नई दिल्ली: उन्नीस वर्षीय सिग्नल ऑफिसर ब्रेट चाने ने रिकॉर्ड किया है, ‘तीन विशाल राक्षसनुमा मशीनें धीरे-धीरे हमारी ओर बढ़ रही थीं, जिन्हें हमने पहले कभी नहीं देखा था. 30 टन के ये राक्षस कुछ और नहीं, टैंक थे जिनके किनारों पर दो तोपें लगी थीं. केवल तीन मील प्रति घंटे की रफ्तार से चलने में सक्षम इन टैंकों की पहली झलक 1916 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सोमे की खूनी जंग के मैदान में दिखी थी. ऐसा लग रहा था कि वे बैठकर आगे बढ़ रहा कोई विशाल राक्षस है जिसकी नाक ऊपर हवा में उठी हुई है. वे हमारे खंदकनुमा सैन्य मोर्चे तबाह करते चल रहे थे.’
तबसे पिछली एक सदी के दौरान टैंक अनगिनत सफल सैन्य अभियानों के सबसे आगे रहे हैं लेकिन यूक्रेन में जारी जंग के दौरान कई मौकों पर घातक क्षति ने युद्ध के मैदानों का राजा कहलाने वाले टैंकों की साख को काफी नुकसान पहुंचाया है. कुछ लोगों ने तो मात्र 30,000 डॉलर वाली मैन-पोर्टेबल मिसाइलों के वीडियो नहीं देखे होंगे जिन्होंने 1.25 मिलियन डॉलर कीमत वाले टी-72 टैंकों के बुर्ज उड़ा दिए. रूसी बख्तरबंद वाहनों के खिलाफ इस्तेमाल तुर्की और इजरायल के ड्रोन भी घातक क्षति पहुंचाते नजर आए हैं. 2020 के आर्मेनिया-अजरबैजान युद्ध के दौरान भी टैंकों को काफी क्षति पहुंची थी.
इस माह के शुरू में भारतीय सेना के प्रमुख के तौर पर पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद जनरल मनोज पांडे ने पत्रकारों के एक समूह के साथ बातचीत के दौरान कहा कि यूक्रेन की जंग वास्तव में यह बताती है कि अभी भी पारंपरिक युद्ध संभव हैं और भविष्य में ऐसी जंग जारी रहेंगी. ऐसे में पारंपरिक युद्ध में इस्तेमाल होने वाले टैंक और तोपखाने जैसे हथियार अभी भी प्रासंगिक हैं.
हालांकि, दुनियाभर की सेनाओं में इस बात को लेकर जोरदार बहस चल रही है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के मद्देनजर टैंकों का भविष्य कैसा नजर आ रहा है. इजरायल, अमेरिका, ब्रिटेन और पोलैंड उन देशों में शुमार है, जहां इस पर गहन मंथन चल रहा है. यूनाइटेड स्टेट्स मरीन्स ने टैंकों से किनारा कर लिया है, उनकी सेना अब भी अब्राम टैंकों के नाम पर कसम खाती है. तो, क्या टैंकों का भविष्य धूमिल हो चुका है? क्या टैंकों ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है? टैंकों में निवेश करना क्य भारत के लिए कोई मायने रखता है?
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टैंकों के भविष्य पर बहस जारी
भारत ने टैंकों के साथ अपनी आखिरी बड़ी लड़ाई—असल उत्तर की चर्चित जंग—भले ही 1965 में लड़ी थी लेकिन अब भी ऑपरेशनल योजनाओं में बख्तरबंद वाहन एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. भारत में तीन अलग-अलग तरह के लगभग 3,500 टैंक ऑपरेशनल हैं. इनमें दो टी-90 और टी-72 रूसी मूल के हैं. तीसरी श्रेणी में आने वाला अर्जुन मुख्य युद्धक टैंक या एमबीटी स्वदेश में डिजाइन और निर्मित किया गया है. इस साल के शुरू में सेना ने 118 और अर्जुन टैंकों का ऑर्डर दिया है और अगली पीढ़ी के टैंकों में शामिल 1,700 से अधिक फ्यूचर रेडी कॉम्बैट व्हीकल या एफआरसीवी खरीदने की भी योजना है. वास्तविक नियंत्रण रेखा की सुरक्षा के लिए हल्के टैंकों की मांग की जा रही है.
सेना की जरूरतों में बताया गया है कि एफआरसीवी को न केवल दुश्मन के टैंक और बख्तरबंद वाहनों से मुकाबला करने बल्कि मानव रहित हवाई वाहनों (यूएवी) से निपटने में भी सक्षम होना चाहिए. साथ ही हमलावर हेलीकॉप्टरों को रोकने या नष्ट करने के लिहाज से भी कारगर होना चाहिए. इस तरह से एफआरसीवी कई तरह के विमान-रोधी हथियारों से लैस होगा और इसमें रिमोटली कंट्रोल वीपन स्टेशन भी होंगे.
कुछ लोगों को ये प्रोग्राम मेजर-जनरल जॉन हेर की याद दिलाता है, जो अमेरिका के आखिरी अश्वारोही सेना प्रमुख थे, और जिन्होंने पोलैंड और फ्रांस के खिलाफ बख्तरबंद नाजी फौजों द्वारा टैंकों और लड़ाकू विमानों का उपयोग किए जाने के बाद भी जंग के मैदान में घोड़े के इस्तेमाल की अहमियत पर जोर दिया था.
पूर्व सेना प्रमुख जनरल एम.एम. नरवणे ने मार्च 2020 में कहा था कि ‘20वीं सदी की सैन्य पहचान’ रहे टैंक और लड़ाकू विमान अब अपनी उपयोगिता खोते रहे हैं. ठीक उसी तरह जैसे म्यूजिक सुनने की नई टेक्नोलॉजी के आगे सोनी वॉकमैन बेमानी हो गया है. उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि टैंकों के साथ आखिरी बड़ी लड़ाई—जिसमें दो सेनाओं की बख्तरबंद टुकड़ियों ने तोपखाने और वायु सेना की मदद से एक-दूसरे के खिलाफ निशाना साधा—1973 में गोलन की पहाड़ियों पर अरब-इजरायल युद्ध के दौरान लड़ी गई थी.
हालांकि, कई अन्य विशेषज्ञों के लिए टैंकों के मृतप्राय होने के तर्क को लेकर चिंता जताना कोई नई बात नहीं है. जैसा बख्तरबंद-कोर के पूर्व अधिकारी मेजर-जनरल जगतबीर सिंह ने 2020 में कहा था, ‘टैंकों के अंत की भविष्यवाणी तो 1950 के दशक में भी की गई थी जब एटीजीएम यानी एंटी-टैक गाइडेड मिसाइलों को इनके लिए खतरा माना जा रहा था.
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दोषपूर्ण रूसी रणनीति?
भारतीय रक्षा और सुरक्षा प्रतिष्ठान से जुड़े सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि बिना किसी उद्देश्य के साथ दागे गए गोला-बारूद—जो किसी लक्ष्य को भेदे बिना काफी समय तक हवा में मौजूद रह सकते हैं—और ड्रोन टैंकों के लिए नई चुनौतियां बन रहे हैं. हालांकि, कई लोगों ने यूक्रेन में रूस के बख्तरबंद वाहनों को पहुंची क्षति के लिए खराब योजना और ऑपरेशनल रणनीति को भी जिम्मेदार ठहराया. एक सैन्य अधिकारी ने कहा, ‘रूसी टैंक, जिनमें से अधिकांश पुराने और कम मजबूत टी-72 थे, बिना किसी वायु रक्षा प्रणाली या हवाई समर्थन के ही यूक्रेन में दाखिल हो गए थे.’
पूर्व वेस्टर्न आर्मी कमांडर और सेवानिवृत्त आर्मर्ड कोर के अधिकारी लेफ्टिनेंट-जनरल के.जे. सिंह रूसी रणनीति को दोषपूर्ण मानते हैं. उन्होंने कहा कि असुरक्षित तरीके से बड़ी संख्या में कतारबद्ध होने के कारण यूक्रेनियन के लिए रूस के पहले से लेकर आखिरी टैंक तक को निशाना बनाना आसान हो गया और इससे तबाही मच गई.
जनरल सिंह ने कहा, ‘एक युवा सैनिक के तौर पर मुझे हमेशा सिखाया गया था कि दो टैंक एक-दूसरे से कम से कम 500 मीटर की दूरी पर होने चाहिए लेकिन रूसियों ने उन्हें एक के बाद एक सड़क पर निकाल दिया. यह एक बड़ी गलती थी.’
एक सेवारत सैन्य सूत्र ने तर्क दिया कि रूसियों की तरफ से अपनाई गई रणनीति और समय ने उनकी मुश्किलें बढ़ाई हैं. उन्होंने कहा, ‘लगता है कि रूस ने चीन की तरफ से आयोजित शीतकालीन ओलंपिक के कारण अपने अभियान की मूल तिथियों को आगे बढ़ा दिया था. वैसे तो यूक्रेन टैंक युद्ध के लिहाज से बेहद उपयुक्त मोर्चा है लेकिन जब तक रूसी आगे बढ़े, तब तक बर्फ पिघलनी शुरू हो चुकी थी और उसके काली मिट्टी के साथ मिल जाने की वजह से टैंकों के आगे बढ़ना मुश्किल हो गया और वे लगभग एक साथ सड़कों पर आ गए.’
अन्य सेवारत अधिकारियों ने भी दिप्रिंट को बताया, रूसियों ने कई सामरिक गलतियां भी कीं. वे मैकेनाइज्ड इन्फैंट्री, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणालियों और एयर डिफेंस सिस्टम के पर्याप्त समर्थन के बिना ही अपने अपने बख्तरबंद वाहनों को आगे ले गए. यही नहीं कम्युनिकेशन भी रूसी सैनिकों के लिए एक बाधा साबित हुआ, उन्होंने संवाद के लिए मोबाइल फोन इस्तेमाल किए जिन्हें इंटरसेप्ट करना दुश्मन के लिए आसान था.
रूस की सबसे बड़ी नाकामी लॉजिस्टिक संबंधी रही. उनके योजनाकार ये सुनिश्चित करने में नाकाम रहे कि बख्तरबंद टुकड़ियों को पर्याप्त ईंधन और रखरखाव की सुविधा मिल सके. सूत्रों ने बताया कि इसी का नतीजा है कि रास्ते में अटके बख्तरबंद वाहन दुश्मन के लिए आसान निशाना बन गए.
क्या भारत की जंग में कारगर होंगे टैंक?
हालांकि, भविष्य में भारत के संभावित युद्धों के दौरान टैंकों की प्रासंगिकता पर विशेषज्ञों की राय अलग-अलग है. मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस के रिसर्च फेलो और सेवानिवृत्त इन्फैंट्री अधिकारी कर्नल विवेक चड्ढा कहते हैं, ‘भविष्य में टैंक अभी घातक और आक्रामक फैक्टर बने रहेंगे.’ कर्नल चड्ढा ने आगे कहा, ‘असली सवाल यह है कि हम भविष्य में किस तरह के युद्धों की परिकल्पना करते हैं और बख्तरबंद वाहन कैसे तैनात करेंगे.’
कर्नल चड्ढा ने कहा कि यह देखते हुए कि पाकिस्तान और चीन दोनों के पास टैंक हैं और उसमें कई भारत में मौजूद श्रेणी के ही हैं. ये भविष्य में संभावित किसी जंग में अहम भूमिका निभा सकते हैं लेकिन उनका तर्क है कि चीन या पाकिस्तान के साथ संघर्ष में टैंकों के प्रमुख भूमिका निभाने की संभावना कम ही है.
हालांकि, लेफ्टिनेंट जनरल के.जे. सिंह ने कहा कि टैंकों के डिजाइन में बदलाव उनके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण होगा. उन्होंने कहा, ‘टैंकों को सामने से हमले झेलने के लिए डिजाइन किया गया है. हालांकि, अजरबैजान-आर्मेनिया और रूस-यूक्रेन संघर्ष दोनों ने यह दिखाया है कि ऊपर से किए गए हमले टैंकों के लिए घातक साबित हुए हैं जिनके लिए इन्हें डिजाइन ही नहीं किया गया है.’ उन्होंने कहा कि टैंकों के लिए बेहतर एयर डिफेंस सिस्टम और सक्रिय प्रोटेक्टिव सिस्टम की आवश्यकता होगी.
एक पूर्व इन्फैंट्री सैनिक लेफ्टिनेंट-जनरल के.एच. सिंह की नजर में भी बख्तरबंद और मैकेनाइज्ड फोर्स अभी प्रासंगिक है. उन्होंने कहा, ‘निश्चित तौर पर टैंक अभी प्रासंगिक है. इसके लिए एयर डिफेंस और एंटी ड्रोन सिस्टम को अपग्रेड करने की जरूरत है.’ हालांकि, राजपूत रेजिमेंट के सेवानिवृत्त अधिकारी ने माना की बख्तरबंद वाहनों के मामले में अपनाई जाने वाली रणनीति के ‘गहन पुनरावलोकन’ की आवश्यकता है.
उन्होंने कहा, ‘पाकिस्तान और चीन दोनों के पास बड़ी संख्या में टैंक हैं और इसलिए भारत के लिए टैंक प्रासंगिक होंगे. बेशक, युद्ध के विभिन्न पहलुओं में टेक्नोलॉजी हावी हो चुकी है लेकिन किसी भी युद्ध का उद्देश्य दुश्मन का विनाश करना ही होता है और उसके लिए टैंक, तोपखाने, लड़ाकों और लंबी दूरी की मिसाइलें चाहिए होती हैं. अंतत: सफलता के साथ जीत हासिल करने के लिए आपको बख्तरबंद वाहनों और इन्फैंट्री की जरूरत पड़ती है.
पूर्व नॉर्दन आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट-जनरल डी.एस. हुड्डा ने डिजाइन में बदलाव की जरूरत से सहमति जताई लेकिन कहा कि रणनीति और तैनाती उस इलाके पर निर्भर करेगी जहां टैंक इस्तेमाल किए जाते हैं. उन्होंने तर्क दिया, ‘रेगिस्तान में बख्तरबंद की भूमिका महत्वपूर्ण होती है क्योंकि वहां इसके इस्तेमाल के लिए जगह होती है लेकिन लद्दाख में स्थिति एकदम अलग है.’ जनरल हुड्डा की राय में लद्दाख के लिए एंटी टैंक सैन्य उपकरण ज्यादा उपयोगी होंगे.
पूर्व सैन्य अधिकारी ने कहा कि लद्दाख में भारत के लिए टैंकों के बजाए टैंक रोधी हथियार ज्यादा जरूरी हैं क्योंकि ये टैंक बनाम टैंक की तुलना में ज्यादा बेहतर भूमिका निभाएंगे. उन्होंने कहा, ‘हमें इस पूरी अवधारणा पर पुनर्विचार करने की जरूरत है कि बख्तरबंद वाहनों क उपयोग कैसे किया जाएगा और हम उन्हें अन्य हथियारों के साथ कैसे समन्वित कर सकते हैं.’
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