भारतीय सेना में सोल्जर/एअर वारियर/सेलर आदि की भर्ती की विवादास्पद ‘अग्निपथ’ योजना का व्यापक विरोध और उससे निपटने की सरकार और सेना की कार्रवाइयां पिछले दस दिनों से सुर्खियों में हैं. नरेंद्र मोदी सरकार की इस योजना के तहत सेना में अनुबंध के आधार पर अल्प अवधि के लिए युवाओं की भर्ती की जाएगी. इस सरकार का दूसरा विवादास्पद फैसला, जो चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) की ‘डीप सेलेक्शन’ के जरिए नियुक्ति और उसके चार्टर में संभावित सुधार के बारे में था उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है.
मोदी सरकार ने 7 जून को एक अधिसूचना जारी की, जिसके अनुसार 62 साल से कम उम्र वाले सभी सेवारत तथा सेवानिवृत्त थलसेना/वायुसेना/नौसेना अध्यक्ष और लेफ़्टिनेंट जनरल सीडीएस के पद पर नियुक्ति के लिए योग्य माने जाएंगे. यह फैसला सेना में पदक्रम में वरिष्ठता, रैंक और हैसियत में दखल देता है. इसकी आलोचना कई सेना विशेषज्ञों और पूर्व सैनिकों ने की है और इसे सीडीएस के पद पर ‘सियासी जनरलों’ की नियुक्ति का रास्ता बनाने के अलावा भारतीय सेना में सुस्थापित कमांड एवं कंट्रोल सिस्टम को कमजोर करने वाला बताया है.
मेरा पक्का विश्वास है कि सेना के नेतृत्व के मैदान में ‘समान पद वालों में से एक अव्वल’ होता ही है, और युद्ध की तरह सेना में भी परिवर्तन के लिए ‘सीनियर-मोस्ट’ नहीं बल्कि ‘सबसे प्रतिभाशाली’ जनरल की ही पूछ होती है. इसलिए मोदी सरकार के सामने चुनौती ‘उस व्यक्ति’ को निष्पक्ष, पारदर्शी, और नीतिसम्मत तरीके से खोज निकालने की है.
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सरकार के विशेषाधिकार
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सीडीएस और तीनों सेनाओं के अध्यक्षों का चयन करना राजनीतिक सत्ता का विशेषाधिकार होता है. वैसे, रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री शीर्ष कमांडरों से सीधे संवाद नहीं करते हैं इसलिए उन्हें उनके बारे में कम ही जानकारी होती है. सरकार को मजबूरन सेना में कर्मियों के मूल्यांकन व्यवस्था (अप्रेजल सिस्टम) के तहत खुफिया ब्यूरो की सूचनाओं, प्रचलित छवि, और राजनीतिक रुझान के आधार पर रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा भेजे गए डॉसियरों की अस्पष्ट तुलनाओं पर भरोसा करना पड़ता है. इस दृष्टि से, तमाम सरकारें आम तौर पर ‘सीनियॉरिटी-व-मेरिट’ के सिद्धांत का पालन करना पड़ता है, यानी काफी वरिष्ठ अधिकारियों के मामले में मेरिट (योग्यता) को समान/सापेक्ष मानते हुए जब सीनियरिटी (वरिष्ठता) को प्राथमिकता दी जाती है.
जब तक ‘मेरिट-व-सीनियॉरिटी’ यानी उम्मीदवारों की वरिष्ठता को समकक्ष मानते हुए योग्यता को प्राथमिकता देने के सिद्धांत पर आधारित चयन के लिए पारदर्शी एवं नीतिसम्मत व्यवस्था नहीं बनाई जाती तब तक यह माना जाएगा कि ‘सीनियरिटी-व-मेरिट’ के सिद्धांत में हस्तक्षेप दरअसल राजनीतिक दखलंदाज़ी है और सेना के आलाकमान को सरकार का चहेता माना जाएगा.
नयी सरकारी अधिसूचना के तहत, 62 साल से कम उम्र के करीब 150 सेवारत और 50 सेवानिवृत्त ले.जनरल और तीनों सेनाओं के अध्यक्ष सीडीएस पद के लिए योग्य उम्मीदवार बन गए हैं. सबसे जूनियर ले.जनरल और सबसे सीनियर सेना अध्यक्ष की उम्र में करीब 6-7 साल का अंतर होगा.
मोदी सरकार ने भारतीय सेना में आर्मी कमांडरों/ समकक्षों के अप्रेजल/सेलेक्शन सिस्टम और तीनों सेनाओं के अध्यक्षों (जो नियुक्ति/दर्जे के हिसाब से ले.जनरलों से सीनियर होते हैं) के चयन की उसकी अपनी व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा दिया है. अगर लक्ष्य ‘डीप सेलेक्शन’ ही था तो पैनल को करीब 25 आर्मी कमांडरों/समकक्षों और तीनों सेनाध्यक्षों तक सीमित किया जा सकता था.
अभी तक, तीनों सेनाध्यक्षों और सीडीएस की नियुक्तियां बिना किसी विशिष्ट कसौटी, योग्यता या शिक्षा संबंधी अपेक्षाओं के की जाती हैं. रक्षा मंत्री सेना के आर्मी कमांडरों/समकक्षों और तीनों सेनाध्यक्षों का कोई विस्तृत ‘अप्रेजल’ नहीं करते. कहने की जरूरत नहीं कि मौजूदा स्थितियों में अगर तीनों सेनाध्यक्षों और सीडीएस का चयन अगर ‘मेरिट’ के आधार पर किया जाएगा तो वह व्यक्तिनिष्ठ ही होगा.
ले.जनरलों और आर्मी कमांडरों/समकक्षों (जो अब सीडीएस पद के दावेदार बन गए हैं) तक के अधिकारियों का चयन जिस ‘आर्म्ड फोर्सेज़ अप्रेजल सिस्टम’ के तहत किया जाता है उसमें खुद सुधार करने की जरूरत है. किसी भी अप्रेजल सिस्टम की वस्तुनिष्ठता चरित्र एवं नैतिकता के प्रचलित मानदंडों से निर्धारित होती है.
सेना में लागू मौजूदा अप्रेजल सिस्टम व्यक्तिनिष्ठता, मूल्यांकन करने वालों के चरित्र की खामियों (जो नैतिक साहस को कमजोर करती है) से और रेजीमेंट/आर्म/एसोसिएशन से संबंधित संकीर्णता से ग्रस्त है. इसके कारण ‘एनुअल कॉन्फीडेन्शियल रिपोर्टों’ में बढ़ोत्तरी हुई है और सीमित संख्या में उपलब्ध वरिष्ठ पदों के लिए ‘योग्य अधिकारियों’ की बाढ़ आ गई है. सेना में सच्ची योग्यता के ऊपर सवालिया निशान लग गया है. आदर्श हाउसिंग घोटाले में तीनों सेनाध्यक्षों और बड़ी संख्या में वरिष्ठ अधिकारियों की भूमिका इसे सिद्ध करती है. राहत की एक मात्र बात यह है कि यह सबके ऊपर समान रूप से लागू है.
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पिछला अनुभव
विवादों को छोड़ दें तो ऐसे भी उदाहरण हैं कि अपेक्षाकृत जूनियर प्रतिभाशाली अधिकारियों को भारत और दूसरे देशों में भी सेना के ऊंचे पदों पर नियुक्त किया गया. भारत में तीनों सेनाओं के अध्यक्षों की नियुक्ति के मामले में ऐसा थलसेना में तीन बार, नौसेना में दो बार और वायुसेना में एक बार हुआ है. अमेरिका के राष्ट्रपति तक बनने वाले जनरल ड्वाइट आइज़ेनआवर इसके एक उल्लेखनीय उदाहरण हैं.
ऐसी नियुक्तियां पारदर्शिता तथा योग्य व्यक्ति के चयन की औपचारिक व्यवस्था के अभाव में विवादों में उलझ जाती हैं. जिन अधिकारियों को लांघकर (सुपरसीड करके) नियुक्ति की गई उन्होंने या तो इस्तीफा दे दिया या संगठन के हित में अथवा युद्ध के दौरान देश की खातिर इसे मंजूर कर लिया. वैसे, सीनियॉरिटी में मामूली अंतर था.
सीनियॉरिटी में बड़े अंतर से या सेवारत सेनाध्यक्ष को सुपरसीड करने से भारी उथलपुथल मच सकती है और सेना के मनोबल पर उलटा असर पड़ सकता है. ज्यादा परेशानी किसी सेवारत सेनाध्यक्ष को सुपरसीड करके सेवानिवृत्त ले.जनरल को नियुक्त करने से हो सकती है, भले ही वह कमीशन किए जाने की तारीख के मुताबिक मूलतः सीनियर क्यों न रहा हो. अगर सेनाध्यक्षों में आत्मसम्मान होगा तो वे सरकार को शर्मिंदा करते हुए इस्तीफा दे देंगे.
अब तक भारत में किसी सेवानिवृत्त अधिकारी को सेवा में वापस बुलाकर सेना के सर्वोच्च पद पर नियुक्त नहीं किया गया है. 1962 की लड़ाई के बाद, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जनरल एस.पी.थोराट को वापस बुलाकर सेनाध्यक्ष बनाने पर विचार कर रहे थे लेकिन अंततः उन्हें नेशनल डिफेंस काउंसिल का सदस्य ही नियुक्त किया था. वैसे, सेवानिवृत्त अधिकारियों को डिप्टी एनएसए, एनएससी के सैन्य सलाहकार, नेशनल सिक्युरिटी एड्वाइजरी बोर्ड के सदस्य और अब रक्षा मंत्रालय के सलाहकार के पदों पर जरूर नियुक्त किया गया है.
दूसरे देशों की सेनाओं में भी सीनियर अधिकारियों को सक्रिय सेवा में वापस बुलाकर सेना के ऊंचे पदों पर नियुक्त करने का उदाहरण अपवाद जैसा ही है. अमेरिका में जनरल डगलस मैकऑर्थर, जनरल मैक्सवेल टेलर और जनरल पीटर जे. शूमाकर इसके प्रमुख उदाहरण हैं.
सेवानिवृत्त अधिकारियों को वापस बुलाकर सेना के सर्वोच्च पद पर बिठाने से यह सवाल खड़ा होता है कि जब वह सेवा में थे तब डीप सेलेक्शन प्रक्रिया के तहत या जरूरत पड़ने पर ‘अक्षम वरिष्ठ अधिकारियों’ को बर्खास्त करके सर्वोच्च पद पर क्यों नहीं नियुक्त किया गया? पिछले आठ साल में राजनीतिक नेतृत्व सेनाओं के असाधारण नेतृत्व का यशोगान करता रहा है. अब अगर उसी नेतृत्व को अक्षम पाया जा रहा है तो यह अशुभ संकेत है.
आगे का रास्ता
ऐसा लगता है कि योग्यता शर्तों में बदलाव सीडीएस के इच्छित पद पर किसी खास सेवानिवृत्त ले.जनरल या आर्मी कमांडर को बिठाने के लिए किया गया है. ले.जनरल और उससे ऊपर के रैंक के 150 सेवारत और 50 सेवानिवृत्त अधिकारियों में से प्रतिभाशाली व्यक्ति की तलाश के लिए ‘डीप सेलेक्शन’ प्रक्रिया का पेंच एक पहेली ही है.
मोदी सरकार के लिए बेहतर यही होगा कि वह सीडीएस पद के लिए योग्यता की शर्तें तय कर दें और सेलेक्शन पैनल को सिर्फ सेनाध्यक्षों तक सीमित कर दें. पिछले आठ साल में उसने सेनाध्यक्षों की नियुक्ति में योग्यता आधारित डीप सेलेक्शन प्रक्रिया के विकल्प को तीन बार अपनाया. अगर उसे इसमें यकीन नहीं है और वह अपने ही चयन मानदंडों को नीचा दिखाना चाहती है तो पैनल में सभी सेवारत आर्मी कमांडरों/ समान रैंक वालों को भी शामिल कर लें.
वह रक्षा मंत्री के नेतृत्व में एनएसए, सेवानिवृत्त सेनाध्यक्षों और कैबिनेट सचिवों की सदस्यता वाली विशेष कमिटी का गठन कर सकती है. यह कमिटी सभी डॉसियरों की जांच करे, उम्मीदवारों की साख के बारे में चर्चाओं का संज्ञान ले और अधिकारियों का इंटरव्यू लेकर प्राथमिकता क्रम से तीन नामों की सूची तैयार करे. अंतिम फैसला सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी पर छोड़ दिया जाए.
दीर्घकालिक रूप से, सेनाओं को अपने अप्रेजल सिस्टम में सुधार करना होगा और सभी सेलेक्शन पदों के लिए योग्यता पर आधारित ‘डीप सेलेक्शन’ प्रक्रिया को लागू करना होगा. मोदी सरकार सीडीएस और तीनों सेनाध्यक्षों के चयन के लिए मेरिट-व-सीनियॉरिटी के सिद्धांत पर आधारित एक पारदर्शी एवं नीतिसम्मत प्रक्रिया निर्धारित करे. सेना के सर्वोच्च पद को जैसे-तैसे भरने के लिए सेवानिवृत्त अधिकारियों के बीच व्यक्ति की तलाश करना सेवा कर रहे सैन्य नेतृत्व का अपमान है, और यह सरकार की चयन प्रक्रिया का मखौल उड़ाना ही है.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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