बिग बी अमिताभ बच्चन की वो बात याद कीजिए- ‘गरीब या आम आदमी सिनेमा हाल में अपना सच देखने नहीं, मनोरंजन करने जाता है.’ लेकिन यह फिल्म परेशान ज़िंदगियों की बोरियत नहीं, उनकी खुशियों के साथ सच को सामने लाती है. स्लम (झुग्गी) की परेशान ज़िंदगी को सपना देती है. चमकती, भागती रंगों भरी दुनिया से छूटी, बची, कोने की बेरंग दुनिया में रंग भरती है. डर, गम, गुस्सा, खीझ, दर्द, पीड़ा, आंसू, मुश्किलों को हंसते-हंसाते, रोमांस और ड्रामे के साथ नंगा सच कहने की कहानी है गली बॉय. यह स्लम डॉग मिलियनेयर के आगे की कहानी भी है.
एक लड़का झुग्गी की परेशान ज़िंदगियों के बीच रैप स्टार बनने का सपना देखता है. यहां इश्क़ भी उसका पूरा साथ निभा रहा है. डॉक्टर की एक बेटी का इश्क झुग्गी वाले लड़के के साथ. यहां इश्क- गम, गुस्से, आंसू के स्थायी भाव के साथ भावनात्मक ताकत बना हुआ है. जो कि सपना पूरा होने तक मौजूद है. यहां इश्क राह का रोड़ा नहीं, एक सपने के हासिल की सबसे ज़रूरी ताकत है. इस इश्क में कल्कि केकलिन के रूप में एक फिसलन भी है, लेकिन सैफीना का प्यार इतना मज़बूत है कि ये फिसलन उसे गिरा नहीं पाती.
ज़ोया अख्तर ने फिल्म ‘ज़िदगी न मिलेगी दोबारा’, ‘दिल धड़कने दो’ और अब ‘गली बॉय’ जैसी फिल्म बनाकर यह साबित कर दिया है कि वह बिलकुल आज के समय की, युवाओं की डायरेक्टर हैं. युवा नब्ज़ को पकड़ती हैं, घिसी-पिटी नहीं बिलकुल नई और मौलिक जवां कहानियों के साथ. बॉलीवुड इंडस्ट्री हो या और कोई जो भी इस नब्ज़ को समझा है युग निर्माता साबित हुआ. इसमें अब कोई संदेह नहीं कि ज़ोया अपनी कला के ज़रिये युग निर्माण में हैं. ऐसे डायरेक्टर किसी समाज के फिल्म के ज़रिये ट्रेंड सेटर होते हैं. ज़ोया वर्तमान समय की ट्रेंड सेटर हैं, फॉलोअर नहीं.
ज़्यादातर डायरेक्टर फिल्म के कुछ प्रमुख किरदारों पर फोकस करते हैं. जिससे बाकि किरदार बेदम हो जाते हैं और ज़ाहिर है कि फिल्म भी. प्रमुख किरदार उभारे तो जा सकते हैं, लेकिन छोटे किरदारों के बिना नहीं. यक़ीनन फिल्म की कहानी भी दमदार नहीं हो पाती, अगर छोटे किरदार पर फोकस न किया जाए. क्योंकि बेहतरीन, बंधी, कसी हुई कहानी कोई एक किरदार से कभी नहीं बनती, वरना फिल्म डाक्युमेंट्री बनकर रह जाती है. ज़ोया छोटे से छोटे समान्य से किरदार को जिस तरह पर्दे पर लाती हैं उसे देख कर लगता है कि हर किरदार पर वह काफी रिसर्च और डिटेलिंग करती हैं.
एक फिल्म में जो कुछ हो रहा है उसे नहीं, क्यों हो रहा है, क्यों कराया जा रहा है, उसके पीछे की नज़र को भी जब आप देख पाते हैं तो सच में आप उस फिल्म को सबसे अच्छा देख पाते हैं. मतलब आप पर्दे के साथ पर्दे के पीछे भी देखते हैं उस दिमाग को जो कहानी पेश कर रहा होता है. मतलब की यहां पर ज़ोया अख्तर.
‘गली बॉय’ की कहानी यह भी कहती है कि कला जब कुलीन महलों से उतरकर लोकतांत्रिक बनती है तो वह रैप, डिस्को, हिप हॉप कुछ भी बन सकती है. यानी की बहुत ही लोकतांत्रिक और कई तरह से बनकर ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के बीच.
मुराद अहमद (रणवीर सिंह ) का रैप स्टार बनना स्लम की अंधेरे आसमां में एक सितारा होने की क्रांति से कम नहीं. यह सब वह अपने पिता की उस सोच के बरक्स कि (नौकर का लड़का नौकर ही बनता है) करता है.
यह ज़िक्र भी काबिले गौर है कि फिल्म में धारावी की झुग्गियों पर रिसर्च करने एक विदेशी टीम आती है. इस सीन को ज़ोया ने पूरे तंज़ के साथ फिल्माया है कि कैसे विदेशियों के लिए हिन्दुस्तान जैसे मुल्क की गरीबी महज पर्यटन और मनोरंजन का ज़रिया बन जाती है.
ज़ोया ने इस फिल्म के ज़रिये दिखा दिया है कि बालीवुड की चमकती दुनिया में रहते हुए ज़मीन से जुड़ी हुई हैं. उन किरदार और कहानियों के बारे में सोचती हैं जिनसे तमाम बड़े डायरेक्टर्स जी चुराते हैं. उन्हें लगता है ये कहानियां बिकती नहीं.
फिल्म शुरुआत में थोड़ी धीमी है, लेकिन बोर नहीं करती. अब जबकि कम टाइम की फिल्मों का दौर है, 2 घंटे 30 मिनट की यह फिल्म लंबी लगती है, लेकिन फिल्म के टर्न और ट्विवस्ट, हैपनिंग फिल्म को सुस्त नहीं होने देतीं. हॉल में सेकेंड हॉफ में तालियां इसका जवाब होती हैं. रीमा की सिनेमेट्रोग्राफी जिसमें भागते शहर के बीच झुग्गियों की बसावट का दृश्य बहुत ही उम्दा फिल्माया गया है.
‘अपना टाइम आयेगा’ गाने के साथ फिल्म का अंत झुग्गी की अंधेरी दुनिया को एक रैप स्टार से गुलज़ार कर देता है. यक़ीनन इस फिल्म को देखकर आप अपने सपने से ज़्यादा प्यार कर सकेंगे.