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Thursday, 25 April, 2024
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दिल्ली का ‘मजनू का टीला’ अब एक भीड़भाड़ वाला मॉल बन गया है, लेकिन अपनी ‘तिब्बती आत्मा’ को खो रहा है

एएमए कैफे मजनू का टीला के व्यवसायीकरण का प्रतीक बन गया है. यह छात्रों और विदेशी पर्यटकों को खुब आकर्षित कर रहा है.

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नई दिल्ली के मजनू का टीला को एक नया रूप मिला है या यह कहा जा सकता है कि यह अपने वास्तविक अस्तित्व को खो रहा है. हालांकि यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप इसे कैसे परिभाषित करते हैं. दशकों तक, यह जगह हिप्पी और पर्यटकों के लिए हैंगआउट करने की जगह थी, जिसमें पॉप बौद्ध ग्रंज के गुच्छे परोसे जाते थे. लेकिय आज यह पूरी तरह से सभ्य स्थान बन गया है. निर्माण स्टेरॉयड पर है.

वीकेंड के दिन मजनू का टीला लगभग एक भीड़ भरे मॉल में चलने जैसा लगता है.

अंतरराष्ट्रीय और रणनीतिक अध्ययन विशेषज्ञ उलूपी बोरा कहती हैं, ‘एक दशक पहले, एमकेटी (मजनू का टीला) कहीं अधिक शांतिपूर्ण जगह थी. यह एक छिपे हुए खजाने की तरह महसूस होता था जिसके बारे में बहुत लोग नहीं जानते थे. लेकिन अब हम देखते हैं कि यह स्थान केवल तिब्बतियों या पूर्वोत्तर के लोगों से ही नहीं बल्कि सभी प्रकार के लोगों से भरा हुआ है. पहले यह काफी सिमटा हुआ था लेकिन अब यह पर्यटन का केंद्र बन गया है.’ उलूपी बोरा 2000 के दशक के अंत में अपने कॉलेज के दिनों में इस जगह से परिचित हुईं थी.

मजनू का टीला, बोलचाल की भाषा में एमकेटी या एमटी के रूप में जाना जाता है, जो उत्तरी दिल्ली में एक छोटी सी जगह है. इस छोटी सी जगह, जिसे 1960 के दशक की शुरुआत में अरुणाचल प्रदेश के रास्ते तिब्बत से आने वाले तिब्बती शरणार्थियों को आवंटित किया गया था. आज, यह ऊंची इमारतों से भरा हुआ है, जो एक दूसरे के बगल में खड़े हुए हैं. इलाके में कई और नए निर्माण हो रहे हैं जिससे पता चलता है कि कुछ महीनों में और नए रेस्तरां, कैफे, गेस्ट हाउस या नई दुकानें खुलेंगी.

इस इलाके के आस-पास के बाजार इसी तरह की इमारतें, फैंसी दुकाने और अलग तरह के भोजनालय बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. जबकि एमटी अपने पड़ोसियों की तुलना में काफी अधिक विकसित है और अपनी सफलता पर इतराता है. हालांकि एक व्यावसायिक केंद्र में इसका परिवर्तन एक पुरानी कहानी है जो दो दशकों से थोड़ा अधिक समय से चल रही है. लेकिन इन सब के पीछे कई कहानियां है जो मूल निवासियों से हड़पा जा रहा है. हालांकि एमटी तिब्बतियों के लिए था और अब भी है.

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इसकी संकरी गलियों की भूलभुलैया, जिसमें गलियों के दोनों तरफ दुकानें सजी हुई हैं – भारत में रहने वाले तिब्बतियों की कड़ी मेहनत से अर्जित की गई सफलता का प्रमाण है. 4 एकड़ से भी छोटी जगह, जिसमें 365 घर शामिल हैं, एक समुदाय के 60 साल पुराने इतिहास से भरा हुआ है, जिसे यमुना के किनारे खरोंच से शुरू करने के लिए मजबूर किया गया था.

एमटी का अतीत और पूरी यात्रा

एक सामाजिक कार्यकर्ता और रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष कर्मा दोर्जी का कहना है कि 1963 में भारत सरकार द्वारा तिब्बतियों को जमीन दी गई थी. इस आवंटन का मतलब यह भी था कि जहां तक आधिकारिक दस्तावेज का सवाल है, उन्हें सीमांत क्षेत्र में रहना होगा. जून 2006 में, निवासियों को एक अदालती नोटिस प्राप्त हुआ, जिसमें इस बात के संकेत दिए गए थे कि दिल्ली सरकार के सड़क विस्तार और यमुना नदी के सौंदर्यीकरण योजना के तहत बस्ती को ध्वस्त किया जा सकता है.

2012 में अदालत के आदेश को टाल दिया गया और दिवंगत मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने इसे न्यू अरुणा नगर नाम दिया, एक ऐसा नाम जो स्थानीय बोलचाल में कभी नहीं था.

दोरजी कहते हैं, ‘अन्य अनधिकृत कॉलोनियों का मामला अलग है, जहां लोगों ने जमीन पर कब्जा कर रखा है. हमारे मामले में यह है कि हमने कब्जा नहीं किया, हमें सरकार ने यहां बसाया. हमारे पास कोई लिखित दस्तावेज नहीं था इसलिए इसे अनधिकृत कॉलोनी के रूप में गिना जाता था. 2019 में, हम पीएम-उदय योजना के तहत एक अधिकृत कॉलोनी बन गए.’

इलाके के लिए वाटरशेड क्षणों में से एक 1982 के एशियाई खेलों से पहले हुआ, जिसे नई दिल्ली में आयोजित किया गया था. दोरजी, जो लगभग अपने उम्र के 70वें दशक में पहुंच गए हैं, क्षेत्र के मूल निवासियों में से थे और उन्होंने एमटी को अपनी आंखों के सामने विकसित होते देखा है. उन्होंने एक जेजे कॉलोनी से लेकर तीन-चार मंजिला इमारतों का निर्माण तक का सफर देखा है.

वो कहते हैं, ‘उस समय सरकार ने हमें पक्के घर बनाने के लिए कहा था. और 2000 के दशक तक पूरी कॉलोनी बन चुकी थी. एक और महत्वपूर्ण पराव तब हुआ था जब 1997 में था हमारे समुदाय पर जौ, बाजरा या चावल से बने मादक पेय ‘चांग’ के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया था.’

दोरजी कहते हैं, ‘हमने चंग की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया क्योंकि यह एक श्रम-गहन प्रक्रिया थी जो लाभदायक नहीं थी. इसे पीने आने वाले असामाजिक गतिविधियों में लिप्त थे. वे इसे अन्य शराब के साथ मिलाते थे, जिससे यह और अधिक नशे वाला बना जाता है. एक बार जब हमने चांग पर प्रतिबंध लगा दिया, तो यह बाजार और अधिक उन्नत हो गया.’

जबकि एमटी अपने प्रतिबंध से पहले चांग बेचने के लिए जाना जाता था, यह केवल एक चीज नहीं थी जिस पर लोग जीवित रहते थे. तिब्बतियों में उद्यमशीलता की भावना गहरी थी.

आरडब्ल्यूए के अध्यक्ष कहते हैं, ‘1963 से 1997 तक लोग गर्मियों के दौरान चंग, मोमोज, थूपका और चाऊमीन बेचते थे. वे सर्दियों के दौरान स्वेटर का कारोबार भी करते थे.’

कॉलेज के छात्र एमटी में तब से आए हैं जब यहां के निवासी झुग्गियों में रह रहे थे. वो कहते है कि ‘चंडीगढ़ तक से छात्र आते थे.’

वह बताते हैं कि कॉलोनी अब न केवल आत्मनिर्भर है बल्कि भारतीयों को रोजगार भी देती है.

वह आगे कहते हैं, ‘यहां की दुकानों में कार्यरत अधिकांश लोग भारतीय हैं. हमारी कॉलोनी की वजह से ठेले खींचने वालों से लेकर रिक्शा चालकों, ऑटो चालकों और कैब चालकों तक कम से कम 800-900 स्थानीय लोगों को रोजगार मिल रहा है. कई लोग फल और सब्जी बेचने वाले हैं.’

हालांकि 1990 के दशक की शुरुआत में सेंट स्टीफंस कॉलेज के एक पूर्व छात्र ने कहा कि उस समय छात्र शायद ही कभी एमटी जाते थे क्योंकि ‘तब यहां कुछ भी नहीं था, यह सिर्फ एक गंदी कॉलोनी थी.’


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एमटी का पंख- एएमए कैफे

यदि एमटी की व्यावसायिक वृद्धि को एक ठोस कारक के आधार पर तैयार करने की आवश्यकता है, तो एएमए कैफे उद्यमशीलता की सफलता के चमकदार टावर के रूप में खड़ा है. इसने दिसंबर 2013 में 10-12 कर्मचारियों के साथ एक घर की एक मंजिल से अपना परिचालन शुरू किया, जिसमें 20 से अधिक ग्राहकों के बैठने की क्षमता नहीं थी. आज, जब यह एक दशक पूरा करने की दहलीज पर खड़ा है, कैफे का विस्तार चार मंजिल तक हो गया है और इसमें 80 से 90 कर्मचारी हैं.

AMA Cafe interiors | AMA Cafe Instagram
एएमए कैफे के अंदर का दृश्य | फोटो: AMA Cafe Instagram

कैफे के कर्मचारियों में से एक का कहना है, ‘जून 2015 में दूसरी मंजिल खुलने पर कैफे के मेनू में कॉन्टिनेंटल व्यंजन शामिल किए गए. दिसंबर 2016 तक तीसरी मंजिल और चौथी मंजिल खुली.’

जबकि एएमए का विस्तार एमटी के व्यापारिक व्यवसायीकरण का प्रतीक है, कैफे में आने वाले लोगों के बारे में पता करने पर जानकारी मिलती है कि यह छात्रों और विदेशी पर्यटकों का हब बन रहा है.

कैफे में काम करने वाले एक कमर्चारी कहते हैं, ‘हमारा कैफे एक परिवार अनुकूल कैफे है और इन दिनों हम देखते हैं कि अधिकतर यहां स्थानीय लोग आते हैं. शुरू में हमारे कैफे में विदेशी पर्यटकों के साथ-साथ छात्र भी लगभग समान अनुपात में आते थे. लेकिन इन दिनों लंबी वेटिंग होने के कारण शायद छात्रों को आना कम हुआ है और वह दूसरे विकल्प की ओर जा रहे हैं.’

यहां तक कि एएमए कैफे में इतनी भीड़ और मुश्किलें होने के बावजूद यह एमटी आने वाले कई पर्यटकों के लिए पसंदीदा गंतव्य बना हुआ है, मुख्य रूप से जो बौद्ध तीर्थ यात्रा के लिए जा रहे हैं.

दोरजी कहते हैं, ‘एमटी एक ट्रांजिट कैंप की तरह है. अमेरिका, कनाडा, यूरोप, चीन, जापान, कोरिया, वियतनाम और तमाम दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के बौद्ध पर्यटक जो भारत आते हैं, सबसे पहले यहां पहुंचते हैं. वे यहां 2-3 दिनों तक रहते हैं और फिर धर्मशाला में दलाई लामा के मठ जैसी तीर्थयात्रा के लिए निकल जाते हैं.’

समय जितना पुराना बंधन

दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस के अधिकांश छात्रों के लिए, एमटी की यात्रा एक संस्कार की तरह है.

मेघाली दास, एक 32 वर्षीय पीएचडी. दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा, 2010 में श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में अपने स्नातक के दिनों के बाद से लगातार इस स्थान पर आ रही है. वह इसे अपना ‘कम्फर्ट जोन’ कहते हुए बताती है कि कैसे नॉर्थ कैंपस से एमटी की निकटता ने इसे एक जरूरी विकल्प बना दिया.

वो कहती हैं, ‘खाना बजट के हिसाब से रहता था. पहले के दिनों में भीड़ काफी कम थी. खाने की जगहों में ज्यादातर तिब्बती, छात्र, पूर्वोत्तर के लोग या विदेशी लोग रहते थे.’ वह कहती हैं इन दिनों यहां हर तरह के लोग आते हैं.

हालांकि दास को इस बात का अफसोस है कि एमकेटी, कॉफी हाउस और नेपाली रेस्तरां अमा ठकली में से उनकी कुछ पसंदीदा जगह लॉकडाउन के कारण बंद हो गए. लेकिन वह इस बात से भी खुश हैं कि बुसान जो एक कोरियाई रेस्तरां है और एएमए कैफे जैसे पुराने कैफे अभी भी बचे हुए हैं. साथ ही मजनू का टीला के किसी कोने में एक कैफे या एक नया रेस्तरां खोजने की कभी न खत्म होने वाली संभावना हमेशा बनी रहती है.

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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