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Friday, 19 April, 2024
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संस्मरण: ‘लिखना है मुझे अभी कुछ’: ये थी कृष्णा सोबती की आखिरी चाह

अनामिका जी के हाथों में हैं उनके नरम, मुलायम हाथ. एक-एक कर जैसे स्मृतियां उनकी आंखों के आगे अपने बहुरंगी रंगों में तैरने लगतीं हैं.

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वह मेरे लिए जीते जी ही एक किवदंती, एक लीविंग लेजेंड, एक कथा, एक रहस्य थीं. सालों दिल्ली में गुजार देने के बाद भी कभी हिम्मत नहीं जुटा पायी कि जाकर मिल लूं, कुछ अपनी बता दूं, दो शब्द उनके बांध लाऊं. जब ठीक दस दिनों पहले 15 जनवरी को अनामिका जी का फोन आया कि मिलना चाहोगी उनसे, बहुत बीमार हैं तो मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ख़ुश होऊं या रो दूं. उनसे मिलने का सौभाग्य भी बना तो कब! उनके अस्पताल के बिस्तर पर! हम चाहते थे कि अलाव, वीमेंस कलेक्टिव के लिए कृष्णा जी का एक छोटा वीडियो बना लें जिसे बाद में डॉक्यूमेंट्री की शक़्ल में ढाल कर ऑनलाइन आर्काइव में सहेजा जा सके.

नियत समय पर मैं धड़कता दिल लिए सफ़दरजंग एन्क्लेव के आश्लोक फ़ोर्टिस अस्पताल के कमरा नम्बर 24 के बाहर खड़ी थी, दस्तक देने की ज़रूरत नहीं पड़ी, दरवाज़ा खुला हुआ ही था. अंदर लेटी थीं ‘वो लड़की’, दुधिया गोल चेहरे पर निश्चिन्तता की मुस्कान लिए. आंखें बंद थीं लेकिन होंठ कुछ कांप से रहे थे जैसे कोई नयी कहानी बुदबुदा रहें हों. उनकी केयरटेकर विमलेश ने पहले मुझसे मेरा परिचय पूछा और फिर उन्हें बताया कि ये रश्मि भारद्वाज हैं, आपसे मिलने आयीं हैं और अभी अनामिका जी आने ही वालीं हैं.


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मैंने हाथ के इशारे से उन्हें जगाने से मना किया और बिस्तर के सामने वाले सोफे पर बैठ उन्हें निहारने लगी. यह आधी सोयी, आधी जगी सी कृशकाय, अबोध सी दिखती स्त्री ही वह मित्रों मरजानी है, जिसकी कलम में आज़ भी वह आग है जो अपनी लपटों से लाखों दिलों को रोशन कर जाती है! आज़ इस बिस्तर पर लेटी वह क्या सोचतीं होंगीं, क्या उन्हें याद होगी वह मित्रो! आंखें बंद किए ही वह बुदबुदाती हैं- विमलेश मुंह पोंछ दे और अनायास ही भर आतीं हैं मेरी आंखें, समय का यह क्रूर बहाव देखकर जो अपने साथ सब बहा ले जाने को आतुर है. मैं धीरे से उठती हूं और चादर के ऊपर से ही छू लेती हूं उनके पांव.

तभी दरवाजा खुला और अंग्रेज़ी और तमिल की वरिष्ठ कवि डॉ. लक्ष्मी कानन अंदर आयीं. उनके एक हाथ में कृष्णा सोबती की नयी किताब ‘चन्ना’ थी और दूसरे हाथ में चन्ना के नाम की चॉकलेट ट्रफ़ल केक और पोंगल का प्रसाद.
‘चन्ना की बहुत बधाई कृष्णा जी, आख़िरकार इतने सालों बाद आज़ यह हमारे हाथों में है,’ डॉ. लक्ष्मी की आवाज़ भीगी हुई थी. विमलेश उन्हें हौले से जगाती है और डॉ. लक्ष्मी को पहचानकर उनके चेहरे पर एक बाल सुलभ मुस्कान फ़ैल जाती है और एक संतोष का भाव भी. मैं कहती हूं- ‘आप मुझे नहीं जानती, मैं नयी हूं, कुछ लिखती पढ़ती हूं.’ वह कहतीं हैं, ‘हम सब गुजरें हैं इस समय से, नए थे कभी हम भी,’ फिर कहतीं हैं- ‘शुक्रिया, तुम सब आयीं.’

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अनामिका जी उनके लिए बिन उंगलियों वाले दस्ताने लेकर आयीं थीं. ठंड की वज़ह से उन्होंने अपने हाथ कम्बल के अंदर रखे हुए थे. विमलेश बड़े प्यार से उन्हें वह दस्ताने पहनातीं हैं, शिशु की तरह संभाल- संभाल कर एक एक उंगलियां बाहर निकालतीं हैं. कितनी मीठी, मोहक सी मुस्कान आ गयी है उनके चेहरे पर, मैं अपलक ताकती हूं.

‘अहा! अनामिका, तुमने मुझे कितना आराम दे दिया,’ कहीं दूर से आती लगती है यह आवाज़ स्नेह और दुआओं भरी लेकिन अब वह एकदम सचेत हैं. बातें करना और सुनना चाहतीं हैं. अनामिका जी से उनकी सूफ़ियों पर लिखी जा रही किताब के बारे में पूछतीं हैं. कुछ भी कहां भूलीं हैं वह! सिवा अशक्त शरीर के कुछ भी तो नहीं बदला. ना उनकी अदम्य जिजीविषा, ना चेहरे का वह तेज़ जिसके बारे में सुनती रही थी.

लक्ष्मी जी का लाया प्रसाद और अनामिका जी का लाया दूध में बना नरम ठेकुआ और नमकीन, वह किसी शिशु की तरह कौर-कौर खातीं हैं और फिर हम सब मिलकर उनसे कटवातें हैं लक्ष्मी जी का लाया चॉकलेट ट्रफल केक, चन्ना के नाम. वह स्वाद लेकर चॉकलेट केक खातीं हैं जबकि वह लिक्विड ही अधिक लें रहीं थी इन दिनों .

अनामिका जी के हाथों में हैं उनके नरम, मुलायम हाथ. एक-एक कर जैसे स्मृतियां उनकी आंखों के आगे अपने बहुरंगी रंगों में तैरने लगतीं हैं. वह कहतीं हैं कि बहुत कुछ भूल जातीं हूं अक्सर पर फिर याद करती हूं सब कुछ हौले-हौले. बचपन में मां की बनायी चोटी से लेकर बचपन में चिड़ियाघर का शेर जी को नमस्ते करने का वाक़या, सब कुछ. ज़िन्दा हो अस्पताल के कमरे में आ जाते हैं शानी, ऐ लड़की. अनामिका जी उनसे उनके किरदारों के बारे में बातें करती रहीं और सभी वहां मौज़ूद होते गए.

अब भी बहुत कुछ है जो लिखना शेष रह गया है. अंतिम इच्छा की तरह आती है उनकी यह चाह कि ‘लिखना है मुझे अभी कुछ. उन अलग-अलग तरह के न्यायाधीशों के बारे में जिन्हें जिंदगीनामा का मुकदमा लड़ते हुए मैं देखती-परखती रहती थी. उनके विचित्र स्वभाव, उनकी हरकतें.’ कलम अभी भी धड़कना चाहती है कागज़ों पर.

उनकी भतीजी इतिहासविद बीबा सोबती के पास तो जैसे उनसे जुड़ी यादों का पूरा बक्सा भरा है, उसे खोल कर वह हमें हौले से उसकी एक झलक दिखाती हैं. अपने जीवन, अभिरुचियों और अध्ययन को तराशने का श्रेय वह अपनी बुआ की स्नेहिल परवरिश को देती हैं. उन्होंने बताया कि कृष्णा जी को तसवीरें खींचने का भी बहुत शौक था और उनकी हर तस्वीर में भी एक कथा छुपी होती थी. उन्होंने एक बार नन्ही बीबा को चार्ल्स डिकेन्स की किताब ग्रेट एक्सपेक्टेशन उपहार में दी थी जिसका शीर्षक भी अपने आप में बहुत बड़ा संदेश समेटे था. किताब के ऊपर उन्होंने कुछ नहीं लिखा पर पीछे फ़्लैप पर सिर्फ एक पंक्ति लिखी थी – ‘यू नो व्हाट आई नो’ (तुम जानती हो, जो मैं जानती हूं). इसी एक पंक्ति को मन में बसाए कृष्णा जी से वह पहली मुलाकात सहेजकर मैं वापस लौटती हूं, नहीं जानती थी कि यह आख़िरी भी होगी.

(लेखिका अलाव: एक साझा सपना/वीमेंस कलेक्टिव की संपादक है. यह आलेख भी अलाव: एक साझा सपना पत्रिका से साभार)

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