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Saturday, 21 December, 2024
होमडिफेंसभारतीय सेना के इस अधिकारी ने 1971 में कैसे शेख हसीना और उनके परिवार को पाकिस्तानी सेना से मुक्त कराया था

भारतीय सेना के इस अधिकारी ने 1971 में कैसे शेख हसीना और उनके परिवार को पाकिस्तानी सेना से मुक्त कराया था

कर्नल अशोक तारा (सेवानिवृत्त), जो उस समय एक 29 वर्षीय मेजर थे- 1971 की जंग खत्म होने के बाद बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान के परिवार को पाकिस्तानी सेना से बचाने का जिम्मा सौंपा गया था.

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नई दिल्ली: 13 दिन चले बांग्लादेश मुक्ति संग्राम युद्ध खत्म होने के ठीक बाद की बात है, जब ढाका एयरपोर्ट के पास तैनात पाकिस्तानी सैनिकों की एक टुकड़ी को उस समय तक यह भनक भी नहीं लगी थी कि उनकी सेना ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है.

एक दर्जन के आसपास पाकिस्तानी सैनिकों ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के नेता शेख मुजीबुर रहमान के परिवार को उनके धानमंडी स्थित आवास पर ही बंधक बना रखा था. बंधक बनाए गए लोगों में रहमान की बेटी शेख हसीना, जो इस समय प्रधानमंत्री हैं और उनका बेटा भी शामिल थे.

कथित तौर पर सैनिकों के पास इस परिवार को खत्म कर देने का आदेश था. लेकिन उन आदेशों पर कभी अमल नहीं हो पाया.

परिवार को बचाने का जिम्मा भारतीय सेना के एक बहादुर युवा अधिकारी को सौंपा गया जो निहत्था ही पाकिस्तानी सैनिकों के सामने जा खड़ा हुआ और वहां के हालात को संभाला. सीधे अपनी तरफ बंदूक तनी होने के बावजूद वह वहीं डटा रहा. उसने पाकिस्तानी सैनिकों से कहा कि युद्ध समाप्त हो गया है और उनके साथ तर्क-वितर्क करता रहा.

यह तरीका कारगर रहा और परिवार को छोड़ दिया गया. इस बीच, पाकिस्तानी सैनिकों को सुरक्षित उनके देश लौटने देने के वादे के साथ छोड़ा गया.

50 साल बाद इस घटनाक्रम को याद करते हुए कर्नल अशोक तारा (सेवानिवृत्त), जो तब 29 साल के एक मेजर थे, ने कहा कि उन्हें पता था कि मनोवैज्ञानिक युद्ध दुश्मन को हराने में मददगार हो सकता है.

पाकिस्तानी सैनिकों के सामने डटे रहने के दौरान एक और चीज जो उनके काम आई, वह थी उनकी मां की सीख. उन्होंने कहा, ‘मेरी मां ने मुझे सिखाया था कि डर बस एक मानसिक स्थिति है.’

रहमान के परिवार को बचाने में तारा की भूमिका बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान की ख्यात घटनाओं में से एक है. बाद के दिनों में राष्ट्रपति के रूप में देश का नेतृत्व करने वाले रहमान ने उनके साथ एक व्यक्तिगत मुलाकात का आग्रह किया था, जबकि उनकी छोटी बेटी शेख रेहाना ने तारा को पत्र लिखा था.

2012 में उन्हें शेख हसीना की तरफ से ‘फ्रेंड ऑफ बांग्लादेश’ सम्मान से नवाजा गया. पांच साल बाद उन्होंने 1971 की जंग के शहीदों के सम्मान में आयोजित एक समारोह में शेख हसीना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा किया.

अब जबकि भारत बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की स्वर्ण जयंती मना रहा है, युद्ध के शुरुआती दिनों में गंगासागर की लड़ाई में अपनी भूमिका के लिए वीर चक्र से सम्मानित तारा ने दिप्रिंट से उस दिन की घटनाओं के बारे में जानकारी साझा की.


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परिवार को बचाया

वह 26 मार्च 1971 का दिन था जब रहमान की तरफ से आजादी के घोष के साथ ही बांग्लादेश को पाकिस्तान से मुक्त कराने की जंग की शुरुआत हुई. इसका अंत 16 दिसंबर 1971 को भारत और पाकिस्तान के बीच 13 दिन तक चली जंग के बाद हुआ.

जब जंग शुरू हुई तब तारा को सेना में शामिल हुए आठ वर्ष हो चुके थे, उन्हें 1963 में 14 गार्ड्स में कमीशन मिला था. उन्हें धानमंडी की घटना से पहले ही वीर चक्र से सम्मानित किया जा चुका था.

उन्होंने बताया कि जब उन्हें रहमान परिवार को बचाने का मिशन सौंपा गया तो वह दो जवानों के साथ उनके घर के पास पहुंचे. घर से लगभग 100 मीटर दूर मौजूद अच्छी-खासी भीड़ ने उन्हें अपनी तरफ से उठाए जा रहे खतरे को लेकर आगाह किया.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘मुझे बताया गया कि इससे आगे जाने वाले किसी भी व्यक्ति को पाकिस्तानी सेना की तरफ से मार दिया जाएगा. लेकिन कोई परवाह न करके वह आगे बढ़ गए.’

उन्होंने बताया, ‘मैंने अपने हथियार दोनों जवानों को सौंप दिए और उनसे कहा कि मेरे पीछे न आएं. मैंने निहत्थे ही इमारत की ओर बढ़ना शुरू किया.’

उन्होंने बताया कि घर के पास पहुंचने पर उन्हें पाकिस्तानी सैनिकों की तरफ से चेतावनी दी गई कि आगे ना बढ़ें नहीं तो गोली मार दी जाएगी. तारा के मुताबिक फिर उन्होंने ही उन्हें यह जानकारी दी कि पाकिस्तानी सेना एक दिन पहले ही आत्मसमर्पण कर चुकी है लेकिन उन लोगों को पहले तो इस बात पर भरोसा ही नहीं हुआ.

उन्होंने आगे बताया, ‘मैंने उनसे कहा कि अगर तुमने मुझ पर गोली चलाई तो तुम सब के सब मारे जाओगे. मैंने ये भी बताया कि आत्मसमर्पण कर चुकी पाकिस्तानी सेना उन्हें बचाने नहीं आ पाएगी और उन्हें यह सोचकर देखने को कहा कि उनके शवों और पाकिस्तान में इंतजार कर रहे उनके परिजनों का क्या होगा.

पाकिस्तानी सैनिक तारा से कहते रहे कि वे अपने अफसरों से मिलना चाहते हैं. तारा ने बताया कि लेकिन उन्होंने उनसे आत्मसमर्पण करने को कहा है और वादा किया है कि अगर वह ऐसा करेंगे तो वह उन्हें उनके परिवार के पास सुरक्षित लौटने देना सुनिश्चित करेंगे.

उन्होंने बताया कि यह सारी बातचीत लगभग 30 मिनट तक चलती रही. पूरे समय उन्हें एक राइफल के निशाने पर रखा गया था. एक समय पर तो पाकिस्तानी सैनिकों में से एक ने भारतीय सैन्य अधिकारी को डराने के लिए एक राउंड फायरिंग भी कर दी.

हालांकि, बातचीत आखिरकार रंग लाई. पाकिस्तानी सैनिकों को तर्क समझ आए और उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया.

इसके बाद जब उन्होंने घर का दरवाजा खोला, तो उनकी मुलाकात सबसे पहले रहमान की पत्नी शेख फाजिलतुन्नेस मुजीब से हुई थी.

तारा ने कहा, ‘उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया और कहा कि मैं एक देवदूत हूं और उनके बेटे के समान हूं. उन्होंने मुझसे इमारत में पाकिस्तानी झंडे को हटाकर बांग्लादेश का झंडा लगाने को कहा.’ उन्होंने आगे बताया, ‘जब यह सब हो गया तो उन्होंने ‘जॉय बांग्ला’ (बंगाल की विजय) का उद्घोष किया.’

पाकिस्तानी सैनिकों को तारा की कार तक लाया गया, जहां उन्होंने सामान्य नागरिकों वाले कपड़े पहने, ताकि मुक्ति बाहिनी, आजादी की लड़ाई की अगुवाई करने वाला आंदोलन, के सदस्य उन्हें पहचान न सकें और उन्हें सुरक्षित वहां से निकाला जा सके. ‘साथ ही मैं अपने इस वादे पर अमल सुनिश्चित कर सकूं कि वे सुरक्षित पाकिस्तान वापस लौट जाएं.’


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रहमान से मुलाकात

तारा करीब एक महीने तक बांग्लादेश में ही रुके रहे, जबकि उनकी यूनिट मिजोरम चली गई क्योंकि रहमान उनसे मिलना चाहते थे.

उन्होंने बताया, ‘जब मैं 12 जनवरी को उनसे मिला, तो मैंने उनकी बातों में एक दर्द महसूस किया. उन्होंने कहा कि बांग्लादेश के लोगों के घाव कैसे भरेंगे जो उन्हें पाकिस्तानी सेना के हाथों अत्याचारों के कारण मिले हैं और वे कैसे अपने गौरव, गरिमा, भाषा और अर्थव्यवस्था को फिर से हासिल कर पाएंगे.’

उस महीने के आखिरी में तारा ने ढाका छोड़ दिया, फिर उन्हे रेहाना की तरफ से दो पत्र मिले. उन्होंने बताया, ‘मैंने भी जवाब में खत लिखे लेकिन उन्हें मेरे पत्र कभी नहीं मिले. मैं नहीं जानता कि इसका कारण क्या था.’

उसके बाद कई सालों तक उनका इस परिवार से कोई संपर्क नहीं रहा. इस सबके बीच लगभग पूरे परिवार, जिसमें रहमान और उनकी पत्नी और हसीना के भाई शामिल थे, की 1975 में तख्तापलट के दौरान उनके ही घर में हत्या कर दी गई. हसीना और रेहाना बच गईं क्योंकि उस समय वो जर्मनी में थीं.

उसके कुछ साल बाद जब हसीना भारत आईं तो उन्होंने तारा से संपर्क करने की कोशिश की. उन्होंने बताया, ‘लेकिन मैं तब उनसे नहीं मिल पाया क्योंकि मैं बाहर था.’

हालांकि, उन्हें तब फिर मिलने का मौका मिला जब तारा को बांग्लादेश की तरफ से सम्मानित किया गया था.


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‘भाइयों जैसा रिश्ता’

तारा 1994 में सेना से सेवानिवृत्त हुए थे.

भारत-बांग्लादेश के रिश्तों पर बात करते हुए तारा ने कहा कि रहमान के समय ये काफी अच्छे थे. उनकी हत्या के बाद इस नए देश ने खासी राजनीतिक उथल-पुथल का सामना किया, साथ ही कहा कि हसीना के नेतृत्व में रिश्ते फिर से बेहतर हो गए हैं.

उन्होंने कहा, ‘भारत और बांग्लादेश भाइयों की तरह हैं. हमें एक-दूसरे के हितों की सुरक्षा करनी होगी. अगर जरूरत पड़े तो भारत को परस्पर विश्वास और संबंध (बांग्लादेश के साथ) बनाए रखने के लिए कुछ समझौते करने से भी पीछे नहीं हटना चाहिए.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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