नई दिल्ली: फरीदाबाद के एक मॉल में सुरक्षा गार्ड सतीश यादव को दूसरी कोविड लहर के दौरान लगाए गए लॉकडाउन के बीच अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा. दो बच्चों के पिता 45 वर्षीय यादव ने फिर अपने परिवार का पेट पालने के लिए हाथ ठेले पर फल बेचने शुरू कर दिए. नए काम से उन्हें एक निश्चित आय तो होने लगी लेकिन यह उनके दोनों बच्चों को पढ़ाने के लिए पर्याप्त नहीं थी. और, इसलिए यादव के बड़े बच्चे- जो एक लड़की- को स्कूल छोड़ना पड़ा.
यादव ने कहा, ‘मेरी बेटी की पढ़ाई फिर शुरू होने में कुछ साल लग सकते हैं. मैं सीमित साधनों के साथ केवल अपने बेटे को ही पढ़ा पाऊंगा और अभी उसी पर ध्यान देना चाहता हूं.’ उनका बेटा कक्षा 5 में पढ़ता है और बेटी 9वीं कक्षा की छात्रा है.
एक फल-विक्रेता के तौर पर वह महीने में 10,000 रुपये से भी कम राशि कमा पाते हैं, जबकि एक गार्ड के रूप में लगभग दोगुना कमा लेते थे.
सुमन वर्मा एक बेटी की सिंगल मदर हैं जो अगले साल 18 साल की होने वाली हैं. दिल्ली के नांगलोई इलाके में रहने वाली सुमन वर्मा अपनी बेटी को स्कूल नहीं भेजना चाहती, क्योंकि लॉकडाउन के दौरान उसकी आय के स्रोत का एक बड़ा हिस्सा खत्म हो गया है.
सुमन एक घरेलू सहायिका के तौर पर काम करती हैं और लॉकडाउन के दौरान उसके चार घरों का काम छूट गया है. सुमन वर्मा अब सिर्फ एक ही घर में सहायिका और बेबीसिटर का काम करती है, वह पहले 15,000 रुपये प्रति माह कमा लेती थी, अब वह केवल 5,000 रुपये की ही कमाई हो रही है, जो उसके मुताबिक उसका और बेटी का भरने भर के लिए ही पर्याप्त है.
उसने कहा, ‘मैं अपनी बेटी को स्कूल नहीं भेज सकती. वह अगले साल 18 वर्ष की हो जाएगी, मैं उसकी शादी कर दूंगी. मैंने उसकी शादी के लिए कुछ पैसे बचा रखे हैं.’
सतीश यादव और सुमन वर्मा तो इस बात के सिर्फ दो उदाहरण मात्र हैं कि कैसे महामारी- और उसके कारण लगे लॉकडाउन ने भारत में बच्चों की शिक्षा को किस कदर प्रभावित किया है, खासकर जो निम्न और मध्यम आय वाले परिवारों से आते हैं. और, दिप्रिंट की तरफ से जुटाई गई जानकारी बताती है कि इसका सबसे ज्यादा खामियाजा लड़कियों को भुगतना पड़ा है.
शिक्षा मंत्रालय के मुताबिक, इस समय 35 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं, जिसमें वे बच्चे भी शामिल हैं जिन्हें महामारी के दौरान स्कूल छोड़ना पड़ा है. मंत्रालय के पास मार्च 2020 के बाद स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की सही संख्या (जब भारत में कोविड महामारी ने दस्तक दी) या लड़कियों बनाम लड़कों के स्कूल छोड़ने पर समेकित डाटा नहीं है.
आउट ऑफ स्कूल बच्चे वो हैं जिनका कभी स्कूल में नामांकन नहीं हुआ है, जबकि ड्रॉपआउट स्टूडेंट में वे बच्चे शामिल हैं जिन्हें स्कूल बीच में ही छोड़ना पड़ा.
हालांकि, दिप्रिंट को मिली जानकारी के मुताबिक वास्तविक आंकड़ा अधिक होने की संभावना है क्योंकि राज्य अभी इसकी गणना करने में ही लगे हैं. महामारी के कारण सर्वेक्षणकर्ताओं के लिए यह कार्य काफी मुश्किल हो गया है.
केंद्र की तरफ से राज्यों को ऑउट ऑफ स्कूल बच्चों की पहचान करने के लिए कहे जाने के बाद जनवरी 2021 और अक्टूबर के पहले सप्ताह के बीच राज्यों द्वारा मंत्रालय के साथ 35 लाख बच्चों का डाटा साझा किया गया था.
सभी राज्यों को लिखे एक पत्र में सरकार ने कहा था, ‘ओओएससी (स्कूल से बाहर के बच्चों) की पहचान करना काफी अलग होता है…इसलिए राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को 5 से 18 आयुवर्ग के ओओएससी की एकदम सही तरीके से पहचान करनी चाहिए… ताकि कोई बच्चा छूट न जाए.’
राज्यों का डाटा मंत्रालय द्वारा जून में शुरू किए गए पोर्टल- प्रबंध- पर अपलोड किया जाता है. उसके अनुसार, पढ़ाई छोड़ने वाले यानी ड्रॉपआउट बच्चों की दर ओडिशा (22 प्रतिशत) में सबसे अधिक है, इसके बाद लद्दाख (18 प्रतिशत से अधिक) और नागालैंड (16 प्रतिशत से अधिक) का नंबर आता है.
राज्यों के स्थानीय स्तर के आंकड़े यह भी संकेत देते हैं कि स्कूल छोड़ने वालों की संख्या चिंताजनक है.
उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में पिछले साल 25,000 बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया, जैसा मार्च माह में राज्य की तरफ से किए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, तमिलनाडु में अब तक 1.25 लाख बच्चों को महामारी के कारण स्कूल छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है.
अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के नेतृत्व में एक अन्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट ‘स्कूल शिक्षा पर आपातकालीन रिपोर्ट’ में भी कहा गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 37 प्रतिशत बच्चों ने महामारी के कारण स्कूल छोड़ दिया है. सर्वेक्षण में 15 राज्यों असम, बिहार, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल को शामिल किया गया था.
हालांकि, मंत्रालय के डाटा में लड़कियों की संख्या के बारे में अलग आंकड़े नहीं हैं, लेकिन बेंगलुरु स्थित एनजीओ आह्वान फाउंडेशन—जो देशभर में निम्न-आय वाले परिवारों के बच्चों को पढ़ाने वाले स्कूलों के साथ काम करता है—के आंकड़े वही तस्वीर पेश करते है दिप्रिंट ने अपनी पड़ताल में पाई थी. ज्यादातर निम्न-मध्यम वर्गीय, प्रवासी मजदूरों और विक्रेताओं आदि के परिवारों में ड्रॉपआउट की प्रवृत्ति पाई गई है.
आह्वान बेंगलुरु में जिन स्कूलों के साथ मिलकर काम करता है, उनमें 1,702 बच्चों में से 252 ने कोविड के दौरान पढ़ाई छोड़ दी है. इनमें 179 लड़कियां थीं. तमिलनाडु और केरल में भी यही स्थिति है, जहां कुल 3,610 छात्रों में से 809 ने पढ़ाई छोड़ी, जिनमें से 565 लड़कियां हैं.
इसी तरह, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में आह्वान समर्थित स्कूलों में 3,864 छात्रों में से 836 छात्र कोविड के दौरान ड्रॉपआउट हो गए और उनमें से 543 लड़कियां थीं.
वहीं, मुंबई में 1,603 में से 126 बच्चों ने पढ़ाई छोड़ी जिनमें 98 लड़कियां थीं.
‘माता-पिता लड़कियों की शादी करने की तैयारी में’
पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम में आह्वान फाउंडेशन के तहत चलने वाले स्कूलों को जिम्मेदारी संभाल रहे प्रशांत बारिक ने कहा, ‘पिछले साल भी लोग अपने बच्चों को स्कूल से निकाल रहे थे, लेकिन पिछले कुछ महीनों में यह प्रवृत्ति काफी बढ़ गई है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘हम जिन स्कूलों के साथ काम करते हैं, हमने देखा कि वहां कई लड़कियां कक्षा 9 और 10 के बाद पढ़ाई छोड़ रही हैं. उनमें से कुछ ने हमें बाद में फोन करके बताया कि उनके माता-पिता उनकी शादी की तैयारी कर रहे हैं और इसे रोकने के लिए उन्होंने हमसे मदद भी मांगी.’
उन्होंने बताया, ‘ऐसा करने वाले माता-पिता न केवल छोटे-मोटे विक्रेता और दिहाड़ी मजदूर हैं, बल्कि इनमें वे लोग भी शामिल हैं जो प्राइवेट नौकरियां कर रहे थे और उन्हें कोविड के कारण अपनी नौकरी गंवानी पड़ी है.
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मुंबई में आह्वान के साथ काम करने वाली एक वालंटियर मानसी जेना ने दावा किया कि ठाणे के स्कूलों में उन्हें ऐसे मामले भी देखने को मिले जहां अपने परिवार की वित्तीय समस्याओं के कारण छात्र आत्महत्या जैसा कदम उठाने के कगार पर पहुंच गए.
जेना ने कहा, ‘तमाम अभिभावकों ने कोविड के दौरान अपनी नौकरी गंवा दी… सब्जी बेचने वाले, घरों में सहायक का काम करने वाले और दिहाड़ी मजदूर लॉकडाउन के दौरान बिल्कुल कुछ भी कमाने की स्थिति में नहीं थे. उन्होंने हमसे कहा कि अपने बेटों को पढ़ाएंगे न कि बेटियों को. हमें माता-पिता को समझाने में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. कई बच्चे अवसाद की स्थिति में पहुंच गए और उन्होंने आत्महत्या करने तक की कोशिश की और हमें उनकी काउंसिलिंग करनी पड़ी.’
उन्होंने कहा कि माता-पिता ने बच्चों को स्कूल भेजने के बजाये हमसे उन्हें अपने एनजीओ में नौकरी देने को कहा.
आह्वान की एक अन्य वालंटियर निवेदिता आरएस, जो केरल और तमिलनाडु में काम करती हैं, ने भी बताया कि उनके सामने ऐसे मामले आए जिसमें माता-पिता अपनी छोटी बेटियों की शादी करना चाहते हैं क्योंकि अब वे उन्हें पढ़ाने का खर्च नहीं उठा सकते.
सतीश यादव और सुमन वर्मा की ही तरह दिप्रिंट से बात करने वाले कुछ अन्य माता-पिता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि कम आय के कारण वे अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बजाये किसी काम में लगाने और परिवार की आय बढ़ाने में मददगार बनाना पसंद करेंगे. युवा बेटियों वाले कई अभिभावकों ने कहा कि वे उनकी शादी कराना चाहते हैं और इसलिए पढ़ाई बंद कराकर घर का कामकाज सिखाने को तवज्जो दी.
कासरगोड के एक अभिभावक ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘मेरी बेटी ने 10वीं कक्षा की पढ़ाई पहले ही पूरी कर ली है और मैं उसे आगे पढ़ाने की स्थिति में नहीं हूं. जैसे ही वह 18 साल की हो जाएगी, मैं उसकी शादी करने की सोच रहा हूं.’
‘बेहद गंभीर समस्या’
काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट में एक सम्मानित प्रोफेसर और नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग के पूर्व कुलपति प्रोफेसर आर. गोविंदा ने कहा कि बच्चों के स्कूल ड्रॉपआउट की समस्या ‘बहुत गंभीर’ है और इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘महामारी के दौरान स्कूल से बाहर हो जाने वाले बच्चों की दो श्रेणियां हैं. एक वो जिनके माता-पिता गरीब से और ज्यादा गरीब हो गए और इस कारण उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी. इसका सबसे ज्यादा खामियाजा बच्चियों को भुगतना पड़ रहा है. दूसरी श्रेणी निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चों की है, जिन्हें कम खर्च वाले निजी स्कूलों में भर्ती कराया गया था. चूंकि सस्ती शिक्षा देने वाले ऐसे अधिकांश निजी स्कूल बंद हो गए हैं, इसलिए बच्चों को स्कूल छोड़ना पड़ा.’
महिला सशक्तिकरण पर काम करने वाले संगठन सेंटर फॉर सोशल रिसर्च में एक परियोजना अधिकारी निहारिका सिंह ने इस बात पर सहमति जताई कि महामारी के दौरान लड़कियों के स्कूली पढ़ाई छोड़ने के मामले बढ़े हैं.
उन्होंने बताया कि हरियाणा में कुछ काम करने के दौरान उन्होंने देखा कि तमाम लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती है क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें आगे पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेज सकते.
निहारिका सिंह ने कहा, ‘युवा लड़कियों और बच्चियों पर महामारी का प्रभाव स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहा है. इस बारे में कोई ठोस अध्ययन नहीं है लेकिन हमें इस सच्चाई के सबूत मिले हैं. महामारी से पहले हमें हरियाणा के स्कूलों में लड़कियों की ठीक-ठाक संख्या दिख जाती थी लेकिन अब स्थिति एकदम बदतर हो चुकी है.’
जनवरी में राइट टू एजुकेशन फोरम के एक पॉलिसी ब्रीफ में भी अनुमान लगाया गया था कि महामारी के कारण करीब एक करोड़ लड़कियों के स्कूली पढ़ाई छोड़ने का खतरा है. रिपोर्ट में कहा गया था कि महामारी ‘लड़कियों को जल्दी शादी के अलावा उन्हें गरीबी और तस्करी के दलदल में भी धकेल सकती है.’
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