अरुमुगमंगलम, तूतीकोरिन: तमिलसेल्वी बिना किसी भाव के शांत बैठी थीं, जब तमिलनाडु के तूतीकोरिन जिले के अरुमुगमंगलम स्थित उनके घर पर अलग-अलग पार्टियों के नेता उनसे मिलने आए. उन्होंने 27 जुलाई से कुछ नहीं खाया था — उसी दिन उनके सबसे बड़े बेटे, 27-वर्षीय कविन सेल्वगणेश की तिरुनेलवेली में बेरहमी से हत्या कर दी गई थी, जो वहां से करीब 40 किलोमीटर दूर है.
तमिलसेल्वी ने दिप्रिंट से शांत स्वर में कहा, “जब सुभाषिनी ने मुझसे कहा कि वह मेरे बेटे से प्यार करती है और उसके परिवार को यह मंजूर नहीं, तभी मुझे समझ आ गया था कि वह (कविन) खतरे में है.”
कविन देवेंद्र कुल वेलालर समुदाय से थे, जो अनुसूचित जाति (एससी) के अंतर्गत आता है और पल्लर के नाम से भी जाना जाता है. हमलावर 23-वर्षीय सुरजित — जो सुभाषिनी का छोटा भाई है, मरावर समुदाय से आता है. यह तमिलनाडु में प्रभावशाली मुक्कुलाथोर जाति समूह का हिस्सा है, जिसे ‘सबसे पिछड़ा वर्ग’ (एमबीसी) माना जाता है और जो खुद को ‘थेवर’ भी कहता है.
कविन के चेहरे पर चोट के कई निशान थे. एक आंख फोड़ दी गई थी और चेहरा इस हद तक बिगाड़ दिया गया था कि पहचानना मुश्किल था. यह एक भयावह जातीय हत्या है — ऐसी हत्याएं बार-बार ‘जाति सम्मान’ के नाम पर की जाती हैं. कविन की मौत की परिस्थितियां और जिस तरह से यह घटना घटी, वह तमिलनाडु में पहले भी कई बार देखे गए एक जाने-पहचाने पैटर्न की तरह है. इस मामले में भी वही पुराना सिलसिला जारी है राजनैतिक इनकार, पुलिस की लापरवाही और समाज का मौन समर्थन.
तमिलनाडु, जो जातीय हिंसा और तथाकथित “ऑनर किलिंग्स” से लंबे समय से जूझ रहा है, वहां एक दलित इंजीनियरिंग ग्रेजुएट की हत्या, जो मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर रहा था और छह अंकों की तनख्वाह कमा रहा था अलग ही मायने रखती है.
वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका जयरानी ने कहा, “कविन ने उस ढांचे को तोड़ा था जो जातिवादी समाज अनुसूचित जातियों के लोगों पर थोपता है. यह इस बात का सबूत है कि जातीय हिंसा का वर्ग से कोई लेना-देना नहीं है…यह सोच का मामला है, जो असमानता को बनाए रखना चाहती है.”


तमिलसेल्वी बताती हैं कि उन्होंने खुद सुभाषिनी से कहा था कि वह कविन से रिश्ता खत्म कर दे क्योंकि उनके माता-पिता इस रिश्ते के खिलाफ थे.
उन्होंने बताया, “वह हमारे थूथुकुड़ी वाले घर भी आई थी. जब 2023 में कविन बीमार पड़ा और चेन्नई में था, तब भी सुभाषिनी उससे मिलने आई थी.”
कविन के दोस्तों का कहना है कि दोनों स्कूल के समय से ही एक-दूसरे के काफी करीब थे.
एक दोस्त ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “वह अपने रिश्ते के बारे में ज़्यादा नहीं बोलता था, लेकिन हमें पता था. बस यह नहीं पता था कि वह किस दर्द से गुज़र रहा है.”
एक और दोस्त ने कहा, “अगर हमारी ग्रुप की आवाज़ें सुने तो उसकी आवाज़ सबसे ऊपर होती थी. वह हमेशा हमें हंसाता था. वही हमारी ग्रुप की जान था.”
यह भी पढ़ें: भारतीय शहर कैसे जलभराव से निपटने के लिए IIT, टेक स्टार्टअप्स और ड्रोन अपना रहे हैं
जिस दिन कविन सेल्वगणेश की हत्या हुई
तमिलसेल्वी ने दिप्रिंट को सुभाषिनी की कॉल डिटेल्स दिखाईं, जिसमें वह 27 जुलाई को अपने क्लिनिक पर मिलने के लिए कह रही थी. उसका कहना था कि कविन के बीमार दादा का इलाज कराना है.
क्लिनिक में सुरजित ने कविन से कहा कि उसके माता-पिता जो दोनों पुलिस अधिकारी हैं उससे बात करना चाहते हैं और उससे साथ चलने को कहा. तमिलसेल्वी को यकीन है कि इस मुलाकात की जानकारी सुरजित को खुद सुभाषिनी ने दी थी. इसके बाद कविन सुरजित के साथ चला गया, जबकि तमिलसेल्वी और उनके भाई वहीं रुककर सुभाषिनी से बात करते रहे.
बातचीत खत्म होने के बाद, तमिलसेल्वी ने बताया कि उन्होंने अपने बेटे को फोन किया, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. उन्होंने यह भी कहा कि सुभाषिनी ने भी कविन को फोन किया, लेकिन वह भी संपर्क नहीं कर पाई.
पुलिस के मुताबिक, सबसे पहले कविन की पहचान सुरजित के पिता, सब-इंस्पेक्टर सरवनन ने की थी. अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि हत्या के बाद सुरजित मौके से भाग गया और कुछ ही गलियों दूर अपने पिता को फोन किया. जब तक सरवनन पहुंचे, पुलिस पहले से मौजूद थी. उन्होंने कविन के शव की पहचान की और फिर अपने बेटे को लेकर थाने पहुंचे, जहां सुरजित ने आत्मसमर्पण कर दिया और कथित हत्या में इस्तेमाल किया गया हथियार भी सौंप दिया.


इस बीच, तमिलसेल्वी ने बताया कि उन्होंने बुरी तरह घबराकर रिश्तेदारों और कविन के दोस्तों को फोन किया, ताकि किसी तरह उसका पता चल सके. करीब एक घंटे बाद एक पुलिस अधिकारी ने उन्हें फोन कर अपराध स्थल पर आने को कहा, जब वह अपने भाई के साथ वहां पहुंचीं, तो उन्होंने देखा कि कविन क्षत-विक्षत हालत में ज़मीन पर पड़ा हुआ था.
उन्होंने कहा, “उस दिन आगे क्या-क्या हुआ, मुझे कुछ साफ याद नहीं.”
हत्या के बाद और अलग-अलग नैरेटिव
हत्या के दो दिन बाद, तमिलसेल्वी ने कहा कि जब तक सुभाषिनी के माता-पिता को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, तब तक वह अपने बेटे का शव स्वीकार नहीं करेंगी. उनका आरोप था कि सुभाषिनी के माता-पिता ने इस हत्या को उकसाने में भूमिका निभाई है.
हत्या के बाद के दिनों में कई तरह की विरोधाभासी कहानियां सामने आईं. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि सुभाषिनी ने अपने रिश्ते से इनकार कर दिया है, वहीं सोशल मीडिया पर उनकी कविन के साथ तस्वीरें वायरल होने लगीं. इसके साथ ही सुरजित की पुरानी तस्वीरें भी सामने आईं, जिसमें वह एक लंबा धारदार हथियार ‘वीचारुवल’ (दरांती जैसे हथियार) के साथ पोज़ दे रहा है.
हत्या के चार दिन बाद और उसके पिता की गिरफ्तारी के एक दिन बाद सुभाषिनी ने मीडिया के एक वीडियो मैसेज जारी किया. इसमें उसने कविन के साथ अपने रिश्ते की पुष्टि की और दोहराया कि उनके माता-पिता का इस हत्या में कोई हाथ नहीं है. उन्होंने बताया कि मई में सुरजित ने कविन से शादी को लेकर बात की थी और जब उसे उनके रिश्ते के बारे में पता चला, तो उसने अपने पिता को बताया. सुभाषिनी ने यह भी कहा कि जब उनके पिता ने उनसे रिश्ते को लेकर पूछा, तो उन्होंने इनकार कर दिया था. वीडियो में यह भी कहा गया कि कविन ने शादी के फैसले के लिए छह महीने का समय मांगा था.
इस वीडियो को स्थानीय मीडिया ने टुकड़ों में दिखाया, जिससे मामला और भी संवेदनशील और जटिल हो गया.
इसी दौरान जब विरोध-प्रदर्शन शुरू हुए, तो कई राजनीतिक नेता विधायक और सांसद भी तमिलसेल्वी के घर पहुंचे और उन्हें अंतिम संस्कार के लिए मनाया. अंततः 30 जुलाई को परिवार अंतिम संस्कार के लिए तैयार हुआ.

1 अगस्त की सुबह, कविन का शव उनके ननिहाल, अरुमुगमंगलम लाया गया. अब तक शांत बनी हुई तमिलसेल्वी, अपने बेटे का शव देखकर फूट-फूटकर रो पड़ीं.
कविन का चेहरा इतनी बुरी तरह क्षत-विक्षत था कि उनका आधा चेहरा कपड़े से ढका हुआ था. तमिलसेल्वी ने वह कपड़ा हटाया, जिससे उनके बेटे के घाव पूरी तरह नज़र आए उसमें एक आंख गायब थी और चेहरा काटा गया था, जिसे सिलकर जोड़ा गया था.
इसी बीच, जैसे-जैसे हत्या की खबर फैली, कई झूठी और बिना पुष्टि की बातें फैलने लगीं. स्थानीय व्हाट्सएप ग्रुप्स और कुछ तमिल मीडिया रिपोर्ट्स ने बिना नाम बताए “पुलिस सूत्रों” के हवाले से यह दावा किया कि कविन का सुभाषिनी के लिए “एकतरफा प्यार” था. दिप्रिंट ने इलाके के पत्रकारों से बात की, जिन्होंने पुष्टि की कि प्रेस में थेवर समुदाय के कुछ सदस्यों ने इस तरह के नैरेटिव फैलाईं. एक तमिल अखबार ने भी ऐसी खबर छापी. इसके बाद कुछ जातीय संगठनों ने इस हत्या को “सम्मान के लिए किया गया कृत्य” बताकर सही ठहराना शुरू कर दिया.
बाद में जब सुभाषिनी का वीडियो सामने आया, जिसमें उन्होंने रिश्ते को स्वीकार किया, तब जाकर यह झूठी कहानी कमज़ोर पड़ी. फिर भी, कविन के परिवार का कहना है कि पुलिस और मीडिया — दोनों ने मिलकर कविन के खिलाफ एक तरह का “मीडिया ट्रायल” चलाया, जिससे उनका केस कमजोर हो गया.
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर जातीय हिंसा
कविन सेल्वगणेश की हत्या की बेरहमी ने जहां बहुत से लोगों को झकझोर दिया, वहीं सोशल मीडिया पर जिस तरह की प्रतिक्रिया सामने आई, उसने तमिलनाडु में जाति से जुड़ी सोच के एक और खतरनाक पहलू को उजागर कर दिया.
पिछले कुछ साल में जब भी किसी जातीय हत्या की खबर आती है, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर एक नई तरह की हिंसा शुरू हो जाती है, जिसमें हत्यारे को हीरो की तरह दिखाया जाता है. पहले जातीय हिंसा को मीडिया की चुप्पी और ध्यान की कमी के कारण हवा मिलती थी, अब लोग खुलेआम सोशल मीडिया पर ऐसी घटनाओं की तारीफ करते हैं.
कविन की हत्या के बाद एक्स और इंस्टाग्राम पर ऐसे ढेरों पोस्ट और रील्स शेयर की गईं, जिनमें सुरजित की इस हरकत को सराहा गया. ऐसे संदेश दो तरह के थे — कुछ लोगों ने उसे ‘थेवर वीरन’ (थेवर योद्धा) बताया, जिसने अपनी बहन और जाति की ‘इज्जत बचाई’. वहीं दूसरी ओर, कुछ पोस्ट्स में उसे एक ‘बेचारा’ बताया गया, एक पूर्व एथलीट, जिसे कथित तौर पर ‘जातीय सम्मान की रक्षा’ के लिए ऐसा कदम उठाने पर मजबूर किया गया.
ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स सुरजित की तस्वीरें, जिसमें वह खेलों की पोशाक में है, के साथ उसकी हथियार लिए तस्वीरों को जोड़कर दिखाया गया. दूसरी तरफ, कविन के खिलाफ सोशल मीडिया पर उसकी महिला साथियों के साथ तस्वीरें शेयर की गईं, ताकि उसे ‘लड़कियों के पीछे भागने वाला’ बताया जा सके और उसकी छवि खराब की जा सके.


नंगुनेरी जैसे इलाकों में जातीय पहचान को डिजिटल रूप से प्रतीकों के ज़रिए भी दिखाया जाता है.
जैसे, जिन सोशल मीडिया प्रोफाइल्स में मुत्थुरमलिंगा थेवर की तस्वीर लगी होती है — जो एक प्रभावशाली थेवर नेता माने जाते हैं और ‘थेवर’ शब्द को लोकप्रिय बनाने का श्रेय उन्हें दिया जाता है — उन्हें थेवर समुदाय के अन्य प्रोफाइल्स का खूब समर्थन मिलता है.
इसके उलट, इम्मानुएल सेकरण (1957 के मुदुकुलथूर जातीय दंगों में मारे गए एक दलित नेता) को सम्मान देने वाले प्रोफाइल्स को देवेंद्र कुल वेलालर समुदाय से समर्थन मिलता है. मुत्थुरमलिंगा थेवर को सेकरण की हत्या के आरोप में गिरफ्तार भी किया गया था, लेकिन बाद में छोड़ दिया गया.
नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र पढ़ाने वाले असिस्टेंट प्रोफेसर कार्तिकेयन दामोदरन ने लिखा है कि कैसे ‘थेवर गुरु पूजा’ जैसे आयोजनों को दलितों पर दबाव बनाने के एक मंच के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. पूजा से पहले के दिनों में दलितों पर हमले आम हो जाते हैं. इसके जवाब में ‘इम्मानुएल सेकरण गुरु पूजा’ की शुरुआत की गई, ताकि एक प्रतिरोध का प्रतीक खड़ा हो सके.
पत्रकार जयरानी, जिन्होंने इस क्षेत्र में जातीय हिंसा पर लंबे समय से रिपोर्टिंग की है, बताती हैं, “ये आयोजन हमेशा से विभाजनकारी राजनीति का केंद्र रहे हैं. इसका मकसद यही है कि यह इलाका बंटा हुआ रहे.”
उन्होंने कहा, “यहां तक कि स्कूलों में अंबेडकर जयंती जैसे कार्यक्रमों का भी विरोध किया जाता है. अगर कोई दलित या प्रगतिशील शिक्षक ऐसे कार्यक्रमों के लिए एक सुरक्षित माहौल बनाने की कोशिश करता है, तो उस पर हमला तक किया जाता है. इन आयोजनों के दौरान ऊंची जातियों के छात्र अपनी जातीय पहचान को ही अपनी पूरी पहचान बना लेते हैं.”
अब यह जातीय दंभ और नफरत की भावना सोशल मीडिया पर भी तेज़ी से फैल रही है, जहां जातीय गौरव और घृणा दोनों एक क्लिक में वायरल हो जाते हैं.
यह भी पढ़ें: भारत का BRTS: ‘वर्ल्ड-क्लास’ समाधान कैसे समस्याओं का केंद्र बन गया
ऑनलाइन नफरत को बढ़ावा देने वाला नेटवर्क
जातीय हिंसा पर नज़र रखने वाले कार्यकर्ता और पत्रकार बताते हैं कि सोशल मीडिया पर जाति विरोधी पोस्ट अक्सर संगठित जातिवादी नेटवर्क्स से आती हैं. कई ज़िलों में जातीय संगठनों द्वारा युवाओं को अपनी जाति पर गर्व जताने वाले सोशल मीडिया अकाउंट्स बनाने के लिए प्रेरित किया जाता है.
ऐसा ही एक संगठन — पुलिथेवर मक्कल मुननेत्र कषगम ने भी सुरजित की तारीफ करते हुए कविन को लेकर उसी तरह की बातें कहीं.
इस संगठन के सदस्य ए. वेलमुरुगन ने कहा, “हम इस तरह की हत्याओं की निंदा करते हैं, लेकिन सुरजित की भावनाओं को समझना ज़रूरी है. अगर कोई आदमी थोड़ा भी स्वाभिमानी हो, तो वह ऐसी स्थिति में कुछ ऐसा कदम उठाने को मजबूर हो सकता है. उसके माता-पिता ने अपनी बेटी की परवरिश इतनी मेहनत से की थी और वह किसी भी लड़के से प्रेम करके अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर दे, यह कैसे मंजूर हो सकता है?”
पुलिथेवर, जो 18वीं सदी के एक राजा थे, थेवर समुदाय में एक जातीय प्रतीक माने जाते हैं. वेलमुरुगन के मुताबिक, यह संगठन थेवरों के हितों और कल्याण का प्रतिनिधित्व करता है.

जब वेलमुरुगन से कविन और सुभाषिनी के रिश्ते के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने उसे ‘नाटक कधल’ — यानी दिखावटी प्रेम — कहकर खारिज कर दिया.
यह शब्द पट्टाली मक्कल काची (पीएमके) पार्टी द्वारा प्रचारित किया गया है, जो वन्नियार समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है — एक और प्रभावशाली जाति. पीएमके और उसके समर्थक यह प्रचार करते हैं कि अनुसूचित जाति के पुरुष ऊंची जाति की लड़कियों को प्रेमजाल में फंसाते हैं — यह एक मनगढ़ंत थ्योरी है, जिसका सामाजिक कार्यकर्ता और अंतरजातीय जोड़े जोरदार विरोध करते हैं.
इस ‘नाटक कधल’ के नैरेटिव की शुरुआत उस समय हुई जब वन्नियार लड़की कन्नगी और अनुसूचित जाति के युवक मुरुगेशन की हत्या कर दी गई थी. दोनों को ज़हर देकर मार डाला गया था क्योंकि उन्होंने परिवार की मर्जी के खिलाफ शादी का फैसला किया था.
एक और मामला था सातुरा का — एक थेवर लड़की, जिसने एक दलित ईसाई युवक डेनियल से शादी की थी. बाद में उसकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई. डेनियल का दावा है कि उसके परिवार ने ज़हर कान में डालकर उसकी हत्या की और फिर इसे आत्महत्या बता दिया.
People’s Watch और Evidence जैसे सिविल सोसायटी संगठनों ने अपने सर्वे और कानूनी हस्तक्षेपों के ज़रिए यह दिखाया है कि जब प्रभावशाली जातियों के परिवार अंतरजातीय प्रेम को स्वीकार नहीं करते, तो अक्सर या तो जोड़ों को ज़बरदस्ती अलग कर दिया जाता है या उनकी हत्या कर दी जाती है. ऐसी कई हत्याओं को आत्महत्या या दुर्घटना बताकर छिपा दिया गया.
पीएमके नेता रामदास के नेतृत्व में इन घटनाओं को ऊँची जातियों के बीच डर फैलाने के लिए इस्तेमाल किया गया. इसका असर यह हुआ कि वन्नियार, गौंडर और थेवर जैसी जातियां राजनीतिक गठबंधन बनाकर अपने समुदाय की लड़कियों पर निगरानी रखने लगीं, ताकि वे जाति से बाहर शादी न कर सकें.
प्रभावशाली जाति के फिल्मकारों ने भी सिनेमा के ज़रिए इस विचारधारा को बढ़ावा दिया, जिसमें उन्हें पीएमके और अन्य दक्षिणपंथी संगठनों से आर्थिक मदद भी मिली. तमिल सिनेमा में लंबे समय से जातीय प्रतीकों जैसे बड़ी मूंछें, दरांती (हथियार) और सांडों को दिखाया जाता है, जो आमतौर पर थेवर पहचान से जोड़े जाते हैं.
हाल के वर्षों में दलित फिल्मकारों ने इसके जवाब में ऐसी फिल्में बनाई हैं जो जाति-विरोध और सामाजिक बराबरी पर आधारित होती हैं.
भले ही अंतरजातीय जोड़े अपनी जान को खतरे में डाल रहे हों, लेकिन तमिलनाडु की सरकारें लगातार इस मुद्दे पर चुप रही हैं और उन्हें सुरक्षा देने में नाकाम रही हैं.
तमिलनाडु में संस्थागत जातीय भेदभाव की गहरी जड़ें
तमिलनाडु अनटचेबिलिटी उन्मूलन मोर्चा (TNUEF) के महासचिव सैमुएल राज ने कहा, कविन की हत्या ने एक बार फिर तमिलनाडु के दक्षिणी हिस्से की ओर ध्यान खींचा है, जहां जाति से जुड़ी हत्याएं न तो सुर्खियों में आती हैं और न ही प्राइमटाइम न्यूज़ का हिस्सा बनती हैं, लेकिन यह मान लेना गलत होगा कि ऐसी घटनाएं केवल दक्षिणी तमिलनाडु तक ही सीमित हैं.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “दक्षिणी तमिलनाडु में 1990 के दशक से जातीय हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने का इतिहास रहा है, इसलिए वहां की घटनाएं ज़्यादा रिपोर्ट होती हैं, लेकिन सच यह है कि तमिलनाडु का हर ज़िला जातीय अत्याचार की चपेट में है.”
पिछले एक दशक में कई रिपोर्टों ने तमिलनाडु में एक खतरनाक नए चलन को लेकर चेतावनी दी है—अब लोग अपनी जाति को गर्व से स्कूल में ही दिखाने लगे हैं.
दिसंबर 2023 में TNUEF ने राज्य के स्कूलों में जाति आधारित भेदभाव पर एक रिपोर्ट जारी की. इसमें 36 ज़िलों के 441 स्कूलों के कक्षा 6 से 12 तक के 644 छात्रों का सर्वे किया गया था. रिपोर्ट में पाया गया कि छात्र हाई स्कूल से ही जाति को दर्शाने वाले रिस्टबैंड और चेन पहनने लगे हैं. कुछ जगहों पर शिक्षकों द्वारा अछूत जैसा व्यवहार और छात्रों को जाति के आधार पर लाइन में खड़ा करने की घटनाएं भी दर्ज की गईं.
एक साल बाद, रिटायर्ड जज के. चंद्रू की एक अन्य रिपोर्ट ने भी इन निष्कर्षों की पुष्टि की. सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि राज्य के अधिकतर ज़िलों में अधिकारियों ने जातीय भेदभाव के अस्तित्व से ही इनकार कर दिया.
कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह संस्थागत इनकार बहुत गहराई से जुड़ा है और लगातार नज़रअंदाज़ किया जाता है.
नीलम पब्लिकेशन्स की संपादक और लेखक वासुगी भास्कर ने कहा, “आयोथी दासर और रेट्टामलाई श्रीनिवासन जैसे नेताओं की धरती होने के बावजूद, तमिलनाडु में द्रविड़ पार्टियां अब भी यह मानने से कतराती हैं कि उन्होंने खुद जातीय मुद्दों को कैसे संभाला है.”

2019 में जब प्रशिक्षु IAS अधिकारियों ने स्कूलों में जाति पहचान वाले रिस्टबैंड का मुद्दा उठाया, तब शिक्षा निदेशालय ने इन्हें प्रतिबंधित करने का आदेश दिया, लेकिन कुछ ही दिनों में AIADMK के तत्कालीन शिक्षा मंत्री के. ए. सेंगोट्टैयन ने इस आदेश को रद्द कर दिया और खुले तौर पर इस समस्या के अस्तित्व से इनकार किया.
TNUEF की सदस्य जयरानी ने कहा, “जातीय भावना की जड़ को खत्म करने के लिए छात्रों, शिक्षकों और माता-पिता को मुख्य रूप से लक्षित करना चाहिए, लेकिन कोई भी राजनीतिक पार्टी इस ज़िम्मेदारी को निभाना नहीं चाहती.”
विधानसभा अध्यक्ष और राधापुरम के डीएमके विधायक अप्पावु ने छात्रों के बीच जातिगत झगड़ों को “छोटी मोटी बहस” बताकर स्कूल स्तर पर सुलझाने की बात कही थी. उनके इन बयानों की आलोचना जस्टिस चंद्रू ने की, जिनकी रिपोर्ट ने स्कूलों में व्यापक स्तर पर शिक्षकों और प्रिंसिपलों द्वारा जातिवाद का खुलासा किया था. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि कई मामलों में, जातिगत हिंसा में शामिल छात्रों के माता-पिता ने भी हमलों की निंदा नहीं की.
2024 में EPW में प्रकाशित एक लेख में, तिरुनेलवेली के इतिहासकार मणिकुमार ने बताया कि कैसे राममूर्ति और जस्टिस एस. मोहन आयोग जैसी न्यायिक समितियों ने जाति हिंसा को केवल कानून-व्यवस्था की समस्या मानकर देखा.
1997 के मेलावलावू नरसंहार में एक दलित पंचायत अध्यक्ष की हत्या कर दी गई थी. उस समय DMK और AIADMK दोनों ने इस अपराध की गंभीरता को कम कर आंकते हुए कुछ मुख्य आरोपियों की सज़ा को चुनौती नहीं दी या उन्हें जल्दी रिहा करवाया. ऐसे कदमों ने दलित नेतृत्व के खिलाफ नाराज़गी बढ़ा दी.
आज भी पंचायत स्तर पर दलित नेताओं को बुनियादी अधिकारों की मांग करने पर विरोध झेलना पड़ता है. कई बार उन्हें बैठने के लिए कुर्सी तक नहीं दी जाती. विदुथलाई चिरुथैगल कच्ची (VCK), जो वर्तमान में सत्तारूढ़ DMK की सहयोगी पार्टी है, उसके कार्यकर्ताओं को प्रभावशाली जातियों के मोहल्लों में घुसने तक नहीं दिया गया. 2024 लोकसभा चुनाव के दौरान कुछ इलाकों में उनके झंडे तक हटवा दिए गए.

अब तक किसी भी सरकार ने जातीय हिंसा की जड़ों को सुलझाने की गंभीर कोशिश नहीं की है. यह हिंसा अब तमिलनाडु में एक आम और स्वीकार्य स्थिति बनती जा रही है. जातीय नरसंहारों को गंभीरता से नहीं लिया जाता क्योंकि पुलिस और स्थानीय प्रशासन में प्रभावशाली जातियों की मजबूत पकड़ है.
पुलिस की मिलीभगत और सिस्टम की नाकामी
दक्षिण तमिलनाडु में जातिगत हिंसा का इतिहास पुलिस और हमलावरों के बीच मिलीभगत से जुड़ा रहा है. 1995 में कोडियानकुलम में, मारावर समुदाय के लोगों द्वारा एक दलित बस ड्राइवर पर हमले के बाद दो समुदायों के बीच झड़पें हुईं. पीयूसीएल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 500 से ज्यादा पुलिसकर्मियों ने पल्लर समुदाय के दलित-बहुल गांव पर हमला कर दिया, घरों को तोड़ा और लोगों को पीटा — वो भी जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक जैसे वरिष्ठ अधिकारियों की मौजूदगी में. इसके बावजूद किसी भी पुलिसकर्मी पर कार्रवाई नहीं की गई.
रमेश नाथन, कार्यकारी निदेशक, सोशल अवेयरनेस सोसाइटी फॉर यूथ (SASY) ने कहा, “ऐसी घटनाएं ये संदेश देती हैं कि जातिगत अपराधों को टुकड़ों में ही निपटाया जाएगा.”
तमिलसेल्वी की पहली प्रतिक्रिया भी कुछ ऐसी ही थी. उन्हें लगा कि उनके बेटे की हत्या के दोषी बच निकलेंगे. हत्या वाले दिन थाने में जो उन्होंने महसूस किया, वो सिर्फ अविश्वास था.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “वो पुलिस स्टेशन बहुत ही डरावना लगा. मैं कई बार बेहोश हो गई थी.”
उनका डर निराधार नहीं था. कविन के मामले में थाने के अंदर जो दुश्मनी का माहौल था, वो सिर्फ पुलिस की उदासीनता से नहीं बल्कि राजनीतिक हस्तक्षेप से भी पैदा हुआ था.

कविन सेल्वगणेश के अंतिम संस्कार में | फोटो: ग्रीष्मा कुठार/दिप्रिंटतमिलसेल्वी का आरोप है कि उन्हें अपनी शिकायत खुद लिखने नहीं दी गई. उनका कहना है कि तमिझगा मक्कल मुनेत्र कषगम (TMMK) से जुड़े वकीलों ने ज़बरदस्ती उनकी ओर से शिकायत लिखी, जिससे एफआईआर में कई गलतियां हो गईं.
तमिलसेल्वी ने कहा, “मैं बहुत कमज़ोर और सदमे में थी, लेकिन वे मुझे अपनी बात लिखने ही नहीं दे रहे थे. थाने का माहौल बिल्कुल मददगार नहीं था.”
नागरिक अधिकारों के वकीलों का मानना है कि एफआईआर दर्ज करते समय की गई प्रक्रिया संबंधी चूकें आगे चलकर मुकदमे को नुकसान पहुंचाती हैं. इस मामले में पुलिस कमिश्नर ने दिप्रिंट को बताया कि TMMK के वकीलों ने पुलिस को तमिलसेल्वी से खुलकर बात नहीं करने दी.
कविन के मामा एस्साकी मुथु ने कहा, “हम पोस्टमार्टम से पहले कविन के शव को देखना चाहते थे. हमने कई बार अनुरोध किया, लेकिन पुलिस ने कहा कि इसकी इजाज़त नहीं है.”
जबकि मद्रास हाईकोर्ट ने 2020 में आदेश दिया था कि परिवार को शव देखने और उसका दस्तावेजीकरण करने का अधिकार है. इसके बावजूद पोस्टमार्टम बिना किसी पारिवारिक सदस्य की मौजूदगी में किया गया, जबकि एसीपी प्रसन्नकुमार ने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने खुद कविन के छोटे भाई को बुलाने को कहा था.
हत्या के कारण पर पुलिस की राय भी बंटी हुई है. कुछ अधिकारियों ने कहा कि सुरजीत और कविन ने पहले शादी को लेकर बातचीत की थी.
जयरानी ने कहा, “हत्या की वजह का पता लगाना जांच एजेंसियों का काम है, लेकिन जिस तरह 21-वर्षीय लड़का वही मछेटी (गंडासा) लेकर हत्या करता है, जिसे वो सोशल मीडिया पर गर्व से दिखाता था — ये बताता है कि चाहे संबंध जैसा भी हो, जातीय अहंकार ऐसे संघर्षों में उभर ही आता है। सुरजीत के साथ भी यही हुआ.”
रमेश नाथन जैसे कार्यकर्ताओं के लिए असली विफलता संस्थागत सुरक्षा तंत्र के ढह जाने में है और पुलिस में बिल्कुल भी भरोसा न रह जाना इसकी सबसे बड़ी निशानी है.
यही वजह है कि एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) नियम, 1995 के तहत स्थापित जिला सतर्कता निगरानी समिति (DVMC) की भूमिका बेहद अहम हो जाती है.
ये समितियां जातिगत अपराधों की निगरानी, उनके कारणों की समीक्षा और अभियोजन में आ रही खामियों को उजागर करने के लिए बनाई गई थीं.
नाथन ने कहा, “लेकिन ज्यादातर DVMC बिल्कुल निष्क्रिय हैं. वे न्यूनतम ज़िम्मेदारी भी नहीं निभाते. उनके काम की निगरानी करने वाला कोई नहीं है, कोई उन्हें जवाबदेह नहीं ठहराता.”
अरुमुगमंगलम में, अंतिम संस्कार के अगले दिन, जब तमिलसेल्वी सीबी-सीआईडी के सामने पहली बार बयान दर्ज कराने की तैयारी कर रही थीं, तो वे पूरी तरह से न्याय की लड़ाई के लिए तैयार दिखीं.
उन्होंने कहा, “मैं तब तक अपनी सच्चाई कहती रहूंगी, जब तक मेरे बेटे को न्याय नहीं मिल जाता. मैं यह सुनिश्चित करूंगी कि दोषियों को सज़ा हो.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: दिल्ली में बैन, बेंगलुरु में रफ्तार कायम—इस शहर ने कैसे पुरानी बाइकों को जिंदा रखा है