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Thursday, 28 March, 2024
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100% कट-ऑफ के बाद भी दिल्ली यूनिवर्सिटी क्यों है देश भर के छात्रों की पहली पसंद

दिल्ली यूनिवर्सिटी 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से एक है, जिनमें 16 विश्वविद्यालय 2009 में स्थापित किए गए थे. इसके कट-ऑफ आमतौर से 100 प्रतिशत से ऊपर जाते हैं.

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नई दिल्ली: दाख़िले का सीज़न आते ही दिल्ली यूनिवर्सिटी (डीयू) हर बार की तरह, अपने आसमान छूते कट-ऑफ की वजह से सुर्ख़ियों में आती है. फिर भी फ्रेश स्कूल ग्रेजुएट्स के लिए ये सबसे लोकप्रिय पसंद बनी रहती है.

इस साल, डीयू की 70,000 सीटों के लिए 4 लाख छात्रों के बीच प्रतिस्पर्धा रहेगी.

लेकिन 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से एक, जिनमें से सोलह 2009 में स्थापित किए गए थे- डीयू में ऐसा क्या है कि ये देश भर के छात्रों को अपनी ओर खींचती है?

क्या ये इतिहास है- डीयू 1922 से चली आ रही है, जिसका साउथ कैंपस 1973 में वजूद में आया? या इसमें पेश किए जाने वाले पाठ्यक्रमों की रेंज है- डीयू में 80 शैक्षणिक विभाग हैं, और इतने ही कॉलेज हैं. क्या ये राष्ट्रीय राजधानी में इसकी लोकेशन है?

प्रोफेसर्स और अकादमिक विशेषज्ञों के अनुसार, इसमें थोड़ा थोड़ा सब कुछ है. कुछ एक्सपर्ट्स की नज़र में डीयू के लिए ये भीड़, इस बात का संकेत है कि देश भर में फैले दूसरे केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालय उतने अवसर प्रदान नहीं करते.

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डीयू अभी तक देश में सबसे अधिक सीटें पेश करती है- मुम्बई यूनिवर्सिटी जो महाराष्ट्र सरकार का संस्थान है, 40,000 सीटों के साथ शायद दूसरे स्थान पर है. इसकी रिसर्च सुविधाओं और इनफ्रास्ट्रक्चर को सर्वश्रेष्ठ बताया जाता है, और इसमें पेश किए गए कोर्स सबसे विविध होते हैं.

उनमें से कुछ ये भी कहते हैं कि इस समस्या को दूर करने के लिए, 2009 में स्थापित किए गए 16 विश्वविद्यालय ऐसी जगहों पर स्थापित किए गए, जिनमें भावी छात्रों की रुचि नहीं होती.


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दाख़िला प्रक्रिया

बारह केंद्रीय विश्वविद्यालय सेंट्रल यूनिवर्सिटी कॉमन एंट्रेंस टेस्ट के ज़रिए दाख़िले करते हैं, जिसे 2007 में शुरू किया गया था, और जिसका लक्ष्य भागीदार संस्थाओं में दाख़िला लेने के लिए, छात्रों को ‘एक ही स्थान पर अवसर मुहैया कराना था’.

ये हैं: आंध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, जम्मू, झारखंड, कर्नाटक, केरल, पंजाब, राजस्थान, बिहार और तमिलनाडु के केंद्रीय विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त असम यूनिवर्सिटी.

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, और जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी अपनी अलग प्रवेश परीक्षाएं कराती हैं.

डीयू के अधिकतर अंडरग्रेजुएट कोर्सेज़ में योग्यता के आधार पर दाख़िले दिए जाते हैं, लेकिन कुछ एक टेस्ट पर आधारित होते हैं.

दूसरे विश्वविद्यालयों में इतनी भीड़ देखने को नहीं मिलती, जितनी डीयू सीटों के लिए होती है. हैदराबाद यूनिवर्सिटी जिसमें अंडरग्रेजुएट शिक्षा एकीकृत पाठ्यक्रमों (बैचलर+मास्टर) के हिस्से के तौर पर पेश की जाती है, उसके उपलब्ध कराए गए डेटा से पता चलता है, कि 2020 में कुल 5,595 आवेदन आए थे.

यूनिवर्सिटी प्रवक्ता प्रोफेसर कंचन मलिक ने कहा, ‘हैदराबाद यूनिवर्सिटी उस समय बनाई गई थी, जब देश में उच्च शिक्षा में रिसर्च की ज़रूरत महसूस की गई. राज्य में पर्याप्त संस्थान हैं जो अंडरग्रेजुएट शिक्षा उपलब्ध कराते हैं’.

कर्नाटक के केंद्रीय विश्वविद्यालय में, 2019 में आवेदकों की कुल संख्या 59,914 थी, जिनमें से 800 को दाख़िला दिया गया. यूनिवर्सिटी के कुल 10 अंडरग्रेजुएट कार्यक्रमों में कुल 360 सीटें हैं, जिनके अलावा 50 सीटें आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के छात्रों के लिए हैं.

बीएचयू में, जहां 35 अंडरग्रेजुएट कार्यक्रमों के लिए कुल 8,500 सीटें हैं, वहां 2020 में 3,66,094 आवेदन आए थे. कुल 9,161 छात्रों को दाख़िला दिया गया.

प्रमुख राज्य विश्वविद्यालयों में, मुम्बई यूनिवर्सिटी में 2021 में 5.38 लाख छात्रों ने आवेदन दिए. यहां 195 अंडरग्रेजुएट पाठ्यक्रमों में 40,000 सीटें हैं. जय हिंद कॉलेज में बीए कट-ऑफ 100 प्रतिशत को छू गई है.


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DU ही क्यों

डीयू में पेश किए जाने वाले कुछ ह्यूमैनिटीज़ और साइंस पाठ्यक्रमों की देश में सबसे ज़्यादा मांग है, जबकि दूसरे केंद्रीय विश्वविद्यालयों में इतनी रेंज नहीं है.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अंडरग्रेजुएट छात्रों के लिए 9 कोर्सेज़ हैं, और वो सब अंतर्राष्ट्रीय भाषाएं हैं.

बीएचयू में संगीत से जुड़े 3 साल के नौ अंडरग्रेजुएट कार्यक्रम हैं, और 7 कोर्स कला, क़ानून, वाणिज्य, गणित तथा जीव विज्ञान जैसे विषयों के हैं.

केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय में केवल अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर एक बैचलर कोर्स है.

इसके अलावा, दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेज केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की नेशनल इंस्टीट्यूट रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) में, लगातार शीर्ष पर रहते हैं.

2021 में, ‘कॉलेज’ वर्ग में दिल्ली के मिरांडा हाउस को शीर्ष कॉलेज का दर्जा मिला, जिसके बाद लेडी श्री राम कॉलेज था. इनके बाद दो निजी संस्थान, चेन्नई का लोयोला कॉलेज और कोलकाता का सेंट ज़ेवियर कॉलेज थे. शीर्ष 10 में दिल्ली के तीन और कॉलेज हैं: सेंट स्टीफंस, हिंदू, और श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स.

डीयू में दाख़िले की इच्छा रखने वाले छात्रों का कहना है, कि दूसरे सरकारी संस्थानों की अपेक्षा यहां कहीं बेहतर अवसर मिलते हैं. 12 वीं क्लास में 92 प्रतिशत नंबर लाने वाली दिल्ली की 17 वर्षीय छात्रा, गुरमेहर कौर ने कहा कि वो या तो डीयू में पढ़ेगी या फिर ओपन स्कूलों का सहारा लेगी.

उसने आगे कहा, ‘मैंने डीयू में पोलिटिकल साइंस ऑनर्स के लिए तीन कॉलेजों में आवेदन दिया है. लेकिन अब मैं सोचने लगी हूं कि मेरे नंबर नाकाफी हो सकते हैं. अगर मैं डीयू में दाख़िला नहीं ले पाती, तो फिर किसी ओपन स्कूल में दाख़िला ले लूंगी’.

‘मैं निजी स्कूलों का ख़र्च सहन नहीं कर सकती, और मुझे नहीं लगता कि कोई दूसरी सरकारी यूनिवर्सिटी, उस क्वालिटी की शिक्षा देती है, जो डीयू में मिलती है’.


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क्वालिटी की चिंताएं

डीयू की लोकप्रियता के बारे में पूछने पर, प्रोफेसर्स इसकी लोकेशन की बात करते हैं, और कहते हैं कि दूसरे केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों के मुक़ाबले, डीयू बेहतर रिसर्च सुविधाएं और इनफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराती है.

डीयू के महाराजा अग्रसेन कॉलेज के फैकल्टी सदस्य, और संस्थान की दाख़िला कमेटी के सदस्य सुबोध कुमार ने कहा, ‘दिल्ली देश में संस्कृति, इतिहास, और राजनीति का गलन बिंदु है. इससे छात्रों के सामने एक्सपोज़र की विशाल संभावनाएं पैदा होती हैं’.

‘छात्र डीयू में जो भीड़ लगा रहे हैं, उसका कारण ये है कि उनके राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में, रिसर्च और इनफ्रास्ट्रक्चर सुविधाओं का अभाव है. अधिकतर केंद्रीय विश्वविद्यालय ऐसे दूर-दराज़ इलाक़ों में स्थित हैं, कि मां-बाप अपने बच्चों को ऐसी जगह भेजने में झिझकते हैं’.

उन्होंने कहा कि कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालय ‘ख़राब हालत’ में भी हैं, उन्होंने आगे कहा, ‘महेंद्रगढ़ यूनिवर्सिटी (हरियाणा की केंद्रीय यूनिवर्सिटी) की ही मिसाल ले लीजिए. हालांकि इसकी जगह वहां (महेंद्रगढ़) है, लेकिन इसके कॉलेज गुरुग्राम से चल रहे हैं. पिछले 6-7 सालों में केंद्र सरकार ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों के विकास के लिए, उनपर ज़्यादा तवज्जो नहीं दी है. बल्कि डीयू भी फंड्स की कमी से जूझ रही है, लेकिन हम किसी तरह काम चला रहे हैं’.

कर्नाटक सेंट्रल यूनिवर्सिटी में अर्थ साइंसेज़ विभाग के डीन प्रोफेसर अली रज़ा मूसवी, अपने यहां छात्रों की कम संख्या के लिए यूनिवर्सिटी की लोकेशन को ज़िम्मेदार ठहराते हैं.

तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों के साथ काम कर चुके मूसवी ने कहा, ‘संसद के 2009 अधिनियम के तहत सभी केंद्रीय विश्वविद्यालय दूर-दराज़ के ग्रामीण इलाक़ों, या उन जगहों पर पर स्थापित किए गए हैं, जिन्हें हम बहुत दूर एकांत कहते हैं. इसकी वजह से छात्र उच्च शिक्षा के लिए ग्रामीण इलाक़ों में आने के इच्छुक नहीं रहते’.

उसके अलावा बहुत स्वाभाविक है, कि ग्रामीण या अर्ध-शहरी क्षेत्रों में रहने वाले छात्र, उच्च शिक्षा के लिए किसी बड़े शहर में पढ़ना चाहते हैं. यूनिवर्सिटी की लोकेशन बहुत अहम होती है, और उसी से इनफ्रास्ट्रक्चर, छात्र जीवन की क्वालिटी, और पढ़ाई की गुणवत्ता जैसे फैक्टर निर्धारित होते हैं’.

उन्होंने आगे कहा कि इनफ्रास्ट्रक्चर ‘सिर्फ इमारतों तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि उसमें भोजन, इंटरनेट, कैंपस जीवन, और संचार व परिवहन जैसी सुविधाएं भी शामिल होती हैं’.

गुणवत्ता वो चिंता है जिसका इज़हार पाटलिपुत्र यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ अमित कुमार ने भी किया, जिनका कहना था कि बिहार में राज्य विश्वविद्यालयों की हालत ख़राब है.

राज्य के कॉलेजों में छात्र-अध्यापकों के नीचे अनुपात का हवाला देते हुए, बिहार प्रशासनिक सेवा के एक पूर्व अधिकारी रह चुके कुमार ने कहा, ‘इस साल हिंदी फैकल्टी के लिए 25 अध्यापक हैं, लेकिन 20 से अधिक कॉलेज हैं जिनमें ये विषय पढ़ाया जाता है. भर्ती की प्रक्रिया बेहद धीमी रही है, अस्थायी या गेस्ट फैकल्टी की कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे मौजूदा प्रोफेसर्स पर बोझ बढ़ जाता है’.

उन्होंने कहा कि बिहार के दो केंद्रीय विश्वविद्यालय भी मोतिहारी और गया में स्थित हैं, ‘जहां किसी दूसरे शहर का कोई छात्र जाकर पढ़ना नहीं चाहेगा’.

‘नाम को बिल्डिंग बना दिया है पर उसका यूज़ क्या है, अगर बुक्स या लैब नहीं हैं. उचित किताबें उपलब्ध नहीं हैं. कई यूनिवर्सिटियों में लैब्स भी ठीक से सुसज्जित नहीं हैं’.

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष भूषण पटवर्धन का कहना था, कि भौगोलिक लोकेशन से ज़्यादा ये अहम है कि ऐसे यूजीसी कोर्सेज़ तैयार किए जाएं, जो छात्रों को नौकरियों के लिए तैयार कर सकें.

उन्होंने कहा, ‘डीयू की इतनी अधिक मांग क्यों है, उसका कारण शिक्षा की गुणवत्ता और करियर की प्रगति का वो ईकोसिस्टम है, जो वो उपलब्ध कराती है. अभी हो ये रहा है कि छात्र ऐसी यूनिवर्सिटियों की ओर जा रहे हैं, जो करियर के विकास में उनकी सहायता करेंगी, और उन्हें प्लेसमेंट दिलाएंगी. हालांकि शिक्षा को प्लेसमेंट-संचालित नहीं होना चाहिए, लेकिन उसकी नेचर इतनी पूर्ण-विकसित होनी चाहिए, कि वो छात्रों को आगे के जीवन के लिए तैयार कर पाए…मणिपाल और बिट्स पिलानी जैसे निजी संस्थान दूर-दराज़ स्थानों पर स्थित हैं, लेकिन छात्रों की पसंद बने हुए हैं’.

पटवर्धन ने आगे कहा, ‘हमारा काम केवल यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग तैयार होने के साथ ही पूरा नहीं हो जाता, उसे इससे आगे भी चलने की ज़रूरत है’.

बिहार की सेंट्रल यूनिवर्सिटी में नामांकन कराया हुआ एक छात्र भी इससे सहमत था. अपना नाम न बताने की इच्छा के साथ उसने कहा कि वो बैंकिंग परीक्षाओं के लिए तैयारी कर रहा है, क्योंकि ‘अंडरग्रेजुएट शिक्षा काफी नहीं है’.

उसने आगे कहा, ‘मैं जानता हूं कि बीकॉम करने के बाद मुझे कोई नौकरी नहीं मिलेगी, क्योंकि मेरे संस्थान में कोई प्लेसमेंट सुविधा नहीं है. जो भी शिक्षा मुझे मिल रही है वो इतनी बेसिक है, कि उससे मुझे कहीं भी नौकरी मिलने में मदद नहीं मिलेगी’.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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