नई दिल्ली: मांग और आपूर्ति की गतिशीलता, बढ़ती बेरोज़गारी, युवाओं में बढ़ती हताशा, संगठित गिरोह, कमज़ोर लीक-सिस्टम इन कमज़ोरियों का फायदा उठा रहे हैं — ये कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से उच्च युवा आबादी, कम प्रति व्यक्ति आय और खराब विकास सूचकांक वाले राज्यों में पेपर लीक होने की संभावना अधिक है, विशेषज्ञों ने दिप्रिंट को यह जानकारी दी.
इसमें राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) भी शामिल है, जो वर्तमान में राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा-स्नातक (नीट-यूजी) के आयोजन में कथित गड़बड़ियों के कारण सुर्खियों में है.
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की भारत रोज़गार रिपोर्ट 2024 के अनुसार, देश की युवा आबादी (15-29 वर्ष की आयु) में बेरोज़गारों की संख्या 83 प्रतिशत है और उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे अधिक आबादी वाले राज्यों के बेरोज़गारों की संख्या “बहुत खराब” है.
संयोग से ये राज्य पेपर लीक के मामले में सबसे अधिक संवेदनशील हैं.
बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक अभयानंद ने कहा कि बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे हिंदी भाषी राज्यों में पेपर लीक की बढ़ती समस्या काफी हद तक स्थिर आर्थिक माहौल का प्रतिबिंब है, जहां रोज़गार के अवसर सीमित हैं.
अर्थशास्त्रियों और विपक्षी दलों ने भी बेरोज़गारी और कई खाली पदों के बावजूद प्रमुख राष्ट्रीय भर्ती अभियान की कमी पर चिंता जताई है.
अभयानंद ने दिप्रिंट से कहा, “देश के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्से के राज्यों की तुलना में इन राज्यों में कोई समृद्ध औद्योगिक क्षेत्र नहीं है, जहां निजी क्षेत्र रोज़गार प्रदान करने में आगे आ सकता है. इन राज्यों में पेपर लीक के मूल में स्थिर अर्थव्यवस्था है, जो पर्याप्त गुणवत्तापूर्ण रोज़गार के अवसर पैदा करने में विफल हो रही है, जिससे सरकारी नौकरियों की मांग बढ़ रही है.”
पिछले पांच साल में उत्तर प्रदेश से पेपर लीक की आठ, राजस्थान और महाराष्ट्र से करीब सात-सात और बिहार से पेपर लीक की छह खबरें सामने आई हैं, जिसमें 2023 के कांस्टेबल और शिक्षक भर्ती परीक्षा भी शामिल हैं. गुजरात और मध्य प्रदेश में करीब चार मामले सामने आए हैं. इन राज्यों में देश की युवा आबादी का 52 प्रतिशत हिस्सा है.
दिप्रिंट से बात करते हुए यूपी पुलिस के एक अधिकारी ने कहा, “मीडिया और जनता को रिपोर्ट किए गए मामलों के बारे में पता चलता है और आक्रोश होता है, लेकिन उन मामलों में भी कार्रवाई की जाती है जहां गुप्त सूचना मिलती है. यह एक फलता-फूलता उद्योग है…रिपोर्ट किए गए मामलों और गिरफ्तारियों के कारण ये राज्य शीर्ष पर आते हैं.”
सरकारी वेबसाइटों और समाचार खबरों से एकत्रित आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले कुछ साल में लाखों उम्मीदवार ऐसे पेपर लीक से प्रभावित हुए हैं.
पिछले कुछ साल में नीट-2024 में कथित पेपर लीक हुए हैं, जिससे MBBS की 1,08,915 सीटों के लिए प्रतिस्पर्धा करने वाले लगभग 23.33 लाख उम्मीदवार प्रभावित हुए हैं और नीट-2021 में 16.14 लाख उम्मीदवार प्रभावित हुए थे. राजस्थान में, 2020 जूनियर इंजीनियर परीक्षा लीक ने 31,752 उम्मीदवारों को प्रभावित किया, और 2021 सब-इंस्पेक्टर और प्लाटून कमांडर की परीक्षा लीक ने 8 लाख उम्मीदवारों को प्रभावित किया. 2022 राजस्थान द्वितीय श्रेणी शिक्षक परीक्षा लीक ने 12.50 लाख उम्मीदवारों को प्रभावित किया.
बिहार में इस साल के लोक सेवा आयोग (पीएससी) शिक्षक भर्ती परीक्षा लीक ने 3.75 लाख उम्मीदवारों को प्रभावित किया और पिछले साल कांस्टेबल भर्ती परीक्षा लीक ने 18 लाख छात्रों को प्रभावित किया. उत्तर प्रदेश में, 2023 कांस्टेबल पेपर लीक ने 46 लाख उम्मीदवारों को प्रभावित किया और समीक्षा अधिकारी/सहायक समीक्षा अधिकारी परीक्षा लीक ने 10 लाख उम्मीदवारों को प्रभावित किया. 2021 गुजरात हेड क्लर्क परीक्षा लीक ने 88,000 उम्मीदवारों को प्रभावित किया.
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर विजिटिंग फेलो किरण भट्टी के अनुसार, पेपर लीक “बड़ी समस्या का लक्षण” है. यह समस्या दोतरफा अंतर से उत्पन्न होती है — गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा की मांग और इसकी सीमित उपलब्धता के बीच और श्रम बाज़ार की उच्च कुशल व्यक्तियों की ज़रूरत और वर्तमान में शिक्षा प्रणाली द्वारा प्रदान की जाने वाली शिक्षा के स्तर के बीच.
भट्टी ने दिप्रिंट से कहा, “केवल प्रश्नपत्र लीक से निपटना लक्षणों का इलाज करना होगा. स्वतंत्र शासी निकाय जैसे शासन समाधान एक अच्छी शुरुआत होगी, लेकिन केवल इससे आवश्यक समस्या का समाधान नहीं होगा.”
दिप्रिंट की पेपर लीक पर सीरीज़ की तीसरी स्टोरी में हम यह पता लगा रहे हैं कि भारतीय परीक्षा प्रणाली पेपर लीक से क्यों प्रभावित है और सिस्टम को लीक प्रूफ बनाने के संभावित समाधान क्या हैं.
यह भी पढ़ें: आदतन अपराधी, कानून में खामियां — भारत की करोड़ों की पेपर लीक इंडस्ट्री की अंदरूनी कहानी
नीट एस्पिरेंट्स के लिए सीमित सीटें
भट्टी के अनुसार, इंजीनियरिंग, मेडिकल या सामाजिक विज्ञान जैसे स्ट्रीम पर बहुत ज़्यादा बोझ है क्योंकि अन्य विकल्प जो नए ज़माने के स्किल प्रदान कर सकते हैं और युवाओं को डिजिटल मार्केटिंग और हॉस्पिटैलिटी जैसे नए उद्योगों में रोज़गार योग्य बना सकते हैं, अभी तक नहीं खुले हैं.
सरकारी कॉलेजों में एमबीबीएस सीटों के लिए विशेष रूप से अभूतपूर्व मांग रही है. इसलिए, जब कथित पेपर लीक का मुद्दा सामने आया, तो इसने भारत में मेडिकल एजुकेशन के सामने आने वाली चुनौतियों और एनटीए के भीतर के मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित किया.
सरकारी डेटा पिछले एक दशक में मेडिकल कॉलेजों और एमबीबीएस सीटों दोनों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दर्शाता है. मेडिकल कॉलेज 2014 से पहले 387 से बढ़कर वर्तमान में 706 हो गए हैं, जबकि एमबीबीएस सीटें 51,348 से बढ़कर 1,08,940 हो गई हैं. इस विस्तार के बावजूद, नीट एस्पिरेंट्स की संख्या लगातार उपलब्ध सीटों की संख्या से अधिक रही है, जिसमें 2021 में आवेदकों की संख्या 16.14 लाख से बढ़कर इस साल 23.33 लाख हो गई है, जो मांग और आपूर्ति के बीच लगातार अंतर को दर्शाता है.
कैरियर360 के संस्थापक-सीईओ और शिक्षाविद् महेश्वर पेरी ने बताया कि नीट एस्पिरेंट्स की बढ़ती संख्या इंजीनियरिंग छात्रों की तुलना में जीव विज्ञान के छात्रों के लिए उपलब्ध सीमित विकल्पों को दर्शाती है, जिनके पास पर्याप्त कॉलेज के मौके हैं.
पेरी ने कहा कि दूसरी समस्या देश में किफायती निजी मेडिकल एजुकेशन की कमी है, जो छात्रों को नीट परीक्षाएं बार-बार देने के लिए मजबूर करती है, जिससे परीक्षाएं संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) का एक और एडिशन बन जाती हैं.
पेरी ने दिप्रिंट से कहा, “नीट के हर सत्र में 30 प्रतिशत उम्मीदवार दोबारा आते हैं, क्योंकि 95 प्रतिशत माता-पिता निजी कॉलेजों में मेडिकल एजुकेशन का खर्च नहीं उठा सकते हैं. आप सरकारी कॉलेजों में 5 लाख रुपये में एमबीबीएस पूरा कर सकते हैं, जबकि निजी कॉलेजों में फीस 1 करोड़ रुपये तक हो सकती है.”
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के विशेषज्ञ समूह द्वारा की गई एक स्टडी के अनुसार, जिसे सरकार ने दिसंबर 2022 में सार्वजनिक किया, निजी कॉलेजों में एमबीबीएस के लिए औसत वार्षिक शुल्क 11.5 लाख रुपये प्रति वर्ष है. इसकी तुलना में दिल्ली में सार्वजनिक वित्तपोषित मेडिकल कॉलेज यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंस में छात्रों को पहले शैक्षणिक वर्ष में मात्र 30,000 रुपये का भुगतान करने के लिए कहा गया था.
पेरी ने सुझाव दिया कि राज्य सरकारों को अपने राज्यों में सरकारी या निजी मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ाने की अनुमति दी जानी चाहिए — जैसे तमिलनाडु ने पिछले साल कोशिश की थी. हालांकि, उन्होंने कहा कि निजी मेडिकल संस्थानों के मामले में फीस की सीमा तय होनी चाहिए.
पेरी ने कहा, “जीव विज्ञान के छात्रों के लिए एक सीमा है, जिसके कारण वे एमबीबीएस के अलावा कुछ नहीं कर सकते हैं और निजी कॉलेजों में अत्यधिक फीस के कारण उनके पास केवल नीट परीक्षा पास करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, जिससे वे सरकारी मेडिकल कॉलेजों में दाखिला ले सकते हैं, जो मांग की तुलना में बहुत कम हैं. वर्तमान प्रणाली 2 प्रतिशत योग्यता और 2 प्रतिशत अमीरों पर आधारित है, जहां नीट उत्तीर्ण करने वाले 2 प्रतिशत छात्र मेडिकल शिक्षा प्राप्त करते हैं जबकि 2 प्रतिशत अमीर जो उच्च कॉलेज फीस वहन कर सकते हैं, उन्हें निजी कॉलेजों में प्रवेश मिलता है.”
‘खोखला’ NTA
एनटीए खुद आउटसोर्सिंग और जनशक्ति की कमी की समस्या का सामना कर रहा है.
एनटीए का गठन 2018 में सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत एक स्वायत्त और आत्मनिर्भर परीक्षण संगठन के रूप में किया गया था, जिसे 2017 में परीक्षा प्रक्रिया में “गुणात्मक अंतर” लाने के लिए मंजूरी दी गई थी. इसका उद्देश्य कई परीक्षाएं आयोजित करने के बजाय एक ही परीक्षा के माध्यम से पूरी परीक्षा प्रक्रिया को मानकीकृत करना था.
10-सदस्यीय शासी निकाय का नेतृत्व यूपीएससी के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप कुमार जोशी करते हैं. इसमें एनटीए के महानिदेशक, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के तीन निदेशक और राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के दो निदेशक शामिल हैं.
एक पूर्व नौकरशाह ने दिप्रिंट को बताया कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के खंड 4.42 के तहत, एनटीए को सभी प्रतियोगी कोर्स के लिए परीक्षा आयोजित करने की परिकल्पना की गई थी, जो कि पहले से मौजूद प्रणाली से अलग होना चाहिए था, जहां इंजीनियरिंग, मेडिकल और शैक्षणिक कोर्स के लिए परीक्षाएं अलग-अलग आयोजित की जाती थीं.
पूर्व नौकरशाह ने कहा कि सीबीएसई से अलग-अलग परीक्षाओं के मॉडल की नकल करने के बावजूद, इसमें सफल होने के लिए न तो अनुभव था और न ही जनशक्ति.
अधिकारी ने समझाया, “इसने मॉडल उधार लिया, जिसे दोषपूर्ण और सीबीएसई के लिए बोझ माना गया, लेकिन फिर भी, इसके पास सीबीएसई के क्रियान्वयन से मेल खाने के लिए साधन और जनशक्ति नहीं थी. सीबीएसई के पुराने मॉडल के साथ एनटीए कभी सफल नहीं होने वाला था.”
मंत्रालय के एक अन्य पूर्व अधिकारी ने कहा कि सीबीएसई द्वारा आयोजित परीक्षाओं के हितधारक — जैसे परीक्षा केंद्रों पर पर्यवेक्षक और अधीक्षक, केंद्र के रूप में चुने गए स्कूल या संस्थान और परीक्षा आयोजित करने की जिम्मेदारी सौंपे गए अधिकारी – पूरी तरह से शामिल होते हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर आउटसोर्सिंग के कारण एनटीए द्वारा आयोजित परीक्षाओं के हितधारकों की ऐसी कोई भागीदारी नहीं होती है.”
अधिकारी ने बताया, “सीबीएसई के पास 16 क्षेत्रीय केंद्र थे, और उसके पास हर परीक्षा केंद्र पर कड़ी निगरानी और सीधा संचार बनाए रखने के लिए अपने स्वयं के कर्मचारियों के साथ पर्याप्त जनशक्ति थी, जो अब आउटसोर्सिंग के कारण कहीं नहीं मिलती है.”
उन्होंने कहा, “एनटीए की संरचना विक्रेताओं और आउटसोर्सिंग पर आधारित है. डीजी और कुछ निदेशकों को छोड़कर, एनटीए के किसी भी कर्मचारी की सीधी हिस्सेदारी नहीं है. बहुत कम लोग विक्रेताओं के बारे में 100 प्रतिशत सुनिश्चित हो सकते हैं. एनटीए के पास क्षेत्रीय, जिलावार या राज्यवार जाकर यह सत्यापित करने का साधन नहीं है कि केंद्र ठीक हैं या नहीं या निरीक्षकों और पर्यवेक्षकों का चयन ठीक से किया गया है या नहीं. इसे सत्यापन के लिए भी विक्रेताओं पर निर्भर रहना पड़ता है.”
“परीक्षा के सभी पहलुओं — परीक्षा केंद्रों का चयन, परीक्षाओं का संचालन, पैकेजिंग, ओएमआर शीट का परिवहन और ओएमआर शीट का मूल्यांकन — को आउटसोर्स किया गया है. एनटीए के पास उन जिम्मेदारियों से निपटने की शक्ति और साधन नहीं है जो उसे सौंपी गई हैं.”
कई पूर्व अधिकारियों ने कहा कि एनटीए को संसद के एक अधिनियम द्वारा विनियमित किया जाना चाहिए ताकि इसकी “खोखलेपन” की स्थिति समाप्त हो जाए और इसके आदेश राज्य सरकार और अन्य अधिकारियों के लिए बाध्यकारी हों.
कुछ अधिकारियों ने यह भी सुझाव दिया कि एनटीए को सीबीएसई और यूपीएससी जैसे समान निकायों के साथ काम करना चाहिए, ताकि उनकी “स्थापित अच्छी प्रथा” को दोहराया जा सके. एनटीए को बड़े पैमाने पर होने वाली परीक्षाओं के दौरान अपने संसाधनों का उपयोग करने में भी सक्षम होना चाहिए.
सीबीएसई के पूर्व अध्यक्ष आर.के. चतुर्वेदी ने दिप्रिंट को बताया, “एनटीए को सीबीएसई और यूपीएससी के साथ मिलकर काम करना चाहिए ताकि उनके संसाधनों का उपयोग किया जा सके और शिक्षा मंत्रालय को राज्य सरकारों को कार्यकारी आदेश पारित करके एनटीए को परीक्षाओं के संचालन में सशक्त बनाना चाहिए.”
उक्त नौकरशाह ने यह भी सुझाव दिया कि एनटीए को सरकारी कॉलेजों को प्राथमिकता देनी चाहिए और सरकार को उन संस्थानों में प्रौद्योगिकी में सुधार करने के लिए योगदान देना चाहिए ताकि एनटीए परीक्षा आयोजित कर सके. अधिकारी ने कहा कि इससे परीक्षा केंद्र अधिक जवाबदेह बनेंगे क्योंकि किसी भी तरह की गड़बड़ी की स्थिति में पर्यवेक्षकों और अधीक्षकों का करियर दांव पर लग जाएगा.
अधिकारी ने कहा, “सीबीएसई बोर्ड से संबद्ध स्कूलों में परीक्षा आयोजित करता था, जिससे बोर्ड को कड़े प्रोटोकॉल लागू करने का अधिकार मिल जाता था. स्कूलों और संस्थानों को बोर्ड के साथ अपनी संबद्धता बरकरार रखने के लिए सभी मानदंडों का पालन करना पड़ता था. सिद्धांत के तौर पर संदिग्ध प्रबंधन प्रथाओं वाले स्कूलों या संस्थानों को कभी भी परीक्षाएँ आवंटित नहीं की जाती थीं.”
‘गुणवत्ता और ईमानदारी’ की ज़रूरत
राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में कलम और कागज़ के तरीकों के इस्तेमाल पर सवाल उठाते हुए राजस्थान पीएससी के पूर्व अध्यक्ष एल.के. पंवार ने कहा कि आयोग को परीक्षा के डिजिटल तरीके को अपनाना चाहिए, लेकिन सबसे मजबूत साइबर सुरक्षा उपायों और प्रोटोकॉल को अपनाने के बाद ही.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “हर संभव मानवीय और शारीरिक समस्या के लिए डिजिटल और तकनीकी समाधान मौजूद हैं,” लेकिन उन्होंने कहा कि केवल इससे बदलाव नहीं आएगा.
उन्होंने आगे कहा कि इनमें से अधिकांश आयोगों का इस्तेमाल राज्य सरकारों द्वारा राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए सोशल इंजीनियरिंग के उद्देश्य से विभिन्न समूहों के अधिकारियों और सदस्यों को समायोजित करने के लिए किया गया है.
सेवानिवृत्त आईएएस पंवार ने दिप्रिंट से कहा, “आयोगों को गुणवत्ता और ईमानदारी के आधार पर चलाया जाना चाहिए, न कि जातिगत प्रतिनिधित्व के आधार पर. आयोग सोशल इंजीनियरिंग के लिए नहीं हैं.”
इसी तरह, बिहार पीएससी के पूर्व अध्यक्ष अतुल प्रधान ने शिक्षा प्रणाली पर उनके प्रभाव और आयोग स्तर पर लीक को रोकने के लिए शीर्ष स्तर पर स्वच्छ और बेदाग ट्रैक रिकॉर्ड वाले लोगों की तैनाती और संगठित गिरोहों की पहचान पर जोर दिया.
सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी प्रधान ने दिप्रिंट से कहा, “प्रत्येक संभावित अंतर का पता लगाने के लिए सभी घटकों के कार्यों का ऑडिट होना चाहिए और छोटे पैमाने की परीक्षा के लिए केंद्रों पर ही प्रश्नपत्रों की छपाई जैसे कदम उठाने का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि कम से कम उन्हें छेड़छाड़-प्रूफ बनाया जा सके.”
मेडिकल और इंजीनियरिंग संस्थानों की तरह, सरकारी सेवाओं में भी बड़ी संख्या में उम्मीदवार परीक्षा देते हैं.
पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एम. राजीवलोचन ने दिप्रिंट से बात करते हुए बताया कि मध्यम और निम्न स्तर पर आकर्षक वेतन और निजी क्षेत्रों की तुलना में लाभ जैसे कई कारक भारत के युवाओं को सरकारी नौकरियों के लिए बेताब बनाते हैं.
राजीवलोचन ने दिप्रिंट को बताया, “सरकारी चपरासी या मल्टी-टास्किंग कर्मचारी शुरुआत में 30,000 रुपये प्रति माह तक का वेतन लेते हैं, साथ ही उनके और उनके परिवार के लिए स्वास्थ्य बीमा भी होता है जो उनकी स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों का ख्याल रखता है. कई राज्यों में कर्मचारियों को मामूली राशि पर घर भी मिलता है. सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों को मिलने वाली सुविधाएं निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की तुलना में कईं बेहतर हैं.”
उन्होंने कहा, “मध्यम और निम्न स्तर के कर्मचारियों के लिए नौकरी की सुरक्षा की अवधारणा सरकारी नौकरियों के लिए उनकी पसंद और हताशा में बहुत बड़ी भूमिका निभाती है.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: ‘स्ट्रांग रूम’ तक पहुंच, शीर्ष पर सांठगांठ, कमज़ोर सप्लाई चैन — पेपर लीक गिरोह कैसे फले फूले