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Wednesday, 24 April, 2024
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राज्य बोर्ड के 10वीं के परिणाम बताते हैं कि ड्रॉपआउट बढ़ा है जबकि पास पर्सेंटेज में गिरावट आई है

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 85% ड्रॉपआउट भारत के सिर्फ 11 राज्यों है. इन छात्रों की संख्या लगभग 30 लाख है. अपेक्षाकृत बेहतर पास प्रतिशत के बावजूद इन राज्यों में बंगाल और कर्नाटक शामिल हैं.

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नई दिल्ली: इस साल के 10वीं कक्षा के परिणामों में, गुजरात राज्य बोर्ड के 157 स्कूलों में एक भी छात्र उत्तीर्ण नहीं हुआ, जबकि अन्य 1,084 स्कूलों में पास होने का प्रतिशत 30 प्रतिशत से कम रहा. कर्नाटक में 34 स्कूलों का जीरो पास प्रतिशत रहा.

एसएससी परीक्षाओं में ऐसा प्रदर्शन केवल कुछ राज्य बोर्डों तक ही सीमित नहीं है. शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों से पता चलता है कि जहां 2021-22 में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) से पढ़ने वालों के लिए फेल होने की दर केवल 5 प्रतिशत रही हैं वहीं तुलनात्मक रूप से कुछ राज्य बोर्डों के तहत छात्रों की विफलता दर 16 प्रतिशत है.

यह भी देखा गया कि राज्य बोर्डों के खराब प्रदर्शन के कारण बड़ी संख्या में छात्र शिक्षा प्रणाली से बाहर हो जाते हैं. यह न केवल देश में समग्र नामांकन आंकड़ों को प्रभावित करता है, बल्कि शिक्षा मैट्रिक्स में भारत की वैश्विक रैंकिंग पर भी हानिकारक प्रभाव डालता है.

शिक्षा मंत्रालय द्वारा मई में जारी किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि 2021-2022 में 10वीं कक्षा में नामांकित लगभग 35 लाख छात्रों ने देश में 11वीं कक्षा में प्रवेश नहीं लिया. इन 35 लाख छात्रों में से 27.5 लाख अनुत्तीर्ण हो गए जबकि शेष 7.5 लाख बोर्ड परीक्षाओं में शामिल नहीं हुए.

मंत्रालय के आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार, देश में ग्यारह राज्यों में 85 फीसदी ड्रॉपआउट या लगभग 30 लाख छात्र हैं. ये राज्य हैं उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, राजस्थान, कर्नाटक, असम, पश्चिम बंगाल, हरियाणा और छत्तीसगढ़.

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जैसा कि शिक्षा मंत्रालय के आंकड़े दर्शाते हैं कि राज्य बोर्ड सीबीएसई के पास प्रतिशत को बनाए रखने में विफल हो रहे हैं, दिप्रिंट ने भारत के छह सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों – मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, गुजरात और महाराष्ट्र के प्रदर्शन पर एक नज़र डाली – यह समझने के लिए कि उनके छात्रों ने एसएससी परीक्षाओं में कैसा प्रदर्शन किया.

चिंता का कारण

मध्य प्रदेश में, कुल 8,15,364 छात्रों में से लगभग 40 प्रतिशत परीक्षा उत्तीर्ण करने में विफल रहे, जबकि उत्तीर्ण प्रतिशत लगभग 63 है. जबकि उत्तर प्रदेश में उत्तीर्ण होने वालों का प्रतिशत 89.78 है, एक्जाम ड्रॉपआउट के लिए रजिस्टर कराने वाले छात्रों की कुल संख्या 2018 में 36,56,272 से कम होकर 2023 में 31,16,454 हो गई है.


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जबकि सभी छह राज्यों में पिछले वर्षों की तुलना में समग्र छात्र नामांकन में गिरावट देखी गई, कुछ राज्यों में यह संख्या चिंताजनक थी.

उदाहरण के लिए, गुजरात में छात्र नामांकन 2022 में 7,72,771 से गिरकर 2023 में 7,34,898 हो गया. पाटन पिछले साल 54.29 प्रतिशत के साथ सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला जिला था, जबकि दाहोद इस साल 40 प्रतिशत से काफी नीचे था.

इसके अतिरिक्त, पास ग्रेड में कक्षा 10 के छात्रों की अधिकतम संख्या (1,39,248) थी, जिन्होंने बोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण की. पिछले दो शैक्षणिक सत्रों में कुल प्रतिशत लगभग 65 रहा है.

मध्य प्रदेश, जिसका पास प्रतिशत 63 है, एक अजीबो-गरीब स्थिति का सामना करता है.

आम धारणा के विपरीत कि निजी स्कूल अपने सरकारी समकक्षों की तुलना में बेहतर हैं, जिलेवार आंकड़े विपरीत परिदृश्य प्रकट करते हैं. ग्वालियर, उज्जैन, इंदौर और भोपाल के निजी स्कूलों का उत्तीर्ण प्रतिशत क्रमश: 12.81, 14, 24 और 14 रहा.

पश्चिम बंगाल और कर्नाटक जैसे अन्य राज्यों में जहां बोर्ड का प्रदर्शन बेहतर है, छात्रों के नामांकन में गिरावट चिंता का विषय है.

उदाहरण के लिए, बंगाल में छात्र नामांकन 2022 में 11,27,800 से गिरकर 2023 में 6,97,212 हो गया. कुल उत्तीर्ण प्रतिशत 86 है, लेकिन यह भी 2021 में 100 की तुलना में कम हुआ है. इसी तरह, दसवीं कक्षा की परीक्षा में बैठने वाले कर्नाटक के छात्रों की संख्या में 2021 में 87,1443 से 2023 में 83,5102 तक गिरावट आई है.

आंकड़ों के अनुसार, क्षेत्रीय भाषाओं की तुलना में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के परिणाम बेहतर रहे. इस पर विचार करें: गुजराती माध्यम के स्कूलों का उत्तीर्ण प्रतिशत 63.13 था जबकि अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का प्रतिशत 81.50 था. कर्नाटक के कन्नड़ और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के मामले में यह 85.5 प्रतिशत और 91.66 प्रतिशत था.

कर्नाटक स्थित एक सार्वजनिक नीति और शोध थिंक टैंक ग्रासरूट रिसर्च एंड एडवोकेसी मूवमेंट के कार्यकारी निदेशक बासवराजू आर. श्रेष्ठा का मानना था कि राज्य बोर्डों में छात्र केवल मीडियम की समस्याओं के कारण प्रदर्शन नहीं करते हैं.

उन्होंने कहा,“अधिकांश क्षेत्रीय भाषा स्कूलों के साथ समस्या अच्छे विषय के शिक्षकों की कमी है. इन स्कूलों में भाषा शिक्षक अच्छे हो सकते हैं लेकिन गणित और विज्ञान जैसे तथाकथित कठिन विषयों में अच्छे शिक्षकों की कमी रही है. इससे ऐसे स्कूलों के समग्र प्रदर्शन में गिरावट आती है,”

उन्होंने कहा, “एनईपी छात्रों को पारंपरिक रूप से प्रदान किए जाने वाले कौशल के अलावा अन्य विषयों के विकल्प प्रदान करने की बात करता है. अगर इसे स्कूली शिक्षा प्रणाली में तुरंत लागू किया जाता है तो यह कक्षा 10 के स्तर पर छात्रों के प्रदर्शन को बेहतर बनाने में मदद कर सकता है, जल्दी ड्रॉपआउट को रोक सकता है.

सीबीएसई की तरह, छह राज्य बोर्डों में लड़कियों ने लड़कों से बेहतर प्रदर्शन किया है. लड़कियों और लड़कों का पास प्रतिशत कर्नाटक में 87 और 80, गुजरात में 70.62 और 59.58, कर्नाटक में 87 और 80, महाराष्ट्र में 95.87 और 92.05 और उत्तर प्रदेश में 93.34 और 86.64 रहा. बंगाल अपवाद था क्योंकि लड़कों और लड़कियों का पास प्रतिशत 89.76 और 83.05 था.

कोविड प्रभाव और सामाजिक-आर्थिक कारक

अंबेडकर विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर मनीष जैन ने बताया कि महामारी ने न केवल आय के अंतर को बढ़ाया है, बल्कि इसने स्कूल स्तर की शिक्षा और सीखने की पहुंच के अंतर को भी बढ़ाया है.

उन्होंने कहा,“यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इस वर्ष कक्षा 10 की परीक्षा देने वाले छात्रों ने पिछले दो कोविड वर्षों में अपने पाठ्यक्रम सामग्री के केवल कुछ हिस्सों का अध्ययन किया. सीखने का माध्यम आदर्श नहीं था, जो बदले में स्कूल जाने के साथ आने वाले अनुशासन को बाधित करता था. खराब परिणाम लॉकडाउन के कारण बड़े पैमाने पर सीखने के नुकसान के बावजूद छात्रों को वरिष्ठ ग्रेड में पदोन्नत करने का परिणाम है,”

जैन ने कहा कि स्कूलों और जिलों में शून्य पास प्रतिशत दर्ज करना कोई नई बात नहीं है, इसलिए इन क्षेत्रों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का अध्ययन करना महत्वपूर्ण है.

उन्होंने गुजरात और कर्नाटक के संदर्भ में कहा, “यदि ये ऐसे क्षेत्र हैं जहां हाशिये पर रहने वाले समुदायों (एससी/एसटी/ओबीसी) की बड़ी आबादी है, तो अधिकारियों को बुनियादी ढांचे और सामाजिक-आर्थिक विकास की आवश्यकता को राज्य के ध्यान में लाना चाहिए.”

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन की प्रो. मनीषा प्रियम ने बताया कि यदि उच्च साक्षरता दर वाले राज्य ऐसे संकेतकों पर प्रदर्शन करने में विफल हो रहे हैं, तो इन विफलताओं के कारणों को गहराई से समझने की आवश्यकता है.

“विंध्य के दक्षिण के राज्यों को शैक्षिक रूप से विकसित और अत्यधिक साक्षर माना जाता है. यदि उनका डेटा यह भी बताता है कि क्षेत्रीय भाषाओं में सीखने वाले छात्र सफल नहीं होते हैं, तो इस बात की अधिक जांच की आवश्यकता है कि सीबीएसई बोर्ड पूरे देश में बेहतर काम क्यों करता है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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