नई दिल्ली: पहली बार, पिछले सप्ताह जारी की गई कक्षा 7 की एनसीईआरटी सामाजिक विज्ञान की किताब में एक ऐसा अध्याय शामिल है, जो यह बताता है कि भारत मान्यताओं और धर्म के कारण “उत्पीड़ित” और “परेशान” लोगों के लिए सदियों से एक “सुरक्षित आश्रय” रहा है.
पिछली सामाजिक विज्ञान की पुस्तकों में ऐसा अध्याय नहीं था.
नेशनल काउंसिल ऑफ़ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग की ‘एक्सप्लोरिंग सोसाइटी: इंडिया एंड बियॉन्ड’ के पार्ट 2 में, ‘इंडिया: ए होम टू मेनी’ नाम के चैप्टर में बेने ज्यूस और तिब्बतियों को उन समुदायों में गिना गया है जिन्होंने भारत में शरण ली है.
‘हमारी सांस्कृतिक विरासत, ज्ञान और परंपराएं’ थीम के तहत आने वाला यह चैप्टर इस बात पर ज़ोर देता है कि ‘वसुधैव कुटुंबकम (पूरी दुनिया एक परिवार है)’ सिर्फ़ एक नारा नहीं है, बल्कि हज़ारों सालों से यह एक परंपरा भी रही है.
बेने यहूदियों और तिब्बती शरणार्थियों के अलावा इसमें सीरियाई ईसाइयों, पारसियों और बहाई समुदाय का भी ज़िक्र है, जो उत्पीड़न के कारण भारत आए.
अर्मेनियाई और अरब व्यापारियों का भी उल्लेख है, जो शुरुआत में व्यापार के लिए भारत आए थे.
किताब में खास तौर पर लिखा है कि “भारत में शुरुआती अरब बसने वाले शांतिपूर्ण व्यापारी थे, विजेता नहीं”, जो 7वीं सदी से भारत आए और केरल, गुजरात और कर्नाटक के पश्चिमी तटों पर बसे.
अध्याय में एक पंक्ति है, “वे नए विचार, संस्कृति और धर्म लेकर आए और भारत के व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.”
एक अन्य अध्याय में सिंध पर अरब आक्रमण का ज़िक्र है और बताया गया है कि इराक के गवर्नर ने मोहम्मद बिन क़ासिम को सेनापति बनाकर सिंध भेजा था.
किताब में लिखा है, “दुनिया के कई हिस्सों में सदियों से धार्मिक उत्पीड़न होता रहा है, लेकिन भारत ने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की संस्कृति विकसित की और विभिन्न धर्मों और विचारधाराओं को अपनाया. इसी स्वभाव के कारण भारत उत्पीड़ित लोगों के लिए एक आश्रय बना.”
अध्याय में यह भी कहा गया है, “कई बार ऐसा भी हुआ कि लोग भारत को जीतने आए, लेकिन वे भारत की संस्कृति, दर्शन, ज्ञान परंपरा, भौगोलिक विविधता, मौसम और समृद्ध अर्थव्यवस्था से प्रभावित होकर खुद भारत का हिस्सा बन गए.”
एनसीईआरटी के निदेशक दिनेश प्रसाद सकलानी ने दिप्रिंट से कहा, “यह अध्याय इसलिए जोड़ा गया है ताकि यह दिखाया जा सके कि किसी भी कारण से जो लोग भारत आए, वे समाज में घुल-मिल गए, उन्होंने यहां काम किया, सम्मान पाया और इसे अपना घर बनाया.”
उन्होंने यह भी कहा कि इस अध्याय का प्रेरणा स्रोत नागरिकता संशोधन कानून नहीं है.
उन्होंने कहा, “यह इतिहास है और इसे वर्तमान संदर्भ में नहीं देखा जा सकता.”
एनसीईआरटी नई किताबें राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या ढांचा (NCF) 2023 के अनुरूप जारी कर रहा है.
इस किताब का पहला पार्ट अप्रैल में जारी हुआ था.
धार्मिक उत्पीड़न से बचने वाले समुदाय
अध्याय में विस्तार से बताया गया है कि पारसी, जो ज़ोरास्ट्रियन धर्म के अनुयायी हैं, कैसे 7वीं सदी में इस्लामी आक्रमण के बाद फारस (आज का ईरान) में धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए भारत आए.
ज़ोरास्ट्रियन धर्म तीसरी से सातवीं सदी तक सassanid साम्राज्य का राजधर्म था. किताब में लिखा है कि 7वीं सदी के मध्य में अरब मुस्लिम सेनाओं द्वारा साम्राज्य पर कब्ज़ा करने के बाद ज़ोरास्ट्रियन कई तरह के उत्पीड़न का सामना करने लगे—जबरन धर्म परिवर्तन, जज़िया कर, पवित्र अग्नि मंदिरों का विनाश और सामाजिक-वैधानिक भेदभाव.
किताब के अनुसार, “इसलिए उन्हें फारस छोड़ना पड़ा. अपने धर्म का पालन न कर पाने के कारण उन्होंने अपना घर छोड़कर समुद्र पार करने का साहसिक निर्णय लिया. 8वीं से 10वीं सदी के बीच कई समूह भारत के पश्चिमी तट (आज के गुजरात) पहुंचे.”
किताब में ज़ोरास्ट्रियन धर्म और भारत की वैदिक परंपराओं के “गहरे संबंधों” का भी ज़िक्र है.
अध्याय में तिब्बती समुदाय का भी विस्तार से वर्णन है और बताया गया है कि 1950 के बाद चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया. इसके बाद 14वें दलाई लामा को भारत में शरण दी गई.
किताब में लिखा है, “भारत सरकार ने तिब्बती शरणार्थियों का पुनर्वास किया, उनके बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की और तिब्बती बस्तियां बसाने में मदद की ताकि वे अपनी भाषा, संस्कृति और धरोहर को सुरक्षित रख सकें.”
बहाई समुदाय का ज़िक्र करते हुए किताब बताती है कि 19वीं सदी में ईरान में उनकी मान्यताओं को ‘कु-धर्म’ कहकर उनकी बुरी तरह से उपेक्षा की गई, जिसके कारण वे भारत आए.
इसके अलावा किताब में सीरियाई ईसाइयों का भी उल्लेख है, जो 4वीं सदी में पश्चिम एशिया में उत्पीड़न और शंका के कारण भारत आए. वे मलाबार तट पर बसे और आज उन्हें सीरियाई ईसाई कहा जाता है.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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