कोटा: क्लास से बाहर निकलते छात्रों का एक समूह, अपने कंधों पर बैग टांगे, दिन भर के कोर्स के बारे में चर्चा कर रहा है. राजस्थान के कोटा में हर दिन दोपहर कुछ ऐसी ही दिखती है, जो अपने सपनों को पूरा करने के लिए यहां आने वाले हज़ारों एस्पिरेंट्स के लिए दूसरे घर जैसा है.
56-वर्षीय महावीर सिंह, जो सालों से कोटा के व्यस्त इलाकों में ऑटो-रिक्शा चला रहे हैं, के लिए दोपहर 1:30 बजे के बाद से शुरू होने वाला समय कभी उनका सबसे व्यस्त समय हुआ करता था.
लेकिन, इस साल कुछ अलग है. सड़कें शांत हैं, कोचिंग सेंटरों में बहुत कम स्टूडेंट्स हैं, कई हॉस्टल खाली हैं और मेस मालिक अपना गुज़ारा चलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. यहां तक कि रियल एस्टेट का बिज़नेस जो कभी तेज़ी से बढ़ रहा था वो भी धीमा पड़ रहा है — कोटा अब पहले जैसा नहीं रहा.
महावीर, कोरल पार्क इलाके में अपने खाली ऑटो-रिक्शा को याद करते हैं, “पिछले साल ही, मुझे आराम करने का एक पल भी नहीं मिला था. मैं बिना ब्रेक के पूरे दिन गाड़ी चलाता था, लेकिन अब मुझे पहले जितने ग्राहक नहीं मिल रहे हैं. कमाई भी आधी हो गई है. हमारा परिवार बच्चों पर निर्भर है. अगर वो यहां आना बंद कर देंगे, तो हम ज़िंदा कैसे रहेंगे?”
कुछ मीटर की दूरी पर, गर्ल्स हॉस्टल के केयरटेकर 40-वर्षीय राधेश्याम, फोन पर एक ब्रोकर से चिंतित होकर बात कर रहे हैं. उन्होंने निराश होकर बताया, “हमारे पास 76 लड़कियों के लिए कमरे हैं और पिछले साल, हमने सारे कमरे भर दिए थे, लेकिन इस साल? हमारे पास मुश्किल से 24 लड़कियां हैं.”
शहर की सीमा से 10 किलोमीटर दूर छात्रों की सुविधा के लिए बनाए गए कोरल पार्क इलाके में ज्यादातर हॉस्टल और पेइंग गेस्ट (पीजी) अब आधी क्षमता पर चल रहे हैं. कुछ ने तो अपनी दुकानें तक बंद कर दी हैं, क्योंकि वो कम छात्रों की संख्या के साथ इसे नहीं चला पा रहे हैं.
300 से अधिक हॉस्टल वाला यह इलाका, जिसमें सामूहिक रूप से 20,000-25,000 छात्र रह सकते हैं, अब एक भूतहा शहर जैसा दिखता है. सड़कों पर “to-let” और “for sale” के बोर्ड लगे हुए हैं. एक साल पहले तक पूरी तरह से भरे हुए हॉस्टल के कमरे अब धूल फांक रहे हैं.
कोरल सोसाइटी के अध्यक्ष सुनील अग्रवाल ने दावा किया, “यह परेशानी सिर्फ कोरल पार्क तक ही सीमित नहीं है; यह पूरे कोटा में फैल गई है. पिछले साल कोटा में लगभग दो लाख एस्पिरेंट्स थे, जो अब घटकर 1-1.25 लाख रह गए हैं. मुझे उम्मीद थी कि इस साल हमारे दो हॉस्टल से हमें 60 लाख रुपये की कमाई होगी, लेकिन अब मैं इसका आधा भी कमा पाऊंगा तो भाग्यशाली रहूंगा.”
जिला कलेक्टर रवींद्र गोस्वामी बदलते कोटा की स्पष्ट तस्वीर पेश करते हैं. उन्होंने स्वीकार किया कि छात्रों के डेटा को ट्रैक करने के लिए एक एकीकृत पोर्टल अभी भी काम कर रहा है, लेकिन आर्थिक नतीजे पहले से ही स्पष्ट हैं. “इस साल कोचिंग सेंटरों में नामांकन में 30-40 प्रतिशत की तेज़ गिरावट आई है.”
उन्होंने समझाया, “जीएसटी के संदर्भ में कोचिंग से संबंधित सेवाओं से एकत्र कर में भी 30-40 प्रतिशत की गिरावट आई है. इसलिए, हम मान रहे हैं कि नामांकन का प्रतिशत भी उसी तरह से कम हुआ है.”
हितधारक आर्थिक गतिविधि में गिरावट के पीछे कई कारकों की ओर इशारा करते हैं, जिसमें शिक्षा का व्यावसायीकरण, एडटेक प्लेटफॉर्म का उदय, अन्य शहरों में प्रसिद्ध कोचिंग सेंटरों का उदय और ‘छात्रों की आत्महत्या’ का टैग शामिल है.
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कोटा कैसे बना कोचिंग हब
भारत का सबसे प्रमुख कोचिंग हब बनने की कोटा की यात्रा 1991 में शिक्षक विनोद कुमार बंसल द्वारा जेईई (एडवांस्ड) के लिए ‘बंसल क्लासेस’ की स्थापना के साथ शुरू हुई, जिन्हें प्यार से ‘बंसल सर’ के नाम से जाना जाता था.
इसके बाद कई कोचिंग सेंटर उनके पूर्व छात्रों या सहकर्मियों द्वारा शुरू किए गए.
करियर पॉइंट के संस्थापक और फिजिक्स के टीचर प्रमोद महेश्वरी ने 1993 में अपने पिता के टायर गोदाम में पढ़ाना शुरू किया. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) दिल्ली से उनकी बीटेक की डिग्री एस्पिरेंट्स को तुरंत आकर्षित करती थी. माहेश्वरी ने भी कुछ समय के लिए ‘बंसल सर’ के साथ पढ़ाया.
1994 में मोड़ तब आया, जब कोटा के कोचिंग सेंटरों से 15 स्टूडेंट्स को विभिन्न आईआईटी में प्रवेश मिला. महेश्वरी ने बताया कि 1995 में यह संख्या बढ़कर 51 हो गई, जिसमें से पांच छात्र शीर्ष 100 में स्थान पाने में सफल रहे.
‘एसएम सर’ के नाम से मशहूर कैमिस्ट्री के टीचर शिशिर मित्तल ने बताया, साल 2000 में कोटा के छात्रों ने ऑल इंडिया (AIR) में 1, 2 और 7 रैंक हासिल की. उन्होंने याद किया, “टॉप 10 में तीन स्टूडेंट्स का सिलेक्शन होना अभूतपूर्व था. तभी कोटा राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया.”
इस नई सफलता के कारण एस्पिरेंट्स और टीचर्स की बाढ़ आ गई, जिसके परिणामस्वरूप कोचिंग सेंटरों की भरमार हो गई, जिसके परिणामस्वरूप नए हॉस्टल, पीजी, मेस, बुकस्टोर और लाइब्रेरी की संख्या में वृद्धि हुई.
वर्तमान में कोटा में आठ प्रमुख कोचिंग दिग्गज हैं: एलन, रेजोनेंस, मोशन, अन-एकेडमी, फिजिक्स वाला, करियर पॉइंट, आकाश और सर्वोत्तम.
वे जेईई (मेन्स), जेईई (एडवांस्ड) और नीट-यूजी के लिए कोचिंग देते हैं.
मित्तल ने दिप्रिंट को बताया, “कंटेंट की क्वालिटी, हमारा व्यवस्थित दृष्टिकोण और हमारे शिक्षकों की विशेषज्ञता देश में बेजोड़ थी. हमारे कठोर सिलेक्शन प्रोसेस का मतलब था कि हम 15,000 से 20,000 आवेदनों में से केवल 1,000 से 1,200 छात्रों को ही प्रवेश दे सकते थे.”
महेश्वरी ने कहा कि एस्पिरेंट्स और इंस्टीट्यूट के बीच मजबूत रिश्ते ने कोटा को भारत में कोचिंग हब बनने में मदद की; एक ऐसा संबंध जो, उनके विचार में, समय के साथ कुछ हद तक कम हो गया है.
कोचिंग की भरमार
महेश्वरी का कहना है कि 2000 तक शिक्षा प्राइमरी फोकस थी और लाभ केवल एक बाय-प्रोडक्ट था, लेकिन इसके तुरंत बाद स्थिति बदलने लगी.
उन्होंने कहा, “विभिन्न कोचिंग सेंटर्स के फैकल्टी मेंबर्स महत्वाकांक्षी हो गए, उन्होंने अपने खुद के इंस्टीट्यूट खोले और बिना एंट्रेस के स्टूडेंट्स को दाखिला दिया, जिससे कोटा की यात्रा में एक नया चरण शुरू हुआ. हर तरफ से पैसा आने लगा. प्रवेश परीक्षाएं छात्रवृत्ति परीक्षाओं में बदल गईं, जिससे छात्रों को उनकी योग्यता की परवाह किए बिना कोचिंग सेंटर्स में दाखिला मिलने लगा.”
पिछले कुछ वर्षों में कोटा के कोचिंग उद्योग और इससे जुड़े व्यवसायों का मूल्य लगभग 6,000 से 10,000 करोड़ रुपये रहा है, जिसमें नामांकन (मेडिकल या इंजीनियरिंग के लिए) की औसत लागत 1.5 से 2 लाख रुपये प्रति वर्ष है.
मित्तल भी इस बात से सहमत हैं, उन्होंने कहा कि इससे नए कोचिंग सेंटर्स को पुराने सेंटर्स से फैकल्टी को ‘लुभाने’ में मदद मिली, जिससे व्यावसायीकरण में वृद्धि हुई.
पिछले दो दशकों में लगभग सभी कोचिंग इंस्टीट्यूट ने टीचर्स को 50-60 प्रतिशत तक की भारी वेतन वृद्धि के लिए रातोंरात अपनी वफादारी बदलते देखा है.
मित्तल ने कहा, “अधिक छात्रों के कारण कक्षाएं बड़ी होने लगीं, जिससे छात्रों और शिक्षकों के बीच व्यक्तिगत संबंध कम हो गए. पर्सनली ध्यान देने का मौका खत्म हो गया, जिससे कई छात्र अलग-थलग महसूस करने लगे. इसके अलावा, जैसे-जैसे प्रवेश बढ़े, सिलेक्शन घटने लगे क्योंकि आईआईटी और मेडिकल सीटों की संख्या तो सीमित ही रही.”
मित्तल बताते हैं कि कैसे हॉस्टल और पीजी चलाने वालों ने मांग में इस उछाल को देखा और “कीमतों में अत्यधिक वृद्धि की, जिससे कई माता-पिता के लिए इस खर्च को वहन करना असंभव हो गया”.
कोटा में हॉस्टल एसोसिएशन के अनुसार, शहर में 4,000 से अधिक हॉस्टल हैं, जिनमें अनुमानित 1,80,000 कमरे हैं, साथ ही पीजी में 60,000 कमरे हैं. इसके अलावा, 8,000 से 10,000 स्टूडियो अपार्टमेंट हैं. यह सभी घर जवाहर नगर, इंदिरा नगर, राजीव गांधी नगर और लैंडमार्क सिटी जैसे इलाकों में स्थित हैं.
कोटा में औसत हॉस्टल फी 8,000 रुपये से लेकर 12,000 रुपये प्रति माह तक है. ज्यादातर कमरे लगभग 100 वर्ग फीट के हैं और इनमें एक सिंगल बेड, एक टेबल और कुर्सी, एक अलमारी और एक अटैच बाथरूम है.
शिक्षकों के अलावा, यहां तक कि छात्रों को भी प्रतिद्वंद्वी कोचिंग सेंटर्स सक्रिय रूप से निशाना बनाते आए हैं.
नाम न छापने की शर्त पर एलन के एक पूर्व सीनियर फैकल्टी मेंबर ने बताया, “फोकस हाई परफॉर्मेंस देने वाले स्टूडेंट्स के एक चुनिंदा समूह पर चला गया, जिन्हें संस्थान के लिए निवेश के रूप में मुफ्त कोचिंग, घर और सलाह दी गई, जबकि अन्य ने इन सब चीज़ों के लिए भारी फीस दी. इस भेदभाव ने बाकी स्टूडेंट्स में असंतोष पैदा करना शुरू कर दिया.”
उन्होंने कहा, “इन सभी कारकों ने मिलकर कई स्टूडेंट्स में प्रेशर और असंतोष की भावना पैदा की, जिससे कुछ ने असफलता का अनुभव करने के बाद अपनी ज़िंदगी को समाप्त करने जैसा चरम कदम उठाया.”
एलन के एक पूर्व फिजिक्स के टीचर के अनुसार, कोटा ने अपना ध्यान औसत छात्रों से हटा लिया है.
टीचर ने दिप्रिंच को बताया, “हम अक्सर टॉपर्स और उनकी रैंक दिखाने वाले बड़े-बड़े बिलबोर्ड देखते हैं, लेकिन क्या किसी कोचिंग सेंटर ने कभी नामांकित छात्रों के मुकाबले सिलेक्टिड छात्रों का प्रतिशत छापा है? नहीं. सिस्टम केवल टॉप रैंकर्स को प्राथमिकता देने के लिए बना है.”
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महामारी और ऑनलाइन एजुकेशन का उदय
कोविड-19 महामारी के कारण दो साल तक पूरी तरह बंद रहने के बाद, कोटा में 2022 में दाखिलों में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई, उस साल देश भर से 2,00,000 से अधिक एस्पिरेंट्स दक्षिण-पूर्वी राजस्थान के इस शहर में पहुंचे.
टीचर्स ने बताया कि महामारी के दौरान, बोर्ड परीक्षाओं में छात्रों का मूल्यांकन काफी हल्का किया गया, जिसके कारण आईआईटी या मेडिकल कॉलेज में सीट पाने की उम्मीद में उनमें से काफी संख्या में छात्र कोटा आए.
रेजोनेंस के एचओडी (केमिस्ट्री) शिव प्रताप रघुवंशी ने कहा, “इसने माता-पिता और छात्रों दोनों के बीच झूठी उम्मीदें बढ़ाईं, जिससे उन्हें यकीन हो गया कि उनका बच्चा योग्यता के बिना भी एंट्रेस को क्रेक कर सकता है. इसके अलावा, छात्र घर पर रहकर और ऑनलाइन पढ़ाई करके थक चुके थे; वो फिजिकल क्लास में आना चाहते थे. परिणामस्वरूप 2022 में नामांकन में 40-50 प्रतिशत की वृद्धि हुई.”
सीबीएसई के आंकड़ों के अनुसार, 2019 के महामारी-पूर्व वर्ष की तुलना में 2022 में कुल उत्तीर्ण प्रतिशत में 9.3 प्रतिशत अंकों की वृद्धि हुई. इसके अलावा, 90 और 95 प्रतिशत स्कोर हासिल करने वाले छात्रों की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई.
हालांकि, रघुवंशी ने बताया कि हर साल एस्पिरेंट्स की एक जैसी संख्या की उम्मीद करना अवास्तविक था. उन्होंने कहा, “इसे बनाए रखना चुनौतीपूर्ण है. हम इसे गिरावट के बजाय सुधार कह सकते हैं. जब हम इसकी तुलना महामारी से पहले की नामांकन दरों से करते हैं, तो गिरावट महत्वपूर्ण नहीं है.”
लेकिन, कोविड-महामारी और लॉकडाउन ने भारत में एक समानांतर प्रणाली को जन्म दिया: जिसका नाम है ऑनलाइन एजुकेशन.
शिक्षकों का मानना है कि ऑनलाइन एजुकेशन प्लेटफॉर्म के आने से पारंपरिक कोचिंग मॉडल पर भी असर पड़ा है. फिज़िक्स वाला और अनएकेडमी सहित कई प्लेटफॉर्म ने कई फैकल्टी मेंबर्स के साथ ऑनलाइन कोर्स तैयार करना शुरू कर दिया, जो या तो मुफ्त थे या मामूली कीमत पर उपलब्ध थे.
नाम न छापने की शर्त पर मोशन एजुकेशन के एक सीनीयर फिजिक्स टीचर ने कहा, “गैप ईयर लेने वाले कई छात्र पारंपरिक कोचिंग में जाने के बजाय ऑनलाइन पढ़ाई करना पसंद कर रहे हैं. ग्यारवीं और बाहरवीं में दो साल बिताने और कोर्स को कवर करने के बाद, उन्हें लगता है कि वह ऑनलाइन संसाधनों का उपयोग करके प्रभावी ढंग से संशोधित कर सकते हैं और अपनी समझ को बढ़ा सकते हैं. इस साल, खास तौर से हमने प्राइवेट क्लास में आने वाले ड्रॉपर्स की संख्या में कमी देखी है.”
उन्होंने इस साल नीट-यूजी के नतीजों में देरी के लिए पेपर लीक विवाद को भी जिम्मेदार ठहराया. टीचर ने कहा, “हमारे लगभग 60 प्रतिशत स्टूडेंट्स प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले गैप-ईयर एस्पिरेंट्स हैं. इस साल NEET-UG परीक्षा में सामने आई समस्याओं से कई लोग हतोत्साहित महसूस कर रहे हैं और दोबारा कोशिश करने में झिझक रहे हैं. इसने इस साल छात्रों की संख्या में कमी में योगदान दिया है.”
कोटा आए नए छात्रों का कहना है कि शहर में आने से पहले उनकी अलग उम्मीदें थीं. उत्तर प्रदेश के कन्नौज से आईआईटी में जाने का सपना लेकर आए अनुज सिंह ने दिप्रिंट को बताया, “मुझे बताया गया है कि छात्रों की संख्या को देखते हुए, पिछले साल हॉस्टल में जगह नहीं थी, लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. मेरे हॉस्टल में कई कमरे खाली पड़े हैं.”
कोटा के हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष नवीन मित्तल बताते हैं कि इस साल बनाए गए कुछ नए हॉस्टल बंद करने पड़े. उन्होंने कहा, “रियल एस्टेट की दर में कम से कम 25 प्रतिशत की कमी आई है.”
‘कोटा: सुसाइड सिटी’
राजीव नगर में अपने दफ्तर में बैठे नवीन मित्तल मीडिया द्वारा कोटा को “बदनाम” करने और इसे ऐसे शहर के रूप में चित्रित करने पर उपहास करते हैं, जहां सभी छात्र अनावश्यक “प्रेशर” का सामना करते हैं.
उन्होंने कहा, “अगर आप NCRB के डेटा और अन्य संगठनों के आंकड़ों को देखें, तो पाएंगे कि कोटा छात्रों की आत्महत्या के मामले में शीर्ष 50 शहरों में भी नहीं है. फिर भी, पिछले दो साल में हमारे शहर की नेगेटिव इमेज ने माता-पिता के बीच भय पैदा कर दिया है, जिससे वह अपने बच्चों को यहां भेजने से हिचक रहे हैं.”
साथ ही, “आप मुझे बताइए, प्रेशर कहां नहीं है? हज़ारों लोगों के सामने खेलने वाला क्रिकेटर भी दबाव का अनुभव करता है. यह सिर्फ कोटा तक सीमित नहीं है.”
आधिकारिक डेटा के अनुसार, पिछले साल कोटा में 28 बच्चों ने अपनी जान ली थी और इस साल अब तक 13 मामले सामने आ चुके हैं. आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या ने राष्ट्रीय स्तर पर आक्रोश पैदा किया, जिसके कारण छात्रों को दबाव और तनाव से निपटने में मदद करने के उद्देश्य से कई पहल की गईं. इनमें 24/7 हेल्पलाइन, काउंसलिंग, रविवार को “फन-डे” घोषित करना और छत के पंखों पर स्प्रिंग डिवाइस लगाना शामिल है, जिन्हें ‘एंटी-सुसाइड’ डिवाइस कहा जाता है.
हालांकि, छात्रों और पैरेंट्स का भरोसा फिर से जीतने के लिए जिला मजिस्ट्रेट गोस्वामी ने इस बात पर प्रकाश डाला कि प्रशासन कोटा के “सुसाइड सिटी” होने के बारे में गलत सूचनाओं का सक्रिय रूप से मुकाबला कर रहा है.
उन्होंने कहा, “इस साल, हमने गेटकीपर ट्रेनिंग लागू की है, जो मुझे लगता है कि भारत में सहायक कर्मचारियों के लिए अपनी तरह की सबसे बड़ी पहल है. हॉस्टल एसोसिएशन ने भी मुझे इस बारे में सूचित किया. इसमें शामिल सभी लोग निरंतर ट्रेनिंग ले रहे हैं, जिसमें सामूहिक प्रयास के तहत मेरे द्वारा शुरू किए गए रिफ्रेशर कोर्स भी शामिल हैं.”
गोस्वामी नियमित रूप से “डिनर विद कलेक्टर” पहल के माध्यम से छात्रों से मिलते हैं.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “मैं सीधे छात्रों से जुड़ता हूं. अब तक, मैं कोचिंग सेंटरों में लगभग 25,000 छात्रों तक पहुंच चुका हूं और हम इस तरह की बातचीत जारी रखने की योजना बना रहे हैं. मेरा कार्यालय एस्पिरेंट्स से व्यक्तिगत रूप से मिलने के लिए कोचिंग सेंटरों का भी दौरा करता है.”
उन्होंने यह भी कहा कि कोचिंग सेंटर और हॉस्टल मालिक भी अपनी दरें कम करने पर सहमत हो गए हैं.
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घर के नज़दीक कोचिंग सेंटर खुलना
कोटा में नामांकन की घटती प्रवृत्ति में योगदान देने वाला एक और महत्वपूर्ण कारक पिछले दो वर्षों में कोचिंग सेंटरों का ‘विकेंद्रीकरण’ है. कोचिंग सेंटर्स और जिला प्रशासन के अधिकारियों ने बताया कि ये “घर के नज़दीक” विकल्प तब सामने आए जब माता-पिता अपने बच्चों को कोटा भेजने से कतराने लगे.
एलन ने पटना, रोहतक, लातूर, जोधपुर और दुर्गापुर सहित भारत भर के कम से कम 60 शहरों में नए सेंटर्स खोले हैं. अनएकेडमी ने भी 61 से ज़्यादा सेंटर्स शुरू किए हैं और फिजिक्स वाला ने बिहार, उत्तर प्रदेश, कोलकाता और गुजरात के शहरों में सेंटर्स खोले हैं.
करियर पॉइंट के महेश्वरी ने कहा, “कोटा में हॉस्टल या पीजी में रहने वाले छात्रों की तुलना में घर पर रहकर कोचिंग करने वाले छात्रों के लिए रहने का खर्च काफी कम है. इसके अलावा, अपने माता-पिता के नज़दीक रहना परिवारों के लिए आदर्श है, खासकर पिछले साल कोटा में छात्रों की आत्महत्या की चिंताजनक संख्या के बाद.”
हालांकि, टीचर्स का मानना है कि ये नए सेंटर्स कोटा के मानकों से मेल नहीं खा पाएंगे.
रेजोनेंस के रघुवंशी ने कहा, “नए सेंटर्स में अनुभवहीन फैकल्टी है. वह कोटा में हमारे द्वारा बनाए गए उच्च मानकों को पूरा नहीं कर सकते. एक बार जब इन नए सेंटर्स के छात्रों को यह एहसास हो जाएगा, तो वह यहां लौट आएंगे.”
आजीविका का संकट
कोटा में ज़िंदगी का लगभग हर पहलू इसकी फलती-फूलती कोचिंग इंडस्ट्री के इर्द-गिर्द घूमता है और अभी, इसके पतन की लहर जैसे प्रभाव दूर-दूर तक महसूस किए जा रहे हैं. यहां तक कि शिक्षक भी इसके दुष्परिणामों का सामना कर रहे हैं. कोचिंग सेंटर्स में छंटनी और सैलरी में कटौती की चर्चा आम हो गई है.
एलन के एक सीनियर फैकल्टी मेंबर ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “छात्रों की संख्या में कमी के कारण, कईं टीचर्स की नौकरी चली गई है और ज्यादातर फैकल्टी मेंबर्स को इस साल सैलरी में कटौती का सामना करना पड़ा है.”
रिपोर्ट की गई कटौती 20 से 30 प्रतिशत तक है. टिप्पणी के अनुरोध के बावजूद, एलन ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.
इस साल जून की रिपोर्ट के अनुसार, एलन के राजेश महेश्वरी ने अपने कोटा सेंटर्स में नामांकन में 31 प्रतिशत की भारी गिरावट को स्वीकार किया था.
कोटा में फैले लगभग 500 मेस के मालिक और कर्मचारी भी अनिश्चित भविष्य के लिए तैयार हैं. ये मेस किफायती भोजन उपलब्ध कराते हैं, जिसकी कीमत आमतौर पर 75 रुपये से 100 रुपये के बीच होती है.
बी.आर. जवाहर नगर और पारिजात कॉलोनी में श्री लक्ष्मी मेस चलाने वाले बिश्नोई ने कहा, “पिछले साल की तुलना में इस साल हमारे पास कम से कम 300 छात्रों की कमी हैं. बढ़ती महंगाई के बीच हम मुश्किल से गुज़ारा कर पा रहे हैं.”
खाली पड़ी मेज़ों को देखते हुए उनकी चिंता साफ झलकती है.
विज्ञान नगर के नज़दीकी इलाके में एक स्थानीय मेस में रसोइया लक्ष्मी बताती हैं कि इस गिरावट ने उनके सहकर्मियों पर कितना असर डाला है.
उन्होंने कहा, “मेरे दो सहकर्मियों को पहले ही नौकरी से निकाल दिया गया है. छात्रों की घटती संख्या के कारण कई अलग-अलग मेस में काम करने वाले रसोइए और सहायक अपनी नौकरी खो रहे हैं. हम सभी को उम्मीद है कि अगले साल छात्रों की संख्या बढ़ेगी ताकि हम अपनी आजीविका चला सकें.”
अब वीरान हो चुकी तिरुपति स्टेशनरी चलाने वाले दर्श मंगलानी भी अपनी निराशा व्यक्त करते हैं. “इस साल बिक्री में 50 प्रतिशत की गिरावट आई है. हम 2009 से इस दुकान को चला रहे हैं, लेकिन हमें कभी इतना नुकसान नहीं हुआ. अगर अगले साल छात्र वापस नहीं आए, तो कोचिंग सेंटर के पास हमारी जैसी कई स्टेशनरी की दुकानें बंद करनी पड़ सकती हैं.”
एक और कहानी जो बताने लायक है, वो है कोटा में फैले डिजिटल डेस्क की.
एक साल पहले, कोचिंग सेंटर अपने साप्ताहिक टेस्ट सीरीज़ के लिए स्लॉट बुक करने के लिए संघर्ष करते थे, लेकिन अब स्थिति काफी बदल गई है.
कोटा के औद्योगिक क्षेत्र में एक डिजिटल डेस्क पर काम करने वाले रामगोपाल बताते हैं, “हमारे पास 900 छात्रों की क्षमता है, लेकिन अब हम शायद ही किसी अच्छे दिन 400 या 500 से ज़्यादा छात्रों को देखते हैं. हम हर महीने लगभग 20 टेस्ट आयोजित करते थे, लेकिन अब यह संख्या केवल 8 से 10 रह गई है.”
अपने मेस में वापस आकर, बिश्नोई, जिनकी सर्विस का उपयोग करने वाले छात्रों की संख्या इस साल 300 कम है, एक टेबल से दूसरी टेबल पर जाकर देखते हैं कि उन्हें उस दिन का खाना पसंद आया या नहीं.
उन्होंने कहा, “हमारा लक्ष्य इन बच्चों को अपने बच्चों की तरह रखना है. मैं गुणवत्ता से कभी समझौता नहीं करूंगा, भले ही इसके लिए हमें नुकसान उठाना पड़े. हम महामारी से उबर चुके हैं और इस मंदी से भी उबर जाएंगे, लेकिन, अगर यह स्थिति दो साल से ज़्यादा समय तक बनी रही, तो हमें दूसरे विकल्पों पर विचार करना पड़ सकता है. अभी के लिए यह इंतज़ार करने और देखने का समय है.”
(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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