नई दिल्ली: भारत की शिक्षा प्रणाली को प्री-स्कूल से लेकर पीएचडी तक आधुनिक बनाने और इसे “भारतीय मूल्यों” से जोड़कर रखने के उद्देश्य से, 29 जुलाई 2020 को राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) लागू की गई थी — वह भी कोविड महामारी के बीच. यह देश की तीसरी शिक्षा नीति थी, जिसे पूर्व इसरो प्रमुख के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली एक उच्चस्तरीय समिति ने तैयार किया था. इससे पहले दो नीतियां 1968 और 1986 में बनी थीं.
NEP 2020 में कई अहम बिंदुओं पर ज़ोर दिया गया — जैसे शुरुआती स्तर पर पढ़ने-लिखने और गिनती की मजबूत समझ, मल्टीडिसिप्लिनरी यानी बहुविषयक शिक्षा, अनुभव आधारित सीखने, डिजिटल तरीकों से पढ़ाई, उच्च शिक्षा में नामांकन दर बढ़ाना, रिसर्च और कौशल आधारित ट्रेनिंग को बढ़ावा देना. इसके साथ ही मातृभाषा में शिक्षा, भारत के पारंपरिक ज्ञान को आगे बढ़ाना और शिक्षा व्यवस्था का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्तार जैसे लक्ष्य भी तय किए गए.
हालांकि, नीति के लागू होने के पांच साल बाद, जबकि इसमें सुझाई गई कई योजनाएं अब ज़मीनी स्तर पर चल रही हैं, उनका अमल पूरे देश में समान नहीं है. राज्यों, क्षेत्रों और संस्थानों के हिसाब से इसमें काफी फर्क दिख रहा है. कई जगहों पर इसका कार्यान्वयन बिखरा हुआ और असंगत है.
नीति के एक बड़े प्रस्ताव — उच्च शिक्षा आयोग (HECI), जिसे देशभर में उच्च शिक्षा के लिए एक एकीकृत नियामक संस्था बनना था, उस पर अब तक अमल नहीं हुआ है. इसका विधेयक भी अभी सरकार ने अंतिम रूप नहीं दिया है.
हालांकि, शिक्षा व्यवस्था धीरे-धीरे NEP 2020 के लक्ष्यों की ओर बढ़ रही है, लेकिन दिप्रिंट से बात करने वाले कई जानकारों का मानना है कि भारत जैसे विविधता भरे देश में, जहां शिक्षा एक साझा (संविधान की समवर्ती सूची में) विषय है, वहां बड़े पैमाने पर बदलाव के नतीजे आने में अभी समय लगेगा.
शिक्षाविद और नीति विशेषज्ञ मीता सेनगुप्ता ने दिप्रिंट से कहा, “हमारे जैसे देश में, जहां हम ज़्यादा ढांचागत सिस्टम के आदी हैं, वहां शैक्षणिक आज़ादी और खोज की सोच कुछ लोगों को असामान्य या असहज लग सकती है. यही वजह है कि कई लोग इसे लेकर संदेह में हैं कि यह सफल होगी भी या नहीं, या इसे उतनी सख्ती से लागू किया जा सकेगा या नहीं.”
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तीन-भाषा फॉर्मूले पर विवाद
राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की शुरुआत से ही इसे लेकर विवाद होते रहे हैं. नीति के लागू होने के तुरंत बाद विपक्ष शासित राज्यों ने इसमें दिए गए तीन-भाषा फॉर्मूले पर आपत्ति जताई जिसके तहत छात्रों को कक्षा 8 तक तीन भारतीय भाषाएं और अगर संभव हो तो कक्षा 10 तक सीखनी होंगी.
दक्षिण भारतीय राज्य, खासकर तमिलनाडु, इस पर आपत्ति जताता रहा. राज्य ने इसे “हिंदी थोपने” की कोशिश करार दिया. हालांकि, NEP 2020 में किसी खास भाषा को अनिवार्य या प्राथमिकता देने की बात नहीं की गई थी.
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन और केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के बीच इस मुद्दे पर कई बार विवाद हुआ — सोशल मीडिया पर भी, और आधिकारिक पत्रों के ज़रिये भी. फरवरी में लिखे एक पत्र में प्रधान ने स्टालिन से आग्रह किया था कि “राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठें” और यह भी कहा कि राज्य सरकार द्वारा इस नीति को संकीर्ण दृष्टिकोण से देखना सही नहीं है.
जून में महाराष्ट्र की महायुति सरकार ने हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में शामिल करने का फैसला वापस ले लिया क्योंकि विपक्ष ने इसका कड़ा विरोध किया था. हालांकि, महाराष्ट्र ने बाकी हिस्सों में NEP 2020 को लागू किया है.
लेकिन यह बात ध्यान देने की है कि तीन-भाषा फॉर्मूला NEP 2020 से पहले भी मौजूद था. यह 1968 की शिक्षा नीति से ही लागू है.
इस समय, तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल को छोड़कर, सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश NEP 2020 को चरणबद्ध तरीके से अपना रहे हैं. मई में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें इन तीन राज्यों को NEP लागू करने का निर्देश देने की मांग की गई थी. अदालत ने कहा कि वह राज्यों को किसी खास सरकारी नीति को अपनाने के लिए मजबूर नहीं कर सकती.
NEP 2020 का एक अहम फोकस यह है कि कक्षा 5 तक और अगर संभव हो तो कक्षा 8 तक, मातृभाषा या स्थानीय भाषा में पढ़ाई कराई जाए. ऐसा इसलिए क्योंकि कई अध्ययनों से पता चला है कि बच्चे अपनी भाषा में जल्दी और बेहतर समझ पाते हैं, खासकर कठिन और जटिल विषयों को.
पिछले पांच साल में, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) ने 22 भारतीय भाषाओं में किताबें प्रकाशित की हैं. सीबीएसई ने स्कूलों से कहा है कि वे छात्रों की भाषा मैपिंग करें और क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई शुरू करें.
यह सिर्फ स्कूलों तक सीमित नहीं है. सरकार ने तकनीकी और मेडिकल कोर्स भी स्थानीय भाषाओं में शुरू किए हैं. हालांकि, इसके साथ ही यह चिंता भी जताई जा रही है कि क्षेत्रीय भाषाओं में पेशेवर कोर्स करने वाले छात्रों को नौकरी के अवसरों में कठिनाई हो सकती है.
पीएम-श्री योजना: केंद्र और राज्यों के बीच टकराव की वजह
सितंबर 2022 में जब केंद्र सरकार ने पीएम-श्री (PM Schools for Rising India) योजना की घोषणा की, तो तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और केरल के साथ उसका टकराव और गहरा हो गया. इस योजना का मकसद मौजूदा स्कूलों को मॉडल संस्थानों में बदलना है, जो NEP 2020 की सोच को दर्शाते हों और इसके लिए केंद्र सरकार की ओर से वित्तीय मदद दी जानी थी.
लेकिन इस योजना में शामिल होने के लिए एक अहम शर्त थी — राज्यों को केंद्र सरकार के साथ एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने होते, जिसके ज़रिये वे NEP को अपनाने के लिए सहमत होते. इन तीनों राज्यों ने इस शर्त को “थोपे जाने जैसा” मानते हुए इसका विरोध किया और समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए.
नतीजा यह हुआ कि इन राज्यों को केंद्र सरकार की प्रमुख शिक्षा योजना समग्र शिक्षा अभियान (SSA) के तहत मिलने वाली फंडिंग रोक दी गई, क्योंकि पीएम-श्री योजना इसी अभियान के तहत आती है.
21 जुलाई को संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में, केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने जानकारी दी कि 2024-25 शैक्षणिक सत्र में इन तीनों राज्यों को SSA के तहत कोई फंड जारी नहीं किया गया है.
दिल्ली और पंजाब जैसे कुछ अन्य राज्यों ने भी शुरुआत में इस शर्त का विरोध किया था, लेकिन जब उनकी SSA फंडिंग रोकी गई, तो उन्होंने आखिरकार MoU पर हस्ताक्षर कर दिए.

शिक्षा का ‘उपनिवेशमुक्तिकरण’
नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क (NCF), जो स्कूल शिक्षा और पाठ्यपुस्तकों के निर्माण के लिए मार्गदर्शक दस्तावेज़ है, इसका पहला एडिशन 2022 में फाउंडेशन स्टेज के लिए और बाकी स्कूल स्तर के लिए 2023 में जारी किया गया. इस दस्तावेज़ में भारतीय संदर्भ को शिक्षा में शामिल करने पर ज़ोर दिया गया है, ताकि देश की संस्कृति पर गर्व की भावना विकसित हो सके.
2022 में दिशा-निर्देश जारी करते समय, शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने कहा था कि NCF का मकसद है भारत की शिक्षा प्रणाली को उपनिवेशवाद से मुक्त करना. पिछले साल से लेकर इस साल तक, NCERT ने कक्षा 8 तक की नई किताबें जारी की हैं. इन किताबों की कुछ खास बातें हैं: विज्ञान और गणित में भारतीय योगदान पर ज़्यादा ज़ोर, हड़प्पा सभ्यता को सिंधु-सरस्वती सभ्यता कहा गया ज़्यादातर जगह “भारत” शब्द का इस्तेमाल, “इंडिया” की जगह मुगल और दिल्ली सल्तनत पर कम फोकस या हटाया गया फोकस.
उदाहरण के लिए इस साल अप्रैल में जारी कक्षा 7 की सामाजिक विज्ञान की किताब में मुगल और दिल्ली सल्तनत का ज़िक्र पूरी तरह हटा दिया गया और उसकी जगह प्राचीन भारतीय राजवंशों — जैसे मगध, मौर्य, शुंग और सातवाहन — पर नए अध्याय जोड़े गए.
जुलाई में आई कक्षा 8 की सामाजिक विज्ञान की किताब में मुगलों को फिर शामिल किया गया, लेकिन पुराने पाठ्यक्रम की तुलना में उन्हें अलग अंदाज़ में पेश किया गया. उनके शासन में कथित “क्रूरता” और “धार्मिक असहिष्णुता” को प्रमुखता से बताया गया. वहीं, मराठाओं को ज्यादा गौरवपूर्ण रूप में दिखाया गया है. विशेषज्ञों ने इन बदलावों को एक “वैचारिक कदम” बताया है, जिसमें कुछ ऐतिहासिक पात्रों को चुनिंदा रूप से महिमामंडित या बदनाम किया गया है. वहीं NCERT का कहना है कि यह इतिहास की तटस्थ प्रस्तुति है.
नई किताबों में भारत के प्राचीन ज्ञान तंत्र, संस्कृत शब्दावली और युद्ध नायकों की कहानियां भी शामिल की गई हैं. उच्च शिक्षा में भी, NEP के तहत इंडियन नॉलेज सिस्टम्स (IKS) को बढ़ावा दिया जा रहा है. अब पाठ्यक्रम में योग, वैदिक गणित, खगोल विज्ञान और अन्य पारंपरिक भारतीय विषयों पर नए कोर्स शामिल किए जा रहे हैं.
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स्कूल शिक्षा ढांचे में बड़ा बदलाव
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने पुराने 10+2 के ढांचे को बदलकर एक नया 5+3+3+4 मॉडल लागू किया है. यह ढांचा 3 से 18 साल तक के बच्चों को चार चरणों में बांटता है — फाउंडेशनल स्टेज: 3 साल की आंगनवाड़ी/प्री-स्कूल + कक्षा 1–2 (उम्र 3–8 साल), प्रिपरेटरी स्टेज: कक्षा 3–5 (उम्र 8–11 साल), मिडिल स्टेज: कक्षा 6–8 (उम्र 11–14 साल), सेकंडरी स्टेज: कक्षा 9–12 (दो हिस्सों में: 9–10 और 11–12, उम्र 14–18 साल).
इस नीति में बचपन की शिक्षा और देखभाल (ECCE) को सबसे ज़्यादा प्राथमिकता दी गई है. इसमें कहा गया है कि कक्षा 3 तक सभी बच्चों को बुनियादी पढ़ना, लिखना और गिनना (FLN) आना ज़रूरी है. नीति में साफ कहा गया है कि अगर बच्चों को शुरुआत में ही ये मूलभूत चीज़ें नहीं सिखाई गईं, तो आगे की सारी पढ़ाई का कोई मतलब नहीं रहेगा.
5 जुलाई 2021 को, उस समय के केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल ने NIPUN भारत मिशन शुरू किया. इसका मकसद था कि साल 2026–27 तक हर बच्चा पढ़ने-समझने और गणना करने में निपुण हो जाए. इसके लिए कई उपाय अपनाए गए हैं, जैसे: शिक्षकों का विशेष प्रशिक्षण, रोचक और अनुभव आधारित पढ़ाने की विधियां, खेलों के ज़रिए सीखना, तयशुदा मूल्यांकन (असेसमेंट).
इसी के तहत फरवरी 2023 में मंत्रालय ने “जादुई पिटारा” लॉन्च किया, जो 3 से 6 साल के बच्चों के लिए सीखने-सिखाने की सामग्री है. NIPUN भारत, शिक्षा मंत्रालय की समग्र शिक्षा योजना का हिस्सा है.
देशभर के स्कूलों के कई शिक्षकों और प्रधानाचार्यों का कहना है कि इस तरह का प्रयास पहले कभी नहीं हुआ था, जो खास तौर पर छोटे बच्चों की पढ़ाई और गणितीय कौशल पर केंद्रित हो.
दिल्ली के माउंट आबू पब्लिक स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली शिक्षिका विनीता नंदा ने दिप्रिंट से कहा कि उन्होंने अपने 17 साल के करियर में कई तरीकों से पढ़ाया है, लेकिन पिछले 5 सालों में जो बदलाव उन्होंने देखे हैं, वो अब तक सबसे अलग हैं.
उन्होंने कहा, “NEP 2020 के तहत हमने पारंपरिक किताब-केंद्रित पढ़ाई से हटकर अब खेल और कहानियों के ज़रिए पढ़ाना शुरू किया है, यहां तक कि अंग्रेज़ी जैसे विषयों में भी. जब मैं बच्चों को व्याकरण (Grammar) सिखाती हूं, तो उन्हें बाहर गार्डन में ले जाती हूं. वहां उन्हें चीज़ें दिखाकर पूछती हूं कि इसमें noun और pronoun कौन सा है. इससे पढ़ाई बच्चों को मज़ेदार, आसान और यादगार लगती है.”
हालांकि, निजी और सरकारी स्कूलों में NIPUN भारत योजना और FLN पर ध्यान देने में फर्क है. सरकारी स्कूलों के लिए इसे लागू करना मुश्किल हो रहा है क्योंकि उनके पास संसाधन कम हैं, शिक्षकों की कमी है और आधारभूत ढांचा (इन्फ्रास्ट्रक्चर) भी कमज़ोर है.
राजस्थान प्राइमरी स्कूल एसोसिएशन के अध्यक्ष विपिन प्रकाश ने कहा कि सरकारी स्कूलों में अब तक बहुत कम बदलाव हुए हैं.
उन्होंने बताया, “हमें बताया गया है कि कक्षा 5 तक की किताबें NEP 2020 के तहत बदली जाएंगी, लेकिन अभी तक हमें नई किताबें नहीं मिलीं. हमें इस नीति पर कोई प्रशिक्षण भी नहीं मिला है.”
नीति में डिजिटल लर्निंग पर ज़ोर दिया गया है, लेकिन डिजिटल अंतर की वजह से सरकारी स्कूल इसे अपनाने में भी पीछे हैं.
हरियाणा के फिरोजपुर झिरका में एक सरकारी बालिका वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय के प्रिंसिपल सैयद मोहम्मद इनाम ने दिप्रिंट से कहा, “हमारे जैसे ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में कंप्यूटर और इंटरनेट ठीक से काम नहीं करते. ऐसे में हम DIKSHA पोर्टल जैसे डिजिटल टूल का इस्तेमाल कैसे करें?”
DIKSHA (Digital Infrastructure for Knowledge Sharing) शिक्षा मंत्रालय द्वारा बनाया गया एक डिजिटल मंच है, जहां स्कूल शिक्षा के लिए ज़रूरी अध्ययन सामग्री उपलब्ध कराई जाती है. शुरुआती अड़चनों के बावजूद नई शिक्षा नीति लागू होने के बाद बुनियादी स्तर पर छात्रों की सीखने की क्षमता में काफी सुधार हुआ है.
जनवरी 2025 में जारी हुए Annual Status of Education Report (ASER) 2024 में, जो कि एनजीओ प्रथम द्वारा जारी की गई, यह पाया गया कि ग्रामीण भारत के बच्चों में बुनियादी शिक्षा में अच्छा सुधार हुआ है.
इसी तरह, जुलाई में जारी PARAKH राष्ट्रीय सर्वेक्षण (जिसे पहले National Achievement Survey – NAS कहा जाता था) में भी यह दिखा कि कक्षा 3 के छात्रों का प्रदर्शन 2021 की तुलना में बेहतर हुआ है. इस रिपोर्ट में भी माना गया कि NIPUN भारत योजना ने इस सुधार में अहम भूमिका निभाई है.
सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन की सीईओ और एमडी एमडी श्वेता शर्मा-कुकरजा, जो कि प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में काम करती हैं, उन्होंने कहा, “साल 2047 तक, 95 करोड़ भारतीय—जो कि दुनिया की कुल वर्कफोर्स का 25% होंगे—नौकरी की तलाश में बाज़ार में उतरेंगे. इनमें से 25 करोड़ बच्चे अगले 20 सालों में प्राइमरी स्कूल से गुज़रेंगे. FLN को प्राथमिकता देकर, NEP 2020 ने वो कर दिखाया है जो बहुत कम नीतियां कर पाई हैं.
सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन की प्रमुख श्वेता शर्मा-कुकरजा ने दिप्रिंट से कहा, “इस नीति ने भारत की शिक्षा व्यवस्था को ‘सीखने के विज्ञान’ और एक युवा, महत्वाकांक्षी देश की ज़रूरतों के साथ जोड़ा. इसने सबसे छोटे बच्चे को सुधार के केंद्र में रखा और यह सुनिश्चित किया कि हर बच्चा, चाहे उसकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो, एक बेहतर भविष्य की सच्ची उम्मीद रख सके.”
लेकिन चुनौतियां अभी भी बाकी हैं.
कई स्कूलों को कक्षा 1 में दाखिले के लिए 6 साल की उम्र की शर्त लागू करने में परेशानी हो रही है. पहले स्कूलों में नर्सरी और किंडरगार्टन क्लासें होती थीं, जिनमें 3 और 4 साल के बच्चों को दाखिला मिल जाता था, लेकिन NEP 2020 के तहत अब कक्षा 1 में दाखिले के लिए उम्र कम से कम 6 साल तय की गई है, जिससे सभी स्कूलों को फाउंडेशन स्टेज में एक अतिरिक्त क्लास जोड़नी होगी.
दिल्ली के द्वारका स्थित ITL पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल सुधा आचार्य ने कहा, “एक और क्लास जोड़ने के लिए स्कूलों को अतिरिक्त कमरे चाहिए होंगे, लेकिन कई स्कूलों के पास जगह ही नहीं है. अधिक स्टाफ, बेहतर ढांचा और बोर्ड से सहयोग की भी ज़रूरत होगी. हमने तो चार अतिरिक्त कमरे बना लिए हैं, लेकिन बहुत सारे स्कूल अब भी जूझ रहे हैं. साथ ही, कई छात्र जो कक्षा 1 में आने वाले हैं, अभी 6 साल के नहीं हुए हैं. ऐसे मामलों में हम क्या करें? हमें अभी भी कुछ स्पष्टता का इंतज़ार है.”

बदलावों का मूल्यांकन प्रणाली पर असर
नई शिक्षा नीति का ज़ोर बच्चों के एक बार के परीक्षा परिणाम के बजाय, साल भर चलने वाले निरंतर और बहुआयामी मूल्यांकन पर है. इसका मकसद रटकर याद करने वाली पढ़ाई को हतोत्साहित करना है.
इसी दिशा में एनसीईआरटी के तहत गठित संस्था PARAKH – Performance Assessment, Review, and Analysis of Knowledge for Holistic Development ने होलिस्टिक प्रोग्रेस कार्ड (एचपीसी) फ्रेमवर्क तैयार किया है. यह डिजिटल फॉर्मेट में होगा और इसमें बच्चों की प्रगति जानने के लिए सहपाठियों, माता-पिता और स्वयं विद्यार्थी की प्रतिक्रिया को शामिल किया जाएगा.
परख के हालिया आंकड़ों के मुताबिक, 26 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश कक्षा 8 तक के लिए इस प्रणाली को अपना चुके हैं या अपनाने की प्रक्रिया में हैं.
हालांकि, कई प्राइवेट स्कूलों में इस मॉडल को अपनाया जा चुका है, लेकिन सरकारी स्कूलों में स्थिति अलग है. उत्तर प्रदेश टीचर्स फेडरेशन के अध्यक्ष दिनेश चंद्र शर्मा ने कहा, “सरकारी स्कूलों को तो एचपीसी के बारे में जानकारी ही नहीं है. इसे अपनाने के लिए सबसे पहले हमें डिजिटल ढांचा चाहिए.”
माध्यमिक स्तर (कक्षा 9-12) पर NEP 2020 ने बोर्ड परीक्षाओं के ‘हाई स्टेक्स’ यानी अधिक दबाव वाले स्वरूप को खत्म करने का सुझाव दिया है. इसी कड़ी में सीबीएसई ने जून में घोषणा की कि साल 2026 से कक्षा 10 की परीक्षा दो चरणों में होगी.
पहला चरण सभी छात्रों के लिए अनिवार्य होगा और फरवरी–मार्च में आयोजित किया जाएगा. दूसरा चरण मई में उन छात्रों के लिए होगा, जिन्हें पहले चरण में कम्पार्टमेंट मिला हो या जो 3 विषयों तक में अपने अंक सुधारना चाहते हों. हालांकि, दो बार परीक्षा लेने की नीति को लेकर व्यावहारिक चुनौतियां भी सामने आ रही हैं.
दिल्ली पब्लिक स्कूल, सेक्टर 45 (गुरुग्राम) की डायरेक्टर अदिति मिश्रा ने इस बदलाव के पीछे की सोच की सराहना की, लेकिन साथ ही व्यावहारिक कठिनाइयों की ओर भी इशारा किया.
उन्होंने कहा, “स्कूल के नज़रिए से देखें तो इसका मतलब होगा दो बार योजना बनाना, तैयारी करना और मूल्यांकन करना. यह शिक्षकों और छात्रों पर मानसिक दबाव भी बढ़ाएगा. अगर इसे सफल बनाना है, तो अतिरिक्त सहयोग, ट्रेनिंग और आधारभूत ढांचे की ज़रूरत होगी. साथ ही, यह खतरा भी है कि जिन स्कूलों के पास संसाधन ज़्यादा हैं, वो इसे आसानी से लागू कर लेंगे और बाकी स्कूल पीछे रह जाएंगे. जब तक व्यवस्था को बराबरी वाली नहीं बनाया जाता, तब तक अंतर और बढ़ सकता है.”
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कॉलेज और यूनिवर्सिटी में NEP का असर
नई शिक्षा नीति में कॉलेज स्तर पर 4 साल तक का फ्लेक्सिबल अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम प्रस्तावित किया गया है, जिसमें मल्टीपल एंट्री और एग्जिट यानी बीच में पढ़ाई छोड़ने या दोबारा शुरू करने की सुविधा शामिल है.
2021 में यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) ने इस मॉडल को लागू करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए.
इसके तहत एक साल बाद छात्र प्रमाणपत्र लेकर पढ़ाई छोड़ सकते हैं, दो साल बाद डिप्लोमा, तीन साल बाद ग्रेजुएशन की डिग्री और चार साल बाद ऑनर्स और रिसर्च के साथ ग्रेजुएट डिग्री प्राप्त कर सकते हैं.
नीति में यह भी कहा गया है कि अगर कोई छात्र चार साल की डिग्री पूरी करता है, तो उसके लिए एक साल का मास्टर्स प्रोग्राम ही पर्याप्त होगा. इसके अलावा, एम. फिल डिग्री को बंद कर दिया गया है.
इस नए ढांचे को समर्थन देने के लिए यूजीसी ने 2021 में Academic Bank of Credits (ABC) की शुरुआत की. यह एक डिजिटल सिस्टम है जो छात्रों के अलग-अलग संस्थानों में हासिल किए गए शैक्षणिक क्रेडिट्स को ट्रैक करता है.
इसके साथ ही, नेशनल क्रेडिट फ्रेमवर्क (NCrF) भी शुरू किया गया है, जो औपचारिक और अनौपचारिक, दोनों तरह की पढ़ाई को क्रेडिट के रूप में मान्यता देता है, जैसे कि क्लासरूम पढ़ाई, लैब वर्क, ऑनलाइन कोर्स, इनोवेशन लैब्स, खेल, योग, शारीरिक गतिविधियां, प्रदर्शन कला आदि.
पूर्व यूजीसी चेयरमैन एम. जगदीश कुमार ने कहा, “एनईपी से पहले भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था बहुत कड़ी और बंटी हुई थी. अब इसे इस तरह बदला जा रहा है कि छात्र अधिक फ्लेक्सिबल और डिजिटल तरीके से पढ़ाई कर सकें.”
उन्होंने कहा, “ABC और NCrF जैसे सिस्टम से छात्रों को पढ़ाई के दौरान आने-जाने की सुविधा मिलती है, बिना अपनी पिछली पढ़ाई को खोए. यह संदेश देता है कि शिक्षा एक सतत प्रक्रिया है, न कि एक बंद दरवाज़ा.”
नई 4 वर्षीय डिग्री में अब रिसर्च, स्किल्स, लचीलापन और साफ एग्जिट ऑप्शन शामिल हैं. अब तक 200 से अधिक उच्च शिक्षण संस्थान इस मॉडल को अपना चुके हैं.
हालांकि, दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) जैसे कई संस्थान 1 अगस्त से अपने पहले चौथे साल के बैच का स्वागत करने की तैयारी में हैं और इन्फ्रास्ट्रक्चर की भारी कमी झेल रहे हैं.
डीयू टीचर्स एसोसिएशन (डूटा) के अध्यक्ष ए.के. भागी ने कहा, “ज्यादातर कॉलेजों में एक अतिरिक्त बैच को समायोजित करने में दिक्कत हो रही है. इसके लिए अतिरिक्त इंफ्रास्ट्रक्चर, ज़्यादा शिक्षक और आर्थिक सहयोग की ज़रूरत है. अगर ये नहीं मिला तो इस बदलाव को सुचारू रूप से लागू करना मुश्किल होगा.”

कॉमन एंट्रेंस एग्जाम: CUET
नई शिक्षा नीति में देशभर के विश्वविद्यालयों में अलग-अलग प्रवेश परीक्षाओं की जगह एक कॉमन एंट्रेंस एग्जाम लाने का लक्ष्य रखा गया था, ताकि छात्रों, कॉलेजों और पूरे शिक्षा तंत्र पर पड़ने वाला बोझ कम किया जा सके. इसी सोच के तहत यूजीसी ने 2022 में CUET (कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट) शुरू किया. यह परीक्षा ऑनलाइन फॉर्मेट में नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) द्वारा आयोजित की जाती है. हालांकि, शुरुआत में कई तकनीकी खामियों और डिजिटल दिक्कतों के चलते कई सेशंस रद्द भी हुए थे. पूर्व यूजीसी चेयरमैन एम. जगदीश कुमार के मुताबिक, CUET ने शुरुआत में भले ही चुनौतियां पेश की हों, लेकिन अब यह अवसरों को बराबर कर रहा है.
उन्होंने कहा, “पहली बार आदिवासी जिलों, ग्रामीण स्कूलों और गैर-प्रसिद्ध शहरी संस्थानों के छात्र भी उन्हीं परीक्षाओं से गुज़र रहे हैं, जिनसे बड़े शहरों के प्रतिष्ठित स्कूलों के छात्र. CUET ने असमान मार्किंग सिस्टम की पुरानी व्यवस्था को तोड़कर एक न्यायसंगत शुरुआत की लाइन तैयार की है.” CUET को लेकर प्रतिक्रियाएं मिश्रित रही हैं. कई प्रोफेसरों का मानना है कि यह सभी कॉलेजों के लिए एक समान रूप से फायदेमंद नहीं रहा. दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज में फिजिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. नवीन गौड़ ने कहा, उनके कॉलेज में तीसरे वर्ष के लिए 2,200 सीटें स्वीकृत हैं, लेकिन सिर्फ 1,600 छात्रों ने ही एडमिशन लिया.
उन्होंने कहा, “दूसरे वर्ष में भी 20% सीटें खाली रहीं. एक केंद्रीकृत परीक्षा प्रणाली सभी कॉलेजों के लिए कारगर नहीं है. यह एलिट संस्थानों और लोकप्रिय कोर्सेज के लिए बेहतर काम करती है, लेकिन जिन कोर्सेज की डिमांड कम है, वहां छात्र ऐसी परीक्षा के ज़रिये आवेदन नहीं करते.”
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‘कोर्सेज का पतन’
नई शिक्षा नीति के तहत पाठ्यक्रम की संरचना और कोर्स में हुए बदलावों को लेकर कुछ शिक्षकों ने आपत्ति जताई है. उनका कहना है कि इन बदलावों से छात्रों के मुख्य विषयों (core papers) की गुणवत्ता कमज़ोर हुई है.
नीति के तहत कई विश्वविद्यालयों ने क्रेडिट-बेस्ड शॉर्ट टर्म वैल्यू एडेड कोर्सेज (VACs) शुरू किए हैं, जिनका मकसद मल्टी-डिसिप्लिनरी लर्निंग को बढ़ावा देना और छात्रों को उनके मुख्य अकादमिक विषयों से परे नई स्किल्स सिखाना है. दिल्ली यूनिवर्सिटी में VACs के तहत आयुर्वेद और न्यूट्रिशन, योग, फिट इंडिया, वैदिक गणित और भगवद गीता पर आधारित कोर्स कराए जा रहे हैं.
लेकिन प्रोफेसर नवीन गौड़ का कहना है कि इन कोर्सेज के लिए जो समय दिया जा रहा है, वह मुख्य विषयों के हिस्से से लिया जा रहा है. उन्होंने कहा, “VACs का कोई खास उपयोग नहीं है. ये सिर्फ छात्रों की अकादमिक नींव को कमज़ोर कर रहे हैं.”
दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के शिक्षक भी वैल्यू एडेड कोर्सेज (VACs) को लेकर चिंता जता रहे हैं. एसोसिएट प्रोफेसर मौसुमी बासु ने कहा, “ये कोर्स छात्रों को उनके मुख्य विषयों में कोई अतिरिक्त लाभ नहीं देते.” जेएनयू ने योग और वेलनेस, इंडियन नॉलेज सिस्टम्स, संस्कृत में सोचने की कला और पर्यावरण विज्ञान जैसे विषयों में VACs शुरू किए हैं.
नीति के तहत, जो छात्र चार साल की रिसर्च आधारित अंडरग्रेजुएट डिग्री में 7.5 सीजीपीए हासिल करते हैं, उन्हें बिना मास्टर्स किए सीधे पीएचडी में एडमिशन मिल सकता है. हालांकि, दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज के राजनीति विज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर तनवीर एजाज़ का कहना है कि इससे छात्रों की रिसर्च की बुनियाद कमजोर होगी.
उन्होंने कहा, “पहले दो साल का मास्टर्स और फिर दो साल का एमफिल—इस पूरे प्रोसेस से छात्रों को गहराई और विशेषज्ञता मिलती थी. एमफिल में किया गया डिसर्टेशन छात्रों को गंभीर रिसर्च के लिए तैयार करता था. अब वह ट्रेनिंग नहीं मिलेगी और इससे PhD की गुणवत्ता कमजोर होगी.” पूर्व यूजीसी चेयरमैन एम. जगदीश कुमार का मानना है कि चार साल का ऑनर्स प्रोग्राम छात्रों को मुख्य विषयों की गहराई से पढ़ाई और रिसर्च का मौका देता है. उन्होंने कहा कि इससे छात्र अपने कोर विषय के साथ-साथ दूसरे क्षेत्रों का ज्ञान भी प्राप्त कर सकते हैं.
भारत की शिक्षा व्यवस्था का अंतरराष्ट्रीयकरण
सरकार ने भारत की शिक्षा व्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने के लिए कई कदम उठाए हैं. यह नई शिक्षा नीति 2020 की उस सिफारिश के अनुरूप है, जिसमें भारत को एक वैश्विक शैक्षणिक केंद्र (विश्व गुरु) के रूप में स्थापित करने की बात कही गई है. इसके तहत, देश की प्रमुख यूनिवर्सिटियों को विदेशों में कैंपस खोलने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है और साथ ही कुछ चुनिंदा अंतरराष्ट्रीय टॉप यूनिवर्सिटियों को भारत में अपने कैंपस शुरू करने की अनुमति दी जा रही है.
2023 में आईआईटी मद्रास ने जंजीबार में अपना कैंपस शुरू किया. आईआईटी दिल्ली ने अबू धाबी में कैंपस खोला है और आईआईएम अहमदाबाद अब दुबई में विस्तार कर रहा है.
इसी दिशा में नवंबर 2023 में यूजीसी ने ‘भारत में विदेशी उच्च शिक्षण संस्थानों के कैंपस खोलने और संचालन से जुड़ा’ एक नया नियम जारी किया. इसके तहत, दुनिया की टॉप 500 यूनिवर्सिटियां भारत में कैंपस खोलने के लिए आवेदन कर सकती हैं. इसके लिए एक विशेष पोर्टल भी शुरू किया गया है.
पिछले साल, यूनाइटेड किंगडम की यूनिवर्सिटी ऑफ साउथैम्पटन यूजीसी की मंज़ूरी पाने वाली पहली विदेशी यूनिवर्सिटी बनी और अब वह गुरुग्राम में कैंपस स्थापित कर रही है. यूनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल को भी बेंगलुरु में कैंपस खोलने की अनुमति मिल चुकी है. इसके अलावा, ऑस्ट्रेलिया की दो यूनिवर्सिटियों ने गुजरात के GIFT सिटी में अपने कैंपस शुरू किए हैं, जो इंटरनेशनल फाइनेंशियल सर्विस सेंटर अथॉरिटी (IFSCA) के नियमों के अनुसार हैं.
इसके अलावा यूजीसी द्वारा लागू की गई संयुक्त, दोहरी और ट्विनिंग डिग्री की नीति के कारण भारत के सौ से अधिक संस्थानों ने विदेशी यूनिवर्सिटियों के साथ साझेदारी की है. इन कार्यक्रमों के तहत, छात्र अपनी पढ़ाई का एक हिस्सा भारत में और बाकी विदेश में कर सकते हैं और दोनों जगह की डिग्री मान्य होती है.
यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष कुमार के अनुसार, “अंतरराष्ट्रीयकरण से भारतीय छात्रों को कई व्यावहारिक फायदे मिलते हैं, जैसे कम खर्च में अंतरराष्ट्रीय अनुभव, क्रेडिट ट्रांसफर और लचीलापन, विविध प्रकार की शिक्षा प्रणाली और वैश्विक स्तर की डिग्री, वह भी भारत में रहते हुए.”
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(NEP 2020 पर दिप्रिंट की चार-पार्ट की स्पेशल सीरीज़ की पहली रिपोर्ट)
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