा अब पहले जैसी आत्म-शुद्धिकरण क्षमता नहीं रखती. उसके पानी में मौजूद सिलिकेट और खास तरह के बैक्टीरियोफेज (बैक्टीरिया को खाने वाले वायरस जैसे जीव) समय के साथ खत्म होते जा रहे हैं. नदी का पुनर्जीवन सिर्फ पर्यावरण संरक्षण या जन स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं है. यह ज़रूरी है कि कार्बन को सोखने वाली यह प्राकृतिक प्रणाली हमारी लापरवाही की वजह से नष्ट न हो जाए.”
हरिद्वार से हावड़ा
बीएचयू के बॉटनी विभाग की बेसमेंट वाली लैब में एक बड़ा हॉल है, जहां 5 स्टूडेंट हरिद्वार से लेकर गंगा सागर तक गंगा नदी के बेसिन से लिए गए सैंपल्स का विश्लेषण कर रहे थे. हॉल मिट्टी के सैंपल, नक्शों और ढेर सारे कागज़ों से भरा था.
लैब में एक ब्लैकबोर्ड पर पांडे की टीम के 11 शोधकर्ताओं के नाम लिखे हुए थे. प्रोफेसर पांडे ने गंगा के उद्गम से लेकर पश्चिम बंगाल में समुद्र तक मिलने तक की 2,500 किलोमीटर लंबी यात्रा को अलग-अलग हिस्सों में बांट दिया है.
पांडे ने कहा, “हर हिस्से पर अलग-अलग छात्र काम कर रहे हैं, ताकि शोध में दोहराव न हो और अलग-अलग जानकारी मिल सके.”


शिवम गुप्ता, जो पांडे के मार्गदर्शन में शोध कर रहे हैं, पिछले पांच साल से पश्चिम बंगाल में गंगा के निचले हिस्से पर स्टडी कर रहे हैं. शिवम ने कहा, “मेरा काम हावड़ा से गंगा सागर तक, खासकर सुंदरबन क्षेत्र में, गंगा के स्वास्थ्य पर केंद्रित है.”
वे यह स्टडी कर रहे हैं कि इस क्षेत्र में पानी की लवणता (नमकीनपन) बढ़ने से नदी की पारिस्थितिकी कैसे बदल रही है.
सुंदरबन में समुद्र का खारा पानी लगातार नदी के मीठे पानी में मिल रहा है, जिसमें मर्करी और लेड जैसी भारी धातुएं भी पाई जा रही हैं. शिवम ने कहा, “जब लोग ऐसे पानी का उपयोग सिंचाई के लिए करते हैं, तो यह उनके स्वास्थ्य पर असर डालता है.”
जैसे-जैसे पानी नमकीन होता जा रहा है और समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, मैंग्रोव के जंगलों का क्षेत्र घटता जा रहा है. दूसरी ओर, केतन माधव कानपुर से वाराणसी के बीच लगभग 518 किलोमीटर के हिस्से पर रिसर्च कर रहे हैं. उन्होंने यह 2021 में शुरू किया.
केतन ने कहा, “यह सिर्फ बीएचयू ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए गर्व की बात है. हमारा रिसर्च एक वैश्विक स्तर की समस्या का समाधान ढूंढने की कोशिश कर रहा है.”
पांडे कहते हैं कि नदियां दुनिया के पर्यावरणीय संतुलन की मुख्य कड़ी हैं.
उन्होंने कहा, “नदी एक वैश्विक चक्र का हिस्सा है. अगर हम नदियों के स्वास्थ्य की परवाह नहीं करेंगे, तो यह पूरा चक्र प्रभावित होगा. यह पूरे पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नुकसानदायक होगा.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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