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Friday, 22 November, 2024
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वो 30 सीटें जहां 2018 में जीत का अंतर 5,000 से कम था, कैसे कर सकती हैं कर्नाटक चुनाव का फैसला

2018 में कांग्रेस ने पांच हज़ार मतों के अंतर से 30 में से 18 सीटें जीतीं. वहीं, बीजेपी ने 8 और जेडी (एस) ने 3 सीटें जीतीं थीं. छोटे दलों की एंट्री और लिंगायत फैक्टर भी यहां हार-जीत में भूमिका तय कर सकते हैं.

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नई दिल्ली: भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 2018 में कर्नाटक में 5,000 से कम वोटों के अंतर से 16 सीटों पर हार गई थी, जैसा कि उस वर्ष के विधानसभा चुनावों के चुनावी आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है. इनमें से पार्टी को 12 सीटों पर 3,000 से कम वोटों के अंतर से हार झेलनी पड़ी थी.

बीजेपी ने 2019 में कर्नाटक में 224 सीटों में से 104 सीटें जीतीं और सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन 78 सीटें जीतने वाली कांग्रेस ने सरकार बनाने के मकसद से जनता दल (सेक्युलर) के साथ चुनाव के बाद गठबंधन किया, जिसने 37 सीटें जीतीं थी और ये गठबंधन केवल 14 महीने तक चल पाया.

हालांकि, बीजेपी 2019 में कांग्रेस-जेडी (एस) गठबंधन के 17 दलबदलुओं की बदौलत सत्ता में आई थी, लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि ये 16 सीटें – जहां बीजेपी 5,000 से कम वोटों के कारण हार गई थी इस चुनाव को निर्णायक रूप से अपनी ओर मोड़ सकती थी.

खासतौर पर छोटे दलों के साथ 10 मई को होने वाले मतदान में इस बार चीजें थोड़ी अलग हैं.

Illustration: Soham Sen | ThePrint
चित्रण: सोहम सेन | दिप्रिंट

उदाहरण के लिए, असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) कुल 224 सीटों में से 25 पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार है, जबकि सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) जो कि प्रतिबंधित पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) की राजनीतिक शाखा है- 100 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है. एसडीपीआई ने 2018 में दावा किया था कि कांग्रेस के साथ उसका “तालमेल” बेहतर है.

इन छोटे दलों से कांग्रेस और जेडी (एस) के मुस्लिम वोटों में सेंध लगने की उम्मीद है, जो कर्नाटक के दो प्रमुख खिलाड़ियों के लिए बड़ी चिंता का विषय हो सकता है.

इसके अलावा जी जनार्दन रेड्डी की कल्याण राज्य प्रगति पक्ष (केआरपीपी) और आम आदमी पार्टी (आप) जैसी पार्टियां भी मैदान में हैं.

बीजेपी से नाराज़ खनन कारोबारी और पूर्व भाजपा मंत्री रेड्डी ने पिछले दिसंबर में अपनी खुद की पार्टी केआरपीपी बनाई. फरवरी में, यह घोषणा की गई कि वे अपने भाई, मौजूदा भाजपा विधायक सोमशेखर रेड्डी के खिलाफ बल्लारी से चुनाव लड़ने जा रहे हैं. रेड्डी की उम्मीदवारी कांग्रेस के लिए भी परेशानी का कारण बन सकती है, क्योंकि वे बोम्मई सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी वोटों को विभाजित कर सकते हैं.

इस बीच, ‘आप’ ने जनवरी में घोषणा की कि वे सभी 224 सीटों पर उम्मीदवार उतारने जा रही है.

राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि 2018 में जिन सीटों पर जीत का अंतर कम था, वहां छोटी पार्टियां चिंता का विषय हैं और ये 30 सीटें सारा अंतर पाट सकती हैं.

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज (एनआईएएस) के बेंगलुरु स्थित राजनीतिक विश्लेषक और फैकल्टी नरेंद्र पाणि ने दिप्रिंट को बताया, “एक करीबी लड़ाई में, भले ही वे (छोटी पार्टियां) 3,000-4,000 वोट ले लें, यह बहुत अधिक है. वे केवल भूमिका बनाते हैं. वे चुनाव नहीं जीत सकते हैं, लेकिन निश्चित रूप से विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में स्थितियों को बदल सकते हैं,”

यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि 2018 में कांग्रेस ने 5 हज़ार से भी कम वोटों के अंतर से 30 में से 18 सीटों पर जीत हासिल की. वहीं, बीजेपी ने 8 सीटें जीतीं और जेडी (एस) ने 3 सीटें जीतीं थीं.

2,000 से कम वोटों के अंतर से जीतने वाले उम्मीदवारों में से एक पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया थे. कांग्रेस नेता ने उस साल दो सीटों बादामी और चामुंडेश्वरी से चुनाव लड़ा था. उन्होंने बादामी सीट को 1,696 वोटों से जीता और दूसरी सीट पर जी.टी. जेडी (एस) के देवेगौड़ा ने करीब 36,000 वोटों से जीत दर्ज की.

मैसूर विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान के रिटायर्ड प्रोफेसर चंबी पुराणिक ने दिप्रिंट को बताया कि ऐसी सीटों पर उम्मीदवारों को और भी अधिक सावधान रहना होगा.

उन्होंने कहा, “अगर किसी खास उम्मीदवार ने अच्छा प्रदर्शन किया है, निर्वाचन क्षेत्र के लोगों से जुड़ा रहा है, तो हां, उसके पास बेहतर मौका है और यदि व्यक्तिगत रूप से उन्होंने ऐसा नहीं किया है, तो ठीक है, (मतदाता) एक पार्टी को भूल सकते हैं, लेकिन वे व्यक्ति को याद रखते हैं.”


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दलबदलु, मंत्री और किनारे पर बैठे लोग

उन 17 विद्रोहियों में से पांच- येल्लापुर के विधायक अरबेल हेब्बर शिवराम, अथानी के विधायक महेश कुमथल्ली, रानीबेन्नूर के विधायक आर. शंकर, हिरेकेरूर के विधायक और तत्कालीन कृषि मंत्री बी.सी. पाटिल और मस्की के विधायक प्रताप गौड़ा पाटिल ने 5,000 से कम मतों से जीत हासिल कर 2019 में एच.डी. कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली कांग्रेस-जेडी (एस) सरकार को गिराने की कोशिश की थी.

इसके अलावा, 2008 से लगातार कृष्णराजनगर सीट का प्रतिनिधित्व करने वाले जेडी (एस) के एसआर महेश की जीत का अंतर उस साल कम रहा था. 2013 में 15,000 वोटों के अंतर से जीतने वाले विधायक के लिए 2018 में ये अंतर केवल 1,700 वोटों का रहा था.

Illustration: Ramandeep Kaur | ThePrint
चित्रण: रमनदीप कौर | दिप्रिंट

इसी तरह, कांग्रेस विधायक एम. कृष्णप्पा (विजयनगर) और आर. नरेंद्र (हनूर), जिन्होंने 2008 और 2013 में महत्वपूर्ण अंतर से अपनी सीटें जीतीं 2018 में 2,700 और 3,500 से अधिक वोटों से जीतकर लगभग फिनिशिंग लाइन को पार कर गए.

2018 में जीत के एक मामूली अंतर के साथ एक और दिग्गज जेडी (एस) के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष एच.के. कुमारस्वामी जिन्होंने अपनी वर्तमान सीट, सकलेशपुर – जिसका उन्होंने 2008 और 2013 में प्रतिनिधित्व किया है – 5,000 से कम वोटों के अंतर से जीता.

मुंबई-कर्नाटक और लिंगायत फैक्टर

2018 में कड़ी लड़ाई देखने वाली सीटों की एक महत्वपूर्ण संख्या कित्तूर कर्नाटक क्षेत्र से थी, जिसे पहले मुंबई-कर्नाटक के रूप में जाना जाता था. आज, इस क्षेत्र में 7 जिले- उत्तर कन्नड़, बेलगावी, धारवाड़, विजयपुरा, बागलकोट, गडग और हावेरी शामिल हैं.

2018 में जिन 30 सीटों पर जीत का अंतर 5,000 वोटों से कम था, उनमें से एक दर्जन इसी क्षेत्र से आईं. इनमें से 8 सीटों पर कांग्रेस और 3 सीटों पर बीजेपी ने जीत दर्ज की थी.

एक सीट, रानीबेन्नूर, कर्नाटक प्रज्ञावंता जनता पार्टी (केपीजेपी) के पास गई और 4,300 वोटों के अंतर से इसे जीत लिया गया. पार्टी की स्थापना 2017 में पुथुरिना मुथु डी. महेश गौड़ा द्वारा की गई थी और उन्होंने अपना चुनाव चिन्ह ऑटो-रिक्शा बनाया था.

राजनीतिक रूप से, कित्तूर कन्नड़ कर्नाटक की राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. यहां से न केवल 50 विधायक विधानसभा पहुंचते हैं, बल्कि वर्तमान मुख्यमंत्री, बसवराज बोम्मई, (एक लिंगायत) का संबंध भी उसी क्षेत्र से है, जिसमें लिंगायत समुदाय की बड़ी उपस्थिति है. कर्नाटक की राजनीति में प्रमुख खिलाड़ी परंपरागत रूप से भाजपा के करीबी माने जाते हैं – मुख्य रूप से एक अन्य लिंगायत नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के कारण भी.

2018 में, बीजेपी इस क्षेत्र में 5,000 से कम मतों के अंतर से सात सीटों पर हार गई थी. अथानी में, तत्कालीन कांग्रेस उम्मीदवार महेश कुमाथल्ली ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी लक्ष्मण संगप्पा सावदी को 2,331 वोटों से हराया.

डेक्कन हेराल्ड ने 7 मार्च को बेलगावी स्थित राजनीतिक विश्लेषक अशोक चंद्रगी के हवाले से कहा, “उत्तर कन्नड़ को छोड़कर सभी जिलों में लिंगायत मतदाता काफी बड़ी संख्या में हैं. ऐतिहासिक रूप से, वे एक कट्टर लिंगायत नेता के नाम पर मतदान करते रहे हैं, चाहे वह वीरेंद्र पाटिल (कांग्रेस) हों या बी.एस. येदियुरप्पा (भाजपा).”

हैदराबाद-कर्नाटक या कल्याण-कर्नाटक और दक्षिण कर्नाटक क्षेत्रों में कम से कम छह सीटों पर जीत का अंतर बहुत कम था.


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निकटतम झगड़े

2018 विधानसभा में पांच सीटों- मास्की, कुंडगोल, हिरेक्रूर, पावागडा और अलंद में जीत का अंतर एक हज़ार से भी कम वोटों का था.

मस्की में, कांग्रेस उम्मीदवार प्रताप गौड़ा पाटिल, जो बाद में भाजपा में शामिल हो गए, ने 213 वोटों से जीत हासिल की.

कुंडगोल, हिरेकेरूर और पावागड़ा में भी इस तरह के अंतर देखे गए, जहां कांग्रेस उम्मीदवारों ने 634, 555 और 409 वोटों से जीत हासिल की. इतनी कम जीत वाले एकमात्र अन्य उम्मीदवार भाजपा के गुट्टेदार सुभाष रुक्मय्या थे, जिन्होंने अलंद को 697 वोटों से जीता था.

पाटिल अंततः 2021 के उपचुनाव में भाजपा के पूर्व नेता बसनगौड़ा तुरविहाल से सीट हार गए, जो कांग्रेस में शामिल हो गए.

इसके बावजूद कांग्रेस के कई नेता ऐसे भी रहे जो बड़े अंतर से जीते. उनमें से प्रमुख आर. अखंड श्रीनिवासमूर्ति थे, जिन्होंने पुलकेशीनगर सीट से 81,626 वोटों के अंतर से जीत हासिल की और कांग्रेस के दिग्गज डी.के. शिवकुमार, जिन्होंने कनकपुरा सीट को 79,909 वोटों के अंतर से जीता.

पुराणिक का मानना है कि ये चुनाव कांग्रेस के उन उम्मीदवारों के लिए कठिन हो सकता है, जो पिछली बार हार गए थे. उन्होंने कहा, “अगर यह एक कांग्रेस उम्मीदवार है जो कम अंतर से जीता है, तो उसे अधिक जोखिम है, लेकिन डबल इंजन सरकार और मोदी-येदियुरप्पा फैक्टर के कारण बीजेपी उम्मीदवार के पास बेहतर मौका हो सकता है.”

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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