scorecardresearch
Thursday, 21 November, 2024
होमफीचरबच्चों के लिए सुरक्षित नहीं हैं फैमिली कोर्ट, उनमें वेटिंग रूम, काउंसलर और खिलौनों की है जरूरत

बच्चों के लिए सुरक्षित नहीं हैं फैमिली कोर्ट, उनमें वेटिंग रूम, काउंसलर और खिलौनों की है जरूरत

बच्चों के लिए सुरक्षित स्थान न होने के बाद भी फैमिली कोर्ट उनके घरों की जगह ले लेती हैं, जो उनके माता-पिता के लिए युद्ध के मैदान जैसा हैं.

Text Size:

नई दिल्ली: छह साल का राहुल जज के मंच के पास बनी लकड़ी की सीढ़ियों से अचानक कूद गया. दूसरी ओर उसकी बहन नेहा, जो पांच साल की है, एक डगमगाती हुई बेंच के ऊपर खड़ी है. चार साल से, जब भी उनकी मां के तलाक का मामला सुनवाई के लिए नोएडा के फैमिली कोर्टरूम में आता है, तो उनके लिए यह जगह खेल का मैदान बन जाता है. लेकिन अदालत में बच्चों के वेटिंग रूम न होने के कारण, वे खिलौनों की जगह बेंचों और सीढ़ियों से ही काम चलाते हैं, जबकि उनके आस-पास उस वक्त दम्पति लड़ते हुए और वकील चारों ओर बहस करते हुए देखे जा सकते हैं. इन सबके बीच उनके साथी पुलिसकर्मी, अभियोगी और न्यायाधीश हैं.

भारत में कुछ फैमिली कोर्ट में किसी मामले की सुनवाई या कस्टडी की लड़ाई के दौरान माता-पिता के साथ बातचीत करने के लिए बच्चों को सुरक्षित स्थान प्रदान किए जाते हैं. और क्योंकि “बच्चे किसी भी पारिवारिक झगड़े में सबसे ज्यादा प्रभावित” होते हैं, इसलिए केरल हाई कोर्ट ने एक टिप्पणी की कि उनके लिए सही वेटिंग रूम अभी भी किए जाने वाले कार्यों की सूची में शामिल हैं.

बच्चे – जिनमें से कुछ राहुल और नेहा से भी छोटे हैं – को अदालत के खाली कमरों और गलियारों में घंटों बिताने के लिए मजबूर किया जाता है. जो उनके घरों की जगह ले लेते है और ये पहले से ही उनके माता-पिता के लिए युद्ध का मैदान बन चुके हैं. केरल हाई कोर्ट ने पिछले साल इस मुद्दे को उठाया था, लेकिन कुछ फैमिली कोर्ट में ऐसे कमरें बनाने के लिए “कोई जगह नहीं” थी. इसकी कुछ मुख्य बाधाओं में से एक पुरानी इमारतों में जगह की कमी है.

इस हफ्ते, सुप्रीम कोर्ट ने एक पिता को अपने बच्चे से हर रविवार को केरल के चावरा गांव की फैमिली कोर्ट की बजाय एक मॉल में मिलने का आदेश दिया. इसमें कहा गया कि अदालत परिसर में बार-बार आना बच्चे के हित में नहीं होगा. “…वह वातावरण जिसके दौरान मुलाक़ात के अधिकारों का प्रयोग किया जाता है, वह भी मायने रखेगा.”

दिल्ली हाई कोर्ट के वकील अजुनी सिंह ने कहा, “ऐसे कमरों की अनुपस्थिति में, किसी बच्चे की गैर-मौखिक रूप से व्यक्त इच्छाओं और कल्याण का आकलन करना और निरीक्षण करना संभव नहीं होगा. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे मामलों में जहां कथित दुर्व्यवहार या घरेलू हिंसा या उत्पीड़न होता है, ये कमरे मुलाक़ात के लिए एकमात्र सुरक्षित स्थान के रूप में कार्य करते हैं.”

फैमिली कोर्ट वयस्कों के दुःख, आंसुओं और यहां तक कि क्रोध को व्यक्त करने की एक जगह हैं. भीड़ भरे गलियारों और भरे हुए कमरों में, बच्चे यह सब देख रहे होते हैं. और इल सब ने ही नई दिल्ली की एक मां ऋचा चड्ढा को एक ऑनलाइन याचिका शुरू करने के लिए मजबूर किया, जिसमें मांग की गई कि नई दिल्ली के तीस हजारी फैमिली कोर्ट में बच्चों के कमरे को बेहतर किया जाए. उन्हें अपनी पांच साल की बेटी को उसके पिता से मिलवाने के लिए अदालत ले जाना पड़ा, जब दंपति अपनी शादी के टूटने को लेकर लड़ रहे थे.

75,000 से अधिक हस्ताक्षरों के साथ, उनकी याचिका इस मुद्दे पर ध्यान आकर्षित कर रही है.

चड्ढा ने कहा, “इसने (अदालत के दौरे ने) उन्हें बर्बाद कर दिया है… लोग अक्सर पूछते हैं, इतना छोटा बच्चा क्या समझेगा? लेकिन मैं बता दू कि उसे सब याद है.”

Credit: Ramandeep Kaur, ThePrint
चित्रण: रमनदीप कौर, दिप्रिंट

यह भी पढ़ें: कोर्ट के आदेश के बावजूद पति नहीं दे रहा गुजारा भत्ता? बकाया के लिए सिविल मुकदमा दायर किया जा सकता है: HC


मिकी माउस और ट्वीटी

नोएडा कोर्ट जहां नेहा और राहुल अक्सर खेलते हुए देखे जा सकते हैं, वह नई दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में बने बच्चों के वेटिंग रूम के बिल्कुल विपरीत है.

फैमिली कोर्ट की पहली मंजिल पर स्थित इस कमरे में चमकदार लाल और नीली दीवारें, आरामदायक सोफे, एक एयर कंडीशनर और यहां तक कि एक टीवी भी है. दीवारों में से एक पर समुद्र तट पर अपने माता-पिता का हाथ पकड़े हुए एक बच्चे की पेंटिंग है जो सीधे सूर्योदय या सूर्यास्त देख रहा है, पेंटिंग के दोनों तरफ ताड़ के पेड़ हैं. इसके साथ ही एक रेत का महल और आकाश में बड़े अक्षरों में लिखा ‘प्यार’ शब्द पेंटिंग को पूरा करता है.

कमरे के ठीक बीच में एक मेज है जिसमें नीली, लाल, हरी और गुलाबी कुर्सियां और मिकी माउस और ट्वीटी के खिलौने हैं.

रितिम वोहरा आहूजा ने कहा, वेटिंग रूम बच्चे और गैर-अभिभावक माता-पिता के बीच सार्थक बातचीत को सुविधाजनक बनाने में मदद करते हैं, जो बच्चे के हित में ही होता है.

फैमिली कोर्ट परिसरों में बच्चों के वेटिंग रूम कई उद्देश्यों को पूरा करते हैं. वे उन बच्चों के लिए प्रतीक्षा स्थान के रूप में कार्य करते हैं जो अपने माता-पिता में से किसी एक के साथ अदालत में आते हैं और जो आमतौर पर दूसरे के साथ कानूनी लड़ाई में लगे होते हैं. वे उन माता-पिता के साथ बातचीत करने के लिए सुरक्षित स्थान के रूप में भी काम करते हैं जिनके पास बच्चे की अंतरिम हिरासत नहीं है.

करंजावाला में एक सहयोगी, रितिम वोहरा आहूजा, जिनका अक्सर नई दिल्ली की फैमिली कोर्ट में आना-जाना होता रहता है, ने कहा, “यह बच्चे और गैर-अभिभावक माता-पिता के बीच एक सार्थक बातचीत को सुविधाजनक बनाने में मदद करता है, जो बच्चे के सर्वोत्तम हित में है और बच्चों की हिरासत को नियंत्रित करने वाले कानूनों के इरादे को बरकरार रखेगा.”

माता-पिता में से किसी एक को चुन्ना बच्चों के लिए तैयार सहायता और बाल परामर्शदाताओं की उपलब्धता भी सभी जिलों में एक समान नहीं है.

लेकिन वकील, न्यायाधीश और अभिभावक तेजी से मांग कर रहे हैं कि इस बुनियादी ढांचे को प्राथमिकता दी जाए. इस तरह के समर्पित स्थान बच्चों के लिए आने वाले माता-पिता के साथ जुड़ने के लिए अनुकूल वातावरण बनाते हैं. सिंह ने यह भी कहा कि वे “अदालत (अपने परामर्शदाता के माध्यम से) मुलाक़ात के लिए एकमात्र सुरक्षित, अनुकूल और तटस्थ स्थल” के रूप में काम करते हैं.

Credit: Ramandeep Kaur, ThePrint
चित्रण: रमनदीप कौर, दिप्रिंट

छोटे और बंद कमरें

जब चड्ढा अपनी बेटी की कस्टडी के लिए लड़ रही थी तो उन्हें एहसास हुआ कि बच्चों के लिए सुरक्षित स्थान जरूरी है. उन्होंने अपने पति के साथ अदालत द्वारा आदेशित बैठकों के लिए बच्चों के कमरे में ले जाना पड़ा. और कमरे के नाम पर जो उन्हें मिला वह एक था- एक छोटा, उत्साहहीन कमरा. उन्होंने अपनी याचिका में लिखा, “यह छोटा और बंद कमरा बच्चों और माता-पिता को वह माहौल नहीं देता है, जहां वह एक-दूसरे के साथ अच्छा समय बिता सके और कुछ बाते कर सकें.”

वहां लगभग एक दर्जन बच्चे अपने माता-पिता और दादा-दादी के साथ होते है जहां अक्सर उनके सामने एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे होते है.

चड्ढा की शादी नवंबर 2010 में हुई और 2012 में उनकी बेटी हुई. दंपति के बीच जल्द ही चीजें खराब होने लगीं और वे 2015 में अलग रहने लगे. उसी साल उनके बीच मुकदमेबाजी शुरू हो गई, जिसमें आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गए.

अपने जीवन के उस “दर्दनाक पल” को याद करते हुए, वह न्यायिक प्रणाली के साथ अपने संघर्ष को “कड़वा अनुभव” कहती हैं. चड्ढा, जो अब न्गुवु चेंज नेता हैं और न्गुवु कलेक्टिव द्वारा समर्थित हैं, जहां वह 300 से अधिक महिला परिवर्तन नेताओं वाले समुदाय का हिस्सा है जो लैंगिक न्याय के विभिन्न मुद्दों पर अभियान चलाती हैं, ने कहा, “वकील आपकी बात नहीं सुनना चाहते हैं, वे सिर्फ चाहते हैं कि पक्ष मुकदमेबाजी करते रहें.”

2019 में दायर अपनी Change.org याचिका में, उन्होंने वेटिंग रूम को दम घुटने वाला बताया है. चड्ढा ने अपने पति के साथ विवादों को निपटाने का फैसला किया और मार्च 2020 में तलाक ले लिया, लेकिन उन्होंने अपनी ऑनलाइन याचिका के बारे में जागरूकता फैलाना जारी रखा, जिसमें वर्तमान में 75,148 हस्ताक्षर हैं, जो 1.5 लाख हस्ताक्षर के अपने लक्ष्य से केवल आधा है.

2021 में, उन्होंने तुलनात्मक विश्लेषण करने के लिए नई दिल्ली की सभी फैमिली कोर्ट में बच्चों के कमरे का भी दौरा किया.

“उन्होंने मुझे बहुत दौड़ाया,” उन्होंने कहा, बच्चों के वेटिंग रूम की कमी के बारे में समझाने के लिए उन्हें अक्सर “कोई जगह नहीं” का तर्क दिया जाता था. हालांकि, उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि इस साल, तीस हजारी में बच्चों के कमरे को वॉलपेपर, पानी की मशीन, नई किताबें और खिलौनों के साथ अपग्रेड किया गया है.

उत्तर प्रदेश में एक फैमिली कोर्ट के न्यायाधीश ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ऐसी जगहों की कमी के कारण बच्चों को कई चीज़ों का सामना करना पड़ता है. उन्होंने कहा कि जब वह जोड़ों को अकेले में बात करने के लिए अपने कक्ष में बुलाती हैं, तो बच्चे अक्सर उनके साथ होते हैं- क्योंकि वहां कोई वेटिंग रूम नहीं है.

और बच्चे अपने माता-पिता को एक-दूसरे पर आरोप लगाते हुए देखते हैं. न्यायाधीश ने कहा, यह बच्चे के दिमाग पर लंबे समय तक प्रभाव छोड़ता है. मुलाक़ात के लिए, अदालत परिसर के भीतर शांत स्थानों की कमी के कारण, वह शॉपिंग मॉल और पार्क जैसे सार्वजनिक स्थानों पर मिलने का आदेश देती है.

लेकिन इसमें भी कई जटिलताएं है. एक तो, अदालत अब अनुपालन सुनिश्चित नहीं कर सकती.

न्यायाधीश ने कहा, इन सब से बच्चों पर बहुत बुरा असर पड़ता है.

न्यायाधीश ने कहा, “ज्यादातर जब हम सार्वजनिक स्थानों पर मुलाक़ात का आदेश देते हैं, तो आरोप लगते हैं कि माता-पिता बच्चे को नहीं लाए. उन चीजों से बचा जा सकता है [वेटिंग रूम के साथ].”

यदि माता-पिता को गोपनीयता मिलेगी, तो बच्चे भी अदालत के चक्कर लगाने से बच जाएंगे.

न्यायाधीश ने कहा, “क्योंकि आखिरकार, इन सबके कारण बच्चे ही प्रभावित हो रहे हैं.”

बच्चों के दिमाग में जहर घोलना

पिछले जून में, केरल स्थित वकील आर लीला, जो नियमित रूप से फैमिली कोर्ट में उपस्थित होते हैं, ने इस मुद्दे को केरल हाई कोर्ट के ध्यान में लाया, और राज्य में फैमिली कोर्ट की “दयनीय स्थिति” पर प्रकाश डाला.

उन्होंने कई मुद्दों पर प्रकाश डाला, जिनमें वेटिंग रूम की पूरी तरह से कमी, वेटिंग रूम जिनमें वेंटिलेशन की कमी या यहां तक कि माता-पिता के लिए बच्चों के साथ बातचीत करने के लिए उचित जगह की कमी शामिल है.

एक संक्षिप्त लेकिन तीखे आदेश में, न्यायमूर्ति ए मुहम्मद मुस्ताक ने बच्चों के लिए वेटिंग रूम की कमी की बात कही.

अदालत ने कहा कि केरल में अधिकांश फैमिली कोर्ट पर्याप्त बुनियादी ढांचे और सुविधाओं के बिना पट्टे के परिसर में चलती हैं.

न्यायाधीश ने कहा, “कुछ फैमिली कोर्ट में, बच्चे और पक्षकार पूरे दिन खचाखच भरे गलियारों और यहां तक कि सड़कों पर भी खड़े दिखाई देते हैं. भीड़भाड़ वाली अदालतें और खचाखच भरे परिसर वास्तव में बच्चों पर असर डालते है, जो देश में न्याय वितरण प्रणाली के बारे में नकारात्मक धारणा विकसित करते हैं.”

अदालत ने कहा कि फैमिली कोर्ट के विपरीत, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अदालतों में बच्चों के लिए समर्पित स्थान हैं. इसके बाद न्यायाधीश ने रजिस्ट्रार (जिला न्यायपालिका) से पोक्सो अदालतों के समान बच्चों के अनुकूल माहौल के साथ सभी फैमिली कोर्ट में एक अलग कमरा समर्पित करने की संभावना तलाशने के बारे में एक रिपोर्ट की मांग की.

आर लीला ने कहा कि बच्चे खुद से कभी भी लड़ने वाले माता-पिता के घर पैदा होने का विकल्प नहीं चुनते है, लेकिन फिर भी उन्हें अदालतों में घसीटा जाता है.

लीला ने देश भर की फैमिली कोर्ट में बड़ी संख्या में लंबित मामलों के मुद्दे पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा, “यह (विवाद) मूल रूप से एक परिवार या पति-पत्नी के बीच के रिश्ते के बीच है, बच्चे खुद से कभी भी लड़ने वाले माता-पिता के घर पैदा होने का विकल्प नहीं चुनते है, लेकिन फिर भी उन्हें अदालतों में घसीटा जा रहा है.”

उन्होंने बताया कि अंतरराष्ट्रीय कानून के साथ-साथ भारत में जुवेनाइल जस्टिस लाॅ के तहत यह स्वीकार किया गया है कि बच्चों को अदालतों या वर्दीधारी पुलिस अधिकारियों के सामने नहीं लाया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, “लेकिन बच्चों को उनकी गैर-रुचि के बावजूद अदालत में आना पड़ता है, वकीलों, न्यायाधीशों से मिलना पड़ता है और अपनी राय व्यक्त करनी पड़ती है जो अक्सर उनके लड़ने वाले माता-पिता द्वारा उनके दिमाग में डाली जाती है जिनके पास उनकी हिरासत होती है.”

POCSO अधिनियम 2012 यह सुनिश्चित करने के लिए कई अपवाद बनाता है कि बच्चों को आपराधिक न्याय प्रणाली से बचाया जाए. उदाहरण के लिए, कानून कहता है कि नाबालिग पीड़ितों के बयान उनके आवास पर दर्ज किए जाने चाहिए. वहीं, बच्चे का बयान दर्ज करते समय पुलिस अधिकारी वर्दी में नहीं होंगे.

जगह की कमी

केरल हाई कोर्ट के जून 2022 के आदेश के बाद रजिस्ट्रार जनरल ने पिछले साल 21 जुलाई को कोर्ट में एक रिपोर्ट सौंपी थी. अदालत को सूचित किया गया कि सात जिलों में फैमिली कोर्ट के पास माता-पिता को उनकी हिरासत या मुलाक़ात के अधिकारों का उपयोग करने की अनुमति देने के लिए एक कमरा आसानी से उपलब्ध है. यह भी बताया गया कि पांच अन्य जिलों में नये भवन बनने के बाद अलग से कमरा उपलब्ध कराया जा सकता है.

हालांकि, उच्च न्यायालय को कुछ अदालतों में ऐसे कमरे के लिए बुनियादी ढांचे की कमी की बार-बार बताई जाने वाली बाधा का सामना करना पड़ा. बताया गया कि अटिंगल, नेदुमंगद, तिरुवल्ला, थोडुपुझा, एर्नाकुलम, ओट्टापलम और थालास्सेरी की फैमिली कोर्ट में बच्चों के लिए अलग कमरे की जगह नहीं थी. इसलिए, अदालत ने इन अदालतों में एक स्वतंत्र कमरा उपलब्ध कराने के प्रस्ताव को फिलहाल के लिए टाल दिया.

लीला ने दिप्रिंट को बताया कि बाद में एर्नाकुलम में बच्चों के लिए एक जगह उपलब्ध कराई गई, जिसकी दीवारों पर टॉम एंड जेरी और अन्य कार्टून बनाए गए थे. हालांकि, उन्होंने कहा कि यह कमरा “पर्याप्त रूप से हवादार नहीं है और इसमें बाथरूम भी नहीं है.” इसके अलावा, उन्होंने कहा कि फैमिली कोर्ट में वकील और न्यायाधीश अधिक सुविधाएं लाने के लिए गंभीरता से प्रयास कर रहे हैं.

उन्होंने केरल की कई अदालतों में अपर्याप्तताओं पर भी प्रकाश डाला. उदाहरण के लिए, अडूर में, उन्होंने कहा कि एक सुनसान इलाके में एक वृद्धाश्रम को फैमिली कोर्ट में बदल दिया गया है. इस अदालत की दूसरी मंजिल खाली रहती है, और इसलिए “अगर वहां कुछ भी होता है, तो कोई भी नुकसान की भरपाई नहीं कर पाएगा”. उत्तरी परवूर फैमिली कोर्ट में, उन्होंने कहा कि बच्चों का कमरा “दयनीय” है – 100 वर्ग फुट से छोटा, जिसमें सभी बच्चे एक बिस्तर पर एक साथ बैठते हैं. लीला ने कहा कि कमरे में माता-पिता के बैठने के लिए कोई जगह नहीं है और कमरा कूड़े से भरा हुआ है.

उन्होंने कहा, “प्रयास किए जा रहे हैं. जब तक बार और बेंच से सहयोग नहीं मिलता, बच्चों के अनुकूल कमरे नहीं बनाए जा सकते.”

इस साल मार्च में, केरल हाई कोर्ट ने कहा कि कोझिकोड के बार एसोसिएशन की पहल पर, कोझिकोड में फैमिली कोर्ट ने बच्चों के लिए एक कमरा बनाया था. इसलिए, इसने बच्चों के अनुकूल कमरे स्थापित करने में संबंधित बार एसोसिएशनों के साथ समन्वय करने के लिए बार काउंसिल ऑफ केरल को प्रतिवादी के रूप में शामिल किया.


यह भी पढ़ें: कैसे 14 महीनों में 56 मौत की सज़ाओं में सुप्रीम कोर्ट के नए दिशानिर्देशों की अनदेखी की गई


प्यार और स्नेह के लिए

जब घर युद्धक्षेत्र बन जाता है, तो बच्चे अक्सर इसमें हताहत हो जाते हैं. लीला ने कहा कि बच्चों का कल्याण अदालतों के लिए सर्वोपरि है.

आर लीला ने कहा, माता-पिता दोनों बच्चे के लिए लड़ रहे हैं, उनमें से कोई भी वास्तव में बच्चे के बारे में नहीं सोच रहा है.

उन्होंने कहा, “मैंने देखा है कि जब माता-पिता दोनों बच्चे के लिए लड़ रहे होते हैं, तो उनमें से कोई भी वास्तव में बच्चे के बारे में नहीं सोच रहा होता है…वे वास्तव में बच्चों को संपत्ति के रूप में उपयोग करते हैं, जिसके माध्यम से वे कुछ लाभ प्राप्त कर सकते हैं.”

बच्चों के लिए सलाहकारों का होना ज़रूरी है. और यद्यपि प्रत्येक फैमिली कोर्ट में परामर्शदाता होते हैं, लीला जोर देकर कहती है कि यह पर्याप्त नहीं है.

लीला ने कहा, “बाल परामर्शदाता, जो बच्चे की भावनाओं को समझ सकते हैं, माता-पिता को यह समझ दिलाने में सक्षम हैं कि उन्हें बच्चों के साथ संपत्ति की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए और फैमिली कोर्ट के मामलों में इसी बात की कमी है.”

आहूजा ने कहा कि अपने अनुभव में, उन्होंने फैमिली कोर्ट को बच्चों की मदद के लिए किसी को भी परामर्शदाताओं की सहायता लेते नहीं देखा है. हालांकि, उन्होंने देखा है कि हाई कोर्ट ऐसे मामलों को बाल मनोवैज्ञानिकों के पास भेजते हैं, और उम्मीद करते हैं कि यह प्रथा फैमिली कोर्ट में भी लागू होगी.

उन्होंने कहा, “जब कस्टडी का सवाल सीधे अदालत के सामने आता है, तो बच्चों को अक्सर गैर-कस्टडी वाले माता-पिता के बारे में नकारात्मक सोचने के लिए सिखाया जाता है. परिणामस्वरूप, बच्चा एक से अलग हो जाता है. परामर्शदाता इस अंतर को पाटने और गैर-अभिभावक माता-पिता और बच्चे के बीच एक सार्थक समीकरण सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.”

उन्होंने कहा, इससे उन निर्णयों का कार्यान्वयन सुनिश्चित होगा जिनमें बार-बार दोहराया गया है कि “बच्चे के कल्याण के लिए माता-पिता दोनों का प्यार और स्नेह आवश्यक है”.

यह निर्णय करना न्यायाधीश के विवेक पर छोड़ दिया गया है कि किसी बच्चे को परामर्श की आवश्यकता है या नहीं, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह आदर्श होना चाहिए.

अजुनी सिंह ने कहा, बच्चों को जजों को एक विशिष्ट तरीकों से जवाब देना सिखाया जाता है.

सिंह ने कहा कि उन्होंने अक्सर ऐसे मामलों में अदालत द्वारा परामर्शदाताओं की नियुक्ति देखी है. उनके अनुसार, हिरासत की लड़ाई में, न्यायाधीश अक्सर बच्चों की इच्छाओं का पता लगाने के लिए उनसे बातचीत करते हैं. हालांकि, इससे कई बाधाएं भी उत्पन्न होती हैं. उदाहरण के लिए, बच्चे कभी-कभी “आमने-सामने की बातचीत” में न्यायाधीशों के सामने खुलकर बात नहीं करते हैं.

उन्होंने बच्चों को “न्यायाधीशों को विशिष्ट तरीकों से जवाब देने के लिए प्रशिक्षित” करने की भी बात कही.

उन्होंने कहा, “अदालत परामर्शदाताओं ने बच्चों के साथ बार-बार और नियमित बातचीत की है, जिसके माध्यम से वे एक उपयुक्त मनोवैज्ञानिक राय बना सकते हैं और साथ ही ट्यूशन के बिना बच्चे की सच्ची इच्छाओं का आकलन कर सकते हैं.”

अनुकूल वातावरण के साथ, बच्चों के लिए अदालत परिसर में आरामदायक रहना संभव है.

उन्होंने कहा, “कोर्ट काउंसलर या बाल मनोवैज्ञानिक के तत्वावधान में, ये वेटिंग रूम बाल सहायता के लिए छद्म न्यायिक केंद्रों के रूप में सेवा करने में महत्वपूर्ण हैं.”

केरल हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट में परामर्शदाताओं को “बच्चों की हिरासत/मुलाकात/संरक्षकता से संबंधित मामलों में बच्चों को प्रभावी परामर्श देने” का भी निर्देश दिया. ऐसा तब हुआ जब अदालत ने कहा कि बच्चों को “कोई प्रभावी परामर्श नहीं” दिया जा रहा है.

अदालत ने जोर देकर कहा, “हमारा विचार है कि फैमिली कोर्ट के परामर्शदाताओं को बच्चों को प्रभावी परामर्श देने के लिए निर्देशित किया जाना चाहिए, ताकि बच्चों के परस्पर विरोधी माता-पिता/अभिभावकों के बीच मुकदमेबाजी के बारे में समझाया जा सके.”

दो मांओं की कहानी

सुनीता ने कहा, मैं अपने बच्चों को कभी अदालत नहीं लेकर जाती.

नोएडा में एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका, सुनीता (32)* को अदालत में हर महीने अपने अलग हो चुके पति से भरण-पोषण राशि इकट्ठा करना सही लगता है.

“लेकिन मैं अपने बच्चों को कभी अदालत में नहीं लायी”, उन्होंने कहा, उनकी नज़रें अदालत के गलियारों में आते-जाते पुरुषों के झुंड में अपने पति को लगातार तलाशती रहती थीं. वह न्यायिक परिसर में उनसे मिलना अधिक सुरक्षित महसूस करती हैं.

सुनीता अपने बच्चों को अपनी मां के घर पर छोड़ देती है, जहां वह अपनी शादी में शारीरिक हिंसा की कई घटनाओं के बाद रहने आई थी.

उन्होंने अदालत कक्ष के बाहर इंतजार करते हुए कहा, “वे (न्यायाधीश) अक्सर माता-पिता दोनों को बुलाते हैं… इसलिए बच्चों पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है.”

इस बीच, उसी कोर्ट रूम के अंदर, राहुल और नेहा खेलना जारी रखते हैं. उनकी मां, सावित्री* की शादी तब हुई जब वह “17 या 18 साल की” थीं. जब वह अदालत जाती है तो उनके पास बच्चों को किसी के पास देखभाल के लिए छोड़ने के लिए परिवार का समर्थन नहीं होता है. हिंसा और पति के नशा की समस्या से ग्रस्त शादी के दो साल बाद उन्होंने तलाक की मांग की.

अपनी मां के साथ इंतजार करते हुए, राहुल एक सिक्का घुमाता है, उसे एक घूमते हुए खिलौने में बदल देता है, और फिर अपने नकली फुटबॉल मैदान में काल्पनिक गोलकीपर के ठीक सामने दीवार की ओर अपनी नीली चप्पल मारता है. अपने आस-पास के लोगों की आलोचना भरी निगाहों को देखकर सावित्री ने राहुल को डांटने के लिए अपनी घूरती हुई आंखों को इस्तेमाल किया और कहा, “आप ये क्या कर रहे हैं, क्या आप जानते नहीं है कि हम कहा हैं?”

“अदालत में,” उसने शरमाते हुए उत्तर दिया.

*रिपोर्ट में नाम या तो प्रतिभागियों के अनुरोध पर या पारिवारिक विवादों से जुड़े लोगों की पहचान को गोपनीय रखने के लिए बदल दिए गए हैं.

(संपादन: अलमिना खातून)
(इस ख़बर को अग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: स्कूल दंगा मामला: मद्रास HC ने सशर्त जमानत पर कहा — ‘कक्षाएं करें साफ, गांधी और कलाम पर बनाएं नोट्स’


 

share & View comments