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Tuesday, 30 December, 2025
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एक छोटी लैब से कैसे देश का बड़ा संस्थान बना ISI, अब नया बिल बदल सकता है इसकी राह

फैकल्टी, छात्रों और पूर्व छात्रों का एक वर्ग MoSPI के ड्राफ्ट बिल का विरोध कर रहा है, जो इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की चुनी हुई गवर्निंग काउंसिल की जगह सरकार द्वारा नामित बोर्ड लाने की कोशिश करता है.

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नई दिल्ली: स्थापना के 94 साल बाद, इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट (आईएसआई) अपनी स्वायत्तता को लेकर विवाद का सामना कर रहा है. फैकल्टी, छात्रों और पूर्व छात्रों का एक वर्ग एक ड्राफ्ट बिल का विरोध कर रहा है, उनका कहना है कि यह सरकार को आज़ादी से पहले बने इस संस्थान पर जरूरत से ज़्यादा नियंत्रण दे देगा.

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) ने सितंबर में इस ड्राफ्ट कानून को जारी किया. इसका उद्देश्य 1959 के आईएसआई अधिनियम को खत्म करना और संस्थान के प्रशासन में बड़े बदलाव करना है. सरकार ने इन प्रस्तावित सुधारों का बचाव करते हुए कहा है कि एक समीक्षा समिति ने संस्थान में अक्षमता, कमज़ोर जवाबदेही और सुधारों के प्रति विरोध की बात कही थी.

इस विरोध का रूप कैंपस के अंदर और बाहर प्रदर्शन के रूप में सामने आया है. आलोचकों ने चेतावनी दी है कि ड्राफ्ट आईएसआई बिल, 2025, शैक्षणिक स्वायत्तता और लोकतांत्रिक फैसलों को कमजोर कर सकता है. यह विवाद राजनीतिक रूप भी ले चुका है क्योंकि इसी महीने छात्रों ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी से मुलाकात कर उच्च शिक्षा के प्रशासन में बढ़ते केंद्रीकरण को लेकर अपनी चिंताएं बताईं.

1931 में प्रेसीडेंसी कॉलेज में पी.सी. महालनोबिस द्वारा स्थापित एक छोटे से सांख्यिकी प्रयोगशाला से शुरू हुआ, जिन्हें भारतीय सांख्यिकी का जनक माना जाता है—आईएसआई का मुख्यालय अब कोलकाता में है और इसके केंद्र नई दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई और तेजपुर में हैं.

यह संस्थान कुछ गिने-चुने छात्रों से बढ़कर आज 1,100 से अधिक छात्रों तक पहुंच गया है और यहां करीब 250 फैकल्टी सदस्य हैं. इसने सी.आर. राव जैसे विश्व-प्रसिद्ध विद्वान दिए हैं, जिनका काम आधुनिक सांख्यिकी सिद्धांत की नींव है; एस.आर. श्रीनिवास वर्धन, जो एबेल पुरस्कार विजेता गणितज्ञ हैं और प्रायिकता सिद्धांत में योगदान के लिए जाने जाते हैं; राज चंद्र बोस, जो कॉम्बिनेटोरियल डिज़ाइन थ्योरी के अग्रणी थे; और नीना गुप्ता, जो बीजगणितीय ज्यामिति में लंबे समय से चले आ रहे सवालों को हल करने के लिए जानी जाती हैं.

इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट को 2024 की नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (NIRF) में 75वां स्थान मिला था, और यह भारत के शीर्ष शोध संस्थानों में गिना जाता है.

आईएसआई में प्रस्तावित बड़ा बदलाव

इस विवाद के केंद्र में आईएसआई की शासी संस्थाओं के पुनर्गठन का प्रस्ताव है. ड्राफ्ट बिल आईएसआई को एक पंजीकृत सोसाइटी से बदलकर “कानूनी निकाय कॉरपोरेट” बनाने का प्रस्ताव करता है, जिसे 11 सदस्यों वाले बोर्ड ऑफ गवर्नर्स (BoG) द्वारा चलाया जाएगा.

अगर यह बिल पास हो जाता है, तो यह बोर्ड मौजूदा 33 सदस्यीय गवर्निंग काउंसिल की जगह ले लेगा, जो अभी संस्थान की सबसे बड़ी निर्णय लेने वाली संस्था है और जिसमें आईएसआई के भीतर से चुने गए सदस्यों का बहुमत होता है.

इस बोर्ड में एक चेयरपर्सन, MoSPI के प्रतिनिधि, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग और वित्त मंत्रालय के प्रतिनिधि, केंद्र सरकार द्वारा नामित चार प्रतिष्ठित व्यक्ति और संस्थान के तीन प्रतिनिधि शामिल होंगे. रजिस्ट्रार गैर-सदस्य सचिव के रूप में काम करेगा. BoG को संस्थान के कामकाज पर व्यापक अधिकार होंगे, जिनमें निदेशक के चयन के लिए पैनल बनाना भी शामिल है—यह अधिकार अभी गवर्निंग काउंसिल के पास है.

ड्राफ्ट बिल अकादमिक काउंसिल में भी बदलाव का प्रस्ताव करता है, जो शैक्षणिक मामलों की जिम्मेदार संस्था है. अभी सभी फैकल्टी सदस्य इस काउंसिल का हिस्सा होते हैं, और शैक्षणिक फैसलों पर इसका अंतिम अधिकार होता है.

बिल के तहत अकादमिक काउंसिल का पुनर्गठन किया जाएगा, जिसमें संस्थान के निदेशक, डीन, विभागों और केंद्रों के प्रमुख, और अन्य नामित सदस्य शामिल होंगे. यह काउंसिल केवल BoG को सिफारिशें देगी, और अंतिम फैसला BoG करेगा.

ड्राफ्ट बिल का एक और प्रावधान, जिस पर तीखी आलोचना हुई है, वह है छात्र फीस और शोध के व्यावसायीकरण के जरिए राजस्व बढ़ाने की समीक्षा. फैकल्टी और छात्रों का कहना है कि ऐसे कदम आईएसआई के शैक्षणिक चरित्र को मूल रूप से बदल सकते हैं और इसे एक कॉरपोरेट मॉडल की ओर धकेल सकते हैं.

बढ़ता विरोध

ड्राफ्ट बिल जारी होने के बाद, शिक्षाविदों, फैकल्टी, छात्रों, पूर्व छात्रों और अन्य लोगों ने नवंबर में एक ऑनलाइन याचिका पर हस्ताक्षर किए. इसमें चेतावनी दी गई कि प्रस्तावित कानून आज़ादी से पहले बने इस संस्थान की स्वायत्तता को कमज़ोर कर सकता है.

आईएसआई के एक वरिष्ठ प्रोफेसर ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि यह बिल संस्थान के मूल उद्देश्य को बदलने का खतरा पैदा करता है. प्रोफेसर ने कहा, “आईएसआई की विरासत हमेशा समाज की सेवा में विज्ञान की रही है. प्रस्तावित बदलाव ध्यान को कॉरपोरेटकरण और कमाई बढ़ाने की ओर ले जाते हैं.”

नवंबर में दिप्रिंट के साथ साझा किए गए एक बयान में, MoSPI के अधिकारियों ने कहा था कि डॉ. आर.ए. माशेलकर की अध्यक्षता में बनी चौथी आईएसआई समीक्षा समिति ने, जिसने 2021 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी, आईएसआई के प्रशासन में कई संरचनात्मक समस्याओं की पहचान की थी.

मंत्रालय ने कहा, “इसी पृष्ठभूमि में, MoSPI ने आईएसआई के साथ मिलकर 5 जुलाई 2025 को बेंगलुरु स्थित जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च में एक विचार-मंथन सत्र आयोजित किया. यह सत्र आईएसआई गवर्निंग काउंसिल के चेयरमैन डॉ. के. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में हुआ, ताकि 2031 में 100 साल पूरे होने पर आईएसआई को विश्व-स्तरीय शिक्षा और शोध केंद्र बनाने के रास्तों पर चर्चा की जा सके.”

आईएसआई का इतिहास और विरासत

यह संस्थान उस समय सामने आया, जब ब्रिटिश प्रशासन बहुत सारा डेटा इकट्ठा करता था, लेकिन उसका वैज्ञानिक इस्तेमाल बहुत कम करता था.

आईएसआई के शुरुआती और सबसे अहम योगदानों में बड़े स्तर पर सैंपल सर्वे का काम शामिल है. इतिहासकार निखिल मेनन ने अपनी किताब Planning Democracy: How a Professor, an Institute, and an Idea Shaped India में लिखा है कि 1937 में संस्थान ने बंगाल में जूट की पैदावार का अनुमान लगाने के लिए अग्रणी सर्वे किए. उस समय, जब पूरे आंकड़े गिनने के तरीकों पर भरोसा किया जाता था, आईएसआई ने दिखाया कि रैंडम सैंपलिंग ज्यादा असरदार है.

1943 के बंगाल अकाल के दौरान भरोसेमंद आंकड़ों का महत्व साफ-साफ सामने आया. इस अकाल ने खाद्य उत्पादन और वितरण से जुड़ी सही जानकारी की कमी को उजागर कर दिया.

दिसंबर 1949 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारत की अर्थव्यवस्था और सामाजिक हालात को समझने के लिए पूरे देश में सैंपल सर्वे की व्यवस्था बनाने की बात कही. निखिल मेनन लिखते हैं कि कुछ ही दिनों में पी.सी. महालनोबिस ने इसका ढांचा तैयार किया और आईएसआई ने सैंपल डिजाइन करने, प्रश्नावली तैयार करने और डेटा की गुणवत्ता की निगरानी में अगुवाई की.

इस प्रयास से नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) बना, जो रैंडम सैंपलिंग पर आधारित भारत का पहला बड़े स्तर का घरेलू सर्वे था. एनएसएस के आंकड़ों ने 70 से अधिक वर्षों से गरीबी, रोजगार, उपभोग, स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़ी नीतियों को दिशा दी है.

इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट के एमेरिटस प्रोफेसर पार्थ प्रतिम मजूमदार ने याद किया कि राष्ट्रीय विकास में महालनोबिस के काम ने नेहरू का ध्यान खींचा, जिसके बाद 1959 का इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट अधिनियम बना.

उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री के समर्थन और संसद में व्यापक बहस के बाद यह अधिनियम लाया गया. इसने आईएसआई को औपचारिक रूप से राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया, साथ ही उसकी स्वायत्तता की सुरक्षा भी की.”

एक ‘अनोखा’ संस्थान

वर्तमान और पूर्व फैकल्टी सदस्य और छात्र आईएसआई को भारत के सबसे अलग और विशिष्ट शैक्षणिक संस्थानों में से एक बताते हैं, जहां शोध की आज़ादी, कड़ा प्रशिक्षण और आर्थिक सहयोग मिलकर एक बेजोड़ माहौल बनाते हैं.

अशोका यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के डिस्टिंग्विश्ड यूनिवर्सिटी प्रोफेसर भास्कर दत्ता, जिन्होंने 1979 से 2002 तक आईएसआई में पढ़ाया, उन्होंने इसे भारत का एक “अनोखा संस्थान” बताया.

उन्होंने कहा, “आईएसआई में देश के कुछ शीर्ष सांख्यिकीविद और प्रायिकता विशेषज्ञ हैं. यह संस्थान बेहतरीन छात्रों को तैयार करता है, खासकर अपने मास्टर ऑफ साइंस इन क्वांटिटेटिव इकोनॉमिक्स प्रोग्राम के ज़रिए. इनमें से कई ने आगे चलकर एमआईटी और हार्वर्ड जैसे शीर्ष संस्थानों से पीएचडी की है.”

फैकल्टी की स्वायत्तता पर उन्होंने आगे कहा, “हमें वह स्वतंत्रता मिली जिसकी हमें ज़रूरत थी. किसी ने दखल नहीं दिया, हालांकि, अकादमिक काउंसिल जैसे निगरानी निकाय थे, जो हर विश्वविद्यालय में सामान्य बात है.”

छात्रों को आर्थिक सहयोग भी मिलता है, जिससे वे पूरी तरह शोध पर ध्यान दे पाते हैं.

आईएसआई कोलकाता के एक पीएचडी छात्र ने कहा, “आईएसआई शायद भारत के उन आख़िरी संस्थानों में से एक है, जहां छात्रों को ग्रेजुएशन लेवल से ही आर्थिक सहायता मिलती है और कोई ट्यूशन फीस नहीं ली जाती. अंडरग्रेजुएट छात्रों को हर महीने 5,000 रुपये, मास्टर के छात्रों को 12,400 रुपये मिलते हैं, और पीएचडी छात्रों को सीएसआईआर जैसी फेलोशिप मिलती है (जेआरएफ के लिए 37,000 रुपये और एसआरएफ के लिए 42,000 रुपये). किसी भी स्तर पर ट्यूशन फीस नहीं है, और इससे छात्र आर्थिक चिंताओं के बजाय पूरी तरह शोध पर ध्यान दे पाते हैं.”

अर्थशास्त्री जीन द्रेज़ ने आईएसआई की उस परंपरा की सराहना की, जिसमें पी.सी. महालनोबिस, सी.आर. राव, के.आर. पार्थसारथी और निखिलेश भट्टाचार्य जैसे दिग्गज तैयार हुए. उन्होंने कहा, “ये शिक्षक और शोधकर्ता दुनिया के सबसे बेहतरीन लोगों में शामिल हैं. उनके वैज्ञानिक योगदान आईएसआई के अनुकूल माहौल की वजह से संभव हुए, जो खुद संस्थान की स्वायत्तता और ईमानदारी का नतीजा है.”

मजूमदार ने चेतावनी दी कि यह कानून संस्थान की संघीय और लोकतांत्रिक संरचना को कमजोर कर सकता है. उन्होंने कहा, “क्षेत्रीय केंद्रों का मुख्यालय से क्या रिश्ता होगा, यह हमें नहीं पता, क्योंकि बिल में इन बातों को साफ़ नहीं किया गया है, हालांकि, कुछ संकेत ज़रूर दिए गए हैं.”

उन्होंने यह भी कहा कि नियुक्तियों में प्रस्तावित ‘टॉप-डाउन अप्रोच’ उस भागीदारी वाले फैसले लेने की परंपरा को कमजोर कर देगी, जिसने लंबे समय से इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट को परिभाषित किया है.

छात्र भी संभावित कॉरपोरेटकरण को लेकर चिंतित हैं. एक पीएचडी छात्र, जिसने नाम न बताने की इच्छा जताई, ने कहा, “अगर संस्थान ट्यूशन फीस लेना शुरू करता है और ज्यादा सेल्फ-फाइनेंस्ड कोर्स लाता है, तो छात्र गहरे सैद्धांतिक शोध के बजाय नौकरी और कमाई को प्राथमिकता देने लगेंगे. इससे अकादमिक आज़ादी और बौद्धिक खोज की वह संस्कृति कमजोर हो सकती है, जिसे आईएसआई ने लंबे समय तक संभाल कर रखा है.”

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी–लेनिनवादी) लिबरेशन के राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने इसके व्यापक मायनों पर ज़ोर दिया.

उन्होंने कहा, “आईएसआई हमेशा आज़ादी और स्वतंत्रता के साथ एक शोध-केंद्रित संस्थान के रूप में फलता-फूलता रहा है. गणित, सांख्यिकी, कंप्यूटर साइंस और अन्य विषयों में उच्च स्तर का शोध स्वायत्तता के बिना आगे नहीं बढ़ सकता. यह बिल उस स्वायत्तता की जगह केंद्रीकरण ला सकता है, जो राजनीतिक या कॉरपोरेट एजेंडों को आगे बढ़ा सकता है.”

उन्होंने नागरिक समाज से संस्थान की स्वतंत्रता बचाने के लिए समर्थन करने की अपील की.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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