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Friday, 20 December, 2024
होमएजुकेशनवह स्कूल जहां आप एग्जाम तो देने जाते हैं, लेकिन पढ़ते कोचिंग में हैं — कैसे काम करते हैं ‘डमी स्कूल’

वह स्कूल जहां आप एग्जाम तो देने जाते हैं, लेकिन पढ़ते कोचिंग में हैं — कैसे काम करते हैं ‘डमी स्कूल’

एजुकेशन बोर्ड के नियमों का उल्लंघन करने के बावजूद, डमी स्कूलिंग एंट्रेस एग्जाम के एस्पिरेंट्स के बीच लोकप्रिय हो गई है. कोचिंग इंडस्ट्री के हितधारकों का कहना है कि स्कूल छात्रों की ज़रूरतों को पूरा नहीं करते हैं.

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कोटा/नई दिल्ली: कोचिंग हब कोटा की सड़कों पर, एंट्रेस एग्जाम के एस्पिरेंट्स के बीच एक आम बात है, “हम तो डमी हैं”, जिसे गर्व के साथ कहा जाता है.

यह किसी मूर्ख व्यक्ति का संदर्भ नहीं, बल्कि “डमी स्कूलिंग” है, जो न केवल कोटा में बल्कि पूरे भारत में लोकप्रिय शिक्षा का एक तरीका है, जिसमें एंट्रेस एग्जाम के लिए पढ़ने वाले स्टूडेंट्स ग्याहरवीं और बाहरवीं क्लास की पढ़ाई के लिए रेगुलर स्कूलों में दाखिला लेते हैं, लेकिन इंस्टीट्यूट उन्हें क्लास में आने के लिए इंटरनल असेसमेंट से छूट दी जाती है.

माना जाता है कि पिछले 10 सालों से यह चलन जारी है, लेकिन डमी स्कूलिंग एजुकेशन बोर्ड के नियमों के खिलाफ है, जिनमें से कई बोर्ड ने छात्रों के लिए 75 प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य की है.

17-वर्षीय दिनेश प्रताप ऐसे ही एक “डमी स्टूडेंट” हैं जो भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) में एक सीट पाने के लिए इच्छुक हैं.

जब उन्होंने अपनी दसवीं की बोर्ड परीक्षा में 90 प्रतिशत से अधिक स्कोर हासिल किए, तो दिनेश ने भारत में सबसे कठिन इंजीनियरिंग एंट्रेस एग्जाम में से एक को पास करने के लिए राजस्थान के जयपुर में अपने घर से लगभग 250 किलोमीटर दूर कोटा जाने का फैसला किया.

कोटा में इन्टेंस कोचिंग सेशन्स का मतलब था कि रेगुलर स्कूल की क्लास प्रभावित होंगी और दिनेश ने “डमी स्टूडेंट” बनना चुना. वे अब जयपुर के एक स्कूल में स्टूडेंट हैं, लेकिन कोटा में रहते हैं और जेईई एग्जाम के लिए वहां कोचिंग ले रहे हैं.

“डमी स्कूलिंग” में रेगुलर स्कूल अनौपचारिक रूप से कोचिंग सेंटरों के साथ साझेदारी करते हैं और छात्रों को कक्षाओं से छूट देते हुए दाखिला लेते हैं. ऐसे बच्चे एंट्रेस एग्जाम कोचिंग सेंटर में पढ़ते हैं और समय आने पर स्कूल में बोर्ड की परीक्षा देते हैं, साथ ही फाइनल प्रैक्टिकल भी देते हैं जिसमें बाहरी निरीक्षक शामिल होते हैं. इस तरह से डमी स्कूलिंग की अनुमति देने वाले संस्थानों की पहचान करना थोड़ा मुश्किल है.

सिर्फ दिनेश ही नहीं, कोटा में दिप्रिंट से बात करने वाले कई छात्रों ने डमी स्कूलिंग के बारे में तथ्यात्मक तरीके से बात की.

दिनेश ने दिप्रिंट को बताया, “यह सब यहां की व्यवस्था का हिस्सा है. आईआईटी या नीट (मेडिकल) एंट्रेस एग्जाम की तैयारी करने वाले ज़्यादातर 11वीं या 12वीं के बच्चों को स्कूलों में डमी छात्र के रूप में नामांकित किया जाता है. यह सुविधाजनक है और हमें एग्जाम की तैयारी करने का समय मिलता है.”

पिछले महीने, सीबीएसई बोर्ड के अधिकारियों ने डमी स्कूलिंग के “खतरे” की जांच करने के लिए राजस्थान और नई दिल्ली के 27 स्कूलों में औचक निरीक्षण किया. इस साल मार्च में इसी तरह के निरीक्षण के बाद, बोर्ड ने डमी छात्रों को नामांकित करने के लिए विभिन्न राज्यों में 20 स्कूलों की मान्यता रद्द कर दी.

इनमें से कुछ स्कूल दिल्ली में सिद्धार्थ पब्लिक स्कूल, भारत माता सरस्वती बाल मंदिर, नेशनल पब्लिक स्कूल और मैरीगोल्ड पब्लिक स्कूल, उत्तर प्रदेश में लॉयल पब्लिक स्कूल, ट्रिनिटी वर्ल्ड स्कूल और क्रिसेंट कॉन्वेंट स्कूल और राजस्थान में ग्लोबल इंडियन इंटरनेशनल स्कूल थे.

सीबीएसई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा, “ऐसे स्कूल बड़ी संख्या में नामांकित छात्रों का रिकॉर्ड रखते हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही कक्षाओं में उपस्थित होते हैं. अधिकांश बच्चे डमी छात्र के रूप में रजिस्टर्ड हैं जो कि कोचिंग सेंटर्स की क्लास में उपस्थित होते हैं. इन स्कूलों को बोर्ड परीक्षाओं को छात्रों के लिए आरामदायक बनाने के लिए कोचिंग सेंटरों से वित्तीय प्रोत्साहन भी मिलता है.”

केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया कि डमी स्कूल एजुकेशन पर कार्रवाई को सीबीएसई से संबद्ध स्कूलों से आगे बढ़ाने के लिए राज्य शिक्षा बोर्डों के साथ बातचीत चल रही है.

अधिकारी ने कहा, “भारत में अधिकांश स्कूल राज्य बोर्ड से संबद्ध हैं. इसलिए डमी स्कूलिंग के खतरे से लड़ने के लिए एक सहयोगी दृष्टिकोण की ज़रूरत है.”

हालांकि, हितधारकों का तर्क है कि यह एक “संवेदनशील और जटिल” मुद्दा है जिसके फायदे और नुकसान दोनों हैं और इसलिए इस पर सावधानीपूर्वक विचार और चर्चा करनी होगी.


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‘हम ज़्यादा फोकस्ड हैं’

कोटा के विज्ञान नगर इलाके में अपने हॉस्टल के कमरे में बैठे 17-वर्षीय आकाश सिंह डमी स्कूलिंग करने के अपने फैसले के पीछे की वजह बताते हैं.

उन्होंने कहा, “जब आप किसी स्टूडेंट के पूरे दिन का विश्लेषण करेंगे, तो पाएंगे कि वे कम से कम आठ घंटे — सुबह 6 बजे से दोपहर 2 बजे तक — स्कूल जाने और आने-जाने में बिताते हैं. इसके बाद वह दोपहर तीन बजे से शाम छह बजे तक कोचिंग क्लास में जाते हैं. नींद के लिए कम से कम 7-8 घंटे की ज़रूरत होती है, तो सेल्फ स्टडी के लिए समय कहां बचता है?”

पिछले साल लखनऊ से कोटा आए और आईआईटीयन बनने के अपने सपने को पूरा करने के लिए एक कोचिंग सेंटर में शामिल हुए आकाश ने दिप्रिंट को बताया कि स्कूल की पढ़ाई केवल एनसीईआरटी की किताबों पर केंद्रित है, जो आईआईटी में सीट हासिल करने के लिए काफी नहीं हैं.

उन्होंने कहा, “मुख्य चिंता बोर्ड परीक्षाओं में अच्छे रिजल्ट हासिल करना है. इसके अलावा, कोचिंग सेंटर्स एनसीईआरटी लेवल से हटकर शिक्षा देते हैं, जिसमें एंट्रेस एग्जाम के लिए ज्यादा काम का कंटेंट होता है. कोचिंग सेंटर में पढ़ाई करके स्टूडेंट्स आसानी से 12वीं की बोर्ड परीक्षा में 75 प्रतिशत या उससे अधिक स्कोर ला सकते हैं, जो जेईई (एडवांस्ड) में शामिल होने के लिए एक शर्त है. इसलिए रेगुलर स्कूल की पढ़ाई अक्सर समय की बर्बादी लगती है.”

आकाश लखनऊ स्थित अपने स्कूल में पहली बार इस साल की शुरुआत में गए थे, जब वे अपनी ग्याहरलीं क्लास की फाइनल परीक्षा देने गए थे.

कोटा में एक डिजिटल डेस्क जहां छात्र एंट्रेस एग्जाम के लिए मॉक टेस्ट देते हैं | फोटो: फरीहा इफ्तिखार/दिप्रिंट
कोटा में एक डिजिटल डेस्क जहां छात्र एंट्रेस एग्जाम के लिए मॉक टेस्ट देते हैं | फोटो: फरीहा इफ्तिखार/दिप्रिंट

उन्होंने कहा, “असाइनमेंट या इंटरनल एग्जाम का कोई बोझ नहीं है — स्कूल यह सब संभालता है. इसके बाद मैं प्रैक्टिक्ल एग्जाम के लिए स्कूल जाऊंगा, क्योंकि उनके लिए निरीक्षक बाहर से आते हैं. हमारे कोचिंग सेंटर में एक लैब है जो हमें इसकी प्रैक्टिस में मदद करती है.”

कोटा में डमी स्कूलिंग करने वाले अन्य छात्रों ने भी कहा कि इस तरह की स्कूली शिक्षा प्रणाली ने उनकी ज़िंदगी को बहुत प्रभावित नहीं किया है, बल्कि इससे वे अपने टारगेट पर “फोकस्ड” हो गए हैं और “सेल्फ-स्टडी” के लिए उन्हें ज्यादा वक्त मिल रहा है.

जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्हें स्कूल के माहौल की कमी खलती है, तो आकाश ने कहा, “यहां, हमारे पास स्कूल जैसी ही व्यवस्था है. सुबह क्लास में जाने के लिए हमारे पास पूरा दिन सेल्फ-स्टडी और यहां तक कि ग्रुप स्टडी के लिए होता है. यह कुछ ऐसा है जो मुझे पारंपरिक स्कूल सेटिंग में नहीं मिलता.”

उन्होंने कहा, “अगर, आप अपने टारगेट पर फोकस्ड हैं, तो आप समय बर्बाद नहीं कर सकते. आईआईटी में आपको केवल दो अटेम्प्ट (जेईई एडवांस) की अनुमति है. मैं पहले रेगुलर स्कूल जाने और फिर तैयारी के लिए एक साल की छुट्टी लेने का जोखिम नहीं उठा सकता था.”

छात्रों का यह भी मानना ​​है कि कोचिंग सेंटर्स के टीचर्स “बेहतर” हैं क्योंकि उनमें से कई खुद आईआईटी ग्रेजुएट हैं.

दिल्ली के 17-वर्षीय अमन त्यागी ने कहा, “कोचिंग सेंटर्स के टीचर्स के पास ज़्यादा अनुभव होता है, जबकि स्कूल के टीचर्स अक्सर कॉन्सेप्टस डेवलप करने पर फोकस नहीं करते हैं.”


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पूरे भारत में प्रचलित, पैरेंट्स का भी समर्थन

टीचर्स का मानना ​​है कि डमी स्कूलिंग सिस्टम कोचिंग इंडस्ट्री के बाय-प्रोडक्ट के रूप में उभरा है, कई लोग इसके उदय में कोटा की भूमिका को उजागर करते हैं. हालांकि, यह प्रथा अब पूरे देश में है और इसकी मांग बढ़ रही है.

कोटा के एक सीनियर फैकल्टी मेंबर, जो अब स्वतंत्र रूप से पढ़ाते हैं, ने कहा, “कोटा ने डमी स्कूलिंग सिस्टम को जन्म दिया है. इस मॉडल की शुरुआत इस शहर में इसलिए हुई क्योंकि कोचिंग सेंटर चाहते थे कि उनके छात्र सफलता प्राप्त करने के लिए केवल एंट्रेस एग्जाम की तैयारी पर फोकस करें. स्कूल समझौता करने को तैयार थे क्योंकि उन्हें पता था कि अगर उनके छात्र बेहतरीन परफॉर्म करेंगे, तो इससे उन्हें पहचान भी मिलेगी. यह सब प्रतिष्ठा और मान्यता के बारे में था.”

उन्होंने कहा, “डमी स्कूलिंग प्रदान करने वाले संस्थान अब पूरे देश में मौजूद हैं.”

वैकल्पिक स्कूली शिक्षा प्रणाली अब कोचिंग परिदृश्य का इतना अभिन्न अंग है कि कई माता-पिता मानते हैं कि यह उनके बच्चों के लिए प्रतिष्ठित मेडिकल या इंजीनियरिंग संस्थान में सीट सुरक्षित करने का एकमात्र तरीका है.

जयपुर में डमी स्कूलिंग के माध्यम से बाहरवीं क्लास की पढ़ाई कर रही कोटा की NEET एस्पिरेंट की मां शालिनी सिंह ने पूछा, “सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने के लिए काफी मेहनत की ज़रूरत होती है और बच्चों को फोकस करने के लिए समय चाहिए. मैं अपने बच्चे को एक रेगुलर स्कूल में दाखिला दिलाकर उसे इतना तनाव कैसे दे सकती हूं, जहां उसे बोर्ड एग्जाम में बैठने और असाइनमेंट पूरा करने के लिए 75 प्रतिशत उपस्थिति की मांग को पूरा करना है, साथ ही कोचिंग क्लास भी लेनी है?”

उन्होंने कहा, “यह काफी स्ट्रैसफुल है और, कोचिंग के बिना, उसके पास कोई अटेम्प्ट नहीं होगा.”

प्रक्रिया के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बताया, “कोचिंग सेंटर ने स्कूल के साथ हमारे कनेक्शन की सुविधा प्रदान की. हमने स्कूल से संपर्क किया और उन्होंने तुरंत मेरी बेटी को डमी छात्र के रूप में नामांकित कर दिया.”

दिल्ली के कई स्कूल प्रिंसिपलों ने देखा है कि माता-पिता डमी स्कूलिंग प्रणाली को इतना स्वीकार कर रहे हैं कि माता-पिता ने स्कूलों से अपने बच्चों के लिए उपस्थिति में छूट मांगना शुरू कर दिया है.

दिल्ली के माउंट आबू पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल ज्योति अरोड़ा ने दिप्रिंट को बताया, “आजकल माता-पिता शॉर्टकट अपनाने के लिए तेज़ी से इच्छुक हैं, जो अक्सर उनके बच्चों को इस प्रणाली में ले जाता है. वह अपने बच्चों पर पड़ने वाले भारी दबाव को पहचानने में विफल रहते हैं. छात्रों के डेवलपमेंट पर विचार नहीं कर रहे हैं. यह सिस्टम रेगुलर स्कूलों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है.”

दिल्ली के आईटीएल पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल सुधा आचार्य ने कहा कि माता-पिता की “झुंड वाली मानसिकता” है और वह अक्सर बच्चों पर अपनी आकांक्षाएं भी थोपते हैं.

उन्होंने कहा, “पहले सिर्फ साइंस के स्टूडेंट्स ही कोचिंग लेते थे और डमी स्कूलिंग सिस्टम यूज़ करते थे, लेकिन कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट (CUET) की शुरुआत के साथ, लगभग सभी छात्र अब कोचिंग लेना चाहते हैं. चूंकि, स्कूल की परफॉर्मेंस को अब कॉलेज में दाखिले में शामिल नहीं किया जाता है, इसलिए स्कूल इन छात्रों के लिए अप्रासंगिक हो गए हैं. माता-पिता भी चाहते हैं कि उनके बच्चे केवल एंट्रेस एग्जाम की तैयारी पर फोकस करें, अक्सर डेवलपमेंट के महत्व को नज़रअंदाज कर देते हैं.”

सरकार ने विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में सभी ग्रेजुएट कोर्स में दाखिले के लिए 2022-2023 सत्र के लिए CUET की शुरुआत की. इससे पहले, दिल्ली विश्वविद्यालय सहित कई प्रमुख विश्वविद्यालयों में बाहरवीं क्लास के स्कोर के आधार पर प्रवेश दिए जाते थे.


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लेकिन स्कूल दोषी

कोचिंग इंडस्ट्री में हितधारकों का तर्क है कि स्कूल करिकुलम और एजुकेशनल डिलिवरी आईआईटी या मेडिकल कॉलेजों में दाखिला लेने के इच्छुक छात्रों की ज़रूरतों को पूरा करने में विफल रहता है. इसलिए उनका मानना ​​है कि छात्र उनके पास पढ़ने आते हैं और डमी स्कूलिंग का ऑप्शन चुनते हैं.

करियर पॉइंट के संस्थापक प्रमोद माहेश्वरी ने सीबीएसई सहित स्कूल शिक्षा बोर्डों से अपने व्यवहार पर विचार करने का आग्रह किया.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “वह छात्रों को तब भी क्लास में आने के लिए मजबूर करते हैं, जब वह नहीं चाहते हैं, जो बताता है कि गुणवत्ता और पेशकश छात्रों की ज़रूरतों को पूरा नहीं कर रही है. उन्हें पहले खुद को ठीक करने की ज़रूरत है.”

कोटा में व्यास एडिफिकेशन के संस्थापक शिशिर मित्तल ने इस भावना को दोहराते हुए कहा कि स्कूल सिस्टम अपने मूल मिशन: टीचिंग में मौलिक रूप से विफल रही है.

कोटा में जेईई और एनईईटी का स्टडी मटेरियल बेच रहे तिरुपति स्टेशनर्स | फोटो: फरीहा इफ्तिखार/दिप्रिंट
कोटा में जेईई और एनईईटी का स्टडी मटेरियल बेच रहे तिरुपति स्टेशनर्स | फोटो: फरीहा इफ्तिखार/दिप्रिंट

उन्होंने कहा, “बस किसी भी पारंपरिक स्कूल की वेबसाइट पर जाइए. आपको स्विमिंग पूल और प्रभावशाली बुनियादी ढांचे जैसी सुविधाओं पर ध्यान केंद्रित मिलेगा, लेकिन टीचिंग का शायद ही कोई उल्लेख हो. यह स्पष्ट है कि कई स्कूल गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की तुलना में अपनी सुविधाओं का प्रदर्शन करने में अधिक रुचि रखते हैं.”

कोचिंग इंडस्ट्री से जुड़े लोगों ने स्कूलों में टीचर्स की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाए.

मित्तल ने बताया कि स्कूल भले ही अपने प्रभावशाली बुनियादी ढांचे और विविध कोर्स की पेशकश का दावा करते हों, लेकिन वास्तविकता यह है कि वह अक्सर टीचर्स को कम सैलरी देते हैं — लगभग 20,000 रुपये प्रति महीना.

उन्होंने समझाया, “अगर, आप गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों में निवेश करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो आप वास्तव में किस तरह का शिक्षण संस्थान चला रहे हैं? दुर्भाग्य से, कई छात्र कोचिंग सेंटरों में जाने के लिए स्कूल छोड़ देते हैं क्योंकि उनका फोकस इंग्लिश स्पीकिंग सीखने पर होता है, जिसके परिणामस्वरूप अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाती है.”

माहेश्वरी ने पूछा, “इंजीनियरों को कोचिंग सेंटरों में पढ़ाने की अनुमति है, लेकिन स्कूलों में क्यों नहीं? टीचिंग के लिए बीएड डिग्री पर जोर देकर यह प्रणाली इतनी पुरानी और पारंपरिक क्यों बनी हुई है?”

हालांकि, उन्होंने डमी स्कूली शिक्षा प्रणाली के “दुरुपयोग” के बारे में भी चेतावनी दी.

माहेश्वरी ने दिप्रिंट को बताया, “प्रणाली का काफी दुरुपयोग हो रहा है. उदाहरण के लिए 50 छात्रों (एंट्रेस एग्जाम पास करने का टारगेट) में से केवल 10 ही वास्तव में प्रतिबद्ध हैं, फिर भी वह सभी डमी स्कूलिंग के लिए नामांकन करते हैं. जबकि वह 10 कोचिंग क्लास में जाते हैं, शेष 40 बस अपना समय बर्बाद करते हैं. यह सिस्टम के दुरुपयोग का एक महत्वपूर्ण कारण है. इसलिए, हमें इस मुद्दे पर गंभीर चर्चा करनी होगी.”

‘नीतिगत बदलावों की ज़रूरत’

शिक्षकों और विशेषज्ञों ने डमी स्कूलिंग को खत्म करने के लिए एंट्रेस एग्जाम में प्रोसेस में सुधार की मांग की है.

दिप्रिंट से बात करते हुए नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल्स एसोसिएशन (NISA) के अध्यक्ष कुलभूषण शर्मा ने कहा कि इसमें सिर्फ स्कूलों की नहीं बल्कि पूरे टीचिंग सिस्टम की गलती है.

उन्होंने कहा, “सरकार एंट्रेस एग्जाम के कोर्स और प्रश्नों के पैटर्न को स्कूल के करिकुलम के साथ क्यों नहीं जोड़ सकती? छात्रों को अपने कोर्स की किताबों से ज़्यादा क्यों पढ़ना पड़ता है? ऐसा लगता है कि पूरी प्रणाली कोचिंग इंडस्ट्री को फायदा पहुंचाने और स्कूलों को अप्रासंगिक बनाने के लिए बनाई गई है. हमें नीतिगत बदलावों की तत्काल ज़रूरत है.”

कोचिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया के सदस्य केशव अग्रवाल ने स्कूल के करिकुलम और एंट्रेस एग्जाम कोर्स के बीच अंतर को उजागर किया.

उन्होंने कहा, “इसके अलावा, टीचिंग मैथ्ड्स में असमानता है; बोर्ड परीक्षाओं में अक्सर सब्जेक्टिव और और ऑब्जेक्टिव सवाल शामिल होते हैं, जबकि एंट्रेस एग्जाम केवल ऑब्जेक्टिव पर फोकस होती है. स्कूल के शिक्षकों से दोनों तरीकों को प्रभावी ढंग से कवर करने की उम्मीद करना अवास्तविक है.”

उन्होंने कहा, “इसके अलावा, एंट्रेस एग्जाम के पेपर में 11वीं और 12वीं दोनों से सवाल आते हैं, जबकि छात्र आमतौर पर अपनी बोर्ड परीक्षाओं के लिए केवल 12वीं क्लास के करिकुमल पर फोकस्ड होते हैं. इस मुद्दे को सुलझाना ज़रूरी है. कोई भी छात्रों को कोचिंग में निवेश करने के लिए मजबूर नहीं कर रहा है; वह इसे इसलिए चुनते हैं क्योंकि वो इसे ज़रूरी मानते हैं.”

अग्रवाल ने सुझाव दिया कि सरकार को छात्रों के लिए स्कूलों में बायोमेट्रिक उपस्थिति शुरू करने जैसे क्रांतिकारी कदम उठाने चाहिए.

विशेषज्ञों का यह भी मानना ​​है कि कॉलेज में दाखिले के लिए एंट्रेस एग्जाम के अलावा स्कूल की परफॉर्मेंस को भी महत्व दिया जाना चाहिए.

प्रिंसिपल आचार्य ने कहा, “हम सीयूईटी की शुरुआत के बाद से ही इसकी वकालत कर रहे हैं, लेकिन अभी तक नीति निर्माताओं की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है.”

माउंट आबू पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल अरोड़ा ने कोचिंग सेंटरों को बिलबोर्ड पर टॉप रैंकिंग हासिल करने वाले एस्पिरेंट्स की तस्वीरें लगाने से रोकने के लिए सरकार से सख्त नियमों की वकालत की.

उन्होंने कहा, “यह प्रथा माता-पिता को अपने बच्चों को प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ में धकेलने के लिए प्रोत्साहित करती है, अक्सर उनके विकास की कीमत पर. वो लोग यह पहचान ही नहीं पाते हैं कि स्कूल केवल अकादमिक शिक्षा से अधिक प्रदान करते हैं; बच्चों को उनके व्यक्तित्व को विकसित करने, दोस्त बनाने, लाइफ स्किल्स सीखने और विभिन्न गतिविधियों में संलग्न होने में मदद करते हैं — न कि केवल परीक्षा की तैयारी करने में.”

इस बीच, शिक्षा मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के तहत, सीबीएसई ने पहले ही बोर्ड के पेपर में 50 प्रतिशत योग्यता-आधारित प्रश्न पेश किए हैं.

मंत्रालय के उक्त अधिकारी ने कहा, “नेशनल टेस्टिंग एजेंसी और नेशनल मेडिकल कमिशन ने अब क्रमशः जेईई (मुख्य) और नीट के लिए एनसीईआरटी कोर्स के साथ प्रश्न पत्रों को संरेखित किया है. सरकार छात्रों के लिए एंट्रेस एग्जाम को आसान बनाने के लिए हर कदम उठा रही है.”

अधिकारी ने जोर देकर कहा कि स्कूल के करिकुलम में एंट्रेस एग्जाम की तैयारी से कहीं अधिक शामिल होना चाहिए.

उन्होंने कहा, “एनईपी 2020 केवल रटने की बजाय समग्र विकास की आवश्यकता पर जोर देता है. स्कूल विभिन्न कौशल विकसित करने और विभिन्न अनुभव प्राप्त करने के मौके देते हैं. डमी स्कूली शिक्षा प्रणाली छात्रों को पूर्ण विकास प्राप्त करने से रोकती है और हमारी शैक्षिक नीति के खिलाफ है. इसलिए, सरकार इस मुद्दे को हल करने के लिए काम करती रहेगी.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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