नई दिल्ली : कांग्रेस को मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में करारी हार का सामना करना पड़ रहा है, जबकि भाजपा ने प्रमुख राज्यों में परचम लहराया है. कांग्रेस के लिए तेलंगाना में जीत ही एकमात्र सांत्वना की बात होगी.
रविवार के चुनाव परिणामों के बाद, हिमाचल प्रदेश के सिवा, कांग्रेस खुद को उत्तर भारत के राजनीतिक मानचित्र से लगभग खत्म पाएगी, जहां कि 2024 के आम चुनावों से पहले लोकसभा सीटों की सबसे बड़ी संख्या है. भाजपा अपनी ताकत को और मजबूत करेगी, उस क्षेत्र में लगभग दबदबे वाली उपस्थिति स्थापित कर ली है.
हालांकि, हर 5 साल में सत्ताधारी को सत्ता से बाहर करने की 3 दशक की परंपरा को देखते हुए राजस्थान में भाजपा की जीत कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, लेकिन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी के शानदार प्रदर्शन ने कांग्रेस को चौंका दिया है, खासकर जब वह उम्मीद कर रही थी इन राज्यों में अपने 2018 के प्रदर्शन को दोहराएगी.
2018 में, कांग्रेस ने राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत हासिल की थी, जबकि मध्य प्रदेश में वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. यह और बात है कि महीनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को इन्हीं राज्यों में भारी संख्या में सीटें मिली थीं.
कांग्रेस को इस बात से सांत्वना मिल सकती है कि, 2014 में तेलंगाना के निर्माण के बाद पहली बार, वह निवर्तमान मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) को सत्ता से हटाकर राज्य में सरकार बनाएगी, दक्षिण भारत में अपने फुटप्रिंट का और विस्तार करते हुए जहां उसने मई में कर्नाटक को जीता था.
मध्य प्रदेश में भाजपा की जीत पर उसके चार बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छाप होगी, जिन्होंने न केवल सत्ता विरोधी लहर को मात दी, बल्कि पार्टी के एक समूह द्वारा उन्हें नेतृत्व की दौड़ से बाहर करने के प्रयासों को भी रोक दिया.
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इन राज्यों और मिजोरम में 7 से 30 नवंबर के बीच चुनाव हुए थे. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा की जीत से उसको 2024 के आम चुनावों से पहले हिंदी पट्टी में राजनीतिक नैरेटिव को आकार देने में मदद मिलेगी, भले ही दक्षिण भारत में उसकी पकड़ कमजोर हो गई हो.
कांग्रेस के लिए, जो कि मध्य प्रदेश में भाजपा को मात देने की उम्मीद कर रही थी, तात्कालिक चुनौती लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार जोर पकड़ने से पहले राज्य में जल्दी से जल्दी संगठित होने की होगी. छत्तीसगढ़ में एक मजबूत नेता और भूपेश बघेल जैसे ओबीसी चेहरे की मौजूदगी के बावजूद इसकी हार पार्टी को और अधिक संकट में डाल देगी.
राजस्थान में भी, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के परस्पर विरोधी गुटों में सुलह कराने की कांग्रेस की कोशिशें भी पार्टी की हार को नहीं रोक सकीं. गहलोत की कल्याणकारी योजनाओं का अभियान कांग्रेस की धुरी था, जबकि भाजपा ने “तुष्टीकरण की राजनीति” और “असफल कानून व्यवस्था” पर कांग्रेस सरकार पर निशाना साधा. भाजपा की जीत के बड़े पैमाने का मतलब है कि पार्टी आलाकमान नए नेतृत्व वाले चेहरों को सामने ला सकता है. अगर जीत का अंतर कम होता तो पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का दबदबा ज्यादा होता.
संयोग से, सभी चार राज्यों में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा के अभियान का चेहरा थे, क्योंकि पार्टी ने “सामूहिक नेतृत्व” का दांव खेलते हुए मुख्यमंत्री पद के चेहरों को पेश करने से परहेज किया था. दरअसल, एमपी में पार्टी ने तीन केंद्रीय मंत्रियों नरेंद्र सिंह तोमर, फग्गन सिंह कुलस्ते और प्रह्लाद सिंह पटेल समेत 7 सांसदों को चुनावी मैदान में उतारा था.
तेलंगाना में, तेज-तर्रार बंदी संजय कुमार, जिन्हें पार्टी का सीएम चेहरा माना जा रहा था, को चुनाव से कुछ महीने पहले राज्य इकाई के प्रमुख पद से हटाने के भाजपा के फैसले ने इसकी संभावनाओं को नुकसान पहुंचाया है. इसके विपरीत, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रेवंत रेड्डी राज्य में पार्टी के आक्रामक पुनरुत्थान के मुख्य शख्सियत के तौर पर उभरे हैं, जिसे 2014 में यूपीए-2 सरकार ने अविभाजित आंध्र प्रदेश से अलग किया था.
बीआरएस की हार से निवर्तमान मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की लोकसभा चुनाव से पहले राष्ट्रीय राजनीति में शीर्ष स्थान हासिल करने की महत्वाकांक्षा को करारा झटका लगा है, जिसके लिए उन्होंने अपनी पार्टी का नाम भी तेलंगाना राष्ट्र समिति से बदलकर भारत राष्ट्र समिति कर दिया था. बीआरएस 2014 से तेलंगाना में सत्ता में थी.
(अनुवाद और संपादन : इन्द्रजीत)
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