यह चार हिस्सों की सीरीज़ की दूसरा रिपोर्ट है. पहली रिपोर्ट आप यहां पढ़ सकते हैं.
नई दिल्ली/फिरोज़पुर झिरका (हरियाणा): दिल्ली के एक प्राइवेट स्कूल के रंग-बिरंगे और आकर्षक एक्टिविटी रूम में, जिसे छोटे बच्चों के लिए खासतौर पर तैयार किया गया है — जहां दीवारों पर शैक्षिक चार्ट लगे हैं, खिलौनों से खेलते बच्चे हैं और कोनों में एक्टिविटी स्टेशन बने हैं — जून की एक सुबह, चार साल की मेहर और अरन्या अपनी पढ़ाई में पूरी तरह मग्न थीं.
कमरे में हंसी-ठिठोली और बातचीत की आवाज़ें गूंज रही थीं, क्योंकि बच्चे अलग-अलग पेशों से जुड़े लोगों के कार्डबोर्ड कट-आउट को उनके औज़ारों से मिलाने में लगे थे.
जब टीचर ने डॉक्टर का कट-आउट दिखाया, तो मेहर ने उसे सही मेडिकल टूल से मिलाया और जब एक बावर्ची की तस्वीर दिखाई गई, तो अरन्या ने झट से बर्तन वाला कार्ड उठा लिया.
यह नज़ारा था दिल्ली के द्वारका स्थित एक नामी निजी स्कूल आईटीएल पब्लिक स्कूल की किंडरगार्टन या प्री-प्राइमरी विंग का जिसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के तहत ‘बालवाटिका’ कहा जाता है. यह स्कूल इस नीति के कई प्रावधानों को अपनाकर प्रयोग कर रहा है.
विंग की हेडमिस्ट्रेस टैबिथा हैमिल्टन ने बताया, “अब हम हर सब्जेक्ट को बच्चों को कहानी के ज़रिए समझाते हैं. जैसे गणित में जोड़ सिखाना हो, तो हम कहते हैं कि दो दोस्त थे — एक के पास पांच गुब्बारे थे और दूसरे के पास दो. तो कुल कितने गुब्बारे हुए? इससे बच्चे ज़्यादा रुचि से सीखते हैं.”
एनईपी ने प्री-प्राइमरी एजुकेशन में बड़े बदलाव लाए हैं. इसमें प्रारंभिक बाल देखभाल और शिक्षा पर ज़ोर दिया गया है और किताबों के बजाय खेल और अनुभव आधारित शिक्षा को प्राथमिकता दी गई है. नीति के तहत तीन साल की बालवाटिका शिक्षा भी अनिवार्य की गई है.
लेकिन दिल्ली से लगभग 100 किलोमीटर दूर, हरियाणा के नूंह ज़िले के एक सरकारी स्कूल की तस्वीर एकदम उलट है.
चार साल की गुड़िया और चिंकी को एक छोटे से अधपक्के आंगन में बैठकर पढ़ना पड़ता है, जहां छत टिन की है और कमरे की दीवारें भी पूरी नहीं बनीं यानी नई शिक्षा नीति 2020 में जिस विकास की कल्पना की गई है, उससे यह जगह पूरी तरह कटी हुई है.
यही आंगन पिछले साल से फिरोज़पुर झिरका के ढोंड-खुर्द गांव स्थित एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में बालवाटिका कक्षा के रूप में इस्तेमाल हो रहा है. यह कमरा मिड-डे मील पकाने और बांटने के लिए भी उपयोग होता है.
स्कूल में कुल 210 बच्चे हैं, लेकिन केवल एक पक्का क्लासरूम, एक आंगन, एक अस्थायी ढांचा और बालवाटिका से लेकर कक्षा 5 तक सभी बच्चों के लिए सिर्फ एक शिक्षक हैं.
शिक्षक अहमद हुसैन ने बताया कि उन्हें राज्य शिक्षा विभाग से एनईपी 2020 के तहत अनुभवात्मक खिलौने और एनसीईआरटी द्वारा तैयार ‘जादुई पिटारा’ मिला है — जिसमें एनीमेटेड कहानियों समेत कई रोचक शैक्षणिक सामग्री है, लेकिन वह उन्हें इस्तेमाल नहीं कर पा रहे.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “मैं अकेला टीचर हूं, जो पांच क्लास और 13 बालवाटिका बच्चों को संभालता हूं. इतने सारे बच्चों को एक साथ खेल के माध्यम से पढ़ा पाना नामुमकिन है. आज भी मैंने शिक्षा विभाग को एक और शिक्षक भेजने की मांग भेजी है. हमारे पास पर्याप्त जगह भी नहीं है, इसलिए बालवाटिका के बच्चों को इसी आंगन और क्लास (जो कह लीजिए) में बैठाना पड़ता है, जहां मिड-डे मील भी बनता है. यह बच्चों के लिए असुरक्षित है, लेकिन क्या करें? मैं हमेशा उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित रहता हूं.”
शिक्षकों की कमी सिर्फ इस स्कूल तक सीमित नहीं है. हरियाणा के शिक्षा मंत्री महिपाल ढांडा द्वारा मार्च में विधानसभा में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, राज्य भर में 15,659 से ज़्यादा शिक्षक पद — यानी कुल स्वीकृत पदों का 13.57% — खाली पड़े हैं.
और एनईपी 2020 के अधूरे क्रियान्वयन की मार सिर्फ हरियाणा के सरकारी स्कूलों तक सीमित नहीं है. राजस्थान, उत्तर प्रदेश और यहां तक कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों के शिक्षकों ने दिप्रिंट को बताया कि उनके स्कूलों में यह नीति ज़्यादातर कागज़ों तक सीमित है. बुनियादी ढांचे की कमी और संसाधनों की दिक्कतें बनी हुई हैं.
एनईपी 2020 के अलग-अलग जगहों पर कैसे क्रियान्वयन हो रहा है, इसे समझने के लिए दिप्रिंट ने दिल्ली के एक मॉडल प्राइवेट स्कूल और हरियाणा के दो सरकारी स्कूलों — एक प्राइमरी और एक सीनियर सेकेंडरी का दौरा किया.
जांच में पाया गया कि सरकार की नीति को लागू करने की स्पष्ट मंशा के बावजूद, सरकारी स्कूलों की जर्जर हालत और कर्मचारियों की भारी कमी, इसे ज़मीनी स्तर पर उतारने में बड़ी बाधा बनी हुई है.
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इन्फ्रास्ट्रक्चर की चुनौती
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने पुराने 10+2 के ढांचे को बदलकर एक नया 5+3+3+4 मॉडल लागू किया है. यह ढांचा 3 से 18 साल तक के बच्चों को चार चरणों में बांटता है — फाउंडेशनल स्टेज: 3 साल की आंगनवाड़ी/प्री-स्कूल + कक्षा 1–2 (उम्र 3–8 साल), प्रिपरेटरी स्टेज: कक्षा 3–5 (उम्र 8–11 साल), मिडिल स्टेज: कक्षा 6–8 (उम्र 11–14 साल), सेकंडरी स्टेज: कक्षा 9–12 (दो हिस्सों में: 9–10 और 11–12, उम्र 14–18 साल).
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में एफएलएन को एक “तत्काल राष्ट्रीय मिशन” माना गया है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए 2021 में शिक्षा मंत्रालय ने NIPUN भारत मिशन शुरू किया. इसका उद्देश्य 2026–27 तक हर बच्चे को कक्षा 3 के अंत तक बुनियादी भाषा और गणित का ज्ञान दिलाना है — इसके लिए शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया गया, ठोस सीखने के लक्ष्य तय किए गए, नियमित मूल्यांकन और समुदाय की भागीदारी पर ज़ोर दिया गया.
2022 में मंत्रालय और एनसीईआरटी ने फाउंडेशन स्टेज के लिए एनसीएफ जारी किया, जिसमें कक्षा 2 तक के बच्चों के लिए खेल आधारित शिक्षण की सिफारिश की गई. इसमें बातचीत, कहानियों, खिलौनों, संगीत, कला और शिल्प के ज़रिए पढ़ाई पर ज़ोर है.
लेकिन हरियाणा के फिरोज़पुर झिरका के ढोंड-खुर्द गांव के सरकारी स्कूल में बुनियादी ढांचे की बदहाली और शिक्षकों की भारी कमी हकीकत को उजागर करती है. यहां पहली क्लास के छात्र बालवाटिका के बच्चों के साथ एक तंग से टिन की छत वाले आंगन में पढ़ते हैं, जबकि कक्षा 2 और 3 के बच्चे बरामदे में दरी पर बैठते हैं और वहां एक ब्लैकबोर्ड तक नहीं है.
हालांकि, शिक्षक अहमद हुसैन ने NIPUN भारत के तहत ट्रेनिंग ली है, लेकिन वह कहते हैं कि उस ट्रेनिंग को ज़मीन पर लागू करना लगभग नामुमकिन है.
हुसैन ने कहा, “बच्चे एक बहुत ही छोटे से कमरे में ज़मीन पर बैठते हैं क्योंकि हमारे पास बेंच तक नहीं हैं और अगर हों भी, तो उन्हें रखेंगे कहां? ऐसे हालात में मुझे उन्हें सिर्फ कॉपी में काम देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखता, ताकि वे किसी तरह व्यस्त रहें, लेकिन हर एक कॉपी चेक करना मेरे लिए अकेले मुमकिन नहीं है. मैं उनके प्रोग्रेस पर नज़र नहीं रख पाता.”

द्वारका के ITL पब्लिक स्कूल की प्री-प्राइमरी विंग में बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह खेल-कूद आधारित है. इस स्कूल ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत सुझाए गए ‘होलिस्टिक प्रोग्रेस कार्ड’ (एचपीसी) को भी अपनाया है, जो पारंपरिक अंकों से आगे जाकर बच्चों की संज्ञानात्मक, भावनात्मक, सामाजिक और शारीरिक विकास को कई आयामों में आंकता है.
स्कूल की प्रिंसिपल सुधा आचार्य ने बताया, “एचपीसी के ज़रिए हर क्षेत्र में बच्चों की क्षमताओं का मूल्यांकन किया जाता है. जैसे कि बच्चे खुद को कितना पहचानते हैं, उनकी सफाई की आदतें, शरीर के अंगों की पहचान, और शरीर की हलचलों का प्रयोग—इन सभी का ट्रैक रखा जाता है. हर डोमेन में शिक्षकों की डिटेल्ड फीडबैक दी जाती है. इसके अलावा पैरेंट्स की राय और बच्चों की खुद की सेल्फ-असेसमेंट भी इसमें शामिल होती है.”
वहीं हरियाणा के ढोंड-खुर्द के सरकारी स्कूल में, शिक्षक को एचपीसी जैसे कांसेप्ट के बारे में भी जानकारी नहीं थी. हुसैन ने कहा, “अगर सरकार इसे लागू भी कर दे, तो एक ही शिक्षक वाले स्कूल में हर एक बच्चे की प्रगति को कैसे ट्रैक किया जाएगा?”
PARAKH राष्ट्रीय सर्वेक्षण (पहले इसे नैशनल अचीवमेंट सर्वे या NAS कहा जाता था) के जुलाई में आए नतीजों से पता चला कि सरकारी स्कूलों के छात्र बुनियादी पढ़ाई-लिखाई और गणित में निजी स्कूलों के छात्रों से काफी पीछे हैं. हालांकि, यह भी देखा गया कि NIPUN भारत मिशन की वजह से जूनियर कक्षाओं के बच्चों के प्रदर्शन में पिछले सर्वेक्षण की तुलना में सुधार आया है, लेकिन सीनियर कक्षाओं में यह प्रदर्शन गिरता दिखा.
सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन (जो कि स्कूल एजुकेशन पर काम करने वाला एक गैर-लाभकारी संगठन है) की सीईओ और मैनेजिंग डायरेक्टर श्वेता शर्मा-कुकरजा ने कहा कि नीति को लागू करने में कई चुनौतियां हैं, जिनमें सबसे बड़ी है इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी और स्कूलों के विशाल नेटवर्क को संभालने की जटिलता.
उन्होंने कहा, “राज्य के शिक्षा विभाग पहले से ही कई जिम्मेदारियों से दबे हुए हैं, सरकारी स्कूल चलाना, नीतियां बनाना और निजी स्कूलों समेत सभी स्कूलों की निगरानी करना. अधिकारों का इतना केंद्रीकरण स्कूल सिस्टम के प्रबंधन को कमज़ोर बनाता है और खुद एनईपी में भी इस बात को स्वीकारा गया है. ऐसे में उम्मीद करना कि यही विभाग निजी स्कूलों में भी एनईपी को लागू करे, न तो व्यावहारिक है और न ही उचित.”
इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने एनईपी की धारा 8.5(सी) के तहत प्रस्तावित एक बड़े संरचनात्मक सुधार की ओर इशारा किया—राज्य स्कूल मानक प्राधिकरण (SSSA) की स्थापना.
उन्होंने कहा, “SSSA का उद्देश्य शिक्षा विभाग से रेगुलेटरी रोल लेकर यह सुनिश्चित करना है कि हर स्कूल—सरकारी हो या निजी—सीखने के नतीजों से जुड़ी पारदर्शी और पेशेवर मानकों को पूरा करे. इससे शिक्षा विभाग नीति निर्माण पर ध्यान केंद्रित कर सकेगा, डायरेक्टोरेट सरकारी स्कूलों में सुधार पर काम कर सकेगा और SSSA रेगुलेशन और जवाबदेही को देखेगा.”
शर्मा ने कहा, “एनईपी 2020 को सही मायनों में ज़मीन पर उतारने के लिए ज़रूरी है कि शासन के ढांचे में सुधार किया जाए. SSSA जैसा एक समर्पित, निष्पक्ष रेगुलेटरी बॉडी होनी चाहिए जो हर तरह के स्कूलों में नीति को लागू करने की निगरानी करे. तभी जाकर एनईपी 2020 की मंशा वास्तविक बदलाव में बदलेगी.”
तैयारी स्तर पर प्रैक्टिकल लर्निंग की ज़रूरत
नई शिक्षा नीति 2020 यह सिफारिश करती है कि हर स्कूल में लाइब्रेरी, साइंस और कंप्यूटर लैब, स्किल लैब, खेल के मैदान, खेल सामग्री और अन्य ज़रूरी संसाधन उपलब्ध होने चाहिए ताकि बच्चों को तैयारी स्तर से ही अनुभवात्मक और प्रैक्टिकल तरीके से पढ़ाया जा सके.
लेकिन हरियाणा के फिरोज़पुर झिरका में स्थित गवर्नमेंट गर्ल्स सीनियर सेकेंडरी स्कूल की स्थिति कुछ और ही है. यहां साइंस लैब के लिए तय किया गया कमरा दरअसल एक स्टोररूम बन चुका है जिसमें कार्टन और अन्य सामान भरा हुआ है.
स्कूल की विज्ञान शिक्षिका मीनाक्षी ने दिप्रिंट को बताया, “राज्य शिक्षा विभाग से साइंस प्रैक्टिकल के लिए नया सामान आया है, लेकिन हमारे पास उन्हें खोलकर रखने या उपयोग करने के लिए जगह ही नहीं है क्योंकि लैब में टेबल्स तक नहीं हैं. इस वजह से हम सीनियर स्टूडेंट्स के लिए भी प्रैक्टिकल क्लासेस नहीं ले पा रहे…जूनियर्स की तो बात ही छोड़ दीजिए.”
कक्षा 11वीं और 12वीं के छात्रों के लिए भौतिकी और रसायन विज्ञान की प्रैक्टिकल क्लास एक बार भी नहीं हुई. बायोलॉजी की अस्थायी लैब में सिर्फ कुछ परमानेंट स्लाइड्स हैं और एक भी काम करने वाला माइक्रोस्कोप नहीं है.
मीनाक्षी ने कहा, “अगर हमारे पास सिर्फ एक भी सही माइक्रोस्कोप होता, तो हम कई तरह के प्रयोग करा सकते थे. एक बार मुझे फूल की रचना समझानी थी, तो बाहर से फूल लाना पड़ा क्योंकि स्कूल में गार्डन तक नहीं है. फिर माइक्रोस्कोप को धूप में रखा ताकि छात्र लेंस को देख सकें.”
वहीं दूसरी तरफ, दिल्ली के द्वारका स्थित आईटीएल पब्लिक स्कूल में चौथी कक्षा के छात्रों का साइंस का एक प्रैक्टिकल पीरियड चल रहा था, जिसमें वे पानी से मिट्टी जैसी असघुलनशील अशुद्धियों को अलग करना सीख रहे थे.

छात्र देवांश ने उत्साह के साथ बताया, “हम देख सकते हैं कि मिट्टी नीचे बैठ गई है, इसका मतलब यह पानी में घुलती नहीं है. हम कुछ समय रुकते हैं और मिट्टी को बैठने देते हैं, इस प्रक्रिया को ‘सेडिमेंटेशन’ कहते हैं.”
स्कूल की प्रिंसिपल सुधा आचार्य ने बताया कि नई शिक्षा नीति 2020 लागू होने के बाद शिक्षा में ‘सीखकर करना’ और इंटरडिसिप्लिनरी (बहु-विषयक) अप्रोच पर ज़ोर बढ़ा है. “अब हम सिर्फ टेक्स्टबुक्स पर निर्भर नहीं हैं. जूनियर क्लास के बच्चे भी हर हफ्ते लैब में जाकर प्रैक्टिकल सीखते हैं.”
लेकिन फिरोज़पुर झिरका के गर्ल्स स्कूल की हालत बिल्कुल उलटी है. 1,100 छात्राओं के लिए सिर्फ 23 टीचर्स हैं—यानी एक शिक्षक पर करीब 48 छात्र, जबकि एनईपी प्राइमरी स्तर के लिए 30:1 का अनुपात सुझाती है. स्कूल में केवल 12 क्लासरूम हैं, जिससे कुछ कक्षाओं में 100 से भी ज़्यादा छात्र एक साथ पढ़ने को मजबूर हैं. कई क्लासेस तो कॉरिडोर में चटाई बिछाकर चलती हैं.
स्कूल के प्रिंसिपल सैयद मोहम्मद इनाम ने कहा, “इस तरह की जगह की कमी में एक्टिविटी के ज़रिए पढ़ाई कराना मुश्किल है. शिक्षकों की भी भारी कमी है, हमारे यहां कंप्यूटर टीचर या फिजिक्स टीचर तक नहीं है. ऐसे हालात में प्रैक्टिकल या अनुभव आधारित शिक्षा देना बहुत मुश्किल हो जाता है.” वे लगातार आसपास के गांवों से लड़कियों को स्कूल में दाखिला दिलाने की कोशिश में लगे रहते हैं.
हालांकि, फिरोज़पुर झिरका के ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर चरण देव ने कहा कि शिक्षा विभाग ऐसे स्कूलों की मदद के लिए प्रयासरत है. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “जिन स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं या सिर्फ एक ही शिक्षक है, वहां मदद पहुंचाने की कोशिश की जा रही है. सरकार स्कूलों के इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने पर लगातार काम कर रही है और जो अब तक छूट गए हैं, उन्हें भी जल्द सुविधाएं मिलेंगी.”
‘संसाधन ही नहीं हैं, तो तकनीक का इस्तेमाल कैसे करें?’
नई शिक्षा नीति 2020 में पढ़ाई में टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया गया है. इसके तहत स्मार्ट क्लासरूम और डिजिटल तरीके से पढ़ाई को धीरे-धीरे स्कूलों में लागू करने की बात कही गई है.
लेकिन फिरोज़पुर झिरका के सरकारी सीनियर सेकेंडरी गर्ल्स स्कूल में यह सपना अभी भी हकीकत से बहुत दूर है. यहां एक कमरे में डिजिटल बोर्ड तो है, लेकिन वहां फर्नीचर तक नहीं है. हैरानी की बात यह है कि जहां बच्चों को टेक्नोलॉजी के बारे में पढ़ाया जा रहा है, वहां वो ज़मीन पर बैठकर पढ़ने को मजबूर हैं.

हिंदी के शिक्षक शशिकांत ने कहा, “जब ठीक से बिजली की सप्लाई नहीं है, तो स्मार्ट बोर्ड होना या न होना एक बराबर है. ज़्यादातर समय ये यूं ही बंद पड़ा रहता है. ऊपर से इस छोटे से कमरे में हमें 100 बच्चों को एक साथ बैठाना पड़ता है. ऐसे में डिजिटल तरीकों से पढ़ाना तो बहुत दूर की बात है, बच्चों को कुछ समझाना भी मुश्किल हो जाता है.”
स्कूल में एक कंप्यूटर लैब तो है, लेकिन वहां सिर्फ धूल जमा हो रही है. सारे कंप्यूटर खराब पड़े हैं और कई सालों से स्कूल में कोई कंप्यूटर टीचर भी नहीं है. 12वीं की छात्रा शाहीन बताती हैं कि पिछले साल जब से उन्होंने स्कूल जॉइन किया, तब से उन्होंने एक भी कंप्यूटर प्रैक्टिकल क्लास नहीं की. स्कूल में वाई-फाई की सुविधा भी नहीं है.
शाहीन, जो आगे चलकर डॉक्टर बनना चाहती हैं, ने कहा, “मुझे कंप्यूटर चलाना नहीं आता. अगर लैब चल रही होती, तो हम आज की टेक्नोलॉजी के बारे में बहुत कुछ सीख सकते थे.”
इसके ठीक उलट, दिल्ली के आईटीएल स्कूल की सभी क्लासों में स्मार्ट बोर्ड लगे हैं और दो कंप्यूटर लैब भी पूरी तरह काम कर रहे हैं.
प्रिंसिपल आचार्य ने कहा, “हमारे पास एक जूनियर लैब है, जो कक्षा 5 तक के बच्चों के लिए है और एक सीनियर लैब, जो कक्षा 6 से 12 तक के लिए है. इसके अलावा हमारे पास एक लैंग्वेज लैब भी है, जिसमें 40 कंप्यूटर और हैं.” स्कूल में हर दिन डिजिटल तरीकों से पढ़ाई कराई जाती है.
‘सिर्फ अच्छे इरादों से नहीं हो सकता बहुभाषावाद’
एनईपी में भाषाई विविधता को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया गया है. खासकर भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल और पकड़ को स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक मजबूत करने की बात कही गई है.
दिल्ली के आईटीएल स्कूल की लैंग्वेज लैब में छात्र-छात्राएं कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में सही उच्चारण और बोलचाल सीखते हैं. इसके लिए खास सॉफ्टवेयर लगाए गए हैं. हर कंप्यूटर पर हेडफोन लगे हैं ताकि छात्र सुनकर बेहतर तरीके से अभ्यास कर सकें.
प्रिंसिपल आचार्य ने दिप्रिंट को बताया कि उनके स्कूल के कई शिक्षक और कई बच्चों के माता-पिता भी एक से ज्यादा भारतीय भाषाएं जानते हैं. वे बच्चों को अलग-अलग भाषाओं में कुछ मूल शब्द और वाक्य सिखाने में मदद करते हैं. स्कूल ने CBSE की गाइडलाइन के तहत ‘लैंग्वेज मैपिंग’ भी की है, ताकि यह समझा जा सके कि छात्र किन भाषाओं से जुड़े हैं.
उन्होंने बताया, “हमने स्कूल में तय किया है कि हर महीने किसी एक राज्य को समर्पित किया जाएगा और वहां बोली जाने वाली भाषाओं के कुछ मूल शब्द और वाक्य बच्चों को सिखाए जाएंगे. इस महीने हम सिक्किम को सेलिब्रेट कर रहे हैं, जहां की प्रमुख भाषाएं नेपाली, लेप्चा और भूटिया हैं. हमारी एक शिक्षिका, जो इन भाषाओं में पारंगत हैं, उन्होंने हाल ही में बच्चों के लिए एक वीडियो बनाया है जिसमें बुनियादी शब्द और वाक्य बताए गए हैं.”
स्कूल पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए चार भाषाओं — असमिया, ओड़िया, हिमाचली और मलयालम को भी शुरू करने की योजना बना रहा है. कक्षा 6 से 8 तक के छात्रों को इनमें से कोई एक स्थानीय भाषा चुनने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा.
आचार्य ने कहा, “इस तरह हम एनईपी 2020 के बहुभाषावाद के लक्ष्य को पूरा कर सकेंगे, लेकिन यह सब इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि हमारे पास प्रशिक्षित स्टाफ है, जो न सिर्फ पहल कर रहा है बल्कि माता-पिता को भी साथ ला रहा है.”

वहीं दूसरी ओर, हरियाणा के फिरोज़पुर झिरका स्थित सरकारी गर्ल्स स्कूल में, शिक्षक दो ही भाषाएं हिंदी और अंग्रेज़ी पढ़ाने में संघर्ष कर रहे हैं.
प्रधानाचार्य इनाम ने कहा, “हमारे यहां ज़्यादातर पढ़ाई हिंदी में होती है, जो किताबें अंग्रेज़ी में हैं, उन्हें भी हम हिंदी में ही समझाते हैं. ऐसे माहौल में कई भाषाएं पढ़ाना संभव नहीं है, क्योंकि यहां शिक्षक पहले ही दोहरी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं. फिर बाकी भाषाएं कौन पढ़ाएगा?”
इनाम और उनके साथी अब उम्मीद कर रहे हैं कि उन्हें जल्द ही अतिरिक्त कमरे या जगह मिल सके, जिससे वे नीति को सही मायनों में लागू कर सकें.
उन्होंने कहा, “जब तक आधारभूत ढांचा और स्टाफ नहीं बढ़ेगा, तब तक नीति सिर्फ कागज़ों पर ही रहेगी, चाहे हम जितनी भी कोशिश कर लें और इसका नुकसान हमारे बच्चों को ही होगा.”
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