नई दिल्ली: सीमित सड़कें, पेय जल की कमी, घायल होने की अधिक संभावना और ठंड से जुड़ी बीमारियां, मेडिकल सुविधाओं की कमी, हिमस्खलन और ये वास्तविकता कि काफी संख्या में सैनिक, ऐसे इलाक़ों में रहेंगे जहां 1962 के बाद से कोई नहीं रहा है. ये कुछ ऐसी भारी चुनौतियां हैं, जिन्हें वास्तविक नियंत्रण रेखा पर, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के साथ चल रहे गतिरोध के चलते, भारतीय सेना को पूर्वी लद्दाख़ में, पूरी सर्दियों में झेलना होगा.
लद्दाख़ के ऊपरी इलाक़ों में तापमान पहले ही गिरकर, माइनस 5 डिग्री सेल्सियस आ चुका है, और सेना ने अपने सैनिकों के लिए, टेंट्स, फाइबर ग्लास हट्स, और सर्दियों की विशेष पोशाकों की, भारी ख़रीद शुरू कर दी है. लेकिन इस ख़रीद में क़रीब एक महीना लग सकता है, जिससे सैनिकों में हाइपोथर्मिया, और ठंड से जुड़े दूसरे घावों का ख़तरा बढ़ सकता है.
दिप्रिंट पता लगाता है कि ऐसे हालात में, एक सिपाही का जीवन कैसा होता है, और अपने सैनिकों को तैयार करने के लिए सेना क्या कर रही है.
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बिल्कुल अलग चुनौती
लद्दाख़ स्थित सेना की 14 कोर के पूर्व कमांडर, ले. जन.राकेश शर्मा (रिटा) ने दिप्रिंट को बताया, कि भारतीय सैनिकों ने अब तक जो हालात देखे हैं, ये चुनौती उससे बहुत अलग रहेगी. शर्मा ने कहा, ‘पहले वो बेस पर तैनात रहते थे, और एलएसी पर गश्त लगाकर वापस आ जाते थे. लेकिन इस साल, बड़ी संख्या में सैनिक खोदी गई खाइयों में रहने जा रहे हैं, जिनके ऊपर कुछ शेल्टर बने होते हैं. ये ऐसी जगहों पर हैं, जहां 1962 के बाद कभी कोई नहीं रुका’.
उन्होंने कहा, ‘इसलिए इस बार ठिकानों, चौकियों और पिकेट्स पर, सैन्य सामान और रसद का बंदोबस्त, बिल्कुल अलग ढंग से होगा. जहां पहले कोई नहीं ठहरा, वहां लोगों को बनाए रखने के लिए, एक नया सिस्टम होगा. ज़ोजिला (दर्रे) में हिमस्खलन बहुत आते हैं, और वो बंद हो जाएगा, जैसे मनाली उपशी मार्ग हो जाएगा. इसलिए फॉरवर्ड इलाक़ों तक, सर्दियों के लिए भारी साज़ो-सामान पहुंचाने का काम, जल्दी से जल्दी निपटाना है’.
पूर्व कोर कमांडर ने इस समय एलएसी पर, इतनी अधिक संख्या में सैनिक तैनात करने की चुनौती पर भी बात की- जो एक अनुमान के मुताबिक़ लगभग 50,000 है.
रिटायर्ड अधिकारी ने कहा, ‘लॉजिस्टिक्स के लिहाज़ से, ये एक भारी चुनौती होगी. दौलत बेग ओल्डी में तीन से चार बटालियनें तैनात हो सकती हैं, जो पहले से कहीं अधिक है. गलवान और हॉट स्प्रिंग्स में भी, काफी संख्या में सैनिक तैनात हैं. दार्बुक-श्योक-डीबीओ मार्ग के अलावा, जो पिछले साल चालू हुआ, उन्हें सप्लाई भेजने और मज़बूती देने के लिए बहुत सीमित सड़कें हैं’.
उन्होंने कहा, ‘साथ ही, आप कारगिल, नियंत्रण रेखा, और सियाचिन ग्लेशियर से भी आंखें नहीं मोड़ सकते. सर्दियों में बने रहने के लिए, वहां भी साज़ो-सामान की ज़रूरत बनी रहेगी’.
शर्मा ने इन सैनिकों के लिए, पीने के ताज़ा पानी की कमी की भी बात की, चूंकि नदियां सूख जाती हैं, और उस इलाक़े में झीलों का पानी पीने लायक़ नहीं है.
उन्होंने कहा,‘इसलिए आने वाले महीनों में, सैनिकों के लिए पीने का पानी पहुंचाना, और राशन के अलावा, खाना बनाने और उन्हें गर्म रखने के लिए, फ्यूल पहुंचाने की भी चुनौतियां रहेंगी’.
चिकित्सा परिणाम
सेना के एक अधिकारी ने भी, जो सियाचिन में सेवा दे चुके हैं, दिप्रिंट को इतनी ऊंची जगहों पर बहुत कम तापमान, और कम ऑक्सीजन वाली शरीर को छेद देने वाली हवा की चुनौतियों के बारे में बताया, और कहा कि हर 3 किलोमीटर पर, विंड चिल फैक्टर तापमान को एक डिग्री सेल्सियस नीचे गिरा देता है.
ऑफिसर ने कहा, ‘ऐसी परिस्थितियों में कोई चौकी स्थापित करने में, बड़ी भारी लॉजिस्टिक प्लानिंग करनी पड़ती है, जिससे कि डेरे हवा में उखड़ न जाएं, या हट्स भारी बर्फबारी से बंद न हो जाएं’.
इन चुनौतियों का एक परिणाम ये होगा, कि चिकित्सा अधिकारियों पर काम का बोझ बढ़ जाएगा- आमतौर से हर यूनिट में एक डॉक्टर तैनात होता है, लेकिन ऐसे हालात में ये संख्या काफी बढ़ सकती है.
सेना के एक अधिकारी ने समझाया, कि एक अकेले रेजिमेंटल मेडिकल ऑफिसर के लिए, लगभग 900 सैनिकों की एक पूरी बटालियन को देखना असंभव हो जाता है, जो कई चौकियों में फैली होती है.
अधिकारी ने समझाया कि काम के इस बोझ को मेडिकल नर्सिंग असिस्टेंट्स, और बैटलफील्ड नर्सिंग असिस्टेंट्स (बीएफएनए) के तौर पर ट्रेनिंग दिए गए, आम सैनिक साझा कर लेते हैं.
1989 में सियाचिन में सेवा दे चुके, ब्रिगेडियर डॉ अरविंद कुमार त्यागी (रिटा) ने कहा, कि वहां पर सैनिकों को अकसर, अधिक ऊंचाई और ठंड से जुड़ी बीमारियां हो जाती हैं, जैसे फेफड़ों व मस्तिष्क का फूलना, हाइपोथर्मिया, बिवाई और फ्रॉस्टबाइट. प्रभावित सैनिकों को आमतौर से चॉपर्स के ज़रिए वहां से निकाला जाता है.
त्यागी ने कहा कि इस साल ज़्यादा सैनिक होने की वजह से, सर्दियों का सामान भी ज़्यादा मात्रा में चाहिए होगा, ताकि बीमारियां कम से कम हों.
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कैसे तैयारी कर रही है सेना
अनुमानों से पता चलता है कि सैनिकों के लिए, क़रीब 10,000-12,000 मिश्रित आवास चाहिए. एक रक्षा सूत्र ने कहा कि इनमें आर्कटिक टेंट्स होते हैं, जिनमें तीन या चार सैनिक रह सकते हैं, और दो तरह की फाइबर हट्स होती हैं- एक में चार से छह सैनिक, और दूसरी में आठ से दस सैनिक रह सकते हैं. साथ ही स्नान/टॉयलट क्यूबिकल्स और कुक हाउस होते हैं. इसके अलावा लगभग 20 लोगों की क्षमता वाले, पूर्व-निर्मित शेल्टर्स और स्टोर्स भी ख़रीदे जा रहे हैं.
सूत्र ने ये भी कहा, ‘ऊंचे स्थानों पर तैनाती की सीमित जगहें, और बहुत तेज़ हवाएं, बड़े स्ट्रक्चर्स बनाने की गुंजाइश नहीं छोड़तीं. इसलिए, ज़रूरी हो जाता है कि बड़ी संख्या में छोटे स्ट्रक्चर्स ख़रीदे जाएं, जिससे ख़र्च भी बढ़ जाता है, और ढुलाई में भी ज़्यादा मेहनत लगती है’.
सेना बड़े पैमाने पर विशेष पोशाकें भी ख़रीद रही है. सूत्रों ने बताया कि 11,000 फीट तक की ऊंचाई के लिए तो, सामान्य हाई ऑल्टीट्यूड क्लोदिंग उपलब्ध है, लेकिन उससे अधिक ऊंचाई के लिए विशेष पोशाकों की ज़रूरत होती है, जिन्हें ख़रीदने की प्रक्रिया चल रही है.
सूत्र ने कहा, ‘चूंकि संख्या बहुत अधिक है और समय सीमित है, इसलिए उन्हें कई स्रोतों से ख़रीदा जाएगा’. सूत्र ने आगे कहा कि नए अनुमानों से पता चलता है, कि पुरानी योजना के मुताबिक़, 15,000 सेट्स ख़रीदने से काम नहीं चलेगा.
एक दूसरे सूत्र ने कहा कि पहले पहनी गईं पोशाकों (पीडब्लू) के, 2,000 सेट्स इश्यू किए जा रहे हैं.
दूसरे सूत्र ने कहा, ‘आमतौर से ये सियाचिन में तैनात सैनिकों को दिए जाते हैं, जिसके बाद इन्हें दूसरे ऊंचे इलाक़ों में तैनात सैनिकों के लिए री-साइकिल कर दिया जाता है’.
दिप्रिंट ने जुलाई में ख़बर दी थी, कि 30,000 सैनिकों के लिए, सर्दियों का सामान जमा करने का काम, जिसमें 35,000 टन राशन और मिट्टी का तेल शामिल है, पहले ही शुरू हो चुका है.
ऊपर हवाला दिए गए अधिकारी ने कहा, ‘बाद में भेजे गए अतिरिक्त सैनिकों के लिए, अब इस सामान में इज़ाफा किया गया है’.
ये चीज़ें कहां से ख़रीदी जा रही हैं, इस बारे में एक तीसरे सूत्र ने कहा, ‘पिछले कुछ सालों में विशेष पोशाकें, टेंट्स और दूसरे उपकरण ऑस्ट्रिया, इटली, स्कैंडिनेवियाई देशों और ऑस्ट्रेलिया व श्रीलंका वग़ैरह से ख़रीदे गए हैं’.
इस सूत्र ने कहा कि आपातकालीन खरीद की प्रक्रिया चल रही है, और भारी संख्या में चीज़ें ‘कमर्शियली ऑफ द शेल्फ या कॉट्स’ तरीक़े से ख़रीदी जाएंगी.
कॉट्स का मतलब होता है सीमित उपलब्धता, या समय की कमी के चलते, व्यवसायिक दरों पर खुले बाज़ार से चीज़ें ख़रीदना.
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