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Thursday, 25 April, 2024
होमडिफेंसतेजस का रिकॉर्ड दुनिया में सबसे बेहतरीन, इसकी आलोचना दुर्भाग्यपूर्ण है- IAF के रिटायर्ड अफसर ने कहा

तेजस का रिकॉर्ड दुनिया में सबसे बेहतरीन, इसकी आलोचना दुर्भाग्यपूर्ण है- IAF के रिटायर्ड अफसर ने कहा

इस रविवार को अपने 80 साल पूरे करने वाले एयर मार्शल फिलिप राजकुमार (सेवानिवृत्त) फरवरी 2020 में हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) तेजस की उड़ान भरने के साथ इस विमान को उड़ाने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति बन गये थे.

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नई दिल्ली: इस रविवार को अपने 80 वसंत पूरे करने वाले एयर मार्शल फिलिप राजकुमार (सेवानिवृत्त) के लिए पिछले साल फरवरी 2020 में स्वदेशी लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एलसीए) तेजस में उड़ान भरना एक ऐसा उल्लेखनीय अनुभव था जिसे वह हमेशा अपने जेहन में संजो कर रखेंगे.

इसलिए नहीं कि यह सेवानिवृत्त वायुसेना अधिकारी, जो उस समय 78 वर्ष के थे, तेजस को उड़ाने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति बने गये थे, बल्कि इसलिए भी क्योंकि उन्होंने इस विमान का ड्राइंग बोर्ड पर पहला डिज़ाइन बनने के दिनों से लेकर इस विमान के एक पूरी तरस से उड़ान भरने में सक्षम होने तक का पूरा सफ़र देखा था.

तेजस के एक परीक्षण पायलट के रूप में, वह इस लड़ाकू विमान की पहली 98 उड़ानों में इसकी हॉट सीट (पायलट की सीट) पर बैठे थे.

हाल हीं में दिप्रिंट को दिए गये एक साक्षात्कार में एयर मार्शल राजकुमार ने बताया, ‘तेजस एक शानदार विमान है और यह दुनिया का अब तक का सबसे अच्छे फ्लाइट रिकॉर्ड वाला विमान है. इसने अपने विकास के क्रम में बिना किसी दुर्घटना के 5,000 से भी अधिक उड़ानें भरी हैं.‘

राजकुमार, जिन्हें भारतीय वायु सेना में 1962 में पायलट के रूप में शामिल किया गया था और 2001 में इससे सेवानिवृत्त हुए थे, को भारतीय वायुसेना के सबसे अनुभवी परीक्षण पायलटों में से एक माना जाता हैं.

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सितंबर 1994 में, जब वे वायु सेना मुख्यालय में एडिशनल असिस्टेंट चीफ ऑफ एयर स्टाफ (ऑपरेशन्स) थे, राजकुमार को एरोनाटैकल डेवेलपमेंट एजेन्सी (एडीए) – जो रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के तहत 1984 में गठित एक स्वायत्त एजेंसी है- में भेजा गया था ताक़ि वे एलसीए की परीक्षण उड़ानों की निगरानी कर सकें.

उन्हें पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए.पी.जे. अब्दुल कलाम – जो उस समय प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार और एडीए के महानिदेशक थे – के द्वारा निजी तौर पर चुना गया था. आगे चलकर राजकुमार एडीए के निदेशक बन गए और अपने सेवानिवृत्ति होने तक वे इसी पद पर रहे.

इस सेवानिवृत्त अधिकारी ने तेजस के परीक्षण की ज़िम्मेदारी उठाने वाले एडीए निदेशालय के बारे में बताते हुए कहा, ‘मैंने 1994 से 2003 तक एडीए में अपने सेवा दी जिसके दौरान मैंने राष्ट्रीय उड़ान परीक्षण केंद्र (नेशनल फ्लाइट टेस्ट सेंटर) की स्थापना की.’

राजकुमार, जिन्होंने ‘पत्रकार बी.आर. श्रीकांत के साथ मिलकर ‘एलसीए – रेडियंस इन इंडियन स्काई – द तेजस सागा’ के शीर्षक से एक किताब भी लिखी है – ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि यह लड़ाकू जेट विमान लगातार एक खास तरह के निंदा अभियान का लक्ष्य रहा है.’

उनका कहना है कि भारत के द्वारा हाल ही में खरीदे गये लड़ाकू विमान राफेल सहित दुनिया के कुछ सबसे अच्छे लड़ाकू विमानों के विकास की समयसीमा भी कुछ इसी तरह की थी साथ हीं उन्होने यह भी कहा कि तेजस के प्रति लक्षित आलोचना काफ़ी हद तक ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ है.


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‘तेजस के विकास में देरी होने की धारणा ग़लत है’

श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन भारत सरकार, ने 1983 में हीं रूसी मिग-21 का स्थान लेने के उद्देश्य से एक नया एलसीए विमान की एक परियोजना शुरू की थी. उस समय की योजना के अनुसार इस नए विमान की पहली उड़ान को 1994 तक अंजाम देना था, परंतु एलसीए के पहले प्रोटोटाइप ने 2001 में पहली उड़ान भरी थी. यही वह समय था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक एलसीए विमान को ‘तेजस’ का नाम दिया था.

तेजस को दिसंबर 2013 में, इनिशियल ऑपरेशनल क्लियरेन्स (प्रारंभिक परिचालन मंजूरी) मिली और 2019 में भारतीय वायु सेना को इसके फाइनल ऑपरेशनल क्लियरेन्स (अंतिम परिचालन मंजूरी) वाला पहला विमान सौंपा गया.

इस साल की शुरुआत में, रक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी ने 83 तेजस विमान की खरीद के लिए 48,000 करोड़ रुपये के एक सौदे को मंजूरी दी, जिसमें इस विमान के मार्क 1 ए संस्करण वाले 73 विमानों की खरीद शामिल है. यह एलसीए विमानों के लिए सरकार द्वारा संचालित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को दिया गया पहला बड़ा ऑर्डर था.

हालांकि एडीए एलसीए कार्यक्रम की समन्वयक एजेंसी है, एचएएल इसके उत्पादन में उसका भागीदार है.

राजकुमार के अनुसार, ‘पूरे तेजस कार्यक्रम का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह था कि पूरी दुनिया में यह मीडिया और अन्य लोगों द्वारा सबसे अधिक आलोचना झेलने वाली परियोजना थी.’

इस तरह के आरोपों के विपरीत कि इस परियोजना पर काफ़ी अधिक धनराशि खर्च हुई है, राजकुमार ने कहा कि 1986 और 2020- जब तेजस के नौसैनिक संस्करण ने एक विमान वाहक पोत पर अपनी पहली लैंडिंग की – के बीच तेजस के विकास पर कुल मिलाकर 14,293 करोड़ रुपये खर्च किए गए.

वे कहते हैं, ‘यह प्रति वर्ष 400 करोड़ रुपये के आस-पास बैठता है. और यह भी देखें कि हमने तेजस कार्यक्रम से क्या हासिल किया है? अब हमारे पास एक विश्व स्तरीय सिंगल-इंजन फाइटर (एक इंजन वाला लड़ाकू विमान) है. भविष्य की सभी परियोजनाएं, जिसमें पांचवीं पीढ़ी की एक डेक-आधारित ट्विन-इंजन फाइटर (दो इंजन वाले लड़ाकू विमान) और तेजस एमके- 2 भी शामिल हैं, इस कार्यक्रम के दौरान हमने जो कुछ जानकारी हासिल किया है उसी पर आधारित होगी.‘

इस लड़ाकू विमान के विकास में हुई कथित देरी की आलोचना के बारे में पूछे जाने पर राजकुमार ने कहा कि यह एक गलत धारणा है. उन्होंने कहा, ‘हर कोई इसका समय काल 1983 से गिनता है, जब इंदिरा गांधी ने इस स्वदेशी लड़ाकू के निर्माण की योजना को मंजूरी दी थी. हालांकि इस परियोजना के डेफिनिशन फेज को पूरा करने के लिए 500 करोड़ रुपये 1986 में आवंटित किए गए थे.’

उन्होंने आगे बताया, ‘इसके बाद फ्रांसीसी कंपनी डसॉल्ट एविएशन को इसमें शामिल किया गया और उन्हें इसके लिए एक बड़ी धन राशि का भुगतान किया गया था. उन्होंने अपना काम किया. सरकार के सामने यह योजना 1991 में प्रस्तुत की गई थी और 1993 में इसके प्रौद्योगिकी प्रदर्शक (टेक्नोलॉजी डेमोंस्ट्रेटर) प्रारूप के लिए 2,188 करोड़ रुपये की धन राशि आवंटित की गयी थी.’

उनका मानना है कि जिस तारीख से इस कार्यक्रम में लगी समय अवधि की गणना की जाती है, वह या तो तब की होनी चाहिए जब प्रौद्योगिकी प्रदर्शक ने अपनी पहली उड़ान भरी थी या जब इसके लिए 1993 में पहला भुगतान किया गया था.

दुनिया भर के अन्य लड़ाकू विमानों के साथ तेजस के विकास की समयरेखा की तुलना करने की मांग करते हुए, राजकुमार ने कहा कि जब 1980 के दशक में यूके द्वारा यूरोफाइटर परियोजना शुरू की गई थी, तो उन्होंने पहले से ही जगुआर विमान पर एक फ्लाई-बाय-वायर सिस्टम (जिसमें पारंपरिक मानवीय उड़ान नियंत्रण की जगह इलेक्ट्रॉनिक इंटरफ़ेस होता है) का परीक्षण कर लिया था.

उनका कहना है, ‘चार यूरोपीय देशों द्वारा मिलकर विकसित यूरोफाइटर पहली बार 2003 में सेवा में आया. पूर्व अनुभव और तकनीक उपलब्ध होने के बावजूद इस विमान को विकसित करने के लिए उन्हें लगभग 30 साल (फ्लाई-बाय-वायर सिस्टम का परीक्षण 1970 के दशक में किया गया था) लगे. इसी तरह का समय स्वीडिश फाइटर ग्रिपेन और यहां तक कि फ्रेंच फाइटर राफेल के लिए भी लगा.’

एयर मार्शल ने कहा कि जब भारत ने यह परियोजना शुरू की थी तो उसके पास आधुनिक लड़ाकू बनाने से सम्बंधित कोई तकनीक या अनुभव नहीं था.

वे कहते हैं, ‘हमने सब कुछ शुन्य से शुरू किया. हमने इसमें अमेरिकियों और फ्रांसीसियों को भी शामिल किया. मुझे अभी भी याद है कि 1990 के दशक के मध्य में एक परियोजना बैठक के दौरान, मैंने एक अमेरिकी अधिकारी से कहा था कि इस कमरे में मेरे सहित किसी का भी वेतन 1,000 डॉलर प्रति माह से ज्यादा नहीं है. यह सुनकर वह अमेरिकी अधिकारी हैरान रह गया.’

राजकुमार ने यह भी बताया कि पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद भारत पर लगाए गए प्रतिबंध भी उनके लिए एक बड़ी रुकावट थी, क्योंकि बाहर से दी जा रही सभी प्रकार की मदद, जिसमें तकनीकी जानकारी भी शामिल थी, वापस ले ली गई थी.

ज्ञात हो कि 1974 और 1998 में भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों द्वारा प्रतिबंध लगा दिए गए थे.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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