नई दिल्ली: आजादी के बाद से ही भारतीय वायु सेना (आईएएफ) ने ज्यादातर पश्चिमी महाशक्तियों से खरीदे गए लड़ाकू विमानों को ही अपने बेड़े में शामिल किया है. एकमात्र संयुक्त राज्य अमेरिका ही इसका उल्लेखनीय अपवाद रहा है.
इस अपवाद के बावजूद, भारतीय वायुसेना अपने बेड़े में कई सारी अमेरिकी उड़ान प्रणालियों का संचालन करती रही है. भारतीय वायुसेना द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला पहला हेलीकॉप्टर, सिकोरस्की एस-55, अमेरिकी ही था. वर्तमान में, आईएएफ अमेरिकी रक्षा समूह बोइंग द्वारा निर्मित एएच -64 अपाचे और सीएच-47 चिनूक जैसे अमेरिका निर्मित हेलीकॉप्टरों का संचालन करती है.
आईएएफ अमेरिका से ख़रीदे गए परिवहन सैन्य विमान का भी उपयोग करती है, इनमें लॉकहीड मार्टिन द्वारा निर्मित सी-130 हरक्यूलिस और बोइंग द्वारा निर्मित सी-17 विमान शामिल हैं. हालांकि, भारतीय वायुसेना के बेड़े के लिए किसी अमेरिकी फाइटर जेट (लड़ाकू विमान) को शामिल किया जाना अभी भी दूर की कौड़ी बनी हुई है.
इस बारे में दिप्रिंट के साथ बात करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि भू-राजनीति, सुरक्षा गठजोड़, अमेरिका से पाकिस्तान को लड़ाकू विमानों की गलत समय पर की गई बिक्री और इसकी वजह से उपजे भरोसे की कमी का संयोजन इस बात को बताता है कि भारतीय वायुसेना ने कभी भी किसी अमेरिकी लड़ाकू विमान को शामिल क्यों नहीं किया.
हाल ही में, अमेरिकी रक्षा उत्पाद समूहों ने अपने लड़ाकू विमानों की ओर भारत का ध्यान आकर्षित करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए हैं. इन अभियानों के तहत पारंपरिक और गैर-पारंपरिक दोनों तरह के तरीकों को शामिल किया गया है. भारतीय उद्योगपति रतन टाटा ने साल 2007 में बेंगलुरु में लॉकहीड के एफ-16 को उड़ाया भी था.
साल 2023 में, लॉकहीड ने आईएएफ के लिए एक विशेष तौर पर बनाया गया फाइटर – एफ-21- भी विकसित किया, जो बेंगलुरु में चल रहे एयरशो में मौजूद रहेगा.
इस तरह के पहलों के बावजूद, भारतीय वायुसेना अमेरिका निर्मित लड़ाकू विमानों को उड़ाने से दूर ही लगती है.
आईएएफ द्वारा लड़ाकू विमानों का अधिग्रहण
एशियन सर्वे जर्नल में राजू थॉमस लिखते हैं कि स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती वर्षों में, भारत ने ‘लो मिलिट्री प्रोफ़ाइल’ को प्राथमिकता दी हुई थी.
स्टॉकहोम इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पीस रिसर्च (सिपरी) के आंकड़े इस बात पर रौशनी डालते हैं कि भारत ने साल 1947 और 1962 के बीच रक्षा खर्च पर ‘सख्त नियंत्रण’ रखा हुआ था. 15 साल की इस समय अवधि में, भारत ने रक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का औसतन 2 प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं किया था.
फिर भी, इसी सीमित रक्षा खर्च के भीतर ही आईएएफ ने साल 1948 में ब्रिटैन में निर्मित 100 टेम्पेस्ट और स्पिटफायर विमान खरीदे थे. उसी वर्ष, इसने यूनाइटेड किंगडम से ‘डे हैविलैंड वैम्पायर फाइटर्स’ की एक अनिर्दिष्ट संख्या की डिलीवरी भी ली थी. साल 1953 में, फ्रांस से 71 डसॉल्ट-निर्मित एमडी-450 ऑरेगन लड़ाकू बमवर्षक भी खरीदे गए थे.
साल 1957 तक, एक अन्य ब्रिटिश-निर्मित लड़ाकू विमान, कैनबरा, भी भारतीय वायुसेना द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया था. मूल रूप से कहें तो, आजादी के बाद के पहले दशक में, आईएएफ ने ब्रिटेन और फ्रांस से तो लड़ाकू विमानों का अधिग्रहण किया, लेकिन अमेरिका से नहीं.
उड्डयन विशेषज्ञ अंगद सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘साल 1947 के बाद, भारत अभी भी ब्रिटिश हथियारों और विमानों पर निर्भर कर रहा था, क्योंकि इसे औपनिवेशिक युग वाले सैन्य ढांचे ही विरासत में मिले थे.’
गौरतलब है कि पाकिस्तान के साथ युद्ध छिड़ने के हालात को देखते हुए भारत को साल 1947 के बाद खुद को तीव्र गति से हथियारबंद करना पड़ा था. सिंह ने कहा कि इन हालात में ‘परिचितता’ को प्राथमिकता दी गई थी और भारत ने आजादी के बाद के शुरुआती दौर में इन लड़ाकू विमानों को खरीदने का फैसला किया था.
भारतीय विमानन इतिहासकार अंचित गुप्ता ने दिप्रिंट से कहा, ‘मूल रूप से, ब्रिटिश साम्राज्य की विरासत और भरोसे की कमी ने ही इस युग में अमेरिकी लड़ाकू विमानों के अधिग्रहण को रोका हुआ था.’
1960 का दशक एक निर्णायक दशक साबित हुआ जिसने भारतीय वायु सेना द्वारा अमेरिकी लड़ाकू विमानों को संचालित किये जाने की संभावना को और कम कर दिया तथा भरोसे की कमी में और बढ़ोत्तरी कर दी.
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भरोसे की कमी
एयर वाइस मार्शल (सेवानिवृत्त) मनमोहन बहादुर ने दिप्रिंट को बताया, ‘साल 1962 के चीन-भारत युद्ध से ठीक पहले, भारत ने लड़ाकू विमानों के लिए अमेरिका से संपर्क किया था. इसे अमेरिका से परिवहन विमान और राडार तो मिले, लेकिन कोई लड़ाकू विमान नहीं मिला.’
जैसा कि रक्षा मामलों के विद्वान एस. निहाल सिंह ने एक पत्रिका में लिखे गए अपने लेख में समझाया है, लगभग उसी समय, अमेरिका ने पाकिस्तान को 12 सुपरसोनिक (हवा की रफ़्तार से तेज चलने वाले) एफ-104 स्टारफाइटर दिए. यह महत्वपूर्ण बात थी क्योंकि इसने भारतीय उपमहाद्वीप में सुपरसोनिक लड़ाकू विमानों की शुरुआत को चिह्नित किया था.
वे आगे लिखते हैं कि भारत के लिए यह महत्वपूर्ण था, क्योंकि स्टारफाइटर, और साथ ही जो नॉन सुपरसोनिक एफ-86 सेबर पाकिस्तान के पास थे, भारत के पास मौजूद किसी भी चीज़ से कहीं बेहतर थे.
इतिहासकार गुप्ता ने कहा, ‘इसने न केवल भारत के लिए एक बड़ी सुरक्षा समस्या पैदा की, बल्कि इसने अमेरिका के इरादों के प्रति भरोसे की भारी कमी को भी पैदा कर दिया.’
इस परिदृश्य के साथ ही नई दिल्ली के सामने इन विमानों के अधिग्रहण की बराबरी और मुकाबला करने के लिए एक राजनीतिक ‘तात्कालिकता’ भी थी. सुरक्षा से जुड़े मामलों के लेखक पूषन दास ने कहा, ‘पाकिस्तान के एफ-104 लड़ाकू विमानों के साथ संतुलन हासिल करने के मकसद से मैक 1.5 या 2 की गति पकड़ने में सक्षम सुपरसोनिक लड़ाकू विमानों को हासिल करने की भारतीय इच्छा सरकार और राष्ट्र दोनों के भीतर बढ़ी.’
पाकिस्तान के बेहतर लड़ाकू विमानों और अमेरिका की स्पष्ट अनिच्छा ने भारत को सुपरसोनिक लड़ाकू विमानों की तलाश में किसी और दिशा में देखने के लिए प्रेरित कियाम और इसने सुपरसोनिक मिग-21 की खरीद के लिए तत्कालीन सोवियत संघ के साथ विचार-विमर्श करना शुरू किया.
साल 1961 की शुरुआत में ही इन लड़ाकू विमानों को खरीदने के लिए भारत द्वारा एक सौदे पर मुहर लगाने की ख़बरें सामने आई. साल 1962 में होने वाली अपेक्षित डिलीवरी में हुई कुछ देरी के बाद, भारत को सुपरसोनिक सोवियत मिग-21 लड़ाकू विमानों का पहला दस्ता साल 1964 में प्राप्त हुआ.
बहादुर ने कहा, ‘इससे सोवियत लड़ाकू विमानों के साथ भारत के जुड़ाव की शुरुआत हुई और फिर वे भारतीय वायुसेना के बेड़े पर हावी हो गए. एक तरह से मिग -21 की खरीद ने एक इन्फ्लेक्शन पॉइंट (निति रिवर्तन बिंदु) को चिह्नित किया. एक ओर जहां भारत और सोवियत संघ लड़ाकू विमानों के लिए एक गठबंधन में साथ आये, वहीँ दूसरी ओर अमेरिका और पाकिस्तान का साथ हुआ.
मिग -21 सौदा और सोवियत लड़ाकू विमानों की खरीद से जुड़े प्रोत्साहन
उस युग की भू-राजनीति भी कुछ इस तरह से सामने आई कि पाकिस्तान को अमेरिका तक बेहतर पहुंच प्राप्त थी. इस्लामाबाद अमेरिकी नेतृत्व वाले दो सुरक्षा गठजोडों – दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन (साउथ ईस्ट एशिया ट्रीटी आर्गेनाइजेशन – सीटो) और सेंट्रल ट्रीटी आर्गेनाइजेशन में शामिल हो गया था. बहादुर ने कहा कि इसके परिणामस्वरूप, उनकी अमेरिका के लड़ाकू विमानों और प्रौद्योगिकी तक पहुंच प्राप्त होने की अधिक संभावना थी.
हालांकि, सोवियत लड़ाकू विमानों के लिए भारत द्वारा किये गए निरंतर व्यापार सौदे कुछ निहित प्रोत्साहनों से जुड़े हुए थे. इसमें भारत में इन लड़ाकू विमानों के पुर्जों के लाइसेंस प्राप्त उत्पादन हेतु प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण, आसान भुगतान तंत्र, मुद्रा विनिमय, और रखरखाव तथा मरम्मत समझौते आदि शामिल थे.
विमानन विशेषज्ञ अंगद सिंह ने कहा, ‘साल 1960 के दशक में भारत की अनुभवहीन अर्थव्यवस्था और औद्योगीकरण की कमी के कारण, लड़ाकू विमानों के लिए आर्थिक रूप से विवेकपूर्ण सौदा किया जाना आवश्यक था. निश्चित रूप से, सोवियत संघ ने भारत को मिग-21 के लिए आर्थिक दृष्टि से सबसे अच्छे सौदे की पेशकश की थी.’
वे आगे कहते हैं कि इसी सौदे में इन विमानों के लाइसेंस प्राप्त उत्पादन का समझौता भी जोड़ा गया था, जिसने भारत को नासिक में मिग-21एफएल का उत्पादन करने में सक्षम बनाया. यह उस समय हमारी अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक था.
1960 के दशक में सोवियत संघ के साथ किये गए इस समझौते के परिणामस्वरूप ही भारत ने कुल मिलाकर 874 मिग 21 शामिल किए, जिनमें से 657 हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड द्वारा भारत में ही निर्मित किए गए थे.
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बैक टू द फ्यूचर
इसके बाद के दशकों में, भारत ने सोवियत संघ से मिग-29, मिग 27, मिग-23 और सुखोई एसयू 30 के विभिन्न प्रकारों सहित और अधिक लड़ाकू विमान खरीदना जारी रखा. ये सभी इनमें से कुछ लड़ाकू विमानों के भारत में निर्माण के समझौते के साथ ही आए थे.
इसके अलावा, हमारे देश ने अतीत की ही तरह पश्चिमी देशों से खरीदे गए लड़ाकू विमानों को शामिल करने के लिए अपने पोर्टफोलियो का विस्तार भी किया. इनमें मिराज 2000 और हाल ही में फ्रांस से आया राफेल तथा ब्रिटेन एवं फ्रांस द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित जगुआर की खरीद शामिल है. बाद में, सोवियत संघ के पतन के बाद, भारत ने रूस से भी लड़ाकू विमान खरीदे.
इस बीच, हालांकि भारत-अमेरिका संबंध घनिष्ठ आर्थिक और सुरक्षा संबंधों द्वारा चिह्नित एक रणनीतिक साझेदारी में बदल गया है, मगर फिर भी भारतीय वायुसेना द्वारा अमेरिकी फाइटर जेट की खरीद की संभावना कम ही लगती है.
एक रक्षा विशेषज्ञ ने दिप्रिंट को बताया, ‘भारत लंबे समय से अमेरिका निर्मित हेलीकॉप्टरों और ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट (परिवहन विमानों) का एन्ड यूजर (अंतिम उपयोगकर्ता) रहा है, लेकिन लड़ाकू विमानों का संचालन किया जाना एक पूरी तरह से अलग बात है.’
इसमें अंतर्निहित बाधा किसी भी सौदे का राजनीतिक पहलू रही है. जैसा कि इन विशेषज्ञ ने कहा, ‘समसामयिक मुद्दों पर उभरे मतभेदों की वजह से विमान या प्रौद्योगिकी को भारत भेजे जाने से रोकने के निहितार्थ भी निर्णयकर्ताओं के दिमाग में छाए रहे हैं.’
इसके अलावा, सशस्त्र बलों में स्वदेशीकरण पर जोर दिए जाने के साथ ही घरेलू स्तर पर की गई खरीद पर काफी जोर दिया जा रहा है. भारतीय प्रतिष्ठान द्वारा 5वीं पीढ़ी के उन्नत मध्यम लड़ाकू विमान के स्वदेशी उत्पादन पर ध्यान केंद्रित किये जाने के साथ ही अमेरिकी लड़ाकू विमान खरीदने के लिए बहुत कम जगह बची लगती है.
इस संबंध में मुख्य अवसर भारतीय वायुसेना के बहु-भूमिका वाले लड़ाकू विमान (मल्टी-रोल फाइटर एयरक्राफ्ट) सौदे के माध्यम से प्रस्तुत होता है; मगर लगभग दो दशक पूर्व पहली बार घोषित किए जाने के बाद से ही यह प्रस्ताव अधर में लटका हुआ है.
सिंह ने कहा, ‘मैं भारत को सिर्फ उसी मामले में अमेरिका से कोई लड़ाकू विमान खरीदता देखता हूं, जब उसे एफ-35 जैसे किसी अत्याधुनिक लड़ाकू विमान की पेशकश की जाती है. इससे भारत की वायु शक्ति में आमूल-चूल परिवर्तन होगा और तब नई दिल्ली को ऐसे किसी प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता होगी.‘
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(अनुवाद: रामलाल खन्ना | संपादन: अलमिना )
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