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Thursday, 25 April, 2024
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पटना के कोचिंग हब में छोटे-छोटे कमरों में रहते हैं लाखों युवा, सरकारी नौकरी से उम्मीदें अब टूट रहीं हैं

मुसल्लाहपुर हाट में आने वाले ज्यादातर युवा ऐसे परिवारों से आते हैं जो आप गुजारा चलाने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि यहां की कोचिंग सस्ती है. लेकिन बढ़ती बेरोजगारी ने अब उनमें से कई का मोहभंग कर दिया है.

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पटना: पटना के मुसल्लाहपुर हाट में मुख्य सड़क पर टहलते हुए आपको एक व्यस्त सा बाज़ार दिखाई देगा जिसके ऊपर तारों का गुत्थम-गुत्था हुआ व्यूह लटका दिखता है. लगभग हर प्रतियोगी परीक्षा के लिए गाइडबुक की अंतहीन पंक्तियों वाली दुकानें दिखेंगी और उनके भी ऊपर बड़े-बड़े होर्डिंग – राजनीतिक नेताओं या फिल्मी सितारों के नहीं, बल्कि कोचिंग सेंटर चलाने वाले शिक्षकों की – लगी मिलेंगीं. इन शिक्षकों को भगवान की तरह सम्मान दिया जाता है क्योंकि वे ही इन अभ्यर्थियों को उन परीक्षाओं को पास करने में मदद कर सकते हैं जो उन्हें सरकारी नौकरी दिलाएंगे, चाहे वह रेलवे की हो, बैंकिंग जगत में हो या फिर सिविल सेवाओं में हो.

मुसल्लाहपुर हाट का पटना में वही स्थान है जो मुखर्जी नगर का दिल्ली में है – एक ऐसी जगह जहां हर साल सैकड़ों बेरोजगार युवा ऐसी किसी परीक्षा में उत्तीर्ण होने की उम्मीद में आते हैं, जिससे उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाएगी. उनमें से अधिकांश ऐसे परिवारों से आते हैं जो अपना गुजारा चलाने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं, और इन युवकों से घर का कमाने वाला सदस्य बनने का आसरा करते हैं.

सरकारी भर्ती परीक्षाओं के लिए बिहार के सबसे बड़े कोचिंग केंद्रों में से एक, पटना के मुसल्लाहपुर हाट में कोचिंग सेंटरों द्वारा लगाए गए होर्डिंग्स | दिप्रिंट | निर्मल पोद्दार

लेकिन अब जो फर्क है वह यह है कि इन उम्मीदों के बोझ और बढ़ती बेरोजगारी के गुस्से ने इनमें से कई युवाओं का मोहभंग कर दिया है.

रेलवे भर्ती बोर्ड (आरआरबी) परीक्षा के खिलाफ पिछले सप्ताह हुए आंदोलन के दौरान यह गुस्सा और मोहभंग स्पष्ट रूप से दिखा – गया में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के पुतले जलाए गए और एक पैसेंजर ट्रेन के डिब्बे में आग लगा दी गई. कई सारे छात्रों ने रेलवे की भर्ती प्रक्रिया में गड़बड़ी किये जाने का आरोप लगाया. नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटगरिज (एनटीपीसी) पदों के लिए हुई सामान्य परीक्षा के परिणाम घोषित होने के बाद यह विरोध शुरू हुआ. इस महीने की शुरुआत में, रेलवे ने एक अधिसूचना जारी की थी जिसमें कहा गया था कि वह ‘ग्रुप डी’ (चतुर्थ श्रेणी) की इन सेवाओं, जिसमें अब तक सिर्फ एक प्रवेश परीक्षा होती थी, के लिए द्वि-स्तरीय परीक्षा आयोजित करेगा. इसी वजह से इस परीक्षा के प्रत्याशी नाराज हो उठे थे.

5 फीट बटा 10 फीट के कमरे, एक इमारत में रहते हैं 100 छात्र

किसी के भी मुसल्लाहपुर हाट पहुंचते ही कोचिंग सेंटर की होर्डिंग्स से ‘रेलवे’, ‘एसएससी’, ‘बैंक’, ‘मैनेजमेंट’ जैसे शब्द निकल कर उस पर छलांग मारते से दिखते हैं. बोल्ड फोंट (बड़े और मोटे अक्षरों) में प्रदर्शित किये गए शिक्षकों के कांटेक्ट नंबर उसी प्रमुखता के साथ नजर आते हैं. इन्हीं शिक्षकों में से एक हैं फैसल खान, जिन्हें ‘खान सर’ के नाम से भी जाना जाता है. वे एक यूट्यूब चैनल भी चलाते हैं, जिसके 1.46 करोड़ (14.6 मिलियन) सब्सक्राइबर्स हैं. मुसल्लाहपुर हाट के एक गेटेड कॉम्प्लेक्स (दरवाजाबंद परिसर) में उनके पास एक छोटी सी जगह है, जिसे वे ‘खान रिसर्च सेंटर’ कहते हैं. उससे थोड़ा आगे एक और लोकप्रिय शिक्षक एस. के. झा का कोचिंग कैंपस है. पूरे बिहार से यहां आने वाले युवाओं के लिए खान और झा जैसे शिक्षक भविष्य के बेहतर जीवन के लिए आशा की किरण जैसे हैं.

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यहां के अधिकांश कोचिंग सेंटरों में केवल पुरुष छात्रों की ही भीड़ होती है. सरकारी नौकरी की तलाश में लगी राज्य की ज्यादातर महिलाएं बैंकिंग क्षेत्र को चुनना पसंद करती हैं.

कुछ युवा अपनी स्कूली पढाई करने के ठीक बाद मुसल्लाहपुर हाट आ जाते हैं, जबकि अन्य स्नातक डिग्री लेने के बाद यहाँ आते हैं. इसके बाद, अपने बीस के दशक के शुरुआती दिनों से लेकर तीस के दशक के मध्य काल तक, वे यहीं, अपने-अपने घर और परिवार से दूर, रहते हैं.

उन्हें कई सारे ‘स्टूडेंट्स लॉज’ में रहने की जगह मिलती है – ये ‘लॉज’ ऐसे आवासीय भवन होते हैं जिनमें 50 कमरे तक होते हैं और जिनमें से प्रत्येक की लम्बाई-चौड़ाई मुश्किल से 5 या 6 फीट गुणा 10 फीट होती है.

प्राय: एक ही ईमारत में सौ के आसपास छात्र रहते हैं. वे एक छोटे से कमरे में रहते हैं जो उनके रसोई, शयनकक्ष और अध्ययन कक्ष सब के रूप में काम करता है. इस सब के बीच, ये लड़के ऐसी नौकरियों की तैयारी करते हैं जो उन्हें एक सुरक्षित भविष्य की गारंटी दे सकते हैं.

मुसल्लाहपुर हाट में प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कई गाइडबुक बेचने वाली दुकान | दिप्रिंट | निर्मल पोद्दार

25 वर्षीय राहुल कुमार पटेल ऐसे ही एक परिसर में रहने वाले युवा हैं. मूल रूप से सीतामढ़ी के रहने वाले राकेश एक संघर्षरत परिवार से आते हैं, जहां उनके पिता, जो एक किसान हैं, परिवार के एकमात्र कमाऊ सदस्य हैं. उसके तीन छोटे भाई-बहन हैं. उसके परिवार ने उसे बताया है कि सबसे बड़ा बेटा होने के नाते नौकरी पाना और जल्द-से-जल्द कमाई शुरू करना उसकी जिम्मेदारी है. उसके पिता उसे हर महीने 3,000-4,000 रुपये की राशि भेजते हैं.

पटेल ने दिप्रिंट को बताया, ‘ मैं यहां 2018 में आ गया था और तब से मैं रेलवे परीक्षा की तैयारी कर रहा हूं. मैं इस बार भी गैर-तकनीकी श्रेणी वाली परीक्षा में बैठा था, लेकिन सफल नहीं हो सका. मैं फिर से कोशिश करूंगा, तब तक जब तक मैं कुछ हासिल नहीं कर लेता.’

जिस लॉज में पटेल रहते हैं, उसी लॉज में कम-से-कम 100 अन्य युवा भी रहते हैं. ये सभी सीतामढ़ी के हैं और एक-दूसरे के नक्शेकदम पर चलते हुए सरकारी नौकरी की तैयारी के लिए पटना आये हैं. हालांकि उनमें से अधिकांश को इन कोचिंग सेंटरों के बारे में मौखिक रूप से सुनी-सुनाई बातों के आधार पर पता चला, फिर भी ये कोचिंग सेंटर सोशल मीडिया, विशेष रूप से यूट्यूब, के माध्यम से अपने काम का विज्ञापन भी करते हैं.

जिस लॉज में पटेल रहते हैं उसी लॉज में रहने वाले एक अन्य छात्र, 25 वर्षीय धर्मेंद्र कुमार का कहना है, ‘ मेरा भाई और उसके दोस्त ग्रेजुएशन के बाद यहां आए थे, इसलिए मैं भी यहां आना चाहता था. स्कूल की पढाई ख़त्म के बाद मैं और कुछ करने के बारे में सोच भी नहीं सकता था.’ उसका कहना है, ‘जब मैं बड़ा हो रहा था तो मुझे बताया गया था कि अगर मुझे सरकारी नौकरी मिल जाती है, तो मेरा जीवन सुरक्षित रहेगा और सबसे अच्छा विकल्प रेलवे की नौकरी के लिए प्रयास करना है क्योंकि उसमें हीं अधिकतम रिक्तियां आती हैं’. धर्मेंद्र के पिता खेती करके थोड़ा-बहुत कमा लेते हैं और उनके दो अन्य भाई ऑटोरिक्शा चलाते हैं.


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सबसे बड़े कारकों में से एक है कम फीस होना

दिप्रिंट ने जिन युवाओं से बात की उनमें से अधिकांश का कहना था कि वे दिल्ली विश्वविद्यालय या फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जाने की कभी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, और आईआईटी और एनआईटी जैसे संस्थान उनके सपनों से बहुत आगे की चीज हैं. उनमें से किसी का भी परिवार उन संस्थानों का खर्च वहन नहीं कर सकता है, क्योंकि उन सभी के परिवार उन्हें अपना काम चला सकने लायक जरूरी 3,000-4,000 रुपये प्रति माह की राशि ही भेज सकते हैं.

यहां के ज्यादातर कोचिंग सेंटर एक विषय पढ़ाने के लिए महज 200-300 रुपये प्रति माह की फीस लेते हैं. इस तरह, भले ही कोई छात्र महीने में पांच विषयों की कोचिंग ले रहा हो, फिर भी वह 9-10 महीने की कोचिंग के लिए प्रति माह लगभग 1,000 रुपये का ही भुगतान करता है, और बाकी समय के लिए वह खुद से पढाई करने का विकल्प चुनता है.

आशा एजुकेशन सेंटर के एस.के. झा, जो आआईटी खड़गपुर से स्नातक हैं, के अनुसार यही कारण है कि मुसल्लाहपुर हाट में छात्रों की भीड़ उमड़ती रहती है.

झा ने दिप्रिंट को बताया, ‘यहां शिक्षा सबसे कम खर्चीली है… व्यावहारिक रूप से तो हम छात्रों से लगभग न के बराबर शुल्क लेते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि वे गरीब पृष्ठभूमि से आते हैं. उन्हें यहां जो पैसा खर्च करना पड़ता है, उसमें से ज्यादातर किराए और खाने पर ही खर्च होता है.’

वह स्वयं विज्ञान की कक्षाओं के लिए 200 रुपये प्रति माह तथा तर्कशक्ति (रीजनिंग) और गणित (मैथ) के लिए 250 रुपये प्रति माह लेते हैं.

झा का अनुमान है कि मुसल्लाहपुर हाट और उसके आसपास लगभग 3-4 लाख छात्र रहते हैं. वे बताते हैं ‘यहां के स्थानीय लोग घरों नहीं बनाते, वे लॉज बनाते हैं; ताकि उनमें अधिक-से-अधिक छात्रों को जगह दी जा सके और जिनसे वे पैसे कमा सकें. वे एक छोटे से कमरे के लिए 2,000 रुपये तक का किराया लेते है.’

एक औसत आकार के कोचिंग संस्थान में एक बार में लगभग 7,000 से लेकर 8,000 छात्र नामांकित होते हैं. अगर प्रत्येक छात्र चुने गए विषयों की संख्या के आधार पर 500-1,000 रुपये प्रति माह तक का भी भुगतान करता है तो भी कोचिंग सेंटर फीस के रूप में प्रति माह 35 से 80 लाख रुपये के बीच पैसा बना सकते हैं.

हालांकि, कोचिंग सेंटर के मालिकों का कहना है कि महामारी के बाद से इनमें प्रवेश लेने वालों की संख्या में काफी गिरावट आई है. प्लेटफॉर्म कोचिंग सेंटर के निदेशक नवीन कुमार ने दिप्रिंट को बताया, ‘जब हमारा सेंटर लॉकडाउन के बाद फिर से खुला, तो लगभग 1,500-2,000 छात्र ही हमारे यहां वापस लौटे. अन्य सेंटर्स को भी इसी तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. हम उम्मीद कर रहे हैं कि स्थिति जल्द ही सामान्य हो जाए, ताकि अधिक-से-अधिक छात्र कक्षाओं में लौट सकें.’

भारत में कोचिंग सेंटरों के विकास की निगरानी करने वाली एक निजी संस्था, कोचिंग एसोसिएशन ऑफ भारत, के संस्थापक सचिव सुधीर कुमार सिंह के अनुसार, फ़िलहाल पटना में लगभग 4,000 कोचिंग सेंटर हैं. उन्होंने बताया, ‘पूरे बिहार में लगभग 7,700 कोचिंग सेंटर हैं और उनमें से आधे से अधिक पटना में हैं. लेकिन उन पर कोविड का बुरा असर पड़ा है और पटना में लगभग 1,000 कोचिंग सेंटरों को अपना कामकाज बंद करनी पड़ा है.’

सिंह का अनुमान है कि पटना में चल रहे इस कोचिंग उद्योग का सालाना कारोबार लगभग 450-500 करोड़ रुपये है.


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‘बचपन में ही समाया गया सपना’

यहां बड़ा सवाल यह है कि सरकारी नौकरी में ऐसा क्या है जिसकी वजह से ये नौजवान ऐसे हालातों में रहते हुए भी सालों तक उसके पीछे लगे रहते हैं?

एक शिक्षक सनोज कुमार, जो एक यूट्यूब चैनल भी चलाते हैं, ने कहा, ‘यह एक जगजाहिर तथ्य है कि बिहार में कोई खास उद्योग नहीं है, इसलिए स्वाभाविक रूप से, छात्रों के पास निजी नौकरियों के लिए कोई विशेष अवसर नहीं है.’ उन्होंने कहा, ‘वे सरकारी नौकरियों की तरफ भागते हैं क्योंकि यह सुरक्षा और मन की शांति प्रदान करता है. यही कारण है कि आपको यहां बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं रहते हुए दिखाई देंगे, जो जूनियर लेवल से लेकर सीनियर लेवल तक सभी प्रकार की सरकारी नौकरियों की तैयारी कर रहे हैं.‘

उन्होंने कहा, ‘सरकारी नौकरी के साथ जीवनयापन में जिस तरह की आसानी होती है, वही छात्रों को यहां रहने और रेलवे की नौकरियों के लिए अध्ययन करने के लिए प्रेरित करता रहती है. एक रेलवे कर्मचारी या फिर एक सरकारी कर्मचारी एक आरामदायक जीवन व्यतीत करता है, वह अपनी नौकरी से खुश होता है और उसे अच्छा-खासा वेतन मिलता है… ये सभी कारक छात्रों को प्रेरित करते हैं.‘

एस. के. झा के अनुसार, रेलवे में ग्रुप ‘डी’ से ‘ग्रुप ‘ए’ तक की नौकरियों में नए बहाल हुए लोगों (फ्रेशर्स) को 17,000 रुपये प्रति माह से लेकर 50,000 रुपये प्रति माह वेतन मिलना तय होता है.

प्लेटफार्म कोचिंग के नवीन कुमार कहते हैं कि यह इलाका सामान्य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग का केंद्र इस वजह से भी बन गया है क्योंकि सफलता प्राप्त करने वाला प्रत्येक छात्र कई अन्य लोगों को उसी के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करता है.

नवीन कहते हैं, ‘ बिहार के अलावा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी भाषी राज्यों के छात्र भी यहां आते हैं. यहां नामांकन करवाने वाले अधिकांश छात्र अपनी जान-पहचान के किसी ऐसे व्यक्ति से प्रेरित होते हैं जो सफल रहा… यह कई वर्षों के दौरान बना एक प्रचलन है.’

नवीन यह भी कहते हैं, ‘इन कोचिंग कक्षाओं में आने वाले अधिकांश युवाओं को कोई-न-कोई नौकरी मिल ही जाती है … यदि कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) में नहीं होता, तो विभिन्न बैंक की नौकरियां, रेलवे की नौकरियां, राज्य सरकार की नौकरियां, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) में नौकरियां भी हैं. हर कोई किसी-न-किसी नौकरी में चला ही जाता है … अभी, आप बड़ी संख्या में उम्मीदवारों को नौकरी की प्रतीक्षा करते हुए देख रहे हैं क्योंकि कोविड की वजह से अधिकांश सरकारी परीक्षाओं में देरी हुई है.‘

28 वर्षीय नीतीश कुमार, जो अब रेलवे में स्टेशन मास्टर के रूप में काम करते हैं, कभी इनमें से ही किसी एक सेंटर के छात्र हुआ करते थे.

उन्होंने दिप्रिंट को फोन पर बताया, ‘आप बिहार और उत्तर प्रदेश में रेलवे और सरकारी नौकरियों के लिए जो दीवानगी देखते हैं, वह बचपन से ही इन युवाओं समा दिया गया होता है. सरकारी आवास के साथ एक अच्छी जिंदगी, काम के निश्चित घंटे और एक अच्छा वेतन; यही वह सब कुछ है जिसकी वे तलाश करते हैं और मैंने इस नौकरी के साथ यही सब कुछ हासिल किया है.’

नीतीश कुमार आगे कहते हैं कि हालांकि यह कई दूसरे लोगों के लिए बहुत ही औसत दर्जे की उपलब्धि हो सकती है, मगर उनके जैसे कई लोगों के लिए, तथा अभी भी संघर्ष कर रहे कई अन्य लोगों के लिए भी, यह एक सपने के सच होने जैसा है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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