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Wednesday, 18 December, 2024
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वर्षों की बेरोजगारी, सरकारी नौकरी की आस, बिहार के युवाओं के संघर्ष और निराशा की कहानी

राज्य का बेरोजगार युवा उस सरकारी नौकरी की तलाश में है, जिसका वजूद ही नहीं है. उद्योगों के अभाव में, तमाम बेरोजगार हैं, कुछ ने प्रवेश परीक्षा पास कर ली हैं. लेकिन, उन्हें अब भी ज्वाइनिंग लेटर का इंतजार है.

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गया/मुजफ्फरपुर/समस्तीपुर/वैशाली/पटनाः बिहार के गया जिले के परसनवान गांव के प्रधान विजय प्रसाद गुप्ता उस दिन को याद करते हैं जब उनके गांव के एक युवक को सरकारी नौकरी मिली थी. इस बात को बीते छह साल हो गए. उनके गांव का वह युवक आखिरी था जिसने यह उपलब्धि हासिल की थी.

ऐसा नहीं है कि यहां शिक्षा का अभाव है. गांव में लगभग 2,000 लोग रहते हैं. यहां बड़ी संख्या में स्नातक और हाई स्कूल पास युवा हैं जो नौकरी पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

राज्य के मुजफ्फरपुर जिले के एक गांव में कोचिंग चला रहे राज प्रकाश बताते हैं, ‘उनसे हर हफ्ते कम से कम दो-तीन बेरोजगार युवक मिलते हैं जो टीचर की नौकरी करना चाहते हैं. ये युवक 3,000 से 4000 रुपये प्रति महीने की नौकरी करने को तैयार हैं.’ ‘मुझसे मिलने बीए और एमए पास युवा आते हैं जो बहुत ही कम वेतन में पढ़ाने के लिए तैयार हैं. ये लोग सिर्फ मेरे गांव के नहीं हैं. नौकरी मांगने वालों में यहां से 10 किलोमीटर दूर के गांवों से आने वाले युवा भी शामिल हैं.’

इसकी एक उदाहरण प्रकाश इंस्टीट्यूट में पढ़ाने वाली, 25 साल राधा कुमारी हैं. वे विज्ञान विषय में एमएम हैं और उन्होंने नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट भी पास कर रखा है. इसके बावजूद, किसी कॉलेज में टीचर के तौर पर पढ़ाने की बजाए वह एक छोटे से कोचिंग इंस्टीट्यूट में महज 4,000 रुपये प्रति महीने के वेतन में पढ़ा रही हैं.

दिप्रिंट से हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि ‘मैं कालेज में पढ़ाना चाहती थी, लेकिन वहां कोई जगह ही नहीं है. चाहे प्राइवेट संस्थान हो या सरकारी कहीं कोई जगह नहीं है. ऐसे में मैं क्या कर सकती हूं. मेरे पास कोचिंग में पढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.’

इस तरह के संघर्ष की तमाम दुखद कहानियां बिहार की बेरोजगारी के हालात को बयां करती हैं. ऐसा राज्य जिसकी आबादी 10 करोड़ से ज्यादा है और साल 2011 की जनगणना के मुताबिक यहां की शिक्षा दर लगभग 60 प्रतिशत है.

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की ओर से साल 2020 में बेरोजगारी को लेकर जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी से अप्रैल 2020 तक बिहार की बेरोजगारी दर 17.21 प्रतिशत थी.

हाल ही में जारी की गई सीएमआईई की रिपोर्ट में साल 2021 में सितंबर से दिसंबर के आंकड़े बताते हैं कि बिहार की बेरोजगारी दर गिरकर 13.3 प्रतिशत हो गई है. हालांकि, जमीनी सच्चाई कुछ और ही कहती है.

इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि इस समय राज्य में 38.84 लाख युवा बेरोजगार हैं जिन्हें नौकरी की तलाश है. जबकि देश भर में लगभग तीन करोड़ बेरोजगारों को नौकरी चाहिए. अगर राज्य में बेरोजगार युवाओं की संख्या के आधार पर देखें तो बिहार बेरोजगारी में राजस्थान के बाद दूसरे नंबर पर है, जहां 66.19 लाख युवा बेरोजगार हैं.

दिप्रिंट से देश भर में बिहार की बेरोजगारी दर से तुलना करने के विषय में बातचीत करते हुए सीएमआईई के प्रबंध निदेशक और सीईओ महेश व्यास ने कहा, ‘बिहार में बेरोजगारी दर भारत में सर्वाधिक है. साल 2021 में राज्य की बेरोजगारी दर 12.8 प्रतिशत थी, जबकि पूरे देश में बेरोजगारी की दर 7.7 प्रतिशत से काफी कम थी.’

उन्होंने कोविड महामारी और उसके परिणामस्वरूप होने वाले लॉकडाउन को देश भर में नौकरी की खराब स्थिति के दोषी बताया.

उन्होंने कहा, ‘महामारी के पहले साल 2019 में बिहार की काम करने वाली आबादी में 34.3 प्रतिशत लोगों को रोजगार प्राप्त था. व्यास ने बताया कि बड़ी संख्या में बाकी बची आबादी का हिस्सा लेबर फोर्स से बाहर था, जिसका मतलब वे लोग सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश में नहीं थे.’

फोटो कैप्शन : बिहार में पूरे भारत की दूसरी सबसे बड़ी आबादी बेरोजगार युवकों की है।दिप्रिंट।निर्मल पोद्दार

उन्होंने आगे बताया, ‘साल 2021 में बिहार की मात्र 31.2 प्रतिशत आबादी को रोजगार प्राप्त था. उसके अनुसार भारत के आंकड़े साल 2019 में 39.6 प्रतिशत और साल 2021 में 37.2 प्रतिशत थे.’

दिप्रिंट ने बिहार की तमाम जगहों की यात्रा कर जमीनी हालात जानने की कोशिश की और पाया कि युवा, शिक्षित लोग न सिर्फ बेरोजगार हैं बल्कि आंशिक बेरोजगार भी हैं. हाल ही में रेलवे की नौकरी के अभ्यर्थियों का जो राज्यव्यापी प्रदर्शन था वह इसी गुस्से और निराशा की अभिव्यक्ति थी, जो बेरोजगार युवकों के भीतर दबी हुई थी.


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सबको सरकारी नौकरी चाहिए

जहां भी दिप्रिंट की टीम पहुंची वहां पता चला कि सबकी चाहत सरकारी नौकरी पाने की है, खासकर रेलवे की नौकरी.

गया के परसनवान गांव के प्रवीण कुमार और उनके बड़े भाई पिछले तीन सालों से बेरोजगार हैं और सरकारी नौकरी की परीक्षाओं की तैयारी में लगे हैं.

दिप्रिंट से बातचीत के दौरान, कुमार ने कहा, ‘मैं और मेरे भाई दोनों विज्ञान विषय से स्नातक हैं, लेकिन हमारे गांव के आस-पास या शहर में भी कोई अच्छी नौकरी नहीं है. इसलिए, हम सरकारी नौकरी की तलाश में हैं जिससे हमें स्थिरता मिले औस साथ ही, अच्छी आमदनी हो.’

इस युवा ने समझाते हुए कहा कि प्राइवेट नौकरी में प्रति महीने 5,000 से 10,000 रुपये तक मिलेगा और उनको 10 घंटे से ज्यादा काम करना पड़ेगा. सरकारी नौकरी में काम के घंटे निर्धारित हैं और तनख्वाह भी बेहतर है, इसीलिए वे सरकारी नौकरी की तलाश कर रहे हैं.

इसी तरह का मामला पंकज कुमार का भी है, जो बिहार यूनिवर्सिटी से कृषि में स्नातक हैं. ‘मैंने 2019 में स्नातक किया था, और तभी से बेरोजगार हूं. राज्य के कृषि विभाग में कोई जगह नहीं है, लिहाजा मैं रेलवे या स्टाफ सेलेक्शन कमीशन (एसएससी) में नौकरी के लिए प्रयासरत हूं.’

लाखों की संख्या में इस तरह के युवा हर साल पटना शहर में आकर छोटे से कमरे में रहते हैं और सरकारी नौकरियों के लिए तैयारी करते हैं.

जिन भाग्यशाली लोगों को परीक्षा में सफलता मिल गई है तो भी उनके पास काम नहीं है. इनमें कई युवा सिर्फ़ इसलिए बेरोजगार हैं, क्योंकि उन्हें अब तक कोई ज्वाइनिंग लेटर नहीं मिल पाया है.

रेलवे की परीक्षा की तैयारी में लगे पटना में रह रहे 28 साल के विवेक कुमार इस तरह के उदाहरण हैं. उनका चयन बिहार के एसएससी परीक्षा के लिए साल 2014 में हुआ था. उन्हें जॉइनिंग लेटर अभी तक नहीं मिला है. वह अब भी बेरोजगार हैं और सरकारी नौकरी पाने की आशा रखते हैं. अब वह रेलवे और सार्वजनिक क्षेत्र की सरकारी नौकरियों की परीक्षा देने में लगे हैं.

कुछ कानूनी अड़चनों के कारण बिहार में साल 2014 में हुई एसएससी की परीक्षा की काउंसलिंग नहीं हो पाई है. उसके नवंबर में होने की संभावना थी, लेकिन वह दिसंबर में स्थगित कर दी गई.

कुमार की तरह हजारों छात्रों को काउंसलिंग की तारीख का इंतजार है. दिप्रिंट से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया, ‘मैं काउंसलिंग होने का इंतजार पिछले सात साल से कर रहा हूं. मैंने 21 साल की उम्र में यह परीक्षा पास की थी आज मेरी उम्र 28 साल की है. जीवन का संघर्ष जारी है, लेकिन मैंने उम्मीद नहीं हारी है. मैं दूसरी परीक्षा की तैयारियों में लगा हूं और हाल ही मैंने रेलवे की परीक्षा दी है.’

दिप्रिंट ने ऐसे तमाम लोगों से बातचीत की जो पिछले और आज के राज्य प्रशासन और राजनीतिक दलों से जुड़े हैं. सबका कहना था कि बिहार में निजी उद्योगों का न होना भारी बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण है.

पटना और जहानाबाद के रोजगार दफ्तर में काम कर चुके अमित कुमार ने इस बात की पुष्टि करते हैं.

उन्होंने कहा, ‘जब मैं पांच साल पहले रोजगार दफ्तर में कार्यरत था, तो देखता था कि स्नातक किए लड़के अपना रजिस्ट्रेशन जोमैटो और दूसरी कंपनियों के लिए डिलेवरी ब्वाय के रूप में करा रहे हैं. राज्य में उद्योगों का न होना इस स्थिति का सबसे बड़ा कारण है.’

ग्राफिक: सोहम सेन/ दिप्रिंट

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उद्योग की स्थिति

इंडियन ब्रैंड इक्विटी फाउंडेशन (आईबीईएफ), जो वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के वाणिज्य विभाग द्वारा स्थापित एक ट्रस्ट है, ने

अपनी रिपोर्ट में कहा था कि राज्य में तेजी से बढ़ने वाले उद्योगों में फूड प्रोसेसिंग, डेयरी, शुगर, उत्पादन और हेल्थकेयर की इकाइयां हैं.

इसमें यह भी बताया गया है कि बिहार के ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट में कुल सालाना वृद्धि की दर 2015-16 से 2020-21 तक 10.73 प्रतिशत की रही. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि बिहार सबसे बड़ा कृषि राज्य है और लगभग 80 प्रतिशत आबादी को कृषि उत्पादन में रोजगार मिला हुआ है.

सितंबर 2021 में जारी रिपोर्ट में बताया गया कि बिहार का सब्जी उत्पादन में देश भर में चौथा स्थान है जबकि फल उत्पादन में इसका आठवां स्थान है. फूल का उत्पादन और गन्ने की खेती व्यापक पैमाने पर की जाती है.

विशेषज्ञों ने भी दिप्रिंट से हुई बातचीत में माना कि कृषि उत्पाद बिहार में काफी ज्यादा हैं. साथ ही, यह भी बताया कि राज्य कृषि क्षेत्र रोजगार पैदा करने वाले उद्योग का रूप नहीं ले सकता.

बिहार सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने अपना नाम न छापने की शर्त पर बताया, ‘बिहार की जमीन काफी उपजाऊ है. यहां फूड प्रोसेसिंग उद्योग के बढ़ने की असीम संभावनाएं हैं. यहां पर फूड प्रोसेसिंग इकाइयां तो हैं, लेकिन वे इतनी बड़ी नहीं कि भरपूर रोजगार उपलब्ध करा सकें.’

उन्होंने कहा कि राज्य की फूड प्रोसेसिंग इकाइयां, माइक्रो, स्माल और मीडियम इंटरप्राइजेज (एमएसएमई) का हिस्सा हैं. ये सिर्फ चावल, दाल और जूस की प्रोसेसिंग करने तक सीमित हैं.

बिहार के उद्योग मंत्रालय ने अपनी 2020-21 की सालाना रिपोर्ट में बताया कि राज्य ने एमएसएमई के लिए 2021-22 के लिए 1,285 करोड़ रुपए आवंटित किए थे. इसमें, रेशम उत्पादन और खादी को राज्य का मुख्य उद्योग बताया गया था.

अधिकारी कम उद्योग होने की वजह राज्य में कम जमीन का होना मानते हैं. उन्होंने कहा, ‘ज्यादातर लोगों के पास बिहार में छोटी जमीनें हैं. अगर कोई कंपनी यहां उद्योग लगाना चाहेगी, तो उसे कम से कम 40 लोगों से जमीनें खरीदनी पड़ेंगी. एक ही समय इतने लोगों को जमीन देने के लिए राजी करना लगभग असंभव होगा. यही कारण है कि राज्य सरकार उद्योगों को जमीन देने में असमर्थ है.’

‘लोग अपनी जमीन इसलिए नहीं छोड़ना चाहते क्योंकि वह उपजाऊ है और छोटी है. यह समस्या उन राज्यों में नहीं आती जहां जमीन उपजाऊ नहीं है. इसीलिए, इन राज्यों में उद्योग आसानी से लग जाते हैं.’

अधिकारी ने कहा कि राज्य में उद्योग लगाने के लिए कानून व्यवस्था की स्थिति भी ठीक नहीं है. छोटे स्तर के गुंडों से लेकर बड़े-बड़े संगठित हफ्ता वसूली करने वालों से उद्योगपतियों को झेलना पड़ता है.

उन्होंने कहा, ‘राजनेता भले ही दावा करें कि राज्य में कानून व्यवस्था ठीक है, लेकिन सच्चाई कुछ अलग ही है.’

राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय प्रवक्ता और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुबोध मेहता ने बिहार में कृषि और पर्यटन क्षेत्रों में अवसरों की बात कही है.

उन्होंने कहा, ‘अगर हम बिहार में तरक्की चाहते हैं तो हमें रोजगार पैदा करने होंगे और 90 के दशक के बाद रोजगार बाजार आधारित हो चुका है. उद्योगों की कमी का मतलब है, राज्य में अनुकूल बाजार की कमी, जिसके कारण यहां के युवकों के पास रोजगार की अड़चनें आ रही हैं.’

वह कहते हैं, ‘यहां कृषि से संबंधित उद्योग लगाए जा सकते हैं. यह राज्य प्राकृतिक संसाधनों का धनी है और यहां एग्रो आधारित अर्थव्यवस्था की असीम संभावनाएं हैं. इसके अलावा, पर्यटन क्षेत्र में भी संभावनाएं हैं. हमारे पास गया और नालंदा है, जहां दुनिया भर के पर्यटक आते हैं. इनका दोहन आर्थिक रूप से हो सकता है.’

वह सरकार की लापरवाही को बिहार की बेरोजगारी की वजह मानते हैं. उन्होंने कहा, ‘पहले के नीति निर्माताओं और सरकारों की असफलता ने बिहार को इस स्थिति में पहुंचा दिया है. लोगों की भलाई करने की जगह, हर राज्य सरकार यही सोचती है कि अगला चुनाव कैसे जीता जाए.’

राजनीतिक लापरवाही और बड़ी संख्या में पलायन

बिहार सरकार के एक पूर्व अधिकारी ने कहा कि सभी सरकारें रोजगार पैदा करने और राज्य में उद्योग लाने में असफल रही हैं. बिहार में लंबे समय तक आरजेडी के लालू प्रसाद ने राज किया और उसके बाद 2005 से वहां जेडी(यू) के मुख्यमंत्री नितीश कुमार हैं.’

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘लालू प्रसाद को राज्य में उद्योग लगवाने की रुचि कभी नहीं रही. वास्तव में बिरला और डालमिया ने 90 के दशक में राज्य में जो उद्योग लगाए थे वे फलफूल रहे थे. राजनीतिक उदासीनता के कारण ये उद्योग बंद हो गए. भागलपुर का सिल्क पूरे भारत में मशहूर था लेकिन, आदमी की जगह मशीनों ने ले ली और लोग बेरोजगार हो गए.’

उन्होंने आगे कहा कि नितीश कुमार के समय में बदलाव जरूर आया है लेकिन जो स्थिति होनी चाहिए वह नहीं हो सका.

उन्होंने कहा, ‘जब नितीश कुमार सत्ता में आए तो उन्हें सड़कें और बिजली की व्यवस्था करनी चाहिए थी.शुरू में तो उन्होंने विकास की बात की लेकिन बाद में भटक गए और जातिगत राजनीति करने में जुट गए.’

उन्होंने कहा, ‘राज्य में उद्योग या व्यवसाय को बढ़ावा देना है, ताकि रोजगार बढ़े तो सरकार को बिजली, सड़क और जमीन जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करानी पड़ती हैं. ये सारी बातें पहले से नदारद रहीं, जिसके कारण बिहार में कोई प्राइवेट उद्योग नहीं लग पाया.’

उद्योगों के अभाव के कारण प्राइवेट सेक्टर में रोजगार की कमी रही है जिसकी वजह से बेहतर अवसरों की तलाश में युवाओं ने बिहार से दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और देश के दूसरे हिस्सों में पलायन किया.

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज (आईआईपीएस) की एक रिपोर्ट में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के पलायन के विषय में लिखा है कि 19वीं सदी की पहले तिमाही से ही इन क्षेत्रों से लोग बेहतर जीवन-स्तर की तलाश में पलायन करते आ रहे हैं.

मध्य गंगा योजना को लेकर 2018-19 में किए गए सर्वेक्षण पर आधारित इस रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तर प्रदेश और बिहार के लगभग 50 प्रतिशत परिवार पलायन के कारण प्रभावित हुए हैं. इस सर्वेक्षण में यूपी के 27 और बिहार के 37 जिलों को शामिल किया गया था.

रिपोर्ट के मुताबिक, ‘लगभग 57 प्रतिशत घरों के कम से कम एक सदस्य ने रोजगार या व्यवसाय के लिए पलायन किया था. इनमें 50 प्रतिशत परिवारों में विभाजन देखा गया, जिसमें पुरुष सदस्य नौकरी की तलाश में विभिन्न स्थानों पर निकल गया और उनकी बीवी, बच्चे और अभिभावक गांवों में रह गए. बचे हुए 7 प्रतिशत घर बंद पाए गए क्योंकि पूरा परिवार बाहर चला गया था.’


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सीमित शिक्षा और कौशल

शिक्षा और कौशल को विकसित कर पाने के अवसर भी बिहार में काफी सीमित हैं, जिसका असर ग्रॉस इनरोलमेंट रेशियो (जीईआर) पर पड़ता है. शिक्षा मंत्रालय के 2019-20 के आंकड़ों के मुताबिक, जीईआर या राज्य में 18 से 23 साल के कॉलेज जाने वाले युवाओं का प्रतिशत 14.5 था. इसका मतलब हुआ कि 100 में से सिर्फ 14 युवा और युवती कॉलेज गए.

फोटो कैप्शनः पटना में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए बिकने वाली पुस्तकें।दिप्रिंट।निर्मल पोद्दार
फोटो कैप्शनः पटना में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए बिकने वाली पुस्तकें।दिप्रिंट।निर्मल पोद्दार

आंकड़े यह भी बताते हैं कि बिहार में कॉलेज का घनत्व प्रति लाख 18 से 23 साल की आबादी का 7 है. इसका मतलब हुआ कि 1 लाख 18-23 साल की आबादी के लिए राज्य में सात कॉलेज हैं. कम संस्थान होने का मतलब है कॉलेजों में ज़्यादा भीड़. राज्य में प्रति कॉलेज के हिसाब से लगभग 1,700 विद्यार्थी हैं.

राज्य सरकार के 2018-19 के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में 17 यूनिवर्सिटी, 54 पॉलिटेक्निक कॉलेज, और आईआईटी और एनआईटी सहित 36 इंजीनियरिंग कॉलेज हैं. इसके साथ ही राज्यम 14 मेडिकल कॉलेज, 6 डेंटल कॉलेज और 44 शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण के संस्थान हैं.

इस कारण युवाओं के पास कौशल आधारित रोजगार पाने के अवसर काफी सीमित हो जाते हैं और वे सरकारी नौकरी की तलाश में जुट जाते हैं.

बिहार में सरकारी नौकरी की दीवानगी के विषय में चर्चा करते हुए एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छपने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘बिहार में लोगों की सामंती मानसिकता है और निचले तबके के लोग सालों से वंचित रहे हैं. उन्हें एक तरह से अपने लिए एक स्तर चाहिए, जब वे अपनी जाति या आर्थिक स्थिति बदलने में असमर्थ होते हैं तो वे स्टेटस सिंबल के रूप में सरकारी नौकरी के बारे में सोचने लगते हैं.’

युवक 20 साल से लेकर 30 साल के होने तक सरकारी नौकरी पाने के प्रयास में लग जाते हैं. यह नौकरी रेलवे से लेकर एसएससी या फिर दूसरे राज्य में नौकरी या सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों की नौकरी या सरकारी स्कूलों में शिक्षक बनने की हो सकती है.

अधिकारी ने कहा, ‘अपने राज्य में प्लंबर और बिजली मिस्त्री के रूप में काम करना इनको इज्जत के खिलाफ बात लगती है. वहीं, दूसरे राज्यों में जाकर ये वही काम कर सकते हैं, लेकिन बिहार में नहीं कर सकते.’

इसके अलावा, राज्य में आंशिक बेरोजगारी की समस्या भी है, इसके बारे में मेलबर्न यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर क्रेग जैफ्री ने अपनी किताब टाइमपास में की है. यह किताब भारत में बेरोजगारी विषय पर लिखी गई है. जैफ्री 1990 के दशक से ही देश के कई हिस्सों में बेरोजगारी के मुद्दे पर काम करते रहे हैं.

दिप्रिंट से हुई बातचीत में उन्होंने कहा, ‘भारत में शिक्षित युवक कम पैसों पर काम कर रहे हैं और अपनी शिक्षा के हिसाब से कमतर काम कर रहे हैं…इसे ही अंशकालिक बेरोजगारी कह सकते हैं. यहां के युवक सिर्फ बेरोजगार नहीं हैं वे आंशिक रूप से भी बेरोजगार हैं.’

मुजफ्फरपुर जिले के 38 साल अमरीष मालाकार इसके उदाहरण हैं. उन्होंने बीए किया है. उन्होंने कई साल रेलवे और एसएससी परीक्षाओं की तैयारी में लगा.या लेकिन, उनकी सारी मेहनत बेकार गई. साल 2012 में उसने अपने गांव मुस्तफागंज में फूलों की एक छोटी सी दुकान खोल ली. यह कारोबार मौसम पर आधारित है और वह मुश्किल से हर महीने 2,000 से 3,000 रुपये ही कमा पाते हैं.

वह कहते हैं, ‘मैं पटना यूनिवर्सिटी से राजनीति विज्ञान में स्नातक हूं, लेकिन बेरोजगार हूं. मैं कभी भी सरकारी नौकरी नहीं पा सका और प्राइवेट नौकरी बिहार में नहीं है. परिवार के कारण मैं अपना राज्य नहीं छोड़ सकता. यहां कोई उद्योग नहीं हैं जहां प्राइवेट नौकरी मिले. शिक्षित आदमी क्या करेगा ?’ यही बात बिहार के लाखों युवाओं के दिमाग में चल रही है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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