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Monday, 6 May, 2024
होमफीचरफटे पोस्टर, बाथरूम में रोना और कोटे के ताने- IITs में अंबेडकर स्टडी सर्किल ऐसे लड़ रहे हैं अपने अस्तित्व की लड़ाई

फटे पोस्टर, बाथरूम में रोना और कोटे के ताने- IITs में अंबेडकर स्टडी सर्किल ऐसे लड़ रहे हैं अपने अस्तित्व की लड़ाई

आईआईटी कैंपेसेज़ में अंबेडकर पेरियार फुले कलेक्टिव्स IIT सामूहिक रूप से भारत के प्रतिष्ठित, विश्व स्तर पर प्रसिद्ध इंजीनियरिंग कॉलेजों में अपने काम के जरिए उभर रहे हैं.

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नई दिल्ली/ मुंबई: आईआईटी बॉम्बे में कुछ स्टूडेंट्स मिलने के लिए कैंपस में खाली लैब, घने पेड़ और खाली सड़के ढ़ूंढ़ते हैं. ये लोग रोमांस करने के लिए या लव लैटर्स का आदान-प्रदान करने के लिए नहीं मिलते हैं. ये स्टूडेंट्स अंबेडकर पेरियार फुले स्टडी सर्कल के हैं. इन मीटिंग्स में ये स्टूडेंट्स कैंपस में होने वाले जातिगत भेदभाव के बारे में और उसके खिलाफ कैसे लड़ा जाए, ऐसे मुद्दों पर बातें करते हैं.

लेकिन इस तरह ग्रुप में मिलना उनके लिए थोड़ा कठिन होता जा रहा है.

आईआईटी कैंपेसेज़ में अंबेडकर पेरियार फुले कलेक्टिव्स IIT सामूहिक रूप से भारत के प्रतिष्ठित, विश्व स्तर पर प्रसिद्ध इंजीनियरिंग कॉलेजों में अपने काम के जरिए उभर रहे हैं. लंबे समय से, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान ऐतिहासिक रूप से प्रभावशाली जाति समूहों के संरक्षण में रहे हैं. और दलितों, ओबीसी और आदिवासी छात्रों को रोज़ाना आकस्मिक जातिवाद, भेदभाव, अपमानजनक भाषा का सामना करना पड़ा है.

हाशिये पर रहने वाले स्टूडेंट्स जो इन बड़े परिसरों में आने के सपने देखा करते थे अब इन्हीं बड़ी बिल्डिंग के वॉशरूम्स में रोते हैं. डरे हुए, गुस्से में और उदास ये छात्र इन संस्थानों में रहने की, बिलॉन्ग करने की है.

यहीं पर एपीपीएससी और अंबेडकराईट स्टूडेंट्स कलेक्टिव (एएससी) जैसे छात्र संगठन आगे आते हैं. वे उपेक्षित छात्रों को कक्षा के अंदर और बाहर भेदभाव से निपटने में मदद करते हैं,

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12 फरवरी को यह भेदभाव ने एक बार फिर सुर्खियों में आया, जब आईआईटी-बॉम्बे के एक 18 वर्षीय छात्र दर्शन सोलंकी ने कथित तौर पर परिसर की इमारत की सातवीं मंजिल से छलांग लगा दी. सोलंकी के मामले ने आईआईटी में बढ़ती जातिगत खाई पर रोशनी डाली है. हाल ही में राज्यसभा में पेश किए गए शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2018 से, विभिन्न आईआईटी में तैंतीस छात्रों की आत्महत्या से मृत्यु हो गई है. उनमें से लगभग आधे एससी, एसटी और ओबीसी समुदायों से हैं. इसने जातिवाद का मुकाबला करने के लिए समूहों द्वारा अधिक संगठित होने का नेतृत्व किया है – 23 आईआईटी संस्थानों में से पांच में अब सक्रिय दलित छात्र समूह हैं.

“हम उन्हें जगह. समर्थन और कभी-कभी समाधान देते हैं. हम इस परिसर में न्यूनतम चीजों के लिए लड़ रहे हैं. एएससी की एक मेंबर कहती हैं, जो अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहती. आईआईटी दिल्ली में जहां सिर्फ छह महीने पहले अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति छात्र प्रकोष्ठ का गठन किया गया था. इस संगठन के छात्र अक्सर बात करते हुए इस बात को ध्यान रखते हैं कि उनके आस-पास कौन लोग हैं और कौन उन पर ध्यान दे रहे हैं.

हर छोटा कदम एक बड़ा संघर्ष

इन स्टडी सर्किल्स के लिए ये अभी शुरुआती दिन हैं. ये जेएनयू, जामिया या दिल्ली यूनिवर्सिटी में होने वाले एक्टिविज्म की तरह काम नहीं करते हैं. ज्यादातर छात्रों ने कहा कि वे अपनी शिकायतें दर्ज कराने के लिए कोई अक्सर कोई प्लेटफॉर्म नहीं मिल पाता है. तो इस तरह के अंबेडककर स्टडी सर्किल जो पहला काम करते हैं वो है जातिगत भेदभाव को लेकर लेक्चर और वर्क्स शॉप्स का आयोजन करना.

आईआईटी बॉम्बे के एपीपीएसी जैसे पुराने कलेक्टिव थोड़े ज्यादा एक्टिव रहते हैं. पोस्टर कैंपेन से लेकर मूवी स्क्रीनिंग और मीटिंग्स वो लगातार अपना कद बढ़ाने के लिए काम करते आ रहे हैं. लेकिन कई छात्रों का कहना है कि प्रशासन उनके लिए कई बार बाधा करता है.

कई बार छोटी-छोटी कार्रवाई के लिए भी बड़ा संघर्ष करना पड़ता है.

“हम पोस्टर लगाते हैं और अन्य छात्र आकर उन्हें फाड़ देते हैं. वे बार-बार ऐसा करते हैं,” मोहित* ने कहा, जो IIT-बॉम्बे में APPSC से जुड़े हैं.

IIT-बॉम्बे में APPSC का गठन, मई 2015 में किया गया था— IIT-मद्रास द्वारा APSC पर प्रतिबंध लगाने के बाद न केवल दलित छात्रों को उनकी शिकायतों में मदद करने और उन्हें अपनेपन का एहसास दिलाने के लिए हुआ. मोहित कहते हैं, “कैंपस पर सवाल उठाने के लिए भी आवाजें सुनी जा सकती हैं.”

ये समूह अक्सर “जाति जागरुकता” पर कार्यशालाएं आयोजित करता है, और व्याख्याताओं को भी आमंत्रित करता है. यह सार्वजनिक स्थानों पर, हॉस्टल के पास, जहां फ्रेशर्स रहते हैं, वहां कार्यक्रम आयोजित करते हैं.

मोहित कहते हैं, “कभी-कभी, हमें विपरीत राय मिलती है, लोग धमकाते भी हैं, लेकिन फिर भी हम इन चर्चाओं को आयोजित करने में कामयाब होते हैं. ”

आज, IIT-बॉम्बे APPSC में लगभग 500 सदस्य हैं. लेकिन यह मान्यता प्राप्त निकाय नहीं है. मोहित कहते हैं, सदस्यों को कार्यक्रम आयोजित करने से रोकने के लिए इसका इस्तेमाल एक बहाने के रूप में किया जाता है.

वो कहते हैं, “इसीलिए पोस्टर लगाते समय भी हमें बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. हमारे अस्तित्व उनके लिए समस्या है. यहां तक ​​कि जो शिक्षक हमारी मदद करने की कोशिश करते हैं उन्हें भी अन्य शिक्षकों और प्रशासन द्वारा धमकी दी जाती है.”

दिप्रिंट ने ईमेल के जरिए आईआईटी-बॉम्बे से संपर्क किया. उनकी प्रतिक्रिया आने के साथ कहानी को अपडेट किया जाएगा.

मोहित कहते हैं, “हम बिना अनुमति के मौजूद हैं.” एक दूसरे का खयाल रख रहे हैं

आईआईटी-दिल्ली में हाल ही में एपीएससी की बैठक में, बीटेक प्रथम वर्ष का एक छात्र उठा और उसने अपने बौद्धिक लेवल को लेकर एक प्रतिक्रिया दी जिसने सबको हैरान कर दिया.

छात्र ने कहा, “शायद हमारा इंटेलिजेंस लेवल ही कम है.”

सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों में से एक में प्रवेश करने से लेकर, यह एक ऐसा निम्न स्तर था जिसके बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वह इसका अनुभव करेंगे.

सीनियर छात्रों ने उस छात्र की बात सुनी और उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन ज्यादा फायदा नहीं हुआ.

एक सीनियर छात्र ने बताया, ‘यह बात उनके दिमाग में इस कदर भर दी गई है कि कई बार समझाने के बाद भी मैं उन्हें समझा नहीं पाया कि वह गलत हैं.’

परिसरों में एपीपीएससी के वरिष्ठ सदस्य नए दलित छात्रों के साथ बातचीत करते हैं, जिनमें से ज्यादातर कैंपस में जीवन की वास्तविकता के लिए तैयार नहीं हैं – जातिगत गालियों से लेकर नाम पुकारने से लेकर कम महसूस कराने तक.

संगठन नियमित बैठकें आयोजित करते हैं जहाँ बड़े छात्र सुनते हैं और अपने कनिष्ठों को परामर्श देने का प्रयास करते हैं. लेकिन ज्यादातर समय, छात्र सार्वजनिक मंच पर बोलने से हिचकिचाते हैं. उन्हें पलटवार का डर है.

एपीपीएससी, आईआईटी-दिल्ली के एक अन्य सदस्य कहते हैं. “ट्रस्ट बनने से पहले इसमें समय लगता है – 4 से 5 बैठकें. लेकिन कुछ लोग बाहर आने का साहस ही नहीं जुटा पाते.”

पिछले सितंबर में, ASC के प्रतिनिधि ने कैंपस में नागराज मंजुले की मराठी फिल्म फैंड्री की स्क्रीनिंग की थी. यह एक कसाई के परिवार के एक दलित लड़के की कहानी है जिसे एक प्रभावशाली जाति की सहपाठी से प्यार हो जाता है. फिल्म देखने के लिए सौ से ज्यादा छात्र-छात्राएं एकत्र हुए. प्रभावशाली दृश्य में- जैसे कि लड़का और उसका परिवार एक मरा हुआ सुअर ले जाते हैं और अपने ट्रेडमार्क नीले सूट में बीआर अंबेडकर की तस्वीर के सामने से गुजरते हैं – दर्शकों को प्रेरित करते हैं.

स्क्रीनिंग के बाद, कई लोग मंच पर गए और अपने अनुभव साझा किए और भेदभाव के बारे में बात की.

एएससी के एक मेंबर ने कहा, “हम यह सुनिश्चित करने की कोशिश करते हैं कि नए बच्चों के साथ जिस तरह से व्यवहार किया जाता है, उसके बारे में बात करने के लिए एक मंच है.”

आईआईटी-दिल्ली से प्रथम वर्ष के एमटेक छात्र आकाश के लिए, एएससी एक परिवार है. वे कहते हैं, ”जिनके साथ ऐसा बीता है, वे ही हमारा दर्द समझ सकते हैं.”

‘उनके अनुभव अपमान और तनाव से भरे है. वह पिछले एक महीने से माइग्रेन की दवा ले रहा है.’ ASC बैठकें उनको सांत्वना देने का काम करती हैं.

वह जिस भेदभाव का सामना करते हैं, वह बड़े स्तर पर नहीं है, लेकिन छोटे-छोटे संवादों में दिखाई देता है, जिसे विशेषाधिकार प्राप्त लोग मान लेते हैं. वह स्वयं को समूहों से बहिष्कृत पाते हैं. उन्हें ताने मारे जाते हैं, कई बार मजाक किए ऐसे मजाक किए जाते हैं जिनसे वह लड़ नहीं सकता. उनके ज्यादातर सहपाठी प्रमुख जाति समूहों से हैं.

“मैंने फिट होने की कोशिश की, लेकिन मैं असफल रहा.”

सितंबर में एएससी में शामिल होने के बाद से, आकाश को दूसरों के साझा अनुभव में कुछ राहत मिली.

वो कहते हैं, “हमारी जाति हमारी पहचान है, हम कितना भी चाहें इससे भाग नहीं सकते. जब मैंने आईआईटी कैंपस में एएससी के स्टॉल पर लगे बाबासाहेब अंबेडकर के पोस्टर को देखा तो मुझे लगा कि भीड़ में मुझ जैसा कोई दिखाई दे रहा है. इसलिए मैं गया और उनके साथ जुड़ गया,”

दलित छात्र संगठन नियमित रूप से फीस वृद्धि, जातिगत भेदभाव और पीएचडी कार्यक्रमों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के छात्रों की भर्ती के मुद्दों को उठाते हैं.

मार्च 2021 में दायर एक आरटीआई आवेदन में पाया गया कि कुल 3,534 पीएचडी छात्रों में से आईआईटी-बॉम्बे में एससी वर्ग के केवल 305 छात्र और एसटी वर्ग के 60 छात्र थे – कुल 8.63 प्रतिशत और 1.7 प्रतिशत. बीटेक कार्यक्रमों के विपरीत, पीएचडी कार्यक्रमों में प्रवेश संकाय के हस्तक्षेप द्वारा भारी रूप से तय किया जाता है.

एलजीबीटीक्यू के समान स्तर पर नहीं

जब अम्बेडकर-पेरियार-फुले सामूहिक अपनी सक्रियता की तुलना कॉलेजों में LGBTQIA समूहों से करते हैं तो कुछ ईर्ष्या भी होती है. कुछ छात्रों का कहना है कि ऐसे मामले सामने आए हैं जब कैंपस में समलैंगिक समूहों को दलित छात्र समूहों की तुलना में तेजी से पहचान मिली.

आईआईटी-बॉम्बे में, क्वीर सामूहिक साथी ने 2016 में मान्यता के लिए आवेदन किया, उसी समय APPSC ने भी अपना आवेदन जमा किया.

‘साथी’ को 2018 में औपचारिक रूप दिया गया था, जबकि APPSC अभी भी प्रशासन से सुनने का इंतजार कर रहा है.

मोहित कहते हैं, “हमें न तो कोई जवाब मिला और न ही कोई प्रतिक्रिया. उन्होंने हमारे आवेदन को खारिज नहीं किया, लेकिन उन्होंने इसका जवाब भी नहीं दिया.”

एएससी प्रतिनिधि कहते हैं, “बेबी स्टेप्स”.

“हम क्वीर कलेक्टिव के साथ मिलकर काम करते हैं, उनका संघर्ष हमसे कम नहीं है.” लेकिन छात्र ने देखा है कि कैसे आईआईटी में, कम से कम दिल्ली में, अधिक “एलजीबीटीक्यू लोग खुलकर सामने आ रहे हैं”, और सार्वजनिक रूप से अपनी पहचान को गले लगा रहे हैं. “प्रशासन भी उन्हें स्वीकार कर रहा है. लेकिन आईआईटी-दिल्ली में ज्यादातर एससी/एसटी छात्र खुले तौर पर अपनी पहचान जाहिर नहीं करना चाहते हैं.’

प्रशासन द्वारा मान्यता महत्वपूर्ण है क्योंकि यह फंडिंग के दरवाजे खोलता है, कार्यक्रमों के आयोजन की सुविधा देता है और छात्रों को नौकरी के आवेदनों के लिए अपना पोर्टफोलियो तैयार करने में मदद करता है.

एएससी प्रतिनिधि कहते हैं, “हमारी सबसे बड़ी लड़ाई हमारे अपने होने के लिए है.”

“अगर हम परिसर में अंबेडकर का बिल्ला लगाकर चलते हैं, तो लोग टिप्पणी करते हैं कि ‘उनकी राजनीति शुरू हो गई है’. हमारे लिए यह हमारा होना है, उनके लिए यह राजनीति है.”

संस्थानों में स्थापित एससी/एसटी सेल, जिनमें दलित, आदिवासी और ओबीसी फैकल्टी शामिल हैं, केवल नाम के हैं और शायद ही कभी शिकायतें प्राप्त करते हैं.


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सोलंकी से पहले अंभोर था

दर्शन सोलंकी की आत्महत्या की जांच के लिए गठित आईआईटी-बॉम्बे समिति ने निष्कर्ष निकाला कि केवल उनकी बहन का बयान ही जाति-आधारित भेदभाव की पुष्टि करता है, और कोई अन्य विशिष्ट सबूत नहीं है.

लेकिन सोलंकी द्वारा 12 फरवरी को कथित रूप से अपना जीवन समाप्त किए जाने के एक महीने से अधिक समय बाद, मामले की जांच कर रही एसआईटी ने सोमवार (27 मार्च) को एक ‘सुसाइड नोट’ बरामद किया. यह सोलंकी के छात्रावास के कमरे में पाया गया था, और पुलिस के अनुसार इसमें एक बैचमेट नामित किया गया था.

आईआईटी-बॉम्बे के छात्रों का आरोप है कि जब भी परिसर में किसी आत्महत्या की सूचना मिलती है, तो प्रशासन छात्रों के साथ खुले तौर पर जानकारी साझा नहीं करता है. एक छात्र का कहना है कि सोलंकी के मामले में भी उसका पूरा नाम सामने आने के बाद ही जातिगत भेदभाव की बात सामने आई थी.

मोहित कहते हैं, “खुदकुशी की ऐसी कई घटनाएं होती हैं, जिनकी जांच एससी/एसटी के नजरिए से नहीं की जाती है.” उन्होंने सितंबर 2014 में अनिकेत अंभोरे की मौत का हवाला दिया.

इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के चौथे वर्ष के छात्र अंभोरे अपने छात्रावास की इमारत की छठी मंजिल से गिर गये थे. मौत को पहले एक दुर्घटना के रूप में बताया गया था, फिर कथित आत्महत्या की जांच के लिए संस्थान द्वारा गठित तीन सदस्यीय समिति – आईआईटी-बॉम्बे के सभी प्रोफेसरों द्वारा छात्र के “आंतरिक विरोधाभासों से जूझने” के परिणाम पर फैसला सुनाया गया. अंभोरे के माता-पिता द्वारा आईआईटी निदेशक को लिखे जाने के बाद ही जांच का आदेश दिया गया था. समिति ने संचार कौशल वर्ग में एक जातिवादी टिप्पणी पारित करने वाले अतिथि संकाय के “एक मामले” को ध्यान में रखते हुए, परिसर में प्रचलित जातिगत भेदभाव के बारे में एक सामान्य अवलोकन किया.

सोलंकी की मृत्यु के बाद, अंभोरे के माता-पिता ने आईआईटी-बॉम्बे में जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई.

मोहित कहते हैं, “हम अभी भी प्रशासन से उन सुझावों का उदाहरण देने के लिए कह रहे हैं जिनकी एके सुरेश समिति ने सिफारिश की थी. लेकिन उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आती है.” अन्य बातों के अलावा, समिति ने “विविधता प्रकोष्ठ” बनाने, संकायों के लिए संवेदीकरण कार्यक्रम और करियर प्रोत्साहन के लिए अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के छात्रों को होनहार बनाने का सुझाव दिया था.

मोहित कहते हैं, “हमारे लिए बहुत अधिक मानसिक स्वास्थ्य समर्थन नहीं है. जो कुछ भी है, वह जातिवादी, उथला और कई बार मदद की ज़रूरत वाले छात्रों के लिए अनुत्पादक भी है.”

एपीपीएससी के एक सदस्य ने एक छात्र के दर्दनाक अनुभव को याद किया, जो कैंपस काउंसलर के पास गया था. “काउंसलर ने उसे महसूस कराया कि वह पर्याप्त बुद्धिमान नहीं था और कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि आप इसे संभाल सकते हैं’.”

दिप्रिंट से बात करने वाले अधिकांश छात्रों ने कहा कि संकाय और प्रशासन को उन छात्रों के लिए एक सहायता प्रणाली प्रदान करने के लिए कदम उठाना चाहिए जो इससे निपटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

आईआईटी दिल्ली एएससी के सदस्य अली* कहते हैं, “अगर आपको लगता है कि कुछ छात्रों में बुद्धि की कमी है, तो आप परिसर में इसके लिए कुछ तंत्र बना सकते हैं. कुछ अतिरिक्त कक्षाएं, और एक अंग्रेजी शिक्षक जो उनकी मदद कर सकता है.”

यह उन सिफारिशों में से एक थी जो सुरेश समिति ने अंभोरे की मौत पर अपनी रिपोर्ट में की थी.

जातिसूचक गालियां और ‘मजाक’

आत्महत्याएं चिंताजनक हैं और राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बटोर रही हैं, लेकिन जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है और जिसकी रिपोर्ट नहीं की जाती है वह है हर दिन होने वाली छोटीृ-छोटी चीजें.

कैंपस में पहला प्रश्न आमतौर पर होता है: ‘आपकी रैंक क्या है?’ यह एक नियमित प्रश्न प्रतीत हो सकता है, लेकिन यह एक सामाजिक रूप से कोडित प्रश्न है और अक्सर इसका जातिगत परिणाम होता है. लोग दोस्त बनाते हैं और एक दूसरे को जज करते हैं. आईआईटी दिल्ली में बीटेक की पढ़ाई कर रहे एक छात्र ने कहा कि प्रोफेसर भी यह सवाल क्लासरूम में खुलकर पूछते हैं.

बीटेक छात्र ने कहा, “अगर मेरी [JEE] रैंक 445 है और मुझे टेक्सटाइल मिला है, तो लोग समझते हैं कि मैं सामान्य श्रेणी में आया था. लेकिन अगर मेरी रैंक 1,000 है और फिर मेरी ब्रांच टेक्सटाइल है, तो उनके चेहरे के भाव बदल जाते हैं.” आईआईटी-दिल्ली के एक बीटेक छात्र कहते हैं.

यह केवल कक्षाओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि छात्र छात्रावासों और कैफेटेरिया में व्याप्त है. यह छात्रों और सामाजिक समूहों के गठन के तरीके के बीच बातचीत को परिभाषित करता है. कुछ छात्र जो अपनी जाति को छिपाने के लिए मजबूर महसूस करते हैं उन्हें दूसरी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. उन्हें अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग में सीट पाने वाले छात्रों के बारे में अपनी प्रमुख जाति के मित्रों की शिकायत सुननी होगी.

आईआईटी-दिल्ली के प्रथम वर्ष के छात्र रोहित* कहते हैं, “मैंने अपनी जाति को लंबे समय तक छुपाया, इसलिए मेरे कई दोस्त मेरे साथ अपने विचार साझा करते थे. वे कहते हैं, ‘उस बदमाश ने आरक्षण के माध्यम से प्रवेश लिया और मुझसे बेहतर शाखा प्राप्त की, जबकि मेरी रैंक उससे ऊंची है’

कुछ छात्र ‘चमार’ जैसे आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं लेकिन तुरंत दिखावा करते हैं जैसे कि वे नहीं जानते कि इसका क्या मतलब होता है.

लेकिन ऐसी घटनाओं की कोई शिकायत नहीं है. छात्रों को डर है कि अगर उन्होंने शिकायत की तो उन्हें बदनाम किया जाएगा और आगे और उत्पीड़न होगा.

आईआईटी-दिल्ली के पीएचडी छात्र हिमांशु* कहते हैं, “सब कुछ सबूतों से साबित नहीं किया जा सकता. ऐसे मामलों में जहां सबूत हैं, कार्रवाई नहीं की जाती है, ”

30 मंबर्सस का नया समूह जिसे ‘स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ द्रविड़ियन’ कहा जाता है, 18 मार्च को लॉन्च किया गया था, और भारतीय परिसरों में दलित छात्र समूहों की मदद करने की उम्मीद है.

इस समूह के सदस्य एल्यकुमार कहते हैं.“हम दलित छात्रों को राजनीतिक बैकअप, कानूनी मदद और संवैधानिक समर्थन देकर उनकी मदद करने के लिए काम करेंगे. देश भर के छात्र हमसे जुड़ रहे हैं और धीरे-धीरे हमारा संगठन बड़ा होता जाएगा.”

दिप्रिंट ने जिन छात्रों से बात की, उन्होंने इस बारे में बताया कि कैसे प्रमुख जाति समूहों के छात्रों ने खुले तौर पर अपने दूसरे नामों पर चर्चा की या जाति से संबंधित ‘मजाक’ बनाए.

एक दलित छात्र ने कहा कि आईआईटी-बॉम्बे के छात्रावास के कैफेटेरिया में सिर्फ जैन समुदाय के छात्रों के लिए एक अलग ब्लॉक है.

छात्र का कहना है, ‘उनके बर्तन भी अलग रखे गए हैं.’ “एक बार एक नया छात्र वहाँ अंडा लेकर बैठा, और वहाँ बहुत हंगामा हुआ.” हालांकि प्रशासन ने इससे इनकार किया है.

जैन समुदाय के एक छात्र, जिससे दिप्रिंट ने बात की, ने दावा किया कि ऐसा कोई सीमांकन नहीं था. उन्होंने कहा, “कोई जगह तय नहीं है लेकिन हम इसे पसंद करते हैं इसलिए हम यहां बैठते हैं.”

कैंपस में वापस, मोहित और आईआईटी-बॉम्बे में एपीपीएससी के अन्य सदस्य अपने अगले कार्यक्रम की योजना बना रहे हैं. पोस्टर और पैम्फलेट निकाले जाने या फाड़े जाने की संभावना है.

जब सब कुछ विफल हो जाता है, तो वह और अन्य लोग हाथों में पोस्टर लेकर एक साथ खड़े होंगे.

“वो पोस्टर फाड़ सकते हैं, हमें नहीं.”

*छात्रों की पहचान गुप्त रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं.

( इस फीचर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )


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