scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होमफीचरवेश्यालय से वृंदावन तक- बंगाल की कलाकृतियां हिंदू विधवाओं के दो अलग चेहरे दिखाती हैं

वेश्यालय से वृंदावन तक- बंगाल की कलाकृतियां हिंदू विधवाओं के दो अलग चेहरे दिखाती हैं

कई हिंदू महिलाएं जिंदा रहने के लिए सेक्स वर्कर बन गईं. लेकिन इसके बारे में इतिहास की किताबों में ज्यादा जिक्र नहीं मिलता है.

Text Size:

काले बॉर्डर वाली सफेद मलमल की साड़ी पहने 19वीं सदी की बंगाल की एक पेंटिंग्स में जो कि एक वेश्यागृह की है, उसमें औरतों की महिला की दो अलग-अलग पहचान निकल कर सामने आती है. वे वेश्याओं या रखैलों के रूप में काम करने वाली विधवाएं थीं, जो दो जिंदगियां जी रही थीं – एक जो खत्म हो चुकी थी और दूसरी जिसकी शुरुआत अभी होनी बाकी थी. सती प्रथा पर प्रतिबंध लग चुका था और विधवाओं को आग की लपटों में नहीं डाला जा रहा था, लेकिन उनके परिवार उन्हें अभी भी स्वीकार नहीं कर पा रहे थे.

कई सेक्स वर्कर बन कर जिंदा रह गईं. वेश्यालयों में मुख्य रूप से हिंदू महिलाओं की संख्या ज्यादा थी. औपनिवेशिक बंगाल में व्यापक सामाजिक सुधारों के कारण उनकी जिंदगी तो बच गई थी, लेकिन अभी भी वे अपनी गरिमा या सम्मान के प्रति आश्वस्त नहीं थीं.

“कोलकाता की 19वीं सदी की कला ने कई छोटे और बड़े बदलावों का दस्तावेजीकरण किया जो औपनिवेशिक शासन के तहत हो रहे थे: देवता और राक्षस ऑक्सफोर्ड शूज़ पहनते हैं, महिलाएं ब्लाउज पहनना शुरू करती हैं, एक आधिकारिक भाषा के रूप में फारसी का अंत हो जाना,” डीएजी (पूर्व में दिल्ली आर्ट गैलरी) के प्रोजेक्ट मैनेजर ऑफ एक्जिबिशन शतदीप मैत्रा कहते हैं, “हर चीज की तरह, सती प्रथा का अंत और इसके सामाजिक परिणाम लोकप्रिय कल्पना के साथ मिश्रित हो गए. सीमित या अशिक्षित होने के कारण कई महिलाएं जिनके पति मर गए थे, उन्हें जीवित रहने के लिए सेक्स वर्क पर निर्भर रहना पड़ा.”

लगभग एक दर्जन चित्र — औपनिवेशिक वॉटर कलर कालीघाट पट कलाकृतियां— डीएजी ने अच्छी तरह से सजाए हैं. ये सब उस समय की महिलाओं के इतिहास को बयान करते हैं. इन बंगाल ऑयल पेंटिंग्स और प्रिंट्स को ‘सती और सुंदरी’ कहा जाता है. ये चित्र द बाबू एंड द बाज़ार नाम की प्रदर्शनी का हिस्सा हैं.

डीएजी ब्रोशर बताती है कि, “प्रारंभिक बंगाल कला में सुंदरी चित्रों ने सभ्य लोगों के घरों की शोभा बढ़ाने का काम किया लेकिन इसका एक काला इतिहास भी था.”

सफेद रंग की साड़ी पहने इन रत्नजड़ित महिलाओं को वायलिन या तबला बजाते हुए, पान बनाते हुए, और अपने बालों में गुलाब से लगाते हुए —’पान सुंदरी’ एवं ‘गुलाब सुंदरी’ — हुए चित्रित किया गया था. वे दाहिने पैर में घुंघरू (पाजेब) पहनती थीं, बिल्कुल मुगल तवायफों की तरह. वे विधवाएं और वेश्याएं थीं. और उनकी इस दोहरी पहचान में महान सांस्कृतिक विघटन की कहानी अंतर्निहित थी.

मैत्रा कहती हैं, इस सुंदरी आइकनोग्राफी ने उस युग के लोकप्रिय इरोटिका की एक जटिल दुनिया बनाई और इसे कोलकाता के धनी व्यक्तियों द्वारा खरीदा जाना था इन ऑयल पेंटिंग्स और प्रिंट्स को मंदिरों या घरों में नहीं लगाया जाता था, लेकिन पुरुषों के आराम घरों में इसके होने की अधिक संभावना होती थी. उनमें से कई में महिलाओं के निजी पलों को चित्रित किया गया है.

Photo by special arrangement
फोटोः स्पेशल अरेंजमेंट

यह ऐसा है जैसे “हम एक महिला के घर के गर्भगृह या बिल्कुल आंतरिक हिस्से में झांक रहे हैं. ये दीवारों पर टांगी जाने वाले चित्र हैं, और इसमें जिस तरह से महिलाओ को अर्द्ध पारदर्शी साड़ी पहने हुए दिखाया गया है.


यह भी पढ़ेंः मोदी का फिल्मों के बचाव में उतरना विश्वगुरु के लक्ष्य के लिए अहम, अब कंटेंट ही नया अंतर्राष्ट्रीयवाद है


वेश्यालय और बृंदावन के बीच

बंगाल में 19वीं शताब्दी की उथल-पुथल समाज में एक ऐसे परिवर्तन का एक प्रमुख युग था जो अभी भी काफी हद तक महिलाओं को स्वायत्त जीवन की अनुमति देने के लिए तैयार नहीं था या कहें अनिच्छुक था. राजा राम मोहन राय और ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों ने कई प्रगितशील कार्य किए –  विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं के लिए विरासत के अधिकारों को बढ़ावा देने से लेकर सती प्रथा, बहु-विवाह और बाल-विवाह को समाप्त करने तक.

1993 में छपा सुमंत बनर्जी का एक इकोनॉमिक और पोलिटिकल वीकली लेख जिसका शीर्षक है 19th सेंचुरी बंगाल में ‘बेश्या’ और ‘बाबू’ कहता है कि, ‘पारंपरिक, प्रभावशाली जाति के परिवार अभी भी इन महिलाओं को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. अकाल और गरीबी से त्रस्त महिलाओं, अपहरण की गई और बलात्कार पीड़िता महिलाओं, और, सबसे महत्वपूर्ण, कुलीन ब्राह्मण परिवारों की विधवाओं को, जिन्हें भार मानकर अस्वीकार कर दिया गया था, ’19वीं सदी के बंगाल की बाजार अर्थव्यवस्था की औपनिवेशिक दुनिया में वेश्याओं की पहली पीढ़ी बनीं’,

1892 में भारत सरकार के आधिकारिक सचिव एचएल डैम्पियर को एक पत्र में ब्रिटिश सिविल सेवक अलेक्जेंडर मैकेंज़ी ने लिखा था,”बंगाल में, वेश्याओं में मुख्य रूप से हिंदू विधवाएं थीं,”

1850 के दशक में एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया था कि कोलकाता में कुल 12,000 सेक्स वर्कर्स थीं, जिनमें से 10,000 हिंदू विधवाएं और कुलीन ब्राह्मणों की बेटियां थीं. मुसलमानों में विधवा पुनर्विवाह की अनुमति थी, जिसका हिंदुओं ने लंबे समय तक विरोध किया. धर्म सभा ने विधवा पुनर्विवाह को सक्षम करने के लिए विद्यासागर के प्रयासों का विरोध करते हुए सैकड़ों हस्ताक्षरों के साथ एक याचिका लिखी. अंततः 1856 में इसे वैध कर दिया गया.

लेकिन नए कानूनी सुधारों को अपनाने में समाज को काफी अधिक समय लगा.

ताप्ती गुहा ठाकुरता ने 1991 के लेख Women as ‘Calendar Art’ Icons: Emergence of Pictorial Stereotype in Colonial India में लिखा था, ‘परंपरा में यह लचीलापन और आधुनिकता से रू-ब-रू होने की वजह से उस युग के “सभी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में एक तेज बढ़त” मिली.

बहुतों के लिए एक रास्ता वेश्यालय को जाता था. दूसरा बृंदावन चला गया.

कई वॉटर कलर पेंटिंग्स में काले किनारों वाली सफेद साड़ियों पहने महिलाएं बाल कृष्ण के साथ खेलती और प्यार करती हुई दिखाई देती हैं. आज तक, वृंदावन को उन विधवा महिलाओं के लिए एक धार्मिक शरणस्थली माना जाता है, जो अपनी बाकी की जिंदगी कृष्ण भक्ति में व्यतीत करती हैं.

A courtesan playing the tabla | Special arrangement
तबला बजाते हुए एक वेश्या । स्पेशल अरेंजमेंट

बीआर अंबेडकर ने 1916 में अपने कोलंबिया विश्वविद्यालय की थीसिस में सती, जबरन विधवापन, जाति की सजातीयता, और जिसे उन्होंने हिंदू समाज में ‘अधिशेष (Surplus) महिलाओं’ की समस्या कहा था, के बारे में लिखा था. “सती, जबरन वैधव्य, और बालिका विवाह ऐसी प्रथाएं हैं जो मुख्य रूप से एक जाति में अधिशेष पुरुष और अधिशेष महिला की समस्या को हल करने और अपनी सगोत्रता को बनाए रखने के लिए थीं… विधवा को जलाने से उन तीनों बुराइयों का सफाया हो जाता है. मरकर चली जाने के कारण, वह जाति के अंदर या बाहर पुनर्विवाह की कोई समस्या पैदा नहीं करती है.”

सती प्रतिबंध ने इसे एक बड़ी समस्या बना दिया.

इतिहास की किताबों में नहीं है जिक्र

महिलाओं के लिए सामाजिक परिवर्तन एक झटके में नहीं आ जाता. यह काफी जटिल है और कई चरणों में आता है. और फिर भी, महिलाओं का इतिहास लेखन मुख्य रूप से बड़े सुधारों को लेकर केंद्रित रहा है. परिवर्तन के अनपेक्षित परिणामों की वजह से महिलाओं ने स्वतंत्रता की जो कीमत चुकाई है, उसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहा गया है. सती प्रथा पर लगे रोक के तत्काल बाद महिलाओं का जीवन किस तरह प्रभावित हुआ, इसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं मिलता.

मैत्रा कहते हैं कि इतिहास की किताबों में सुंदरी जैसा चरित्र मौजूद नहीं है.

संयुक्त राज्य अमेरिका में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लगभग पचास लाख महिलाएं रक्षा निर्माण और कारखानों में काम करने लगीं क्योंकि पुरुष युद्ध के मैदान में थे. अमेरिकी ग्राफिक कलाकार जे हॉवर्ड मिलर द्वारा ‘वी कैन डू इट’ और नॉर्मन रॉकवेल द्वारा ‘रोज़ी द रिवेटर’ नाम की प्रतिष्ठित कलाकृतियां 1943 में सामने आईं और महिलाओं के काम के इतिहास में एक मौलिक बदलाव के बारे में बताया.

लेकिन फैक्ट्री के साथ महिलाओं का यह मुक्तिदायक अनुभव बहुत थोड़े समय के लिए था. जब युद्ध समाप्त हुआ, तो पुरुष घर लौट आए और वे इन नौकरियों पर फिर से काबिज हो गए. महिलाओं के लिए अपनी रसोई की चारदीवारी में लौटना आसान नहीं था. संक्रमण काल के उस कठिन समय में महिलाओं द्वारा बहुत सारे लेखन और पत्र – कारखानों और उनसे निकलने के बारे में – राज्य के ऐतिहासिक अभिलेखागार में संरक्षित हैं.

सामाजिक सुधार और उसके प्रति नकारात्मक प्रतिक्रिया को लेकर भारतीय विद्वानों द्वारा बहुत कुछ नहीं कहा गया है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः क्यों केंद्र सरकार को भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को खुद की जेब से पैसे नहीं देने चाहिए


 

share & View comments