बेंगलुरू: बेंगलुरू के भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) को जून में क्वाक्वेरेली साइमंड्स (क्यूएस) वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग्स 2023 में शीर्ष भारतीय संस्थान का दर्जा दिया गया है. एक उच्चतर शिक्षा विश्लेषक, क्यूएस ने कहा कि ये संस्थान वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग्स के शीर्ष 200 में, सबसे तेज़ी से तरक्की करने वाली दक्षिण एशियाई यूनिवर्सिटी है, जो साल दर साल 31 पायदान ऊपर चढ़ी है. प्रति फैकल्टी सदस्य प्रशंसा पत्र मिलने में भी इसे दुनिया में सबसे ऊपर आंका गया.
15 जुलाई को जारी शिक्षा मंत्रालय की 2022 नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) रैंकिंग्स में भी आईआईएससी को भारत की नंबर वन यूनिवर्सिटी और शीर्ष शोध संस्था का दर्जा दिया गया.
क्यूएस की कुल रैंकिंग्स में आईआईएससी पिछले साल के 185वें नंबर से ऊपर उठकर इस बार 155 नंबर पर पहुंच गया. संस्थान 2017 से लगातार 150 से 200 के बीच की रैंकिंग पर बना हुआ है. ये भारत का शीर्ष संस्थान भी आंका गया है और यूके की टाइम्स की उच्चतर शिक्षा विश्व यूनिवर्सिटी रैंकिंग्स में विश्व स्तर पर इसे 301-350 के वर्ग में रखा गया.
विश्व रैंकिंग्स में जगह पाने वाला आईआईएससी किसी भी तरह से अकेला भारतीय संस्थान नहीं है. लेकिन आईआईटी, आईआईएम, एम्स और उनकी बहुत सी शाखाओं की भीड़ में ये अकेला शोध संस्थान उत्कृष्ट प्रदर्शन करता है और लगातार अपनी जगह पर डटा हुआ है.
113 साल पुराने संस्थान के लिए, जो बेंगलुरू की गहमा-गहमी के बीच किसी हरे-भरे द्वीप की तरह है, एक लंबी कहानी है जो वैज्ञानिक कठोरता, शैक्षणिक उत्कृष्टता, दोनों के एक अनोखे मिश्रण से भरी है. और महत्वपूर्ण बात ये है कि ये पश्चिम के इसी तरह के संस्थानों और विश्वविद्यालयों को मिल रहे फायदों से टक्कर लेता है.
लेकिन, आईआईएससी के निदेशक गोविंदन रंगराजन इसे बिल्कुल ऐसे बयान करते हैं, जैसे ये बहुत सरल और आसान है.
रंगराजन ने दिप्रिंट से कहा, ‘आईआईएससी विज्ञान तथा इंजीनियरिंग में बुनियादी और मौलिक शोध पर बल देने के लिए विख्यात है. हम अपने शैक्षणिक और अनुसंधान इनफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ाने के लगातार प्रयास करते रहे हैं और अपने शोधकर्ताओं को अपने क्षेत्रों में सीमाओं को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं’.
महामारी के दौरान भी, आईआईएससी शोधकर्ताओं ने अपना फोकस बहुत तरह के व्यावहारिक विज्ञान और इंजीनियरिंग उत्पादों की ओर मोड़ दिया, ताकि वायरस के साथ रफ्तार बनाए रख सकें. उन्होंने आरटी-पीसीआर टेस्ट, ऑक्सीजन कॉनसेंट्रेटर्स, कम लागत के वेंटिलेटर्स, मोबाइल टेस्टिंग लैब्स, कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग एप्स और एक वैक्सीन कैंडिडेट तक विकसित कर लिए.
रंगराजन ने कहा, ‘हमारे बहुत से फैकल्टी सदस्यों और छात्रों ने कोविड-19 से जुड़े शोध में जाने का फैसला किया- बुनियादी और व्यावहारिक दोनों. अभी तक, उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में 40 से अधिक प्रोजेक्ट्स किए हैं: इनमें डायग्नोस्टिक्स और सर्वेलांस, अस्पतालों के सहायक उपकरण, मॉडलिंग और सिमुलेशन, सफाई और कीटाणुशोधन और वैक्सीन का विकास शामिल हैं.’
2015 में जब अपने पहले अंडरग्रेजुएट बैच के ग्रेजुएशन करने के बाद आईआईएससी क्यूएस रैंकिंग के लिए पात्र हुआ, तो क्वार्ट्स ने खबर दी कि ऐसे बहुत से संस्थान देश के भीतर बुलबुलों के अंदर काम करते हैं और अक्सर क्यूएस जैसी रैंकिंग्स में शामिल भी नहीं हो पाते क्योंकि वो आवश्यक फॉर्मेट में या समय पर अपने डेटा नहीं दे पाते.
लेकिन, आईआईएससी अतीत में इस बात को व्यक्त कर चुका है कि आईवी लीग और यूरोपीय विश्वविद्यालयों के प्रति पक्षपात ने बेंगलुरू संस्थान को विश्व स्टेज पर अपना उचित स्थान हासिल करने से रोके रखा है.
आईआईएससी के शोधकर्ताओं और फैकल्टी का कथित रूप से ये कहते हुए हवाला दिया गया है कि भारत के संदर्भ में देश के अंदर पैदा होने वाले शोध को अक्सर प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लायक नहीं समझा जाता क्योंकि उनकी पश्चिमी प्रासंगिकता कम होती है, जिससे आगे चलकर रैंकिंग्स प्रभावित होती हैं.
भारत की सार्वजनिक संस्थाओं में शोधकर्ताओं के लिए विकल्प भी सीमित होते हैं, चूंकि पश्चिमी समकक्षों के मुकाबले उनके पास सरकारी फंडिंग भी कम होती है.
ये कुछ विवादास्पद मुद्दे हैं लेकिन विज्ञान पर केंद्रित किसी संस्था में ये होते ही हैं. रैंकिंग्स के बारे में पूछे जाने पर रंगराजन के ऑफिस ने सिर्फ इतना कहा, ‘हमारी नीति है कि हम रैंकिंग के (आईआईएससी और दूसरे संस्थानों के लिए) किसी पहलू पर टिप्पणी नहीं करते’.
कम्पुयटेशनल बायोलोजिस्ट और सीएसआईआर के पूर्व महानिशेक और आईआईएससी के छात्र रहे शेखर मांडे ने कहा, ‘संस्थान की उत्कृष्टता को दो चीज़ें परिभाषित करती हैं. पहली, वहां काम करने वाले लोगों की गुणवत्ता और कैसे वे एक साझा लक्ष्य को लेकर चलते हैं.’
उन्होंने कहा, ‘ऐसे ही आईआईटी ने अपनी प्रतिष्ठा बनाई है जो कि अभी भी है. इसी तरह रिसर्च, फैकल्टी, अकादमिक तौर पर अच्छे माहौल के बदौलत आईआईएससी ने भी ऐसा किया है.’
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सफर
ये अनुसंधान-उन्मुख संस्थान जिसकी शुरुआत एक सदी से भी पहले हुई थी, अब देश में वैज्ञानिक अध्ययन और शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी है. इसी सफर में इसने ऐसे दिमागों को विकसित किया है, जिन्होंने आगे चलकर देश की कुछ सबसे प्रभावी वैज्ञानिक उपलब्धियों में योगदान दिया है.
संस्थान का विचार 1898 में पैदा हुआ था, जब टाटा समूह के संस्थापक जमशेतजी टाटा ने अंग्रेज़ों के कब्ज़े वाले भारत में एक शोध संस्थान कायम करने के लिए एक कमेटी का गठन किया और नोबल गैसेज़ के अविष्कारक विलियम रैम्ज़े ने सुझाव दिया कि बेंगलुरू उसके लिए एक उपयुक्त जगह रहेगी.
टाटा को ‘यकीन था कि इस देश की भावी प्रगति, महत्वपूर्ण रूप से विज्ञान और इंजीनियरिंग में अनुसंधान पर निर्भर करेगी’.
सुविधा के लिए ज़मीन का आवंटन मैसूर (अब मैसूरू) महाराजा कृष्णाराज वोडेयार IV ने किया था और आईआईएससी को भारत सरकार से संबद्ध एक शोध संस्थान के तौर पर स्थापित किया गया.
इसने 1909 में अपना काम शुरू किया और सिर्फ दो साल के बाद रसायन विज्ञान विभाग में पोस्ट ग्रेजुएट छात्रों के पहले बैच को दाखिला दिया. जल्द ही शोध की नई शाखाएं खुल गईं और 1956 में संस्थान पूरी तरह स्वायत्त हो गया. 2011 में संस्थान अंडरग्रेजुएट कोर्सेज़ पेश करने लगा.
बीते वर्षों में भौतिक विज्ञानी सीवी रमन, परमाणु भौतिक विज्ञानी होमी भाभा और एयरोस्पेस वैज्ञानिक तथा इंजीनियर सतीश धवन जैसे वैज्ञानिकों ने यहां पढ़ाया है.
संस्थान के पूर्व छात्र भी कम प्रसिद्ध नहीं हैं. इनमें के सिवान और एएस किरण कुमार (दोनों भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व अध्यक्ष), रितु करिधल (भारत के मार्स ऑर्बिटर मिशन की डिप्टी ऑपरेशंस डायरेक्टर), आर चिदंबरम (सरकार के पूर्व प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार और एक अग्रणी परमाणु हथियार भौतिक विज्ञानी), वीके सारस्वत और वीके आत्रे (रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के पूर्व निदेशक), सुधा कृष्णामूर्ति (पूर्व इनफोसिस अध्यक्ष) और अन्य शामिल हैं.
यहां पर अन्वेषकों की भी कमी नहीं रही है और संस्थान 1,100 से अधिक पेटेंट्स के आवेदन दाखिल कर चुका है.
पूर्व के दो निदेशकों- रमन और सीएनआर राव को भारत रत्न से नवाज़ा जा चुका है, जबकि चार को ‘सर’ की उपाधि मिल चुकी है. संस्थान के स्कॉलर्स और फैकल्टी को नियमित रूप से शांति स्वरूप भटनागर जैसे प्रमुख शोध पुरस्कार मिलते रहते हैं.
रंगराजन ने कहा, ‘हमने बहुत सी विश्व-स्तरीय सुविधाएं स्थापित की हैं, जो देश में अनूठी हैं. हमारे पास अत्याधुनिक नैनोफैब्रिकेशन सुविधा है, परम प्रवेग नाम का एक 3.3 पेटाफ्लॉप सुपरकंप्यूटर है- जिसका शुमार भारत के सबसे तेज़ कंप्यूटर्स में होता है- ब्रेन इमेजिंग के लिए एक 3-टेस्ला एमआरआई सुविधा है और संक्रामक रोग अनुसंधान के लिए एक बीएसएल-3 लैब है’.
संस्थान के सरकार के साथ करीबी रिश्ते होने की वजह से आईआईएससी के शोधकर्ताओं ने भी भारत के परमाणु कार्यक्रम, अंतरिक्ष कार्यक्रम और विकास के अन्य क्षेत्रों में एक अहम भूमिका निभाई है.
रंगराजन ने बताया, ‘कई साल पहले हमने बहु-विषयक विज्ञान का एक नया डिवीज़न शुरू किया था, जिसकी वजह से हम विभिन्न क्षेत्रों की विशेषज्ञता को एक साथ लाकर अत्याधुनिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रश्नों से कामयाबी के साथ निपट सके हैं. इन क्षेत्रों में क्वॉन्टम टेक्नॉलजीज़, ब्रेन और डेटा साइंसेज़, कैंसर रिसर्च, बायोमेडिकल उपकरण, सेंसर्स और आईओटी (इंटरनेटऑफ थिंग्स), वैक्सीन्स और दवाओं की खोज, विज़ुअल एनालटिक्स और डिजिटल हेल्थ शामिल हैं’.
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शोध में अग्रणी
आईआईएससी को इस बात पर गर्व है कि वो ‘न तो कोई राष्ट्रीय लैबोरेट्री है जो (केवल) रिसर्च और अप्लाइड वर्क पर ध्यान केंद्रित करती है और ना ही कोई परंपरागत यूनिवर्सिटी है जो सिर्फ पढ़ाने से सरोकार रखती है’.
बल्कि ये दोनों के संगम पर काम करता है, जो शोध के अधिक एकीकृत उपलब्ध कराता है और पहला संस्थान है जो ऐसे विषयों में पीएचडी डिग्रियां देता है.
‘मैं कैंपस में आने वाले दूसरे बैच (2012) में था, जब अंडरग्रेजुएट कार्यक्रम अपेक्षाकृत नया ही था,’ ये कहना था विज्ञान संचारक और आईआईएससी के जीव विज्ञान विभाग के पूर्व छात्र सिद्धार्थ कंकारिया का, जो कैंपस पर एक रिसर्च कलेक्टिव- गुबी लैब्स में काम करते थे.
‘अपने छात्र के जमाने में मैंने बहुत से सकारात्मक बदलाव देखे, जब कैंपस धीरे-धीरे युवा छात्रों के प्रवाह और उनकी जरूरतों के हिसाब से ढलने की कोशिश कर रहा था. कैंपस और अधिक जीवंत हो गया क्योंकि अंडरग्रेजुएट छात्रों ने परिसर में बहुत सारी पहलकदमियां शुरू कर दीं, जैसे एक विज्ञान, प्रौद्योगिकी और सांस्कृतिक उत्सव, एक पत्रिका और साथ ही छात्र परिसर के भीतर मौजूद बहुत से पुराने और नए क्लबों तथा समूहों में भारी योगदान देने लगे’.
आज ये संस्थान बहुत से क्षेत्रों में पढ़ाने और शोध कराने का काम करता है, जिनमें एयरोस्पेस, रोबोटिक्स, सॉलिड स्टेट केमिस्ट्री, मॉलिक्युलर बायोफिज़िक्स, शहरी नियोजन, जलवायु परिवर्तन और क्रायोजेनिक टेक्नोलॉजी जैसे विषय शामिल हैं.
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नज़र हमेशा आगे
कैंसर बायोलॉजी में रिसर्चर और आईआईएससी में एसोसिएट प्रोफेसर रामरे भट्ट को लगता है कि आईआईएससी ‘एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्था बनने के अगले चरण में दाखिल हो रहा है’.
उन्होंने कहा, ‘हाल के वर्षों में कई बदलाव आए हैं जिनमें परिसर और अधिक समावेशी हो गया है, सिर्फ दिखावे के तौर पर नहीं बल्कि एक ठोस तरीके से’.
भट 2015 में आईआईएससी फैकल्टी में शामिल हुए थे और उन्होंने कहा कि तब से यहां एक अभियान रहा है कि ऐसे शोधकर्ताओं को लाया जाए, जिनके अंदर महत्वाकांक्षी अनुसंधान कार्यक्रम शुरू करने की क्षमता हो. मुख्य रूप से अनुसंधान-संचालित गतिविधियों के विपरीत, यहां अंडरग्रेजुएट और ग्रेजुएट स्तर पर पढ़ाई तथा शिक्षण पर भी ज़्यादा बल दिया जाता है.
भट के अनुसार, बहुत सी प्रशासनिक बाधाओं को पार कर लिया गया है और 2015 के मुकाबले यहां के ऑपरेशंस ज़्यादा सुगम और स्वचालित हो गए हैं, जब प्रशासनिक प्रक्रियाएं ज़्यादा तदर्थ और अनौपचारिक हुआ करती थीं.
चूंकि आईआईएससी शोध के क्षेत्र में देश में अग्रणी है, इसलिए यहां के स्कॉलर्स और फैकल्टी को बहुत सारे शिक्षण अनुदान और छात्रवृत्तियां मिलती रहती हैं.
रंगराजन ने कहा कि संस्थान प्रयास करके प्रतिभाशाली शोधकर्ताओं की तलाश करता है और उन्हें फैकल्टी सदस्य के रूप में भर्ती करता है और साथ ही उन्हें ‘उदारता के साथ’ स्टार्ट-अप शोध अनुदान उपलब्ध कराता है. भट ने भी उनसे सहमति जताते हुए कहा कि पिछले दो दशकों के मुकाबले युवा शोधकर्ताओं और फैकल्टी को कहीं बेहतर वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है, जिससे उनके कार्यक्रमों में ठोस प्रगति हो पाती है.
‘मैं भाग्यशाली थी कि मेरी फेलोशिप के दौरान आईआईएससी ने मुझे अपने यहां रखा,’ ये कहना था फराह इश्तियाक का, जो आईआईएससी के सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंसेज़ में एक पूर्व वेल्कम ट्रस्ट-डीबीटी फेलो हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘जगह की कोई कमी नहीं थी और बेंगलौर में होने का मतलब था कि मैं समय रहते मॉलिक्युलर बायो रीजेंट्स खरीद सकती थी और शहर के भीतर मौजूद सुविधाओं का इस्तेमाल कर सकती थी. यहां पर एक लचीलापन था और विज्ञान पर काम करने की आज़ादी थी’.
रंगराजन ने कहा कि आईआईएससी के शोधकर्ताओं को प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में अपना काम प्रकाशित कराने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और रिसर्च का ज़्यादा काम छात्र करते हैं. उन्होंने बताया कि पूर्व छात्रों और कॉर्पोरेट भागीदारों को परिसर में काम के लिए चंदा देने को प्रोत्साहित किया जाता है.
उन्होंने आगे कहा कि भविष्य में अंडरग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट कार्यक्रमों का विस्तार करके उसमें डेटा साइंस, क्वांटम कंप्यूटिंग और गणितीय वित्त जैसे क्षेत्रों को शामिल किया जाएगा.
आने वाले दशकों में आईआईएससी के लिए चिकित्सा अनुसंधान भी एक प्राथमिकता बनने जा रही है, जिसमें सामाजिक भलाई के लिए क्लीनिकल शोध पर भारी फोकस किया जाएगा, जिससे कम और मध्यम आय वाले देशों को फायदा पहुंच सके. इसमें नैनोबॉटिक्स, माइक्रोबियल प्रतिरोध अनुसंधान, लक्षित कैंसर उपचार और दुर्लभ जिनेटिक बीमारियों की पहचान के लिए एआई जैसे क्षेत्र शामिल होंगे.
रंगाराजन ने कहा, ‘इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए हमने बेंगलुरू परिसर में अपनी तरह के एक अकेले पीजी मेडिकल स्कूल और 832 बिस्तरों के एक गैर-मुनाफा अस्पताल बनाने पर काम शुरू किया है, जिसका नाम बागची-पार्थासार्थी अस्पताल रखा गया है. मेडिकल स्कूल में एमडी-पीएचडी प्रोग्राम के जरिए, चिकित्सक-वैज्ञानिक के एक नए काडर को प्रशिक्षित किया जाएगा, ताकि देश का फायदा हो सके’.
भट ने कहा कि अस्पताल चिकित्सा समुदाय और बायोमेडिकल रिसर्च के साथ सहयोग को बढ़ाएगा और अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों के साथ दस्तखत किए जाने वाले एमओयूज़ की संख्या में इज़ाफा करेगा.
भट ने कहा, ‘मेरा मानना है कि यूरोप तथा अमेरिका में चल रही उच्च घनत्व के अनुसंधान से भौगोलिक दूरियों की वजह से भारत के सहयोगी अनुसंधान में थोड़ी बाधाएं आ रही हैं. लेकिन इस तरह के कदमों से, जो ज़्यादा औपचारिक संपर्कों और सभी स्तरों पर अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान को बढ़ावा देते हैं और जिनमें एक दीर्घकालिक दृष्टि होती है, मुझे लगता है कि हम बहुत जल्द ही वहां तक पहुंच जाएंगे’.
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बाधाएं
हालांकि संस्थान ने अपनी छात्र और फैकल्टी इकाई में विविधता सुनिश्चित करने के लिए कुछ कदम उठाए हैं लेकिन वर्तमान और पूर्व छात्रों का कहना है कि सहायता को आगे बढ़ाने से काफी फायदा पहुंच सकता है.
मानसिक स्वास्थ्य के लिए सहायता न होना एक बढ़ता हुआ मुद्दा है, खासकर इसलिए कि छात्रों के आत्महत्या करने की घटनाएं बढ़ रही हैं.
छात्रों का आरोप है कि उनपर दवाब बढ़ रहा है और खासकर महामारी शुरू होने के बाद से संस्थान की ओर से पर्याप्त सहायता नहीं मिलती. पिछले दो वर्षों में पांच आईआईएससी छात्रों की खुदकुशी से मौत हो चुकी है. छात्रों का कहना है कि संस्थान मानसिक स्वास्थ्य सहायता मुहैया कराता है लेकिन उनकी मांग को पूरा करने के लिए उसे और ज़्यादा करने की जरूरत है.
कंकारिया ने कहा, ‘रिसर्च आउटपुट, सुविधाओं और नेटवर्किंग तथा काम के अवसरों के मामले में आईआईएससी निस्संदेह भारत की सर्वश्रेष्ठ शोध संस्थाओं में से एक है. हालांकि संस्थान रिसर्च आउटपुट, प्रकाशन और प्रशस्ति पत्रों जैसे ठोस मेट्रिक्स के मामले में बहुत अच्छा कर रहा है लेकिन छात्र कल्याण और जीवन-स्तर, विविधता के लिए पहलकदमियों, और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं जैसे अमूर्त मेट्रिक्स के मामलों में उत्कृष्टता लाने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है’.
कंकारिया और इश्तियाक को ये भी लगता है कि संस्थान को कुछ और प्रोत्साहन देने चाहिए, जिससे छात्र और फेलो गैर-आकादमिक विज्ञान से जुड़े करियर्स की ओर आकर्षित हो सकें.
एक और मसला ये है कि बिना फैकल्टी पदों के ज़्यादातर फेलो, जैसे कि इंडिया अलायंस या रामलिंगास्वामी फेलेशिप्स के साथ है, संस्थान में अकादमिक पद हासिल नहीं पाते या उससे स्वतंत्र रूप से सहायता नहीं ले पाते, इसके बावजूद कि उनके काम की अवधि के दौरान आईआईएससी उन्हें अपने यहां आवास देता है.
इश्तियाक ने कहा, ‘ऐसे फेलोज़ को अपने यहां लेने या उनकी अकादमिक प्रगति में सहायता करने का भारी प्रतिरोध होता है. ये बाहरी देशों के विश्वविद्यालयों और संस्थानों के विपरीत है, जहां अकादमिक अनुभव के ऊपर कोई अनुदान हासिल करने को स्वतंत्र वैज्ञानिक बनने की दिशा में एक अहम उपलब्धि माना जाता है. बहुत अच्छा होता कि अगर आईआईएससी में कोई ऐसी व्यवस्था होती कि उनके परिसर में किए गए विज्ञान के काम को बढ़ावा दिया जाता और उन फेलोज़ के करियर को सहारा दिया जाता, जिन्हें उसने बरसों तक अपने यहां रखा’.
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