नई दिल्ली: केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) ने इस महीने अपने एक आदेश में कहा है कि भारतीय सेना के दूसरे प्रमुख रॉय बुचर द्वारा नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी (एनएमएमएल) को दिए गए दस्तावेज का खुलासा ‘राष्ट्रीय हित’ में है.
हालांकि, सीआईसी ने इन दस्तावेजों के खुलासे का आदेश जारी नहीं किया है, जो कथित तौर पर भारत में जम्मू-कश्मीर के विलय से संबंधित हैं.
सूचना आयुक्त उदय माहूरकर ने एनएमएमएल के केंद्रीय जन सूचना अधिकारी को निर्देश दिया कि पारदर्शिता कानून के तहत एनएमएमएल से दस्तावेज मांगने वाले आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक को जवाब देने से पहले ‘मामला उच्च अधिकारियों के समक्ष उठाएं’ और ‘इस संबंध में आवश्यक अनुमति हासिल’ करें.
इस दस्तावेज को बेहद महत्वपूर्ण माना जाता हैं क्योंकि कहा जाता है कि उनमें विलय संबंधी करार के बारे में गहन विचार रखे गए हैं, जिस पर 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर की रियासत के शासक महाराजा हरि सिंह ने हस्ताक्षर किए थे.
बुचर का इंटरव्यू
यह पहला मौका नहीं है जब नायक ने बुचर के कागजात का खुलासा करने की मांग की है या उनके बारे में लिखा है.
2016 में दि वायर के लिए लिखे एक लेख में नायक ने जम्मू-कश्मीर इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसेशन की कुछ तस्वीरें जारी की थीं. 2019 में उन्होंने दस्तावेज का खुलासा करने के लिए एक आरटीआई याचिका दायर की थी.
आरटीआई के जवाब में एनएमएमएल के जन सूचना अधिकारी ने केंद्र सरकार की एजेंसियों के निर्देशों का हवाला देते हुए कहा कि कागजात को ‘सार्वजनिक किए जाने पर रोक’ है.
हालांकि, नायक के प्रयासों ने उन्हें सर बुचर के एक इंटरव्यू की ट्रांसक्रिप्ट तक पहुंचा दिया, जो इतिहासकार और जीवनी लेखक बाल राम नंदा ने लिया था.
नायक ने ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के लिए एक लेख में लिखा, ‘सर रॉय बुचर के इंटरव्यू की ट्रांसक्रिप्ट स्मृतियों के आधार पर जम्मू-कश्मीर के घटनाक्रम के बारे में बेहद दिलचस्प तरीके से काफी कुछ बताती है, साथ ही भारत के प्रति उनके प्रेम को भी दर्शाती है.’
नायक ने ट्रांसक्रिप्ट के कुछ अंशों को अपलोड करते हुए अपने इन दावों की पुष्टि भी की कि बुचर ने जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर अपने अनुभवों पर कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं.
उदाहरण के तौर पर बुचर ने दावा किया था कि उनके पास पूर्व पीएम जवाहरलाल नेहरू के कुछ पत्र हैं, जो उन्होंने एनएमएमएल को सौंपे थे.
बुचर के मुताबिक, ‘प्रधानमंत्री (नेहरू) अखनूर और बेरी पट्टन पुल पर सीमा पार से पाकिस्तान के भारी तोपखाने द्वारा की जा रही गोलाबारी से काफी परेशान हो गए थे, उन्होंने मुझे इसके जवाब में जो भी संभव हो, वो सब करने को कह दिया. ऐसी स्थिति में कोई भी जवाबी गोलाबारी के अलावा कुछ नहीं कर सकता था.’
बुचर ने सीधे तौर पर नेहरू के एक पत्र का भी हवाला दिया, जिसमें उन्होंने संयुक्त राष्ट्र समर्थित युद्धविराम को लेकर अनिश्चितता पर अपनी भावनाएं जाहिर की थीं.
इन अंशों के मुताबिक नेहरू ने 1948 में बुचर को लिखा था, ‘मुझे नहीं पता कि संयुक्त राष्ट्र क्या प्रस्ताव देने जा रहा है. वे युद्धविराम का प्रस्ताव कर सकते हैं और मुझे नहीं पता कि क्या शर्तें होंगी. अगर युद्धविराम नहीं होता है….तो हमें आगे बढ़कर पाकिस्तान का मुकाबला करना होगा और इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए.’
बुचर ने इसके बाद विस्तार से बताया कि कैसे उन्हें युद्धविराम के साथ आगे बढ़ने का आदेश मिला था (जो उनके मुताबिक 31 दिसंबर 1948 से प्रभावी होना था), और दावा किया था कि उन्होंने अपनी तरफ से पाकिस्तान के आर्मी कमांडर इन चीफ डगलस ग्रेसी को भेजे गए युद्धविराम के सिग्नल की एक प्रति एनएमएमएल को सौंपी है.
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सेना में उच्च पद तक पहुंचे
31 अगस्त 1895 को जन्मे फ्रांसिस रॉबर्ट रॉय बुचर ने प्रतिष्ठित स्कॉटिश निजी स्कूल एडिनबर्ग एकेडमी में शिक्षा हासिल की थी, जहां के अन्य प्रमुख पूर्व छात्रों में लेखक रॉबर्ट लुई स्टीवेन्सन, अभिनेता इयान ग्लेन और संगीतकार गाय बेरीमैन शामिल हैं.
लंदन गजट लिस्ट के मुताबिक, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 15 अगस्त 1914 को बुचर को ब्रिटिश भारतीय सेना में नियुक्ति मिली थी और अगले वर्ष 5 सितंबर को उन्हें सेकेंड लेफ्टिनेंट बना दिया गया.
गजट में यह भी दर्ज है कि बुचर को सेकेंड लेफ्टिनेंट से लेफ्टिनेंट के तौर पर प्रोन्नति 15 नवंबर 1916 को मिली थी. उन्हें कनॉट्स ओन लांसर्स के 31वें ड्यूक के तौर पर जिम्मेदारी मिली जो पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में तैनात ब्रिटिश भारतीय सेना की एक बख्तरबंद रेजीमेंट थी. ये रेजीमेंट विभाजन के बाद पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गई थी.
तत्कालीन अन्य गजट लिस्ट से पता चलता है कि बाद में बुचर धीरे-धीरे अन्य शीर्ष पदों पर प्रोन्नत होते रहे. उन्हें 15 अगस्त 1918 को कैप्टन के तौर पर प्रोन्नत किया गया था और 1920 में एक सैन्य क्रॉस से सम्मानित किया गया, क्योंकि 1919 उन्होंने और लांसर्स ने तीसरे एंग्लो-अफगान युद्ध में हिस्सा लिया था.
वह दो साल के लिए ब्रिटिश सेना संचालित एक सैन्य प्रशिक्षण संस्थान स्टाफ कॉलेज में पढ़ाई होने के लिए 1926 में ब्रिटेन लौट आए.
विभिन्न गैजेट के मुताबिक, ग्रेजुएशन की पढ़ाई के बाद उन्हें डेक्कन क्षेत्र में ब्रिटिश भारतीय सेना में तैनात किया गया और 1932 और 1939 में क्रमश: मेजर और लेफ्टिनेंट-कर्नल के पद पर पदोन्नत हुए.
जब द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ा तब बुचर ने भारतीय सेना के लिए ही अपनी सेवाएं जारी रखीं लेकिन 1941 में कुछ समय के लिए इराक में भी तैनात रहे.
युद्ध खत्म होने के बाद बुचर को जनरल ऑफिसर कमांडिंग बंगाल और असम क्षेत्र के रूप में नियुक्त किया गया और 1946 में पूर्वी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडर-इन-चीफ बने.
आजादी के बाद 1948 में वह भारत के दूसरे सेना प्रमुख के पद पर पदोन्नत हुए. उन्होंने 1949 में सेवानिवृत्ति तक इस पद पर ही कार्य किया. वह सेना के अंतिम ब्रिटिश प्रमुख थे, क्योंकि उसके बाद यह पद के.एम. करियप्पा ने संभाला था.
बुचर की सेवानिवृत्ति के बाद के जीवन के बारे में अपेक्षाकृत कम ही जानकारी उपलब्ध है, सिवाय 1970 के दशक की शुरुआत में उनकी फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के साथ बैठकों को छोड़कर, जो बुचर के सैन्य प्रमुख के कार्यकाल के दौरान एक अहम व्यक्ति थे.
एक ऑनलाइन स्रोत पर उनके गांव और उसके निवासियों के इतिहास पर केंद्रित जानकारी के मुताबिक, 5 जनवरी 1980 को रॉय बुचर का 84 वर्ष की आयु में उत्तरी यॉर्कशायर के नॉर्मनबी गांव में निधन हो गया, जहां वह अपनी पत्नी मौरीन के साथ रहते थे.
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