scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमडिफेंसकठिन रास्ते, WW2 के हथियार, कमान से जुड़े मुद्दे- 1962 के चीन युद्ध के लिए भारत तैयार क्यों नहीं था

कठिन रास्ते, WW2 के हथियार, कमान से जुड़े मुद्दे- 1962 के चीन युद्ध के लिए भारत तैयार क्यों नहीं था

विशेषज्ञ भारतीय राजनीतिक नेतृत्व के इस गलत अनुमान, कि चीन नेहरू की 'फॉरवर्ड पॉलिसी' के बदले में कोई सशस्त्र प्रतिक्रिया शुरू नहीं करेगा, को भी भारत के इस युद्ध के लिए तैयार नहीं होने का एक कारक मानते हैं.

Text Size:

नई दिल्ली: साल 1962 में भारत को एक ऐसे युद्ध का सामना क्यों करना पड़ा जिसके लिए वह बिल्कुल भी तैयार नहीं था? पिछले 60 वर्षों के दौरान विशेषज्ञों, राजनीतिक टिप्पणीकारों और पूर्व सैन्य कर्मियों ने इस युद्ध के परिणाम के लिए कई सारे कारणों को जिम्मेदार ठहराया है.

इन कारकों में गलतियों से भरी सैन्य योजनाओं, कमान और नियंत्रण (कमांड एंड कण्ट्रोल) से जुड़े मुद्दों और खुफिया जानाकरी में कमी से लेकर भारतीय राजनीतिक नेतृत्व का यह गलत अनुमान तक शामिल हैं कि बीजिंग दिल्ली की ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’, जिसमें चीन द्वारा दावा किए गए क्षेत्रों में सैन्य चौकियों को स्थापित करना शामिल था, के बदले में कोई सशस्त्र प्रतिक्रिया नहीं करेगा.

अक्सर भारत के लिए ‘अपमानजनक हार’ के रूप में वर्णित किये जाने वाले साल 1962 के युद्ध में 10,000 से 20,000 भारतीय सैनिकों ने लगभग 80,000 चीनी सैनिकों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी.

राजनीतिक टिप्पणीकार और रणनीतिक विश्लेषक वासबीर हुसैन ने नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज (आईपीसीएस) के लिए लिखे गए साल 2014 के अपने एक आलेख में तर्क दिया है कि जिस तरह से चीनी सेना ने भारतीय इलाके में प्रवेश किया, अक्साई चीन पर कब्ज़ा जमाया और लगभग ‘असम के मैदानी इलाकों’ तक पहुंच गई थी, वह साल 1962 में भारत की सैन्य तैयारी में कमी को रेखांकित करती है.

उन्होंने लिखा है, ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) दो अलग-अलग हिस्सों में आगे बढ़ी – इसने पश्चिम में लद्दाख , और पूर्व में तत्कालीन नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (तत्कालीन नेफा और अब के अरुणाचल प्रदेश) में मैकमोहन लाइन के पार चढ़ाई की. चीन ने अक्साई चिन – तिब्बत को पश्चिमी चीन से जोड़ने वाला एक रणनीतिक गलियारा – और नेफा क्षेत्र पर सफलतापूर्वक कब्जा कर लिया था, और लगभग असम के मैदानी इलाकों तक पहुंच गया था.’

इसके अलावा, सैन्य विशेषज्ञों ने बताया है कि चीन के साथ कुछ लड़ाइयों, जैसे कि रेजांग ला की लड़ाई, के दौरान, भारतीय सैनिकों को तीन कारकों की वजह से भारी नुकसान हुआ था: पहाड़ की चोटी के ऊंचे शिखर भारतीय सैनिकों को तोपखाने के समर्थन से वंचित करते थे, वे कठोर सर्दी वाली परिस्थितियों के लिए अभ्यस्त नहीं थे, और उनके पास द्वितीय विश्व युद्ध के ज़माने की .303 बोल्ट-एक्शन राइफल्स जैसे निम्न श्रेणी के सैन्य उपकरण थे.

भारत ने इस लड़ाई से कई सारे सबक सीखे, और यहां तक कि भारतीय वायु सेना (आईएएफ) की तैनाती न करने जैसी रणनीतिक गलतियों को भी स्वीकार किया है.


यह भी पढ़ेंः ‘विस्तारवादी’ नेहरू, तिब्बती स्वायत्तता, ‘नया चीन’ – माओ ने 1962 में भारत के साथ युद्ध क्यों किया


कमान और नियंत्रण से जुड़े मुद्दे

भारतीय सेना के इस युद्ध हेतु बिल्कुल तैयार न होने की व्याख्या करने के लिए, विद्वान लेखक श्रीनाथ राघवन ने अपनी पुस्तक ‘वॉर एंड पीस इन मॉडर्न इंडिया’ में, इस संघर्ष से एक दशक पहले के भारतीय सेना के संक्रमण काल पर एक संक्षिप्त नजर डाली है.

राघवन का तर्क है, ‘इसके पुनरावलोकन से यह बात स्पष्ट है कि यह संक्रमण समस्याओं के रहित नहीं था. इसलिए नहीं कि भारतीय अधिकारी किसी भी तरह से उनके ब्रिटिश समकक्षों की तुलना में कम सक्षम थे, बल्कि इसलिए कि उनमें से कई के पास उच्च स्तर के कमान – विशेष रूप से रणनीतिक स्तर पर – के लिए जरुरी तैयारी पर्याप्त से कम थी.’

शेषाद्री चारी जैसे विशेषज्ञों ने कई अन्य संरचनात्मक मुद्दों के बारे में लिखा है और इसमें रक्षा मंत्रालय के तहत साल 1957 में रक्षा उत्पादन योजना समिति (डिफेन्स प्रोडक्शन प्लानिंग कमिटी) और साल 1958 में अनुसंधान और विकास विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ़ रिसर्च एंड डेवलपमेंट) की स्थापना भी शामिल है, जो चारी के अनुसार ‘पूरी तरह से लापरवाह और गैर- क्रियाशील थे’.

उनका तर्क है कि इस तरह के निकायों ने सशस्त्र बलों को बुनियादी सैन्य साजो-सामान और गोला-बारूद से वंचित कर दिया था.

चारी आगे कहते हैं कि युद्ध शुरू होने से तीन साल पहले, भारतीय सेना के नई दिल्ली में राजनीतिक नेतृत्व के साथ अनसुलझे मुद्दे थे, जिसे वे ‘राजनीतिक-सैन्य समन्वय की अनुपस्थिति’ के रूप में वर्णित करते हैं.

तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल के.एस. थिमैया का ‘इस्तीफ़ा’ इसका एक प्रमुख उदाहरण था. सितंबर 1959 में, थिमैया ने रक्षा मंत्री वी.के. कृष्णा मेनन के साथ मनमुटाव के बाद प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया था, लेकिन बाद में उन्होंने इसे वापस ले लिया था.

भारत में तत्कालीन ब्रिटिश उच्चायुक्त और थिमैया के पड़ोसी रहे मैल्कम मैकडोनाल्ड ने थिमैया के साथ उनकी ‘लंबी बातचीत’ के आधार पर ब्रिटिश सरकार को इस घटना पर एक रिपोर्ट सौंपी थी.

मैकडोनाल्ड ने कथित तौर पर कहा था कि कैसे थिमैया ने उन्हें बताया था कि मेनन ‘शायद जानबूझकर खुद को सशस्त्र बलों का ‘आका’ बनाने की कोशिश कर रहे थे ताकि नेहरू के सार्वजनिक जीवन से संन्यास लेने, या उससे पहले भी, नेहरू की जगह लेने की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति में एक दिन उनका (सशस्त्र बलों का) समर्थन मिल सके.

थिमैया वाले कांड को हटा भी दें तो विशेषज्ञों ने इस युद्ध से पहले के कुछ महीनों में चीनी अधिकारियों के साथ बातचीत करते समय मेनन के रवैये के बारे में काफी कुछ लिखा है.

उदाहरण के तौर पर, अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ जॉन डब्ल्यू. गार्वर ने लिखा है कि कैसे 23 जुलाई 1962 को जिनेवा में हो रहे एक सम्मेलन के दौरान, चीनी विदेश मंत्री और पीएलए मार्शल चेन यी को मेनन की तलाश करने, और उनसे सीमा पर की स्थिति को और बिगड़ने से रोकने के तरीके खोजने का आग्रह करने के लिए कहा गया था.

इस बातचीत के चीनी विवरणों का दावा है कि मेनन ‘अहंकारी’ थे और उन्होंने सीमा संघर्ष के मुद्दे पर भविष्य होने वाली किसी भी वार्ता के लिए संयुक्त भारत-चीन विज्ञप्ति की घोषणा करने की संभावना को ठुकरा दिया था.

गार्वर लिखते हैं, इसी बातचीत के बाद चीनी प्रधानमंत्री झोउ एनलाई ने यह निष्कर्ष निकाला था कि मेनन ने ‘शांतिपूर्ण वार्ता के बारे में कोई ईमानदारी नहीं दिखाई’ और नेहरू चीनियों के साथ ‘युद्ध’ चाहते थे.

नेहरू की ‘फॉरवर्ड पालिसी’ के साथ जुडी समस्याएं

विशेषज्ञों का यह भी तर्क है कि नेहरू की ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ ने युद्ध के लिए भारत की तैयारी में कमी को और बढ़ा दिया था.

इस नीति, जो नवंबर 1961 से अक्टूबर 1962 तक प्रभावी थी और जिसमें विवादित क्षेत्रों पर सीमांत गश्त लगाना शामिल था, के बारे में माना जाता है कि यह नेहरू के इस दृढ़ विश्वास से प्रेरित थी कि चीनी सशस्त्र प्रतिशोध के साथ इसका जवाब नहीं देंगे. गार्वर नेहरु के इस दावे को एक ‘बेहद खराब‘ गलत अनुमान बताते हैं.

इस नीति को इस अनुमान के बावजूद लागू किया गया था कि जहां तक सैन्य क्षमता, सैनिकों के इस इलाके के अनुकूल होने और अन्य बुनियादी ढांचे की बात आती है, चीन की तुलना में भारत एक नुकसान वाली स्थिति में था.

पाकिस्तानी के पूर्व मेजर (सेवानिवृत्त) कासिम हमीदी के अनुसार, पीएलए के अधिकारी, स्क्वाड से लेकर डिवीजन स्तर तक, तिब्बत के भूभाग से अभ्यस्त हो गए थे. यूएस आर्मी कमांड एंड जनरल स्टाफ कॉलेज (सीजीएससी) को प्रस्तुत किए गए साल 2013 के एक शोध पत्र में उन्होंने लिखा है, ‘पीएलए 18वीं कोर के तीन डिवीजन 1950 के दशक की शुरुआत में ही तिब्बत में चले गए थे.’

इसके अलावा, 1963 की गोपनीय हेंडरसन ब्रूक्स-भगत रिपोर्ट – जिसके कुछ हिस्से साल 2021 में ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार नेविल मैक्सवेल द्वारा जारी किए गए थे – कहती है कि भारतीय सैनिकों के पास अपने चीनी समकक्षों की तुलना में युद्ध के मैदान में पैंतरेबाजी के लिए बहुत कम जगह थी.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘अगर हमारी सड़कें पूरी तरह से विकसित हो भी जाएं तब भी उनमें बड़े स्तर के सैन्य संचालन को बनाए रखने की क्षमता नहीं होगी … काराकोरम पर्वतमाला में स्थित दौलत बेग ओल्डी और हॉट स्प्रिंग सेक्टर तक हमारी पहुंच हमेशा मुश्किल होगी.‘

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढे़ं: ‘बड़ी गलती’ या नहीं’? क्यों भारत ने 1962 में चीन के साथ जंग में वायु सेना को तैनात न करने का फैसला किया


 

share & View comments