नई दिल्ली: राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) द्वारा बदलाव के तहत इस वर्ष कक्षा 6 से 12 तक के पाठ्यपुस्तक से पिछले राजनीति विज्ञान पाठ्यक्रम के खंडों को हटाने पर चिंता व्यक्त करते हुए, जिन प्रोफेसरों और शिक्षकों ने मूल रूप से सामग्री तैयार की थी, उन्होंने किताबों से अपना नाम हटाने के लिए कहा है. दिप्रिंट को यह जानकारी मिली है.
एनसीईआरटी के निदेशक दिनेश सकलानी को बुधवार को लिखे एक पत्र में, पाठ्यपुस्तक तैयार करने वाले समिति के 33 सदस्यों ने कहा है कि “जो अस्वीकार्य है और जो वांछनीय है, उसका निर्णय पारदर्शिता के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए अपारदर्शी रखा गया है.”
पत्र में, जिसे दिप्रिंट द्वारा एक्सेस किया गया है, विशेषज्ञों ने आगे तर्क दिया है कि हालांकि एनसीईआरटी के पास पाठ्यपुस्तकों पर बौद्धिक संपदा अधिकार हो सकता है, लेकिन इसमें मूल परिवर्तन, मामूली या बड़े बदलाव करने की स्वतंत्रता नहीं है, और फिर उसी सेट का दावा करने की स्वतंत्रता नहीं है. पाठ्यपुस्तक तैयार करने वालो और मुख्य सलाहकारों को इसमें किये गए बदलावों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है.
विशेषज्ञ समिति के सदस्यों द्वारा बुधवार का पत्र तब सामने आया जब राजनीति विज्ञानी योगेंद्र यादव और सुहास पलशिकर द्वारा एनसीईआरटी को पत्र लिखकर कक्षा 9 से 12 के राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से उनके नाम हटाने के लिए कहा गया है, जिसमें कहा गया कि किताबों को “मान्यता से परे विकृत” किया गया था.
एनसीईआरटी ने उनके पत्र के जवाब में कॉपीराइट स्वामित्व के आधार पर परिवर्तन करने के अपने अधिकार पर जोर देते हुए उनके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था. दोनों ने स्कूल शिक्षा नियामक पर यह कहते हुए पलटवार किया कि एनसीईआरटी के पास ‘पाठ को बदलने का कानूनी अधिकार’ है, उनके पास एक पाठ्यपुस्तक से अपना नाम अलग करने का नैतिक और कानूनी अधिकार था जिसका उन्होंने समर्थन नहीं किया.
दोनों नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क (NCF) के अनुसार पाठ्यक्रम विकसित करने के लिए 2005 में गठित पाठ्यपुस्तक विकास समिति का हिस्सा थे, और कक्षा 9 से 12 के लिए राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों के मुख्य सलाहकार थे.
इससे पहले भी, कुछ शिक्षाविदों ने पाठ्यक्रम में बदलाव करने के लिए परामर्श नहीं किए जाने का मुद्दा उठाया था.
बुधवार के पत्र पर मुजफ्फर असदी, डीन, कला संकाय, मैसूर विश्वविद्यालय, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर के कांति प्रसाद बाजपेयी, रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय, कोलकाता के सब्यसाची बसु रे चौधरी, राजीव भार्गव, मानद साथी, विकासशील समाजों के अध्ययन (CSDS), दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के द्वैपायन भट्टाचार्य द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे.
पत्र के जवाब में, एनसीईआरटी ने एक बयान में कहा, “चूंकि ये पाठ्यपुस्तकें किसी दिए गए विषय की समझ के आधार पर विकसित की गई हैं और व्यक्तिगत रूप से लिखे नहीं गए हैं इसलिए इसे वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता है.”
बयान में कहा गया कि चूंकि पाठ्यपुस्तक विकास समितियों (टीडीसी) का कार्य और कार्यकाल समाप्त हो गया है, इसलिए पाठ्यपुस्तकों में उनका नाम जोड़ना उनके अकादमिक योगदान की स्वीकृति मात्र है. इसमें यह भी कहा गया कि एनसीईआरटी हितधारकों द्वारा दिए गए फीडबैक के आधार पर पाठ्यपुस्तकों की सामग्री की समीक्षा करने और बदलने के लिए स्पष्ट प्रक्रिया अपनाती है.
एनसीईआरटी के बयां में आगे कहा गया कि “इन पाठ्यपुस्तक विकास समितियों (टीडीसी) की शर्तें उनके पहले प्रकाशन की तारीख से समाप्त हो गई हैं. हालांकि, एनसीईआरटी उनके शैक्षणिक योगदान को स्वीकार करता है और केवल इसी वजह से, रिकॉर्ड के लिए, अपनी प्रत्येक पाठ्यपुस्तक में सभी पाठ्यपुस्तक विकास समिति (टीडीसी) के सदस्यों के नाम प्रकाशित करता है.”
अप्रैल में नए शैक्षणिक सत्र की शुरुआत के साथ देश भर के स्कूलों में “तर्कसंगत” पाठ्यक्रम वाली नई किताबें शुरू की गईं. ‘रेशनलाइजेशन’ अभ्यास के हिस्से के रूप में, एनसीईआरटी ने कक्षा 6 से 12 के लिए इतिहास और राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से कुछ सामग्री को हटा दिया – जिसमें महात्मा गांधी की हत्या के अंश और भारतीय जनता पार्टी के वैचारिक स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के अंश थे – जिसने विवाद पैदा किया था.
यह पूरा मामला पिछले साल जून में सामने आया जिसकी समीक्षा एक विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के आधार पर की गई थी.
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‘संशोधन के लिए सलाह नहीं ली गई’
बुधवार का पत्र लिखने वाले प्रोफेसरों ने इस बात पर जोर दिया है कि उनके सामग्री बनाने में साथ मिलकर और अलग-अलग दृष्टिकोणों के साथ मेहनत किया था, लेकिन अब रेशनलाइजेशन उन्हें ही मुश्किल में डाल दिया हैं.
पत्र में लिखा गया कि “इस प्रयास में योगदान देने वाले राजनीतिक वैज्ञानिक कई दृष्टिकोणों से आए थे और विभिन्न वैचारिक पदों पर थे. फिर भी हम एक साथ काम करने में सक्षम थे जो कि, किसी भी तरह से, राजनीति विज्ञान में स्कूली पाठ्यपुस्तकों का वास्तव में उल्लेखनीय सेट है. जो शैक्षणिक रणनीति अपनाई गई थी, उस पर कई महीनों तक सामूहिक रूप से विचार-विमर्श किया गया और उस पर सहमति बनी.”
उन्होंने कहा कि पाठ्यपुस्तकों को योगदानकर्ताओं और मुख्य सलाहकारों के बीच ठोस और शैक्षणिक मुद्दों पर काफी विचार-विमर्श के बाद डिजाइन किया गया था.
शिक्षाविदों ने यह भी दावा किया कि संशोधन किए जाने से पहले उनसे परामर्श नहीं किया गया था, और संशोधनों ने शैक्षणिक स्वतंत्रता, शैक्षणिक अखंडता और संस्थागत औचित्य पर सवाल उठाया है.
उन्होंने आगे कहा कि पुनरीक्षण अभ्यास ने उन अर्थों को बदल दिया जो पुस्तकों के मूल निर्माता छात्रों को पढ़ाने के इरादे से रखते थे.
पत्र में कहा गया कि “संशोधनों के बाद अर्थ बदल जाने के साथ साथ इसमें यह भी समस्या हैं कि योगदानकर्ताओं ने जिस दृष्टिकोण से सब लिखा है उसका वह अर्थ नहीं निकलेगा। परिवर्तन के दौरान कम से कम मुख्य सलाहकारों से परामर्श करना चाहिए था जिसने इस पर काम किया.”
इसमें आगे कहा गया कि “चूंकि मूल ग्रंथों के कई मूल संशोधन हैं, जिससे उन्हें अलग-अलग किताबें बनती हैं, इसलिए हमें यह दावा करना मुश्किल लगता है कि ये वे किताबें हैं जिन्हें हमने बनाया है और उनके साथ अपना नाम जोड़ना मुश्किल है.”
हालांकि एनसीईआरटी ने पहले कहा है कि कोविड महामारी के मद्देनजर बच्चों पर पाठ्यक्रम के बोझ को कम करने के लिए बदला गया था, या हटाए गया.
अप्रैल में, एनसीईआरटी के निदेशक ने कहा था कि विलोपन एक “संभावित चूक” का हिस्सा हो सकता है और “कोई गलत इरादा नहीं” था, यह कहते हुए कि परिवर्तनों को बहाल नहीं किया जाएगा.
(संपादन: अलमिना खातून)
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