नई दिल्ली: भारत के ‘ट्यूशन कल्चर‘ को अक्सर काफी बुरा भला कहा जाता है, लेकिन कम आय वाले कई ऐसे अभिभावकों के लिए उनके पड़ोस की ‘ट्यूशन आंटी’ या ‘मैथ्स सर’ एक जीवनदान की तरह हैं, जो बच्चों को कोविड की वजह से हुए सीखने के नुकसान के मामले में मदद करने में असमर्थ हैं. यहां तक कि महंगी लागत के कारण अपने बच्चों को निजी से सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित करने वाले माता-पिता भी निजी कोचिंग के लिए अतिरिक्त भुगतान करने को तैयार हैं.
ऐसे ही एक अभिभावक हैं 40 वर्षीय घरेलू कामगार ममता देवी, जो दिल्ली के जमरूदपुर में रहती हैं. जब पिछले साल इस शहर में कोविड की दूसरी लहर आई, तो उनके पति की नौकरी चली गई और उनके लिए अपने तीन बच्चों को दो वक्त की रोटी खिलाना भी मुश्किल हो गया.
ममता कहतीं हैं, ‘उस समय शिक्षा हमारी दूसरी प्राथमिकता बन गई थी. इसलिए मैंने अपने बच्चों को एक सरकारी स्कूल में स्थानांतरित कर दिया क्योंकि यह स्कूल की पढ़ाई एकदम से छोड़ने से बेहतर था.’ उसके बाद से, इस परिवार की (आर्थिक) स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन ममता देवी ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में ही बनाये रखा है. हालांकि, वह अब निजी ट्यूशन के साथ उनकी शिक्षा को अतिरिक्त मदद कर रही है.
उन्होंने कहा, ‘महामारी के दो वर्षों के दौरान, मैं उन्हें कुछ अधिक नहीं दे सकी, लेकिन अब सुविधाएं उपलब्ध हैं तो मैं यह सुनिश्चित करना चाहती हूं कि वे इस कमी को पूरा करते हुए अपनी कक्षा के स्तर की पाठ्यपुस्तकों को पढ़ने में सक्षम हों सकें.’
देवी का परिवार अकेला ऐसा परिवार नहीं है. एनजीओ ‘प्रथम’ द्वारा 25 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में किये गए सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाशित 2021 की वार्षिक शिक्षा रिपोर्ट (एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट – एएसईआर या असर) के अनुसार, लगभग 40 प्रतिशत स्कूली छात्रों को ट्यूशन कक्षाओं में भी नामांकित कराया गया था. यह इस सर्वेक्षण के 2020 के संस्करण में सूचित किए गए 32.5 प्रतिशत और 2018 में बताये गए 28.6 प्रतिशत से कहीं अधिक था.
रिपोर्ट में इसे साल 2020 की शुरुआत से ही कोविड महामारी के कारण स्कूलों के लंबे समय तक बंद रहने की एक ‘स्वाभाविक प्रतिक्रिया’ के रूप में बताया गया है. विशेष रूप से, साल 2018 और 2021 के बीच, उन बच्चों में ट्यूशन लेने के अनुपात में 12.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जिनके माता-पिता ‘निम्न शिक्षा श्रेणी’ से आते हैं. हालांकि, ‘उच्च शिक्षा श्रेणी’ से आने वाले अभिभावकों के मामले में बच्चों की निजी ट्यूशन में हिस्सेदारी में केवल 7.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी.
निजी ट्यूशन के मामलों में समग्र वृद्धि महामारी से जुड़ी एक और प्रवृत्ति के साथ हुई और वह थी निजी से सरकारी स्कूलों, जहां की फीस बहुत कम होती है, में जाने वाले बच्चों की संख्या में इजाफा.
शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, सरकारी स्कूलों में छात्रों का नामांकन 2019-20 के 130,931,634 से बढ़कर 2021-2022 में 143,240,480 हो गया. इसका मतलब है कि इस अवधि के दौरान 1.23 करोड़ अतिरिक्त छात्रों ने सरकारी स्कूलों में दाखिला लिया. इसी अवधि के दौरान निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में हुए नामांकन में 1.81 करोड़ से अधिक की गिरावट आई है. अकेले दिल्ली में, इस साल कथित तौर पर 4 लाख बच्चों को उनके अभिभावकों द्वारा सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित किया गया.
शिक्षा-केंद्रित गैर-लाभकारी संस्था ‘सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन (सीएसएफ)’ के परियोजना निदेशक हरीश दोरईस्वामी ने कहा, ‘यह आर्थिक कारकों की वजह से हो सकता है या इस वजह से भी क्योंकि कई परिवार ग्रामीण इलाकों में स्थानांतरित हो गए हैं और वहां निकटतम रूप से उपलब्ध स्कूल एक सरकारी स्कूल ही था.’
लेकिन यहीं एक विरोधाभास भी झलकता है – हालांकि माता-पिता, विशेष रूप से निम्न आय वर्ग के लोग, स्कूलों पर खर्च कम करने की कोशिश की, वहीं वे निजी ट्यूशन के लिए पैसे खर्च करने को तैयार हैं .
हालांकि अभी यह देखा जाना बाकी है कि क्या यह प्रवृत्ति आगे भी जारी रहेगी, मगर विशेषज्ञ, अभिभावक और शिक्षक सरकारी स्कूलों में असमान रूप से दिए जाने वाले लर्निंग सपोर्ट (सीखने में समर्थन) और स्कूल बंद होने के कारण हुए पढ़ाई के नुकसान (लर्निंग लॉस) की ओर इशारा करते हैं, जिसके लिए व्यक्तिगत रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है.
इसके अलावा, जैसा कि एएसईआर की रिपोर्ट में भी उल्लेख किया गया है, स्थानीय ट्यूशन कक्षाओं में आम तौर पर एक लचीला और सौदेबाजी योग्य फी स्ट्रकचर (शुल्क संरचना) होता है, जो अनिश्चित आर्थिक माहौल में अभिभावकों के लिए सरकारी स्कूल और निजी कोचिंग के ‘हाइब्रिड शिक्षा मॉडल’ को अधिक व्यावहारिक बनाती है.
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‘स्कूलों में ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहे हैं शिक्षक’
महामारी के आने तक, 13 वर्षीय हरीश तटकरे ने मुंबई के मलाड स्थित एक निजी बजट स्कूल में पढ़ाई की थी, लेकिन इस स्कूल का 1,000 रुपये मासिक शुल्क भी उसके माता-पिता के लिए तब बहुत अधिक हो गया जब उन्होंने अपनी नौकरी खो दी.
घरेलू नौकरानी के रूप में काम करने वाली उसकी मां रजिता सकदे ने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने उसे स्कूल से निकालने और उसकी ट्यूशन कक्षाओं को भी बंद करने का कठिन निर्णय लिया.
जब स्कूल फिर से खुले, तो उन्होंने हरीश का दाखिला एक सरकारी स्कूल में कराया और जब पैसे की तंगी थोड़ी कम हो गई, तो उन्होंने उसकी ट्यूशन कक्षाएं फिर से शुरू करवा दीं.
सकदे ने कहा, ‘वह बहुत छोटी उम्र से ही ट्यूशन के लिए जा रहा है. चूंकि हम हमारी नौकरी के कारण उसे समय नहीं दे सकते हैं और हमें विषयों का ज्ञान भी नहीं है, इसलिए वहां उसे पूरी मदद मिलती है.’
उनकी अब अपने बेटे को वापस किसी निजी स्कूल में स्थानांतरित करने की कोई योजना नहीं है. सरकारी स्कूल उनकी जेब पर काम बोझ डालता है, वहां मध्याह्न भोजन प्रदान किया जाता है, और उनका मानना है कि उसके लर्निंग आउटकम (सीखने के परिणामों) में सुधार हो रहा है क्योंकि वह अब एक एनजीओ द्वारा संचालित कक्षा में पढ़ रहा हैं.
सीएसएफ के दोरईस्वामी के अनुसार, ट्यूशन हमेशा भारत में ‘जनजीवन का एक तथ्य’ रहा है. लेकिन अब उसका ‘ग्राहक वर्ग’ बढ़ रहा है. उन्होंने कहा कि इससे पहले, ज्यादातर विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के छात्र ही पढ़ाई में बढ़त हासिल करने के लिए निजी कक्षाओं का सहारा लिया करते थे. मगर, अब निम्न आय वर्ग के अभिभावक भी कोविड महामारी के कारण होने बच्चों के ‘सीखने के नुकसान’ की भरपाई के लिए उनमें निवेश कर रहे हैं.
उदाहरण के लिए, 16 वर्षीय दृष्टि कोरी और उसके दो छोटे भाई – जो दोनों कक्षा 3 में हैं – अहमदाबाद के कुबेरनगर में कम आय वाले समूहों की जरूरतों को पूरा करने वाले एक निजी स्कूल में पढ़ते हैं. महामारी से पहले, दृष्टि अपने छोटे भाइयों की घर पर पढ़ाई में मदद करती थी, लेकिन अब वे दोनों लड़के पड़ोस की ट्यूशन कक्षाओं में जाते हैं.
दृष्टि कोरी ने इस बदलाव को समझाते हुए कहा, ‘हमने उन्हें ट्यूशन की कक्षाओं में इसलिए डाला क्योंकि वे अपनी अधिकांश कक्षा के स्तर की अवधारणाओं को भूल गए हैं. इसके अलावा, मैं ट्यूशन टीचर के साथ आमने-सामने बातचीत कर सकती हूं और उनसे उनकी सीखने की जरूरतों के अनुसार विशेष रूप से तैयार किया गए पाठ पढ़ाने के लिए कह सकती हूं. कक्षा में बहुत सारे छात्रों के होने का साथ, कभी-कभी स्कूलों में शिक्षक उन पर अलग से ध्यान नहीं दे पाते.’
दिल्ली में सरकार द्वारा संचालित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (नीपा) के प्रोफेसर सुरेश कुमार ने कहा कि महामारी के दौरान सीखने की यह असमानता और अधिक बढ़ गई क्योंकि ऑनलाइन पढ़ाई हमेशा से कई छात्रों के लिए सुलभ या प्रभावी नहीं था.
कुमार के अनुसार, इस समस्या को हल करने के लिए सरकार द्वारा की गई कई पहलों के बावजूद, सीखने में एक अंतराल महसूस किया गया है और कई स्टेक होल्डर्स इसे पूरा करने के लिए होड़ लगा रहे हैं.
उन्होंने कहा, ‘बच्चों को सीखने में मदद करने के लिए, शिक्षा मंत्रालय ने तेजी से कार्रवाई की और बच्चों पर पाठ्यक्रम के बोझ को कम करने की कोशिश की. हालांकि, सीखने में सहायता के लिए अभिभावकों को भी अपनी ओर से मदद प्रदान करनी पड़ती है, और वे महंगी ट्यूशन देकर ऐसा कर रहे हैं.’
इस बीच, कई सारे गैर-सरकारी संगठन यह सुनिश्चित करने के लिए जमीनी स्तर पर काम करना जारी रखे हुए हैं कि बच्चे स्कूलों में सीखते रहें. आदित्य माल्या. जो गैर-लाभकारी संगठन ‘टीच फॉर इंडिया’ के मुंबई ऑपरेशन्स का नेतृत्व करते हैं, ने कहा कि अभिभावकों तक पहुंच बनाना इस प्रयास के लिए महत्वपूर्ण बात है.
माल्या ने कहा, ‘हमारे (शिक्षक) साथियों ने समय-समय पर अपने छात्रों के घरों का दौरा किया ताकि उनकी शंकाओं के समाधान में मदद की जा सके और माता-पिता को अपने बच्चे का नाम वापस नहीं लेने के लिए मनाया जा सके.’
‘दोगुने पैसे की पेशकश कर रहें है कई अभिभावक’
हालांकि, भारत में हमेशा पड़ोस के ट्यूटर्स की मांग रही है, मगर सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि महामारी से पहले निजी ट्यूटर्स पर खर्च कम होता जा रहा था.
साल 2020 में जारी शिक्षा पर नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 20 प्रतिशत छात्रों ने 2017-18 में निजी ट्यूशन का विकल्प चुना, जो साल 2014, जब आखिरी बार यह सर्वेक्षण किया गया था, की तुलना में छह प्रतिशत कम था. इसके अलावा, निजी कोचिंग में जाने वाले औसत घरेलू खर्च का हिस्सा 15 प्रतिशत से गिरकर 12 प्रतिशत हो गया.
हालांकि, जिन निजी ट्यूटर्स से दिप्रिंट ने बात की उन्होंने दावा किया कि उनके यहां दाखिला लेने वालों की संख्या में कोविड के बाद जबरदस्त उछाल आया है और अभिभावक महामारी के दौरान अपने बच्चों को खोए हुए समय की पूर्ति करने के लिए बेताब हैं.
प्रिया डांग, जो दक्षिण दिल्ली स्थित अपने घर से निजी ट्यूशन कक्षाएं चलाती हैं, ने दावा किया कि उन्होंने कक्षाओं के लिए आने वाले छात्रों की संख्या में 30-40 प्रतिशत की वृद्धि देखी है. कक्षा 1-12 के तक के 35 छात्रों के साथ उनके द्वारा लिया जाने वाला मासिक शुल्क छात्र के माता-पिता की आर्थिक स्थिति के आधार पर 500 रुपये से लेकर 4,000 रुपये तक होता है.
डांग ने कहा, ‘वे माता-पिता जो पहले शारीरिक दंड के खिलाफ हुआ करते थे, अब मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि जैसा आप चाहें वैसा करें, लेकिन बस उनके ग्रेड बढ़ा दें. ऑनलाइन कक्षाओं की तरफ हुए बदलाव के कारण, छात्रों ने स्वयं से पढ़ाई शुरू करने के लिए अपनी ललक खो दी है. इसके अलावा, उनकी एकाग्रता अवधि भी काफी कम हो गई है.’
उनके अनुसार, कुछ माता-पिता तो तेज गति से नतीजों के लिए अधिक भुगतान करने को भी तैयार होते हैं. वे कहती हैं, ‘मेरे पास ऐसे अभिभावकों से बहुत सारे अनुरोध हैं जो मुझे अपने बच्चों के लिए दो या तीन गुना चार्ज करने के साथ ही निजी रूप से पढ़ाने के लिए कहते हैं.’
डांग ने दावा किया कि सरकारी स्कूल के छात्र विशेष रूप से मुश्किल स्थिति में पड़ गए लग रहे हैं. डांग के अनुसार, उसके पास जो दो सरकारी स्कूल के छात्र हैं, उन में से किसी के पास स्कूल में नियमित शिक्षक नहीं हैं. उन्होंने दावा किया, ‘उन्हें पाठ पढ़ाने वाला कोई नहीं है, लेकिन परीक्षा से ठीक पहले अचानक से उन्हें पढ़ने के लिए (पाठ्यक्रम के) बड़े भाग दे दिए जाते हैं.’
अहमदाबाद की ट्यूटर अर्पणा जैन के पास भी बताने के लिए कुछ ऐसी ही कहानी थी. इन 52 वर्षीय शिक्षिका ने कहा, ‘मेरे पास आने वाले छात्रों की संख्या दोगुनी हो गई है. सीखने का एक बड़ा नुकसान हुआ है और माता-पिता अपने बच्चे के सीखने के स्तर को पूर्व-महामारी की स्थिति में वापस लाने के लिए बेताब हैं.’
जैन ने कहा कि मध्यमवर्गीय माता-पिता अब अपने बच्चों को महंगे ट्यूटर्स के पास भेजने के लिए तैयार हैं, भले ही उन्हें इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़े.
उन्होंने कहा, ‘यहां तक कि पढ़े-लिखे अभिभावकों को भी महामारी के दौरान अपने बच्चों को अवधारणाओं को समझाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ा. इसके अलावा, कक्षाओं में बच्चों पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिए जाने की कमी ने कमजोर प्रदर्शन करने वाले छात्रों के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया है. माता-पिता उम्मीद करते हैं कि ट्यूशन शिक्षक उन्हें तेजी से ऊपर लाएंगे.’
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(अनुवाद: रामलाल खन्ना)
(संपादन: अलमिना खातून)
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