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Friday, 3 May, 2024
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प्रैक्टिस बनाती है बेहतर? कैसे आप अपने काम के अनुभव से बन सकते हैं प्रोफेसर

यूजीसी का कहना है कि 15 साल के अनुभव वाले पेशेवरों को शुरू में विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में एक साल तक के लिए रखा जा सकता है और बाद में उनका कार्यकाल अधिकतम 4 साल तक बढ़ाया जा सकता है.

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नई दिल्ली: विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने अपने नवीनतम दिशा-निर्देशों में कहा कि सिविल सेवक, इंजीनियर, मीडियाकर्मी, सशस्त्र बल अधिकारी, वकील और 15 साल के अनुभव वाले कलाकार अब बिना पीएचडी के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ा सकेंगे.

दिप्रिंट द्वारा एक्सेस किए गए ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’ पर अपने दिशानिर्देशों में, यूजीसी ने यह भी कहा कि ऐसे उम्मीदवारों को शोध पत्र प्रकाशित करने की शर्त से छूट दी गई है.

यूजीसी ने पिछले हफ्ते हुई अपनी बैठक में इस योजना को मंजूरी दी, इसके अध्यक्ष एम. जगदीश कुमार ने दिप्रिंट को बताया. उन्होंने बताया कि दिशानिर्देश जल्द ही सार्वजनिक रूप से जारी किए जाएंगे.

मार्च में, यूजीसी के अध्यक्ष ने दिप्रिंट को बताया था कि उद्योग के विशेषज्ञों की भर्ती के विचार पर विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के साथ चर्चा की गई थी.

सोमवार को जारी दिशा-निर्देशों में कहा गया है, ‘जिन लोगों ने अपने विशिष्ट पेशे में विशेषज्ञता साबित कर दी है, या कम से कम 15 साल की सेवा/अनुभव के साथ भूमिका निभाई है, खासतौर पर सीनियर स्तर पर, प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस के लिए पात्र होंगे.’

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प्रोफेसरों की यह श्रेणी इंजीनियरिंग, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, उद्यमिता, वाणिज्य, सामाजिक विज्ञान, मीडिया, साहित्य, ललित कला, सिविल सेवा, सशस्त्र बल, कानून और लोक प्रशासन जैसे क्षेत्रों से हो सकती है.

दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि किसी शैक्षणिक संस्थान के कुल संकाय का केवल 10 प्रतिशत ही ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’ हो सकते हैं.

इस योजना को लेकर शिक्षाविदों की राय बंटी हुई है, एक वर्ग ने कहा है कि विश्वविद्यालयों और संस्थानों को योजना को लागू करने के लिए सावधानी से आगे बढ़ना चाहिए.

दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति दिनेश सिंह ने कहा कि हालांकि यह ‘सैद्धांतिक रूप से’ एक अच्छा विचार है, संस्थानों को कार्यान्वयन के लिए ‘रचनात्मक’ होने की जरूरत होगी.

उन्होंने कहा, ‘सैद्धांतिक रूप से, यह एक स्वागत योग्य विचार है क्योंकि हमारे विश्वविद्यालयों को ब्लैकबोर्ड और किताबों की सीमाओं से एक महत्वपूर्ण तरीके से परे जाने की जरूरत है. दूसरे शब्दों में, हमारी ज्ञान प्रणालियों को वास्तविक दुनिया की जरूरतों और चुनौतियों से जोड़ा जाना चाहिए. हालांकि किसी भी विश्वविद्यालय में यह सार्थक तरीके से नहीं हो रहा है. एनईपी (राष्ट्रीय शिक्षा नीति) ऐसा होने के लिए तेजी से मांग कर रही है.’


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नीती क्या कहती है

यूजीसी के नए दिशानिर्देशों के तहत, किसी शैक्षणिक संस्थान के कुलपति या निदेशक ऐसे पदों पर विशेषज्ञों को नामित कर सकते हैं.

दिशानिर्देशों में कहा गया है, ‘सेवा करने के इच्छुक विशेषज्ञों को भी नामित किया जा सकता है या वे अपना नामांकन कुलपति/निदेशक को विस्तृत बायोडाटा और संस्थान में उनके संभावित योगदान के बारे में एक संक्षिप्त लेखन के साथ भेज सकते हैं.’

संस्थान के दो वरिष्ठ प्रोफेसरों और एक प्रख्यात बाहरी सदस्य की चयन समिति नामांकन पर विचार करेगी. समिति की सिफारिश के आधार पर, संस्थान की अकादमिक परिषद और कार्यकारी परिषद या इसके वैधानिक शैक्षणिक निकाय तय करेंगे कि किसे शामिल किया जाए.

ऐसे ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’ न केवल व्याख्यान देंगे, बल्कि अपने स्वयं के पाठ्यक्रम को डिजाइन करने के साथ-साथ उद्योग में विभिन्न पहलुओं, जैसे परियोजना कार्य या इंटर्नशिप प्राप्त करने के लिए ‘सक्रिय सहयोग’ पर काम करेंगे.

ऐसे संकाय सदस्यों का कार्यकाल ‘शुरुआत में एक वर्ष तक का हो सकता है’ और बाद में इसे चार साल तक बढ़ाया जा सकता है लेकिन इससे आगे नहीं.

दिशानिर्देशों में कहा गया है, ‘शुरुआती जुड़ाव या उसके बाद के विस्तार के अंत में, संस्थान मूल्यांकन करेगा और बढ़ाने के बारे में निर्णय लेगा.’ ‘प्रोफेसरों ऑफ प्रैक्टिस के रूप में लगे विशेषज्ञों के योगदान और आवश्यकता के आधार पर विस्तार के लिए अपनी मूल्यांकन प्रक्रिया तैयार करेगा.’

दिशानिर्देशों में कहा गया है, ‘किसी दिए गए संस्थान में प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस की सेवा की अधिकतम अवधि तीन साल से अधिक नहीं होनी चाहिए और अपवाद के मामलों में एक साल तक बढ़ाई जा सकती है और कुल सेवा किसी भी परिस्थिति में चार साल से अधिक नहीं होनी चाहिए.’

‘शिक्षकों का विरोध’ ‘नई बात नहीं’: शिक्षाविद क्या सोचते हैं

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने कहा कि अल्पकालिक भूमिकाओं के लिए लोगों को काम पर रखना – जैसे कि सहायक संकाय पदों – देश में विश्वविद्यालयों के लिए नया नहीं है. प्रोफेसर ने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि इस योजना के साथ नया क्या है जब तक कि हमें नासा से आने वाले और हमारे संस्थानों में पढ़ाने जैसी कुछ अनुकरणीय प्रतिभा नहीं मिलती.’

हालांकि, कुछ लोगों को इस तरह की नीति के नतीजे का डर था. दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर सुबोध कुमार ने कहा कि नीति ‘उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को कमजोर करेगी.’

‘यह विचार केवल मौजूदा शिक्षण समुदाय का विरोध करेगा. शिक्षण केवल पाठ्यपुस्तक ज्ञान प्रदान करने के बारे में नहीं है, यह उससे कहीं अधिक है. (यह) कुछ ऐसा है जिसे केवल एक शिक्षक समझता है; इंजीनियर या सिविल सेवक नहीं.’ उन्होंने कहा.

कुमार ने कहा कि इसका आरक्षण नीति पर भी असर पड़ेगा, ‘क्योंकि जिन 10 प्रतिशत को काम पर रखा जाएगा, वे (माध्यम से) सीधे भर्ती किए जाएंगे.’

लेकिन, ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने आरक्षण के कोटे में खलल न डालने का ध्यान रखा है. ‘प्रैक्टिस ऑफ प्रोफेसर’ शामिल करना विश्वविद्यालय/कॉलेज के स्वीकृत पदों को छोड़कर होगी. यह स्वीकृत पदों की संख्या और नियमित संकाय सदस्यों की भर्ती को प्रभावित नहीं करेगा.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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